संदर्भ
रसीदी टिकट - अमृता प्रीतम
विभिन्न पत्रों में छपे लेख व साक्षात्कार
लेखक परिचय
एक सुहृदय पाठक हैं जिन्हें पसंद हैं हिंदी की सरलता, उर्दू की नज़ाकत, नृत्य की थिरकन, सैर का आवारापन।
'हिंदी से प्यार है' समूह की इस "साहित्यकार तिथिवार" परियोजना के अंतर्गत हम प्रतिदिन आपको हिंदी साहित्य जगत के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर से मिलवाते हैं। इन प्रख्यात साहित्यकारों के जन्मदिन/पुण्यतिथि के अनुसार एक कैलेंडरनुमा प्रारूप में बँधी यह आत्मीय शब्दांजलि आप सभी का स्नेह पाकर अभिभूत है। हमारा प्रमुख आकर्षण तिथियों से परे रचनाकार हैं, जिनकी उपस्थिति से यह पटल पावन और शाश्वत हो गया है। विगत नवंबर माह से यह सफ़र सफलता के नए कीर्तिमान गढ़ता हुआ इस माह के साहित्यकारों की अनमोल धरोहर लेकर उपस्थित है।
अमृता प्रीतम : जीवन परिचय | |||
जन्म | ३१ अगस्त १९१९, गुजरांवाला (पंजाब, अविभाजित भारत) | ||
निधन | ३१ अक्टूबर, २००५ | ||
माता | राज कौर | ||
पिता | करतार सिंह | ||
पति | प्रीतम सिंह | ||
संतान | कांधला (पुत्री), नवराज क्वात्रा (पुत्र) | ||
साहित्यिक रचनाएँ | |||
उपन्यास |
| ||
काव्य |
| ||
आत्मकथा |
| ||
सम्मान व पुरस्कार | |||
|
रसीदी टिकट - अमृता प्रीतम
विभिन्न पत्रों में छपे लेख व साक्षात्कार
एक सुहृदय पाठक हैं जिन्हें पसंद हैं हिंदी की सरलता, उर्दू की नज़ाकत, नृत्य की थिरकन, सैर का आवारापन।
मानवीय स्वभाव और संवेदनाओं का कारुणिक वर्णन करने में सिद्धहस्त भगवती चरण वर्मा आधुनिक हिंदी-साहित्य में मील के पत्थर हैं, जहाँ से हिंदी कथा-साहित्य की विकास की अनेक धाराएं फूटती हैं। मनुष्य का बौद्धिक एवं सामाजिक विकास उसके परिवार, शिक्षा-दीक्षा, आर्थिक और सामाजिक परिस्थिति पर निर्भर करता है; इस दृष्टि से भगवती चरण वर्मा के व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व में अनेक निर्माणकारी तत्त्व रहे हैं।
कल सहसा यह संदेश मिला
सूने-से युग के बाद मुझे
कुछ रोकर कुछ क्रोधित होकर
तुम कर लेती हो याद मुझे
गिरने की गति में मिलकर
गतिमय होकर गतिहीन हुआ
एकाकीपन से आया था
अब सूनेपन में लीन हुआ।
यह ममता का वरदान सुमुखी है
अब केवल अपवाद मुझे
मैं तो अपने को भूल रहा
तुम कर लेती हो याद मुझे
पुलकित सपनों का क्रय करने
मैं आया अपने
प्राणों से
लेकर अपनी
कोमलताओं को
प्रारंभिक रूप से छायावादी कवि होने के चलते भगवती बाबू इस काव्य-स्नेह को जीवन पर्यन्त स्वयं से विलग नहीं कर पाए। काव्य से उनका आंतरिक प्रेम कुछ इस तरह उमड़ता दिखता है-
उनके अनेक आत्मस्वीकृतियों के शब्दों में यह स्पष्ट रूप से सिद्ध होता है कि उपन्यासकार होने को लेकर आग्रही रहने वाले भगवती चरण वर्मा की आंतरिक सुगंध एक कवि की रही। उनकी कविताओं की संख्यात्मकता भले ही इस कथन की पुष्टि न करे, लेकिन आत्म-साक्ष्य की बात करें तो यह सही लगता है।
अपने समय-बोध से प्रेरणा ग्रहण करने वाले इस फक्कड रचनाकार की प्रारंभिक रचनाएं स्वाभाविक रूप से देश-प्रेम की भावनाओं से ओत-प्रोत रही। छायावाद के प्रारंभिक स्पर्श के पश्चात उसकी रहस्यवादी और आध्यात्मिक प्रकार की प्रवृत्तियों से आपके व्यक्तित्त्व का मेल बैठ पाना संभव नही था। यह सही है कि उन्हें महादेवी वर्मा और रामकुमार वर्मा के साथ लघुत्रयी के रूप में जोड़ा गया, लेकिन अपनी कविताओं से वे अपना अलग मुकाम बनाने में सफल रहे।
उस ओर क्षितिज के कुछ आगे कुछ पांच कोस की दूरी पर
भू की छाती पर फोड़ों से हैं उठे हुए कुछ कच्चे घर
पशु बनकर पिस रहे जहाँ, नारियां जन रहीं हैं ग़ुलाम
पैदा होना फिर मर जाना, बस यह लोगों का एक काम
धन की दानवता से पीड़ित कुछ फटा हुआ कुछ कर्कश स्वर
चरमर चरमर चूं चरर मरर जा रही चली भैंसागाड़ी ...
उपरोक्त पंक्तियां उनकी सोच और रचनाधर्मिता के उद्देश्य और विचारधारा को रेखांकित करती हैं, जिसके अनुसार वे भौतिक-जीवन के सजीव व सामाजिक चित्रण करने में कुशल रहे। वे कविता में गति और लय को हमेशा प्राधान्य देते रहे। यदि हम गीत में गेयता की बात करें, शब्दों के सही वजन और उनके सस्वर पाठ में कविता के शब्दों के साथ यदि स्वर, लय के साथ मिलता हो तो इसकी रंजकता में, सार्थकता में वृद्धि होती है। भगवती बाबू की अनेक रचनाएं इस कसौटी पर खरी उतरती हैं।
अथवा
उल्लास और उच्छ्वास तुम्हारे ही अवयवतुमने मरीचिका और तृषा का सृजन कियाअभिशाप बनाकर तुमने मेरी सत्ता कोमुझको पग-पग पर मिटने का वरदान दिया…
अपने सारे अनुभवों का सार अपनी पंक्तियों में आपने रच दिया है तथा जीवन को परिभाषित करते हुए लिखते हैं-
"मनुष्य में ममत्त्व प्रधान होता है। प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है। व्यक्तियों के सुख के केंद्र भिन्न होते हैं, कुछ सुख को धन में देखते हैं, कुछ त्याग में देखते हैं, पर सुख प्रत्येक व्यक्ति चाहता है। कोई भी व्यक्ति संसार में अपनी इच्छा अनुसार वह काम न करेगा जिसमें दु:ख मिले, यही मनुष्य की प्रवृत्ति हैं और उसके दृष्टिकोण की विषमता है। संसार में इसीलिए पाप की परिभाषा नहीं हो सकी और न हो सकती है। हम न पाप करते हैं न पुण्य करते हैं, हम केवल वह करते हैं जो हमें करना पड़ता है।" आपका उपन्यास ‘टेढ़े मेढ़े रास्ते’ एक रोचक धार्मिक और लोककथा पर आधारित उपन्यास है, जिसमें हिंदू लोक-जीवन के महत्त्व को बताया गया है। आप के उपन्यासों में लोकगीत और लोक परंपरा के दर्शन होते हैं। यह परंपराएं मानव मन की अनुभूतियों की सरस रागात्मक अभिव्यंजना की लयात्मकता लिए होती हैं। "खेल री जी भर फाग आंगन तोरे आए हैं साजन" तथा "फागुन के दिन चार बावले कर ले जी भर मौज" जैसी पंक्तियां पात्रों की भावनाओं को अभिव्यक्त करती हैं।
कथ्य की दृष्टि से आपने १९वीं सदी के दशकों १८८० से लेकर भारत पर चीन आक्रमण १९६२ तक के काल को व्यापक और विविधता पूर्ण दृष्टि देकर रचनाधर्मिता की है। आपने समाज को तत्कालीन यथार्थ स्थिति से अवगत कराते हुए सामाजिक ऊंच-नीच, भलाई-बुराई सुख-दु:ख का चित्रण करते हुए, मानव मन की अतल गहराइयों की थाह लेकर सामाजिक समस्याओं का चित्रण किया है। आप उपन्यास साहित्य में लोक-संस्कृति की विविध विधाएं स्वाभाविक रूप से लेकर आए हैं। इन विधाओं में कथा, गीत, भाषिक अभिव्यक्ति, दीर्घ-संवाद, लघुवार्त्ता आदि समाविष्ट हैं। भगवती बाबू की भाषा-शैली सरल, सहज और प्रवाहमय है। आपकी रचनाओं में उपस्थित शिष्ट हास्य और परिमार्जित व्यंग्य पाठकों को प्रभावित करते हैं। आपकी भाषा सरल, सहज और तत्सम तथा तद्भव शब्दों से युक्त है। आपकी रचनाओं के ग्रामीण पात्र लोक-बोली में अपने भावों को प्रकट करते हैं, तो शिक्षित हिंदू पात्रों की भाषा में संस्कृत के तत्सम-तद्भव शब्द का बाहुल्य मिलता है। मुस्लिम पात्र उर्दू-फारसी समन्वित भाषा बोलते हैं, कचहरी की भाषा एक अलग ही ढंग की प्रयुक्त हुई है। इस प्रकार आपकी रचनाओं में भाषाओं का इंद्रधनुष सतरंगी भाषिक अभिव्यक्ति दर्शाता है। आपके उपन्यासों में मुहावरों का भी रोचक प्रयोग अत्यंत कौशल से किया गया है। दांतो तले उंगली दबाना, सिर आंखों पर, घाट-घाट का पानी पीना, उंगली पर नचाना, आग में घी डालना, आपे से बाहर होना, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना, बगले झांकना, वेद वाक्य मानना, चुल्लू भर पानी में डूबना, दाल में काला, धुन का पक्का, हवाई किले बनाना इत्यादि मुहावरे रचनाओं को भाषाई सौंदर्य प्रदान करते हैं।
जल्दी का काम शैतान का, मुद्दई सुस्त गवाह चुस्त, मौत ने घर का रास्ता देख लिया, प्यासा कुएं के पास जाता है, न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी, भागते भूत की लंगोटी जैसी लोकोक्तियों ने आपके विचारों को व्यापक अर्थ प्रदान किया है। इन रचनाओं में जीवन की विकृति और विसंगति पाठकों को उद्वेलित करती है और यथार्थ के अनुभव के साथ पाठकों को संवेदनशील बनाती है। लोकभाषा, बोलियां, लोक-कथाएं विश्व भर के मानव समाज में कही सुनी जाती हैं। जनमानस लोक-कथा का अपरिमित संग्रह होता है, ये कथाएं मनुष्य की आदिमकाल, तत्कालीन परंपराएं, रीति-रिवाज, श्रद्धा और विश्वास का प्रतिनिधित्त्व करती हैं। इन लोक-कथाओं में प्रभात काल की गुलाबी मादकता, मध्याह्न काल की प्रखरता तथा सांध्य गगन की श्रांत-क्लांत अनुभूतियों की रत्न राशि विद्यमान होती है। भगवती चरण वर्मा के साहित्य-संसार में लोक-कथा, बोलियां प्रचुर मात्रा में दिखती हैं, जो उनके भाषायी सौंदर्य में श्री वृद्धि करती हैं।
अलौकिक रीत-रिवाज के तत्त्वों के अलावा अभिजात साहित्य में लोक विश्वासों के तत्त्व भी समाहित रहते हैं। भगवती बाबू के उपन्यास साहित्य इन विश्वासों से अछूते नहीं हैं; उसमें धार्मिक, ज्योतिष, तंत्र-मंत्र, मानवीय प्राणी से संबंधित विश्वासों को स्थान मिला है। लौकिक शक्ति, शाप, वरदान, पुनर्जन्म जैसे विषय भी समाविष्ट हैं। लोक-जीवन के अंतर्गत सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक, प्राकृतिक और धार्मिक जीवन के बहुआयामी पक्ष उपन्यासकार भगवती चरण वर्मा की कृतियों में हमें दिखाई देते। सांस्कृतिक चेतना का अभ्युदय, मानवतावादी विचार-दर्शन आदि सभी तत्त्व आपके उपन्यास कला के आभूषण हैं। आपने शिक्षा, खान-पान, वेशभूषा, आचार-विचार, आमोद-प्रमोद को भी अपनी लेखनी में रचनाओं में प्रमुख स्थान दिया है। भगवती बाबू का उपन्यास साहित्य वैविध्यपूर्ण है, इसमें प्रकृति, समाज, संस्कृति के समस्त उपादानों का वास्तविक अंकन हुआ है। इस तरह आप के उपन्यासों में लोक-वार्त्ता के विविध पक्षों का चित्रण लोक-साहित्य के अनेक अंग पुरातन मान्यताएं-धारणाएं लोक-जीवन के बहुरंगी जीवंत चित्रण चित्र प्राप्त होते हैं। आपका साहित्य लोक-मानस का दर्पण है, उसमें लोक-जीवन की संवेदनाओं की सही पहचान है।
आधुनिक हिंदी उपन्यासकारों में भगवती चरण वर्मा का विशेष स्थान है। रोचकता से परिपूर्ण उनके उपन्यास चित्रलेखा, रेखा, भूले बिसरे चित्र आज भी लोग दिलचस्पी से पढ़ते हैं। भगवती बाबू ने अपने दौर में ऐसे विषयों को भी उठाया जिन पर साहित्यकार लिखने से संकोच करते थे या जिन पर लिखना साहस का काम हुआ करता था। चित्रलेखा और रेखा यह कृतियां प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। उनके उपन्यासों में शिल्प के अनुसार वर्णन शैली प्रवाहमयी होती थी। साहित्यिक पत्रिका के संपादक गौरीनाथ के अनुसार भगवती चरण वर्मा की कई रचनाओं में गजब की पठनीयता है वह किशोर और युवाओं की मानसिकता के करीब है, उनमें उनके लेखन में पाठकों में भावेश उत्पन्न करने की शक्ति है। उनकी रचनाओं में भावुकता का स्थायी भाव रहा है, इसलिए वह करुणा और कोमल भाव जगाने में सफल रहे हैं।
चित्रलेखा के अतिरिक्त भूले-बिसरे चित्र, टेढ़े मेढ़े रास्ते, सीधी सच्ची बातें, सामर्थ्य और सीमा, रेखा, वह फिर नहीं आई, सबहिं नचावत राम गुसाईं, प्रश्न और मरीचिका, युवराज चूण्डा, दो पल भूपल आदि प्रसिद्ध उपन्यास रहे हैं। उनकी कृति ‘चित्रलेखा’ पर दो बार १९४१ और १९६४ में फिल्में बनीं और दोनों बार उसे अच्छी लोकप्रियता मिली।
भगवती चरण वर्मा कुछ समय तक आकाशवाणी और फिल्मों से भी जुड़े। उन्होंने फिल्म कॉरपोरेशन कोलकाता में काम किया तथा मुंबई फिल्म जगत में कथा-लेखन भी किया। उन्होंने दैनिक नव-जीवन का संपादन किया। बतौर उपन्यासकार उन्हें साहित्य जगत में प्रसिद्धि मिली। साहित्य अकादमी सहित पद्मभूषण एवं अन्य सम्मानों से सम्मानित किया गया, साथ ही राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया। ५ अक्टूबर १९८१ को उनका निधन हो गया।
भगवती चरण वर्मा की लेखनी समाज को नई दिशा देने
वाली रही। भाषा पर गहरी पकड़ रखने वाले भगवती बाबू की रचनाएं
आज भी प्रासंगिक हैं, लेकिन साहित्य जगत ने उन्हें आज बिसरा दिया।
साहित्यकार विलास गुप्ते कहते हैं- "भगवती चरण वर्मा
ने चित्रलेखा लिखा था, तब प्रेमचंद का साहित्य लोगों के जेहन
में था। समसामयिक जीवन की वास्तविकता से उस दौर में इतिहास
को आधार बनाते हुए संस्कृत के शब्दों का इस्तेमाल कर चित्रलेखा की रचना करने का साहस
सिर्फ वही दिखा सकते थे, हालांकि चित्रलेखा में पाप और पुण्य
को लेकर सवाल उठाए गए थे, लेकिन आध्यात्मिक और नैतिकता की दृष्टि
से यह एक उत्तम उपन्यास था, यह आज भी खूबसूरत है।" ज्ञानपीठ के निदेशक और वरिष्ठ साहित्यकार रवींद्र कालिया कहते हैं- "भगवती चरण वर्मा हिंदी के महत्त्वपूर्ण
उपन्यासकार हैं, मगर हिंदी ने उन्हें लगभग भुला-सा दिया और यह कुछ उनके उपन्यास भूले-बिसरे चित्र
के जैसा ही हुआ।"
भगवती चरण वर्मा : जीवन
परिचय |
|
जन्म |
३० अगस्त १९०३ शफीपुर,
जिला-उन्नाव, उत्तर प्रदेश, भारत |
मृत्यु |
५ अक्टूबर १९८१ (उम्र ७८), लखनऊ, उत्तर प्रदेश, भारत |
पिता |
श्री देवी चरण वर्मा |
पुत्र |
श्री धीरेंद्र वर्मा |
शिक्षा एवं कार्य-क्षेत्र |
|
स्नातक कला |
प्रयागराज विश्वविद्यालय, प्रयागराज |
एल.एल.बी. |
प्रयागराज विश्वविद्यालय, प्रयागराज |
कर्म-क्षेत्र |
दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, लखनऊ |
कार्य-क्षेत्र |
उपन्यास, कविता, कहानी, संस्मरण, नाटक, आलोचना, पत्रकारिता |
साहित्यिक रचनाएं |
|
उपन्यास |
पतन (१९२८), चित्रलेखा (१९३४), टेढ़े-मेढ़े
रास्ते (१९४६), अपने खिलौने (१९५७), भूले-बिसरे
चित्र (१९५९), सामर्थ्य और सीमा (१९६२), थके पाँव (१९६४), सबहिं नचावत
राम गोसाईं (१९७०), प्रश्न और मरीचिका (१९७३), रेखा, सीधी सच्ची
बातें, युवराज चूण्डा, तीन वर्ष, वह फिर नहीं आई, धुप्पल, चाणक्य, क्या
निराश हुआ जाए |
कहानी-संग्रह |
· दो बांके (१९३६) · मोर्चाबंदी ·
इंस्टालमेंट ·
मुगलों ने सल्तनत
बख्श दी |
कविता-संग्रह |
· मधुकण (१९३२) · प्रेम-संगीत (१९३७) · मानव (१९४०) |
नाटक |
· वसीहत · रुपया तुम्हें खा गया (१९५५) · सबसे बड़ा आदमी |
संस्मरण |
अतीत के गर्भ से |
रेडियो-रूपक |
त्रिपथगा (१९५६) |
आलोचना |
साहित्य के सिद्घान्त और रूप |
सम्पादन |
· ‘विचार’ साप्ताहिक
पत्रिका · ‘नवजीवन’ दैनिक पत्र |
सम्मान व पुरस्कार |
|
·
साहित्य
अकादमी पुरस्कार- १९६१ (उपन्यास-भूले-बिसरे चित्र) ·
साहित्य
वाचस्पति- १९६९ ·
पद्मभूषण, भारत सरकार-
१९७१ ·
मानद राज्यसभा
सदस्य- १९७८ |
संदर्भ-
१. रचनाकार (नेट से
प्राप्त)
२. सुप्रसिद्ध आलोचक निर्मला जैन
३. आखरी दाव- पृष्ठ-३
४. भूले-बिसरे चित्र- पृष्ठ-८६
५. भगवती चरण वर्मा के उपन्यासों में लोकतत्व -डॉ दिव्या वर्मा
६. गद्यकोष (नेट से प्राप्त)
७. भगवती चरण वर्मा को भुला क्यों दिया गया? -प्रभासाक्षी ई-पत्रिका
लेखक
डॉ. वसुधा गाडगिल , लेखिका और अनुवादक। लघुकथा, कहानी ,कविता , संस्मरण, जीवनी, यात्रा वृतांत लेखन, हिंदी - मराठी में अनुवाद लेखन। हिंदी भाषा, साहित्य पठन - पाठन, तकनीकी युग में देवनागरी को अपनाने, हिंदी भाषा को युवाओं से जोड़ने हेतु प्रत्यक्ष तथा आभासी कार्यशालाओं का आयोजन करने जैसे अकादमिक कार्यों में सहभागिता।
"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...