Monday, July 25, 2022

चौदहवीं शताब्दी की कश्मीरी रहस्यवादी संत कवयित्री - ललद्यद

 

लालद्यद, लल्ला आरिफ़ा, लाल दीदी, लल्लेश्वरी, लल्ला योगेश्वरी/योगेश्वरी, लालीश्री या लल, ये सब नाम हैं कश्मीरी भाषा की लोकप्रिय संत-कवयित्री के, जिन्हें हिंदू लल्लेश्वरी और मुसलमान लल्ला आरिफ़ा और प्यार से दोनों ही लल द्यद (लल दादी) बुलाते हैं। 

सदियों से चले आ रहे स्मृति-इतिहास के आधार पर कहा जाता है कि लल का जन्म सन १३२० में कश्मीर में श्रीनगर से दक्षिण पूर्व में स्थित पांद्रेठन गाँव में चेता भट्ट नामक कश्मीरी ब्राह्मण के यहाँ हुआ। यह वह दौर था जिसे यूरोप में 'रेनेसां' अर्थात पुनर्जागरण काल के रूप में याद किया जाता है। जब पुरानी सभ्यताएँ ढह रही थीं और नई सभ्यताओं का विकास हो रहा था, एक ऐसे समय में जब किसी भी भाषा में महिला-लेखन दुर्लभ था, कश्मीर में एक ऐसी आवाज़ प्रकट हुई जिसकी प्रतिध्वनि आज तक स्पष्ट सुनाई देती है। यद्यपि लल्लेश्वरी का यूरोप से वास्ता न था, उन्होंने उदार सिद्धांतों का प्रचार किया। उनका कहना था कि परमात्मा को किस नाम से पुकारा जाता है, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। 

माना जाता है कि तीस प्रतिशत से अधिक कश्मीरी मुहावरे और कहावतें ललद्यद के वाक्यों से उत्पन्न हुई हैं। ललद्यद की काव्य-शैली को वाख कहा जाता है। उन्होंने कुल २८५ वाखों की रचना की है। ललद्यद के वाख-साहित्य का मूलाधार दर्शन है और यह वैसा ही है जैसा हिंदी के निर्गुण संत कवियों में परिलक्षित होता है। जिस तरह हिंदी में कबीर के दोहे, मीरा के पद, तुलसी की चौपाई और रसखान के सवैये प्रसिद्ध हैं, उसी तरह ललद्यद के वाख प्रसिद्ध हैं। ललद्यद विश्वचेतना को आत्मचेतना में तिरोहित मानती हैं। अपने वाखों के ज़रिए उन्होंने जाति और धर्म की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर भक्ति के ऐसे रास्ते पर चलने पर ज़ोर दिया जिसका जुड़ाव जीवन से हो। धार्मिक आडंबरों का विरोध किया और प्रेम को सबसे बड़ा मूल्य बताया।

लल्लेश्वरी बचपन से ही संस्कृत ग्रंथ पढ़ने लगीं थीं। गीता को उन्होंने कई बार पढ़ा। उनके भक्तों का मानना था कि वे परमहंस थीं और उनके वाखों को जानते-समझते यह यकीन हो जाता है कि वे वास्तव में परमहंस थीं। छोटी उम्र से ही वे मानने लगीं कि शिव उनके भीतर निवास करते हैं। वे जंगल-जंगल घूमा करतीं, घने पेड़ के नीचे बैठी रहतीं और शिव-शिव जपती रहतीं। गुरु सिद्धमौल ने उन्हें संस्कृत की अनमोल पुस्तकें पढ़ने को दी थीं, जिसके परिणामस्वरूप ललद्यद संस्कृत भाषा में पारंगत हो गईं। उन्होंने १८ पुराण और संपूर्ण गीता पढ़ डाली। 

ललद्यद के जीवन में मोड़ तब आया जब उनका विवाह हुआ। उन दिनों लड़कियों की शादी छोटी उम्र में ही कर दी जाती थी और उनके साथ भी यही हुआ। १२ वर्ष की छोटी उम्र में उन्हें एक अधेड़ व्यक्ति निक्क भट्ट से ब्याह दिया गया। कश्मीरी परंपरा के अनुसार शादी के बाद उनका नाम बदलकर पद्मावती कर दिया गया। बहुत छोटी उम्र में शादी होने के कारण ललद्यद का पारिवारिक जीवन सुखद नहीं रहा। पति और अन्य सदस्यों की तरफ़ से उन पर अत्याचार हुए। पति की ज़बरदस्ती से तंग आकर वे अपने मन की भीतरी गुफ़ा में छिप जाया करतीं। वे सोचा करतीं कि नरक में पड़ी इस देह में शिव कैसे रह सकते हैं? वे रोने लगतीं। इस बात की सोच भी असहनीय थी कि शिव उनके भीतर नहीं रहेंगे। वे जीना नहीं चाहती थीं परंतु मरने का कोई उपाय नहीं था। 

वे अपने गुरु सिद्धमौल से बहुत प्रभावित थीं। उनसे अक्सर पढ़ने के लिए संस्कृत ग्रंथ लाने को कहती थीं। एक बार गुरु सिद्धमौल ने शिष्य के हाथों संस्कृत की कुछ असाधारण पुस्तकें उन्हें भिजवाईं, जिनमें 'तंत्रलोक' एवं उत्पलदेव रचित 'शिव स्तोत्रावली' और महाकवि क्षेमेंद्र रचित 'भारत मंजरी' थीं। ये तीनों पुस्तकें जब शिष्य ने लल के हाथ में रखीं तो वे बच्चे की तरह पुलक उठीं। शिष्य के घर से चले जाने के बाद पति ने कहा कि तुम्हारे गुरु अच्छे आदमी नहीं हैं क्योंकि वे तुम्हें तंत्र-मंत्र सिखाते हैं। लल ने इसका विरोध किया। उनके पति ने उनसे पुस्तकें छीनकर छत के पास बने एक ऊँचे आले में फेंक दी। लल का हाथ वहाँ तक नहीं पहुँचा तो वे रोने लगीं। उनके पति ने आले से पुस्तकें उठा कर उन्हें इस शर्त पर दीं कि वे उन्हें नहीं पढ़ेंगी।

सास और पति के व्यवहार से दुखी हो वे अक्सर 'शिव-शिव' का जाप करतीं। सास उन्हें किसी न किसी काम में उलझाए रखती। खाने को कम देती। अक्सर उन्हें चावल परोसते समय थाली में एक पत्थर रख देती जिससे चावल ज्यादा नज़र आए। चावल खाकर ललद्यद उस पत्थर को धो-पोंछकर एक कोने में टिका देतीं। एक बार लल ने सास से कहा कि माँस खाने को उनका जी नहीं करता। उसके बाद से उनकी सास शाक-सब्जी की बजाय उन्हें माँस परोस देती। लल माँस के टुकड़े अलग कर देतीं और केवल चावल खा लेतीं। धीरे-धीरे उन्होंने भूख को मारना सीख लिया। 

एक दिन पति घर पहुँचा तो लल को न पाकर क्रोधित हुआ। लल नदी से पानी भरने गई थीं। पति ने क्रोध में उनके सिर पर रखी गागर को तोड़ दिया। गागर तो टूट गई पर उसका पानी लल के सिर पर ज्यों-का-त्यों टिका रहा। उन्होंने वह पानी अंदर जाकर बर्तनों में पलट दिया, घर के सभी बर्तन भरने के बाद उन्होंने बचा हुआ पानी बाहर आकर फेंक दिया और वह तालाब बन गया। यह देख पति डर गया और उसे यकीन हो गया कि लल तंत्र-मंत्र जानती हैं। अब वह जल्द-से-जल्द उनसे छुटकारा पाना चाहता था। सो एक दिन उनके ससुर उनके पिता के पास गए और सारी कहानी सुनाई। उन्हें लल को लिवा लाने को कहा। वे मायके नहीं जाना चाहती थीं। माता-पिता के आने से पहले वे घर छोड़ कर जंगलों की ओर चली गईं। उनके माँ-बाप उन्हें लिवाने घर से निकले और दूसरी ओर गुरु सिद्धमौल भी उनके मायके गए लेकिन वहाँ घर बंद देख लल के ससुराल गए। वहाँ लल के बारे में जान उन्होंने उनके ससुर से कहा, "लल परिवार के जंजाल में फँसने वाली आत्मा नहीं थी। जंगल का फूल घर की क्यारी में नहीं खिलता।" माता-पिता भी लल को वहाँ न पाकर बड़े दुखी हुए। बीस वर्षीया लड़की बेचारी कहाँ-कहाँ मारी-मारी फिर रही होगी। वे उन्हें अवंतीपुर के मंदिरों में खोजने लगे। वहाँ साधुओं से पूछते-पाछते जंगलों में उन्हें ढूँढने लगे। वहाँ एक पेड़ की खोह में लल उन्हें मिल गईं। ख़ुशी से वे फूले नहीं समाए। उन्होंने लल को बहुत समझाया पर लल ने साथ चलने से इंकार कर दिया। वे पुत्री को लिए बिना वापस लौट गए। 

लल ने उस वृक्ष के पास अपनी कुटिया बना ली। उन्हें न वस्त्रों का होश रहता, न शरीर की चिंता। ललद्यद उस सिद्ध-अवस्था में पहुँच चुकी थीं जहाँ 'स्व' और 'पर' की भावनाएँ लुप्त हो जातीं हैं, जहाँ मान-अपमान, निंदा-स्तुति, राग-विराग आदि मन के संकुचित होने को ही लक्षित करते हैं, जहाँ पंचभौतिक काया मिथ्याभासों और क्षुद्रताओं से ऊपर उठ कर विशुद्ध स्फुरणों का केंद्रीभूत पुंज बन जाती है। उनका उद्देश्य सिर्फ़ शिव को पाना था। वे शिव भक्ति करते हुए नित-नए वाख रचतीं। वे अपनी कविता रोष और जोश के साथ, यहाँ तक कि बौद्धिक अहंकार के साथ लिखतीं। उनकी कविता भावपूर्ण होती जिसने उनके पूरे अस्तित्व को जब्त कर लिया और उनसे कश्मीरी साहित्य के रत्नों की रचना कराई।

कहा जाता है वे दीन-दुनिया की परवाह किए बिना अक्सर नग्न अवस्था में घूमती रहतीं। ऐसे ही एक समय में लल ने एक बेहद गहन नैतिक शिक्षा दी। एक दिन नग्नावस्था में घूमने के कारण कुछ युवा उपद्रवी उनका मज़ाक उड़ा रहे थे, तब एक कपड़ा-विक्रेता ने बीच में आकर उन्हें कपड़े देने चाहे। इस पर उन्होंने विक्रेता से सामान्य कपड़े के दो बराबर वजन के टुकड़े माँगे। वे उन टुकड़ों को दोनों कंधों पर रखकर भटकती रहीं। रास्ते में किसी ने उनका अभिवादन किया, तो किसी ने मज़ाक उड़ाया। हर अभिवादन के लिए लल ने दाहिने कपड़े में और मज़ाक के लिए बाईं ओर के टुकड़े में एक-एक गाँठ लगाई। शाम को जब वे लौटीं तो उन्होंने वे टुकड़े दुकानदार को लौटाकर उनका वज़न  करने को कहा। उनका वजन समान निकला। तब उन्होंने समझाया कि लोग स्तुति करें या निंदा, उससे व्यक्ति का मानसिक संतुलन नहीं हिलना चाहिए।

उनके ज्ञानपूर्ण वाख मशहूर हो गए। लोग उस संन्यासिन का आशीर्वाद पाने दूर-दराज़ से आने लगे। एक दिन लल को लगा कि उनकी माँ बीमार है। वे जंगल छोड़ मायके गईं और माँ के अंतिम दर्शन किए। वहीं पति और ससुर से उनकी मुलाकात हुई। उन्हें मालूम हुआ कि उनकी सास को गुज़रे सात वर्ष बीत चुके हैं। पति उन्हें वापस ले जाना चाहता था, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया। वे पुनः जंगल के घर में लौट आईं। माना जाता है कि बुढ़ापे तक वे वहीं रहीं और अंततः अपने शिव में समाहित हो गईं। अपने इष्ट को पाने के लिए उन्होंने इतना कष्ट सहा। उन्होंने कहा - 
दोब्य येलि छॉवनस दोब्य कनि प्यठेय।
सज ते साबन मेछनम येचेय।
सेच्य यलि फिरनम हनि हनि कॉचेय।
अदे ललि म्य प्रॉवेम परमे गथ।।
"मुझ पर साबुन लगा कर धोबी ने घाट के पत्थर पर बहुत बेदर्दी से पटका। दर्ज़ी ने पहले मुझे अपनी कैंची से टुकड़े-टुकड़े कर दिया और फिर तीखी सूई से मेरे टुकड़ों को अपनी मर्ज़ी से सी दिया। ये सब मैं चुपचाप देखती रही, भोगती रही और अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच गई हूँ। अब मैं अपने परमेश्वर में पूरी तरह विलीन हो रही हूँ।"
 
उन्होंने कहा - 
सरस सैत्य्य सोदाह कोरूम।
हरस केरेम गोढ सीवय।
शेरस प्येठ किन्य नचान डयूंठुम।
गछान डयूंठु आयम पछ़।।
"मैंने उससे सौदा किया है कि मैं पूरे मनोयोग से, अपनी भावनाओं की पराकाष्ठा तक उसकी सेवा करूँगी। मैं महसूस कर रही हूँ कि ईश्वर मेरे मस्तिष्क के शून्य चक्र में नृत्य कर रहे हैं। किसी भी भक्त के लिए इससे बड़ी प्राप्ति क्या होगी।"

लल्लेश्वरी का सबसे महत्वपूर्ण योगदान यह है कि उन्होंने कठिन शैव दर्शन को संस्कृत जानने वाले विद्वानों के मठों से बाहर लाकर आम कश्मीरी लोगों तक पहुँचाया। इसकी अत्यधिक विकसित व अत्यंत सूक्ष्म अवधारणाओं का जनता की भाषा में अनुवाद किया और अपने व्यक्तिगत रहस्यवादी अनुभवों के साथ उन्हें सुलभ बनाया। साथ ही कश्मीरी भाषा को भी समृद्ध किया। सामान्य मुहावरों, छवियों और रूपकों के उपयोग के माध्यम से संप्रदाय निरपेक्ष मत को लोगों तक कैसे संप्रेषित किया जाए, यह उन्होंने प्रदर्शित किया। उन्होंने उन विचारों और अनुभवों की व्याख्या की, जो अन्यथा आम लोगों की पहुँच से परे होते हैं। मातृभाषा के माध्यम और वाख के आसानी से पढ़े जाने वाले पद्य रूप के उपयोग ने उनके उच्चारण को आम बोलचाल में बदल दिया, जिससे वे लोगों की स्मृति में रच-बस गईं। यद्यपि स्त्री होने के कारण उस समय के समाज में उनकी आवाज़ दब सकती थी, लेकिन उनके व्यक्तिगत अनुभव, किसी मध्यस्थ पुरुष की सहायता के बिना शिव के साथ प्रत्यक्ष संबंध ने उनके शब्दों को अधिक प्रभाव दिया।

संस्कृत की अच्छी जानकार होने के बावजूद उन्होंने अपनी बात को लोगों तक पहुँचाने के लिए अपनी मातृभाषा कश्मीरी को चुना। आज वही रचनाएँ कश्मीरी साहित्य का आधार स्तंभ मानी जाती हैं। उन्होंने औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, लेकिन वे बुद्धिमान थीं। उनकी बातें ज्ञान से भरी हैं। अपनी कहावतों में उन्होंने जीवन, योग और भगवान से लेकर धर्म और आत्मा तक हर चीज़ की बात की। उनकी पहेलियाँ हर कश्मीरी की ज़ुबाँ पर रही हैं।
उनके वाखों को डॉ० ग्रियर्सन, डॉ० बार्नेट, सर रिचर्ड टेम्पल और पंडित आनंद कौल ने एकत्र किया और प्रकाशित कराया। हाल ही में वेद राही ने उनके जीवन पर एक उपन्यास की भी रचना की। १२ नवंबर, २००० को नई दिल्ली में कश्मीर एजुकेशन, कल्चर एंड साइंस सोसाइटी ने "रिमेम्बरिंग लाल द्याद इन मॉडर्न टाइम्स" विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की। वर्ष २०१३ में पेंगुइन ने रंजीत होसकोटे द्वारा अनूदित वाखों को "आई-लल्ल" (मैं–लल्ल) नाम से प्रकाशित किया। इसके अतिरिक्त भी  उन पर अनेक पुस्तकें आई हैं।

वे शिव भक्तिन उसी तरह सार्वभौमिक-सार्वकालिक हो गईं, जिस तरह वे शिव की उपस्थिति को सार्वभौमिक मानती रहीं। समता, सत्य, अच्छाई और सौंदर्य के गुणों के साथ मिलकर निष्पक्ष निर्णय लेने की सीख देती रहीं। सामाजिक-आर्थिक, सामाजिक-राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक व धार्मिक सद्भाव बनाए रखने को प्रेरित करते हुए वे कहती हैं,
थल-थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिन्दू-मुसलमां।
ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
वही है साहिब से पहचान।
 
वे यह भी कहती हैं कि प्रभु की प्राप्ति के लिए संसार में सीधे रास्ते से आई थी किंतु यहाँ आकर मोहमाया आदि सांसारिक उलझनों में फंसकर अपना रास्ता भूल गई। जीवन भर सुषुम्ना नाड़ी के सहारे कुंडलिनी जागरण में लगी रही और इसी में जीवन बीत गया। जीवन के अंतिम समय में जब जेब में खोजा तो कुछ भी हासिल न हुआ। अब उसे चिंता सता रही है कि भवसागर से पार उतारने वाले प्रभु रूपी माँझी को उतराई (किराया) के रूप में क्या देगी। अर्थात वह जीवन में कुछ न हासिल कर सकी।
आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!
जेब टटोली, कौड़ी न पाई।
माझी को दूँ, क्या उतराई?

इतना ही नहीं, वे मनुष्य को मध्यम मार्ग को अपनाने की सीख देते हुई कहती हैं कि हे मनुष्य! तुम संसार की इन भोग विलासिताओं में डूबे रहते हो, इससे तुम्हें कुछ प्राप्त होनेवाला नहीं है। तुम इस भोग के ख़िलाफ़ यदि त्याग, तपस्या का जीवन अपनाओगे तो मन में अहंकार ही बढ़ेगा। तुम इनके बीच का मध्यम मार्ग अपनाओ। भोग-त्याग, सुख-दुख के मध्य का मार्ग अपनाने से ही प्रभु-प्राप्ति का बंद द्वार खुलेगा और प्रभु से मिलन होगा। 
खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी।
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बंद द्वार की।

लोक-जीवन के तत्त्वों से प्रेरित ललद्यद की रचनाओं में तत्कालीन पंडिताऊ भाषा संस्कृत और दरबार के बोझ से दबी फ़ारसी के स्थान पर जनता की सरल भाषा का प्रयोग हुआ है। यही कारण है कि ललद्यद की रचनाएँ सैकड़ों सालों से कश्मीरी जनता की स्मृति और वाणी में आज भी जीवित हैं।

पूर्व आईपीएस अधिकारी व राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत फिल्म पत्रकार श्री बिल्हान कौल  कहते हैं कि  "कुछ विद्वानों ने विशेष रूप से पीएन बजाज ने सुझाव दिया है कि वे सूफ़ियों से प्रभावित थीं और उन्होंने इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच संश्लेषण किया। मुझे कहना होगा कि यह काफ़ी अपमानजनक दावा है। हमारे पास इस बात का कोई सबूत नहीं है कि लल्ल सूफ़ीवाद से प्रभावित थीं। वैसे भी, लल्ल के समय में इस्लाम कश्मीर में प्रवेश करना शुरू ही कर रहा था और हमदानी के साथ लाल द्याद की बातचीत पूरी तरह से झूठी है। वे  सिर्फ़ और सिर्फ़ एक हिंदू थीं जो शैववाद से प्रभावित थीं। उनके गुरु सादमौल ने उन्हें शैव दर्शन में दीक्षा दी और वाख का पालन करते हुए उन्होंने अपना आभार व्यक्त किया। 
गुरुन दुपनाम कुन्नी वचुन
नुयबराई दुपनाम अंदर अचुन
सुई गौ लाली वाख तू वचुन
तव्वी हुयतम नंगई नचुन"

ललद्यद का कोई भी स्मारक, समाधि या मंदिर कश्मीर में नहीं मिलता है। शायद वे इन सब बातों से ऊपर थीं। वे दरअसल ईश्वर (परम विभु) की प्रतिनिधि बन कर अवतरित हुईं और उसके फ़रमान को जन-जन में प्रचारित कर उसी में चुपचाप मिल गईं

लल्लेश्वरी : जीवन परिचय

उपनाम

लालद्यद, लल्ला आरिफ़ा, लाल दीदी, लल्ला योगेश्वरी / योगेश्वरी, लालीश्री या लल

जन्म

वर्ष १३२०, पांद्रेठन गाँव

कर्मभूमि

कश्मीर

पिता

चेता भट्ट

रचनाएँ

वाख (कुल २८५)


संदर्भ

लेखक परिचय

भावना सक्सैना 
 
२८ वर्ष से शिक्षण, अनुवाद और लेखन से जुड़ी हैं। चार पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें एक पुस्तक सूरीनाम में हिन्दुस्तानी  दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम शामिल है। एक कहानी संग्रह नीली तितली  व एक हाइकु संग्रह काँच-सा मन है।

हाल ही में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से सरनामी हिंदी-हिंदी का विश्व फलक प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन भी किया है व अनेक संस्थाओं से सम्मानित हैं। नवंबर २००८ से जून २०१२ तक भारत के राजदूतावास, पारामारिबो, सूरीनाम में अताशे पद पर रहकर हिंदी का प्रचार-प्रसार किया। संप्रति - भारत सरकार के राजभाषा विभाग में कार्यरत हैं।

4 comments:

  1. वह कदापि सूफी या मुस्लिम सभ्यता से प्रभावित्त हज़ी हो सकती क्योंकि इस कालखण्ड में कश्मीर हिन्दू राष्ट्र था और शैव्य दर्शन पराकष्ठा पर था।बहुत ही सुंदर आलेख जितनी बड़ाई करूँ कम पड़ेगी।

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  2. This comment has been removed by the author.

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  3. बहुत सुंदर प्रस्तुति... बधाई भावना जी
    ममता किरण

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  4. भावना जी नमस्ते। आपने सन्त कवयित्री ललद्यद जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा। मेरे लिए तो बिल्कुल नई जानकारी थी। लेख के माध्यम से उनके साहित्य एवं जीवन को जानने का अवसर मिला। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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