Saturday, July 30, 2022

नवाब वाज़िद अली शाह : हज़ार रातें भी गुज़री यही कहानी हो...

 

"बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए...चार कहार मिल मोरी डोलिया सजावें, मोरा अपना बेगाना छूटो जाए। बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए… आँगन तो पर्वत भयो और देहरी भयी बिदेस, जाये बाबुल घर आपनो मैं चली पिया के देस, बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए…"

जब नवाब वाज़िद अली शाह को लखनऊ छोड़ना पड़ा तो उन्होंने उस दर्द को ठुमरी की इन पंक्तियों में उकेरा था। इसके साथ एक कथा ऐसी है कि सत्तावन की लड़ाई में वे जूतियाँ नहीं पहन पाए और भागने में असफल रहे जिससे अंग्रेज़ों ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया था, पर इतिहासकार इसे झुठलाते हुए सबूत देते हैं कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने ४ फरवरी १८५६ को ही वाज़िद अली शाह से अवध की सत्ता अपने कब्ज़े में ले ली थी। वाज़िद अली शाह को सन १८५६ में ही कलकत्ता भेज दिया गया था। जब सन १८५७ का गदर हुआ तब वे मटियाबुर्ज में थे। जहाँ ऐहतियातन उन्हें नज़रबंद कर दिया गया था। उनके भाग पाने की कोई गुंजाइश थी ही नहीं। अपनी मिट्टी से दूर जाने की कसक उनके भीतर गहरी थी जो उनके मशहूर अशरार में उभरी है,
"दर-ओ-दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं,
ख़ुश रहो अहल-ए-वतन, हम तो सफ़र करते हैं।"

वे लिखते हैं,
"न ठंडी साँसें भरो दौर-ए-मय में हम नफ़साँ,
ये आग भड़केगी मय-ख़ाने में हवा न करो"

लेकिन यह भी हैरतअंगेज़ है कि नवाब ने कभी शराब को छुआ न था। 'पिया वाज़िद अली' नाम से कई बंदिशों के इस रचियता को साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में ख़ासकर कथक नृत्य की दुनिया में कथक के प्रश्रयदाता के रूप में जाना जाता है। 'नैहर छूटो जाए' ठुमरी को प्रचलित करने में के० एल० सहगल की आवाज़ का बड़ा योगदान है, जिन्होंने लोक में इसे दुल्हन के विदाई गीत की तरह लोकप्रिय किया। कथक के कई नामी बड़े नर्तकों ने इसे मृत्यु के बाद देह के छोड़े जाने से जोड़ा है, और चार कहारों को अंतिम बेला में कंधा देने वाले चार लोग बताया है। 

अवध के शासक वाज़िद अली शाह को विरासत में कमज़ोर राज्य मिला था। उन्होंने उस कमज़ोर राज्य को सशक्त बनाने के लिए हिंदुस्तानी तहज़ीब को तवज्जो दी। इतिहास में दर्ज है कि हिंदू त्योहारों में वे खुद शामिल होते थे। उनकी प्रसिद्ध ठुमरी भी है, "मोरे कान्हा जो आए पलट के, अब के होली मैं खेलूँगी डट के…"
 
सन १७६३-६४ में बक्सर के पास हुई लड़ाई में नवाब शुज़ा उद दौला ईस्ट इंडिया कंपनी से हार गया था और उसने अंग्रेज़ों को अवध का शासन नियंत्रित करने का अधिकार दे दिया था। उसके बाद सन १८५६ तक का अवध का इतिहास ब्रिटिशों के कुटिल षड़यंत्रों, अत्याचार और लालच के अंधे युग का इतिहास है। ब्रिटिश पार्लियामेंट के सामने अवध की जनता की दरख़्वास्त को The Dacoitee in Excelsis or The Spoliation of Oude, Faithfully Recounted किताब के ज़रिए अंग्रेज जनता को उस वक्त उपलब्ध करा दिया गया था। महारानी विक्टोरिया ने १ नवंबर १८५८ को हिंदुस्तान को अपने हाथ में ले लिया था, लेकिन अवध को बाग़ियों से खाली कराने में ७ जनवरी १८५९ तक का समय लगा।
 
इंग्लैंड की रानी को अपना परिचय देते वक्त अवध के इस नवाब ने रामायण और राम से प्रारंभ किया था। अवध की राजमाता ज़ैनबी औलिया ताज़रा बेगम लंदन में अपने अधिकार और स्वतंत्रता की गुहार लगा रही थी, उसी समय भारत में आज़ादी की सन १८५७ की लड़ाई में अवध की एक और बेगम नवाब वाज़िद अली की दूसरी पत्नी बेगम हज़रत महल नानासाहेब पेशवा, तात्या टोपे के साथ कंधे से कंधे मिला लड़ रही थीं। वाज़िद अली शाह की गैर मौजूदगी में बेगम हज़रत महल मौलवी अहमद शाह और तमाम 'नाचने-गाने वालों' ने फिरंगी फौजों को शहर में घुसने नहीं दिया।
 
लखनऊ की जिस इमारत में आज भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय है, उसे वाज़िद अली शाह के समय परीखाना कहते थे। उस इमारत में शाह की परियाँ रहती थीं। परी मतलब वह, जो नवाब को पसंद आ जाती थी। इनमें से अगर कोई बाँदी नवाब के बच्चे की माँ बन जाती तो उसे महल कहा जाता। बेग़म हज़रत महल के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने बाँदी से बेगम होने का सफ़र महल के रास्ते ही तय किया था। 

उन्हें विलासी नवाब के रूप में दिखाने वालों का अपना नज़रिया है, जो उन्हें ३०० शादियाँ करने वाला कह रंगीला नवाब कहता है। वाज़िद अली शाह की चर्चित किताब 'इश्कनामा' में उन्होंने आठ साल की उम्र में रहीमन नामक अधेड़ आयु की महिला से अपने जिस्मानी संबंध के बारे में लिखा है। इसमें ज़िक्र है कि परीखाना में १८० से ज्यादा महिलाओं को संगीत सिखाने के लिए नौकरी पर रखा गया था। उनके अनुसार "पड़ा है पाँव में अब सिलसिला मोहब्बत का, बुरा हमारा हुआ हो, भला मोहब्बत का।" कथक करते हुए नवाब खुद कृष्ण बनते थे और उनकी परियाँ, गोपियाँ। 
 
वैसे तो वाज़िद अली शाह ने कुल ६० किताबें लिखी थीं लेकिन उनमें से अधिकांश इतिहास की गर्द में खो गई हैं। अवध के नवाबख़ाने के भी बड़े शौकीन कहलाते थे, तो वाज़िद अली शाह उससे अछूते कैसे रह सकते थे। वे रसोई के जानकार भर नहीं थे। तो नए प्रयोग करने का भी हुनर रखते थे, जैसे कलकत्ता बिरयानी में आलू का इस्तेमाल उन्होंने ही शुरू किया था। उन्हें उनके तरीकों की वजह से याद रखा जाए इसलिए वे अपने कुर्ते का बायाँ हिस्सा अधखुला छोड़ा करते थे और ऐसी उनकी कई तस्वीरें भी दिख जाएँगी।

ऊपरी तौर पर देखने पर नवाब वाज़िद अली को विलासी और शान-शौकत से जीने वाला माना जा सकता है, लेकिन गहरे पैठने पर वे बहुत संवेदनशील और भावुक हृदय के कलानुरागी शासक नज़र आते हैं। उनकी संवेदनशीलता को दिखाता यह शे'र देखिए,
"ऐ नसीम-ए-सहरी हम तो हवा होते हैं
दम जो घुटता है मोहब्बत में ख़फ़ा होते हैं"

मुहब्बत उनके ज़ेहन में आठ साल की उम्र से थी, लेकिन उसी उम्र में वे कथक गुरु महाराज ठाकुर प्रसाद के शिष्य बन गए थे, इसे नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। दुनिया उन्हें समझ नहीं पाई इसका कोई मलाल उन्हें नहीं था। वे जानते थे और कहते थे,
"सुन रक्खो उसे दिल का लगाना नहीं अच्छा,
दुनिया ये बुरी है, ये ज़माना अच्छा नहीं"
 
कथक शैली के तीनों नटन भेदों - नाट्य, नृत्त व नृत्य को फिर से समृद्ध करने के लिए उन्होंने गायक-वादक एवं नर्तक-नर्तकियों के बड़े समूह को अपने यहाँ ऊँचा वेतन देकर रखा था, लेकिन देखने वालों ने इसमें भी स्याह रंग ही देखा कि उन्होंने अरब व्यापारियों की अफ्रीकी गुलाम औरतों से शादी की थी। नवाब ने लगभग ११२ मुताह किए थे मतलब कुछ समय के लिए की जाने वाली शादी, तो कई निकाह किए थे और उतने ही तलाक भी दिए थे। तलाक की वजह बढ़ते खर्चे बताए जाते हैं, लेकिन एक बात और थी वह थी उनका कला के प्रति समर्पण। कथक के प्रयोगों में गतिरोध पैदा करने वाली किसी भी बेगम को वे तुरंत छोड़ देते थे। उनके ही शब्दों में,
"नज़दीक भी जाकर न मिला पर्दा-नशीं से,
जा दूर हो ऐ दिल, तुझे चाहत नहीं आती।" 
 
कला के प्रति इतनी निष्ठा कितने लोग निभा पाते हैं? नवाब वाज़िद अली शाह अपने कलाकारों को खुद प्रशिक्षण देते थे। कथक शैली के नाट्य तत्व की सर्वोत्कृष्ट प्रस्तुति वाज़िद अली शाह के भव्य रंग प्रयोग 'रहस' में दिखती है, जो रासलीला से प्रेरित था। तब तक कथक को दरबारी नृत्य कहा जाने लगा था, लेकिन उन्होंने रहस की रंग योजना, मंच, दृश्य सज्जा, पात्रों का मंच प्रवेश, कथावस्तु आदि के साथ नृत्य में नाट्य सम्मिलित किया था। लाखों रुपए खर्च कर रहस निर्मित होता था, जिसे कैसरबाग रहस मंज़िल में प्रदर्शित किया जाता था। नवाब साहब ने 'अख़्तर' उपनाम से कई ठुमरियाँ रची हैं और 'कैसर' नाम से भी। 'अख़्तर' से एक कलाम देखिए,
"ग़ुँचा-ए-दिल खिले जो चाहो तुम
गुलशन-ए-दहर में सबा हो तुम
बे-मुरव्वत हो बे-वफ़ा हो तुम
अपने मतलब के आश्ना हो तुम
कौन हो क्या हो क्या तुम्हें लिक्खें
आदमी हो परी हो क्या हो तुम
पिस्ता-ए-लब से हम को क़ुव्वत दो
दिल-ए-बीमार की दवा हो तुम
हम को हासिल किसी की उल्फ़त से
मतलब-ए-दिल हो मुद्दआ हो तुम
यही आशिक़ का पास करते हैं
क्यूँ जी क्यूँ दर-प-ए-जफ़ा हो तुम
उसी अख़्तर के तुम हुए माशूक़
हँसो बोलो उसी को चाहो तुम"
 
'रहस' केवल शाही परिवारों के सामने मंचित किया जाता था और आम लोगों के लिए सैयद आगा हसन 'अमानत' लिखित 'इन्दर सभा' को प्रस्तुत किया। कई बंदिशों जैसे 'दरिया-ए-ताशक़', 'अफ़साने-ए-इस्बाक़' और 'बहार-ए-उल्फ़त' को उन्होंने नाट्य रूप दिया।
 
नवाब ने अपनी बन्नी पुस्तक में कथक के नृत्य अंग की २१ गतों का वर्णन किया है। गीतों का विकास करने के साथ उन्होंने ठुमरी भाव के विकास में भी बहुत योगदान दिया। ठुमरी भाव को नवाब वाज़िद अली शाह और महाराज बिन्दादीन ने नई पैहरन दी। तमाम बादशाहों और नवाबों की परंपरा में सबसे बड़े गुणग्राही और कला के कद्रदान के रूप में उनकी पहचान को ठुकराया नहीं जा सकता। ठुमरी और कथक के प्रति लखनऊ का झुकाव वाज़िद अली शाह के प्रोत्साहन से और भी बढ़ गया। उनके अंतर्पुर से लेकर राजदरबार तक कथक नृत्य और ठुमरी गान को प्रधानता दी जाने लगी थी। तत्कालीन लखनऊ का सारा वातावरण ठुमरी और कथक रंग में रंग गया था। उन्होंने शास्त्रीय संगीत के कई रागों की रचना की जैसे जोगी, जूही, शाह पसंद। सत्यजीत रे की फ़िल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' में वाज़िद अली शाह का नृत्य और संगीत के संरक्षक के रूप को ही दर्शाया गया है। 
 
"उल्फ़त ने तिरी हम को तो रक्खा न कहीं का,
दरिया का न जंगल का समा का न ज़मीं का"

उन्होंने ये पंक्तियाँ लिखते हुए ग़जलों की पनाह ली। शायद इसी अभिरुचि के कारण उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब को सन १८५४  में प्रति वर्ष पाँच सौ रुपए की पेंशन देना शुरू किया था। उनका फ़ारसी और उर्दू पर समान अधिकार था। पश्चिमी शिक्षा से वे दीक्षित थे और प्राचीन तथा आधुनिक इतिहास तथा साहित्य में निष्णात। तब भी उनकी लेखनी में उन्होंने अपना पांडित्य नहीं तो सरल अवधी बोली को अपनाया। निर्वासन काल में हुगली नदी के किनारे मटिया बुर्ज़ (मिट्टी के गुंबद) पर भी उन्होंने अपनी प्रति वर्ष की १२ लाख रुपए आय का बड़ा हिस्सा खर्च कर उसे लखनऊ बनाने की कोशिश की, ताकि प्रिय शहर और उससे जुड़ी यादें ताज़ा रह सकें। 

लखनऊ उनके ज़ेहन में इस कदर था कि
"अल्लाह ऐ बुतो हमें दिखलाए लखनऊ,
सोते में भी ये कहते हैं हम हाय लखनऊ!"

और अंत में, उनके लिखे शब्दों में कहें तो,
"हज़ार रातें भी गुज़री यही कहानी हो,
तमाम कीजिए इसको न कुछ सिवा कहिए…"

वाज़िद अली शाह : जीवन परिचय

पूरा नाम

अबुल मंसूर मिर्ज़ा मुहम्मद वाज़िद अली शाह

जन्म

३० जुलाई १८२२, लखनऊ

निधन

१ सितंबर १८८७, मटियाबुर्ज, कोलकाता में

पिता

अमज़द अली शाह

पुत्र

बिरज़िस कद्र

शासन

१३  फरवरी १८४७  से ११ फरवरी १८५६

शाही ख़िताब

मिर्ज़ा

प्रमुख कृतियाँ

  • इश्कनामा

  • नाज़ो

  • बन्नी

  • दीवान-ए-अख़्तर

  • हुस्न-ए-अख़्तर

दोहे

  • सावत-उल-कलूब के १०६१ पृष्ठों में ४४,५६२ दोहों का संग्रह शामिल है, जिसे तीन साल की अवधि में पूरा किया गया था।

  • आत्मकथात्मक 'हुज़्न-ए-अख्तर' जिसमें लगभग १२७६ दोहे हैं।


संदर्भ

  • विकिपीडिया

  • अयोध्या (मूल मराठी पुस्तक) - लेखक माधव भंडारी, हिंदी संपादन (लेखिका स्वयं)।

  • कथक नृत्य शिक्षा, द्वितीय भाग - लेखक डॉ० पुरु दाधीच।

लेखक परिचय

स्वरांगी साने

पूर्व वरिष्ठ उप संपादक, लोकमत समाचार, पुणे। 
भारतीय कौंसलावास, न्यूयॉर्क की वेबसाइट पर पत्रिका अनन्य के लिए संपादन सहयोग। 
जनसत्ता, नई दिल्ली तथा वेब दुनिया हेतु नियमित स्तंभ लेखन, स्वतंत्र अनुवादक-लेखक, कवयित्री।
भारत सरकार द्वारा विकसित वेब इंटरफ़ेस के लिए लगातार अनुवाद। 
एम. ए. (कथक) (स्वर्णपदक), कथक विशारद (Distinction), अखिल भारतीय गंधर्व महाविद्यालय मंडल, मिरज (मुंबई) 
काव्य संग्रह "शहर की छोटी-सी छत पर" और  "वह हँसती बहुत है" यू-ट्यूब पर चैनल :  #AMelodiousLyricalJourney 
कार्यक्षेत्र : कविता, कथा, अनुवाद, संचालन, स्तंभ लेखन, पत्रकारिता, अभिनयनृत्य, साहित्य-संस्कृति-कला समीक्षाआकाशवाणी और दूरदर्शन पर वार्ता और काव्यपाठ।

11 comments:

  1. Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपका डॉ. जयशंकर जी

      Delete
  2. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  3. स्वरांगी, तुमने भातखंडे के बग़ल से गुज़रते हुए सुनी घुँघरू की थापें याद करा दीं। कैसरबाग हमारा मुहल्ला है और उसका इतना कुछ वाजिदअली शाह से जुड़ा है कि वे सब मंजर नज़र के सामने घूम गए। वहाँ बचपन बिताने के बावजूद जिन बातों को तुमने आलेख में सामने लाया है, उनमें से अधिकांश से मैं नावाक़िफ़ थी। कत्थक को आज प्राप्त स्थान दिलाने में इस अज़ीम नवाब की कितनी अहम भूमिका थी, वह आज पता चली। तुम्हारा कत्थक प्रेम भी सर्वविदित है इसमें। बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. भातखंडे के बगल से गुजरना वाह मतलब लय-ताल में डूबना। आपका स्नेह बना रहे, बहुत बहुत धन्यवाद आपका

      Delete
  4. आदरणीया स्वरांगी जी,
    नवाब साहब पर बहुत ही बढ़िया आलेख गढ़ा गया है। बहुत सारी बारीकियों को ध्यान में रखकर उनके कत्थक और साहित्यिक रूप को विस्तारपूर्वक समेटने की कहानीयुक्त कोशिश की गयी है। इस लेख के द्वारा नवाब साहब का साहित्य और कत्थक के प्रति अपार प्रेम पहली बार जानने मिला इसलिए आपका आभार। इस खुबसुन्दर और रोचक लेख की रचयिता होने के नाते आपका धन्यवाद और ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।

    ReplyDelete
  5. अंग्रेजों ने अनेक भारतीय महानायकों को बदनाम करने के लिए उनके विषय में मनगढंत बातें फैलाने का कार्य किया... जैसे कन्नौज के राजा जयचंद को गद्दार कहकर प्रचारित किया जबकि जयचंद गद्दार नहीं थे... वाजिद अलीशाह वीर पराक्रमी और बहादुर थे उनका व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था... उन्हें विलासी, आलसी कहकर उन्हें बदनाम किया... तरह तरह के झूठे किस्से बना डाले गए... अंग्रेजों ने जो कह दिया हम भारतीयों ने उसमें न जाने क्या क्या और जोड़ लिया और ये हाल हो गया कि नवाब वाजिद अली का नाम लेते ही उनकी विलासिता के, उनके आलस के सैकड़ों झूठे चुटकुले सुनने को मिल जाते हैं... जिनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है... स्वरांगी साने ने वाजिद अली शाह के साथ न्याय किया है... लेख संतुलित है... उनके कला प्रेम, संस्कृति प्रेम, लोककला के प्रति प्रेम औकात उनके वीरतापूर्ण व्यक्तित्व को लेख में उभारा है... वाजिद अली शाह पर अभी और गहन शोध की आवश्यकता है इस लेख से शोधकर्ताओं को प्रेरणा मिलेगी...
    स्वरांगी साने को लेख के लिए बधाई.
    -डा० जगदीश व्योम

    ReplyDelete
  6. स्वरांगी जी नमस्ते। आपने वाजिद अली शाह पर बहुत अच्छा लेख लिखा। उनकी लिखी बंदिशें लगभग हर फनकार ने गाई हैं। उनका साहित्यिक योगदान अद्भत है। साथ ही जैसा आपने भी उल्लेख किया कि भारतीय संगीत एवं नृत्य के संवर्द्धन में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। जैसा कि डॉ. व्योम सर ने भी लिखा कि हम लोगों को के सामने अंग्रेजों ने इतिहास को तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत कर अनेक महान लोगों के योगदान को या तो गायब कर दिया या विकृत रूप में प्रस्तुत किया। आ. अनूप जी ने 'शतरंज के खिलाड़ी' से अद्भुत नृत्य का वीडियो साझा किया। लेख पर आई सभी टिप्पणियों ने लेख को और रोचक बना दिया है। स्वरांगी जी आपको इस जानकारी भरे रोचक लेख के लिए हार्दिक बधाई।

    ReplyDelete
  7. हार्दिक बधाई, स्वरांगी जी, आपने वाजिद अली शाह का अद्भुत परिचय प्रदान किया है।आप स्वयं नृत्य,संगीत,साहित्य में अपना स्थान प्राप्त किया है।इस लेख में आपका यह अंदाज दिख रहा है।हार्दिक बधाई 💐👏

    ReplyDelete
  8. बहुत बढ़िया आलेख। इतिहास के अभी तक नावाक़िफ़ पन्नों से रू ब रू करवाने के लिए बहुत शुक्रिया स्वरांगी जी

    ReplyDelete
  9. स्वरांगी जी बहुत बढ़िया बहुत अच्छा आलेख 🌹

    ReplyDelete

आलेख पढ़ने के लिए चित्र पर क्लिक करें।

कलेंडर जनवरी

Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat
            1वह आदमी उतर गया हृदय में मनुष्य की तरह - विनोद कुमार शुक्ल
2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
23हिंदी साहित्य के गौरव स्तंभ : पं० लोचन प्रसाद पांडेय 24हिंदी के देवव्रत - आचार्य चंद्रबलि पांडेय 25काल चिंतन के चिंतक - राजेंद्र अवस्थी 26डाकू से कविवर बनने की अद्भुत गाथा : आदिकवि वाल्मीकि 27कमलेश्वर : हिंदी  साहित्य के दमकते सितारे  28डॉ० विद्यानिवास मिश्र-एक साहित्यिक युग पुरुष 29ममता कालिया : एक साँस में लिखने की आदत!
30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...