Saturday, April 30, 2022

प्रेम और सौंदर्य के पथिक : रसखान

 

"या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौ"

ब्रज की गोधूलि को सिर-माथे चढ़ाने वाले रसखान कृष्ण के प्रेम में पड़कर वल्लभ संप्रदाय में दीक्षित हुए। सैय्यद इब्राहिम के 'रसखान' बनने की इबारत कान्हा के प्रेम ने ही लिखी। ब्रज के छोरे ने रूप और सौंदर्य का ऐसा जादू चलाया कि हज को निकले सैय्यद इब्राहिम उसकी रूप माधुरी में डूब कर रह गए।  

देख्यौ रूप अपार, मोहन सुंदर श्याम कौ!
प्रेमदेव की छवि लखिहीं, भयौ मियाँ 'रसखान'।

कभी रसखान तो कभी रसखाँ कहलाने वाले कवि की यह प्रेम-यात्रा धर्म और जाति की कवायद को नकार देती है और कृष्ण समर्पण की परिपाटी में एक नए यात्री से परिचय कराती है। सूरदास, मीरा और रसखान - कृष्ण भक्ति शाखा के ये ऐसे पथिक हैं, जो कान्हा के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहते। रसखान बनने की यह यात्रा कृष्ण के प्रेम में डूबकर शुरू होती है और उन्हीं के प्रेम और रूप-रस-माधुरी में निखरती है। कृष्ण के इस रूप-माधुर्य में डूबकर ही सैय्यद इब्राहिम 'रसखान' ने फ़ारसी में भागवत का अनुवाद पढ़ा और स्वाभावोक्ति अंलकार का प्रयोग करके कृष्ण के प्रति अपनी भावनाओं को व्यक्त किया। न तो उनके साहित्य में वक्रता है न स्वभाव में! हर रूप में वे केवल उस माखन-चाखनहार को ही समर्पित हैं।

ज्ञान ध्यान विद्या मति मत विश्वास विवेक

बिना प्रेम सब घूर है, एजी-जग एक अनेक

 

भक्ति काल के कवियों ने एक तरफ जहाँ कृष्ण हों या राम - दोनों के पद-चरण अनुराग की भावना व्यक्त की है तो दूसरी तरफ दास्य भाव से खुद को पतित मानकर मुक्ति की प्रार्थना की है; पर रसखान ने तो सिर्फ़ कृष्णमय हो जाने की इच्छा ज़ाहिर की है "मानुष हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन" वाले पद में रसखान का प्रेम ही है जो यह प्रार्थना करता है कि खग बने तो उसी जगह बसेरा करे जहाँ कृष्ण हैं और पत्थर बने तो उसी पर्वत का जिसे कान्हा ने उंगली पर धारण किया था। 

इनकी जन्मस्थली हरदोई ज़िले के पिहानी ग्राम को माना जाता है। हरदोई स्थित रसखान संग्रहालय में लगे हुए पत्थर पर उकेरे गए रसखान के सवैये उनके कृष्ण माधुरी में डूबे हृदय को आज भी दर्शाते हैं -

रसखान के साहित्य में कृष्ण के बाल-गोपाल रूप से लेकर भक्ति, प्रेम और यौवन की लीलाएँ मिलती हैं। भागवत की कथा-कहानी के विस्तृत रूप को न लेकर कृष्ण की भक्ति-प्रेम और यौवन की संयोग क्रीड़ा का चित्रण ही इनके काव्य के केंद्र में रहा है। बाल-गोपाल कृष्ण के रूप पर मोहित रसखान लिखते हैं -

"काग के भाग बड़े सजनी
हरि, हाथ सौं ले गयौ माखन रोटी"

- क्या भाग्य है कौए का जो हरि के हाथ से रोटी लेकर उड़ गया!

 

प्रेम के पंथ को लेकर रसखान कहते हैं,


कमलतंतु सौ छीन अरु, कठिन खड़ग की धार।

अति सूधौ टेढ़ो बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार।

 

घनानंद जहाँ प्रेम के पंथ को 'अति सूधौ' मानते हैं वहीं 'बोधा' प्रेम को 'पंथ कराल' कहते हैं। रसखान प्रेम के इस पंथ को कमल के तंतु से भी कोमल और तलवार की धार से भी कठिन मानते हैं। हो भी क्यों ना! किंवदंती से घिरे जीवन में जहाँ एक तरफ इनका प्रेम एक साहूकार के छोरे से जोड़ा गया, जिसके मोह में ये घर-बार छोड़ बैठे थे वहीं यह भी कहा जाता है कि नायिका के मानिनी रूप से आहत होकर ये उससे दूर हो गए।शिवसिंह सरोज, भक्तमाल, नवभक्तमाल, दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता में इनके वंश और कृष्ण में आसक्त होने की अनेक कथाएँ मिलती हैं। 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' के अनुसार चार वैष्णव बैठकर बात कर रहे थे जिन्होंने कहा कि प्रभु में ऐसे चित्त लगाओ जैसे रसखान का चित्त साहूकार के बेटे में लगा है। यह बात रसखान के कान में पड़ी तो वे कहने लगे कि "प्रभु को स्वरूप दिखे तो चित्त लगाएँ!" वैष्णवों ने उन्हें श्रीनाथ का चित्र दिखाया। रसखान उन पर ऐसे मोहित हुए कि संसार की कोई लौकिकता अब उन्हें मोहित न कर सकी! लोगों ने समझाया कि बादशाह को अगर यह खबर लगी तो आपको काफ़िर घोषित कर दिया जाएगा। परंतु प्रेम कहाँ धर्म की पाबंदियों में बँधता है! रसखान ने तो इन चुगली लगाने वालों पर भी दोहा जड़ दिया,

 

कहा करे रसखानि कौ, कौ चुगुल लबार!

जौ पे राखनहार है, माखन चाखन हार!

 

जिस भक्ति को प्रेम इतनी ताकत देता है, उस प्रेम के सदके कौन न जाए! रसखान का प्रेम शारीरिक है, संयोग का प्रेम है, इसमें वियोग के लिए जगह नहीं! रसखान के गोपी रूप को कान्हा का एक क्षण का वियोग भी मान्य नहीं! जिसे कान्हा की प्रेम-छाँह ने जीवन दिया हो, उसे जलने के लिए एक क्षण का वियोग भी पर्याप्त है। तीन दिन वृंदावन में बेसुध पड़े रसखान के भाव पर खुद कृष्ण भी रीझ गए तो रसखान भला उन्हें जाने कैसे देते! वे उस कान्हा के संयोग में पूरी तरह डूब गए! यह उसी संयोग का ही असर है कि योगियों ने योग से और ज्ञानियों ने ज्ञान से जिसे जानना चाहा पर जान न सके, रसखान की गोपियाँ उसी कान्हा को "छछिया भरि छाछ पै नाच" नचाती

हैं।

 

वंश और काल की नजर से 'देखि गदर हित साहिबी, दिल्ली नगर मसान' कहकर रसखान ने जिस काल का उल्लेख किया है, उसमें गदर होने और दिल्ली के श्मशान बनने का इतिहास नहीं मिलता। यह काल अकबर का शासनकाल है। इस समय एक छोटे से उत्पात का संकेत मिलता है जो अकबर के सौतेले भाई मुहम्मद हाकिम ने किया था। इतिहासकार मानते हैं कि शायद रसखान उसी की ओर संकेत कर रहे होंगे! इसी तरह इनके वंश को लेकर भी पर्याप्त मतभेद हैं - "छिन्हीं बादसा वंस की" में संकेत है कि वे बादशाह वंश के होंगे पर दूरवर्ती! हालांकि डॉ० नगेंद्र ने हुमायूँ और शेरशाह के बीच के विप्लव को इनके काल से जोड़कर देखा है। पर इस बात को लेकर इतिहासकारों में प्रायः मतभेद पाए गए हैं।

 

रसखान के प्रेम की इंतहा देखिए - "पाहन हौ तो उसी गिरि कौ..." यानी मनुष्य बनना है तो उसी गोकुल गाँव के ग्वाले के रूप में! वाणी वही चाहिए जो उसके गुण गाए, कान वही जिनमें उनके गुण सुनाई दें, हाथ वही जो उनके हाथ में हो और रसखान भी वही जो उनके हों! समर्पण की ये पराकाष्ठा न तो दास्य भक्ति का मार्ग चुनती है न ही सख्य भक्ति का! वे तो स्वयं ही कृष्णमय हो चुके हैं इसीलिए दोहे, सवैये, पद सब उनके ही नाम के हैं! मीरा, आण्डाल, चैतन्य महाप्रभु की तरह खुद को समर्पित करने वाले रसखान भी जन-मन के रचनाकार हो गए क्योंकि नि:स्वार्थ समर्पण के अतिरिक्त उन्हें और कुछ नहीं चाहिए था।

 

रसखान की कविता के वर्ण्य विषय हैं - मुरली, कृष्ण, गोपिका और भक्त-प्रेमी। इन सभी को मिलाकर ही प्रेम की पूर्णता होती है। मुरली की तान उन्हें मोहित करती है, गोपिकाएँ कृष्ण के प्रेम में मोहित रहती हैं और उन्हीं का साहचर्य गोपिकाओं को ही नहीं रसखान को भी पूर्ण करता है। लीला पुरुषोत्तम कृष्ण की लीलाओं में ही प्रेम का सुख है "हरि से बड़ौ हरि को नाम!"

 

कोई कहता है कि कृष्ण के रूप ने इन्हें मोह लिया तो किसी जनश्रुति के अनुसार वे उनके प्रेम में डूब गए! जो भी हो, उनके सवैयों के भीतर प्रेम और रूप दोनों की ऐसी मोहिनी मिलती है जिसमें आज भी जन-मन झूम रहा है। मथुरा ज़िले के महावन में इनकी समाधि है जिसे 'रसखान की छतरी' कहा जाता है। धर्मों के बीच एकता और प्रेम का संदेश देती यह समाधि आज भी रसखान के प्रेमी हृदय की कहानी कहती है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इनके सवैयों पर ही रीझ कर कहा था, "इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिक हिंदुअन वारिये" - प्रेम और समर्पण की ये अद्भुत दास्ताँ भारतभूमि की मिट्टी की वह सुगंध है जो हज़ार-हज़ार रूपों में भक्त कवियों से होकर आज भी हमारे मन को महका रही है।


रसखान : जीवन परिचय

मूल नाम 

सैय्यद इब्राहिम 

उपाधि 

रसखान 

जन्म 

संवत १५९०

निधन

संवत १६७५

जन्मभूमि 

हरदोई (पिहानी)

रचनाएँ

  • प्रेमवाटिका

  • सुजान-रसखान

  • दानलीला

  • अष्टयाम 


संदर्भ

लेखक परिचय


प्रो० हर्षबाला शर्मा

हिंदी विभाग,

इंद्रप्रस्थ कॉलेज,

दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

6 comments:

  1. एकता और प्रेम का संदेश देते रसखान के काव्य की यह जीवन प्रस्तुति मन को मोह लेने वाली है .
    आभार हर्ष इस सुंदर काव्य के रचयिता के इस आत्मीय साक्षात्कार के लिए .

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  2. हर्षबाला जी, आपने प्रेम और भक्ति के रस में डूबे रसखान पर सुंदर प्रस्तुति दी है।बधाई।
    रसखान के सवैये एक-से -एक बढ़ कर मन मोह लेने वाले हैं। लेकिन एक सवैया जो पूरा सब कुछ लूट लेता है, वह उद्धृत कर रहा हूँ :

    सेस गनेस महेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।

    जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुबेद बतावै॥

    नारद से सुक व्यास रटै पचि हारे तऊ पुनि पार न पावै।

    ताहि अहीर की छोहरिया छछिया भरि छाछ पै नाच नचावै॥ 💐💐💐

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  3. हर्ष बाला जी को बहुत बधाई। रसखान के पदों में कृष्ण भक्ति की दीवानगी का जो सुंदर चित्रण हुआ वो अद्भुत है, उसे आपने इतनी सुंदरता से व्यक्त किया। बहुत सुंदर आलेख

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  4. अति सुंदर प्रस्तुति. भक्ति में डूबे रसखान जी का जीवंत चित्रण किया है आपने
    इतना सुंदर लेख पढ़ने को मिला
    आपका हार्दिक धन्यवाद
    🙏🙏

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  5. प्रो. हर्षबाला मैडम नमस्ते। रसखान जी को हम सभी ने छोटी -बड़ी कक्षाओं में अवश्य पढ़ा है। आपके इस लेख ने एक बार फिर रसखान को जानने का अवसर दिया। आपने अपने लेख में रसखान जी के कृतित्व के विभिन्न आयामों को सम्मिलित कर विस्तृत जानकारी दी। आपको इस ज्ञानवर्धक लेख के लिये हार्दिक बधाई।

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