मातृभूमि मातृभाषा रे ममता जा हृदे जनमी नाहीं
ताकू जदि ज्ञानी गणरे गणीबॉ, अज्ञानी रहिबे काँही
"जिसके मन में मातृभूमि और मातृभाषा के प्रति प्यार नहीं, उसको ज्ञानी मानेंगे तो अज्ञानी किसे कहेंगे!"
मातृभाषा से गहन प्रेम और देशभक्ति की भावना से परिपूर्ण ये पंक्तियाँ उड़िया कवि गंगाधर मेहेर की एक लंबी कविता 'मातृभूमि' से हैं। इनका जन्म सन १८६२ में पश्चिम उड़ीसा के अविभाजित संबलपुर के बरगढ़ शहर के पास एक छोटे-से गाँव बरपालि में एक संयुक्त, ग़रीब, बुनकर परिवार में हुआ था। वैद्य और ज्योतिष-शास्त्र के ज्ञाता दादा और पिता की गिनती गाँव के सम्माननीय व्यक्तियों में होती थी। बालक गंगाधर अपने दादा जी के साथ नियमित-रूप से मंदिर जाते, जहाँ बंगाल और अलग-अलग स्थानों से संतों का आगमन होता रहता था। गंगाधर के बाल मन पर संतों के भजनों और प्रवचनों का बहुत प्रभाव पड़ा। बालक गंगाधर पिता के काम में तब भी हाथ बँटाते थे, जब वे स्कूल जाया करते थे। उनमें शिक्षा प्राप्त करने की तीव्र चाह थी, किंतु पिता के काम में पूर्णकालिक सहायता के लिए पाँचवी कक्षा के बीच में ही उनका स्कूल छुड़वा दिया गया।
गंगाधर की उचित स्कूली शिक्षा नहीं हो पाई, लेकिन उनका पूरा जीवन ही ज्ञान की खोज और साहित्य की साधना को समर्पित था। कठोर परिश्रम करने में वे हिचकते नहीं थे और हमेशा अच्छे लेखन की तलाश में लगे रहते थे। उन्हें उड़िया, बांग्ला और हिंदी अच्छी तरह से तथा थोड़ी-बहुत अँग्रेज़ी भाषा भी आती थी। इसके अतिरिक्त उन्हें संस्कृत की भी अच्छी जानकारी थी। वे लोगों से किताबें ले-लेकर स्वाध्याय करते और कोई सवाल होने पर अध्यापकों के घर जाकर पूछ लिया करते थे। यह वह दौर था, जब पश्चिम उड़ीसा इलाके के कार्यालयों में हिंदी, घर में संबलपुरी तथा छत्तीसगढ़ की एक बोली लरिया और सभ्य समाज में उड़िया बोली जाती थी। गंगाधर मेहेर के पास खाली समय कभी नहीं होता था और उन्होंने कई पौराणिक काव्य बचपन में ही पढ़ लिए थे। गंगाधर उड़िया लेखक फ़कीर मोहन सेनापति, राधानाथ राय और मधुसूदन दास से बहुत प्रभावित हुए थे। काव्य पढ़ते-पढ़ते, वैदिक साहित्य और संस्कृति को आधार बनाकर, धीरे-धीरे उन्होंने स्वयं काव्य रचना आरंभ किया। सबसे पहले शार्दूलविक्रीड़ित छंद में 'अहिल्या स्तब' लिखा। राधानाथ राय ने उसे पढ़ा और गंगाधर को किसी अन्य छंद में लिखने का सुझाव दिया। इसके बाद गंगाधर मेहेर ने अपने सारे काव्य दूसरे छंदों में लिखे। अपनी भाषा-शैली से गंगाधर ने पुराने और आधुनिक साहित्य के बीच सेतु बनाने का कार्य किया था। गंगाधर मेहेर का लेखन इतना वैविध्यपूर्ण है कि देखकर आश्चर्य होता है। जहाँ उन्होंने एक ओर आध्यात्मिक चिंतन, वैदिक संस्कृति, प्रकृति, समाज-सुधार आदि को स्वर दिया, वहीं विज्ञान, कृषि तथा अन्य विषयों पर ऐसा रम्य-लेखन किया है कि पाठक सहज रूप से उससे जुड़ जाता है।
उनका कवित्व इतना स्वाभाविक था कि कविताएँ मानो उनकी क़लम से झरती थीं, इसलिए उड़िया साहित्य जगत में उनका नाम ही 'स्वभाव-कवि' हो गया। करघे पर कपड़ा बुनते समय, ढरकी को इधर-उधर चलाते समय निकलने वाली आवाज़ से बँधी लय पर, उनके मुँह से कविताएँ अनायास प्रस्फुटित होती थीं।
स्वभाव-कवि का बचपन ग़रीबी और अभावों में ही बीता। सन १८६६ में उड़ीसा में भयावह अकाल पड़ा था। उस अकाल में कुछ इलाकों के लोगों ने केवल इमली के पत्ते खाकर निर्वाह किया था। गंगाधर के घर की आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि उनके पास पहनने के लिए एक कमीज़ तक नहीं होती थी, स्कूल भी गमछा लपेटकर जाया करते थे। उनकी लिखावट इतनी सुंदर थी कि लोग उनसे सम्मान पत्र आदि लिखवाने उनके घर आया करते थे। उनकी कड़ी मेहनत और लगन से घर की आर्थिक स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ ही था कि घर में आग लग गई। लेकिन गंगाधर के शांत स्वभाव, दृढ़ मनोबल और असीम धैर्य जैसे गुणों ने उन्हें ज़रा भी विचलित नहीं होने दिया।
तत्कालीन प्रथा के अनुसार १० वर्ष की अवस्था में गंगाधर की शादी हो गई। सन १८९७ में पत्नी के गुज़र जाने के बाद इन्होंने दूसरी शादी एक विधवा से करने का निर्णय लेकर समाज के सामने विधवा विवाह की एक अच्छी मिसाल पेश की थी।
सन १८८५ में बरपालि के ज़मींदार लाल नृपराज सिंह ने गंगाधर को अपने यहाँ पटवारी नियुक्त किया। इसके कुछ समय पश्चात गंगाधर ने ज़मींदार के ख़िलाफ़ ही गवाही दे डाली, जिसके परिणामस्वरूप ज़मींदार को ३०० रूपये का जुर्माना भरना पड़ा था। पहले तो ज़मींदार उनसे नाराज़ हुआ, लेकिन फिर उनकी ईमानदारी से खुश होकर उन्हें पुनः काम पर रख लिया और सन १८९९ में अदालती मुहर्रिर बनाए जाने के लिए उनकी सिफ़ारिश की। साल १९१७ में सेवानिवृत्त होने तक वे उसी पद पर काम कर रहे थे। तब उन्हें पैंतीस रुपये मासिक वेतन मिल रहा था, उसके बाद साढ़े बारह रुपये पेंशन जीवन-पर्यंत मिलती रही।
स्वभाव-कवि की नौकरी और लेखन साथ-साथ चलते रहे; संघर्षमय परिवेश में रहकर इन्होंने अपनी प्रतिभा की रौशनी फैलाई। उनके दर्शन में देशभक्ति, मानवतावाद, प्रकृतिवाद और आदर्शवाद के सिद्धांत मौजूद थे। उन्हें मानवता से प्यार था, इसलिए वे अपनी रचनाओं के माध्यम से आम जनता को शिक्षित और प्रबुद्ध करना चाहते थे। उनका उद्देश्य साहित्य को साधन बनाकर सामाजिक क्रांति लाना था। वे समष्टि को एक-समाज और एक-जाति मानते थे और एक धर्म 'मानव-धर्म' में विश्वास करते थे।
कवि गंगाधर मातृभूमि और मातृभाषा के प्रति प्रेम के लिए विशेषरूप से याद किए जाते हैं। यहाँ यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि उन्नीसवीं सदी के अंतिम तीन दशक उड़िया भाषा और संस्कृति के लिए संकट का दौर था। मातृभूमि और मातृभाषा पर संकट के समय गंगाधर ने इनके प्रति मात्र प्रेम दर्शाकर ही इतिश्री नहीं कर ली, बल्कि उड़िया-जन में उड़ीसा और उड़िया भाषा के प्रति अस्मिता को जगाकर सबको जोड़ने की कोशिश की। इसका एक उदहारण है उनकी कविता, 'उत्कल-लक्ष्मी'। कवि ने उड़ीसा को स्वतंत्र राज्य बनाने के लिए कई सम्मेलनों में भाग लिया।
गंगाधर मेहेर को केवल उड़ीसा और उड़िया भाषा से ही नहीं, अपितु समग्र भारत से प्यार था। वे उदार राष्ट्रवादी थे। उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय हिस्सा नहीं लिया, लेकिन लेखन के माध्यम से अँग्रेज़ों को भारत से भगाने के लिए लोगों को प्रेरित अवश्य करते रहे। उन्होंने 'भारती भावना' कविता में अँग्रेज़ों को, भारत को अपने नियंत्रण में रखने के लिए दुत्कारा है और ब्रिटिश प्रशासकों की कड़ी आलोचना की है। उस समय यदि उनकी क्रांतिकारी रचनाओं का हिंदी या अँग्रेज़ी में अनुवाद हुआ होता तो ब्रिटिश प्रशासन में खलबली मच गई होती और राष्ट्रीय आंदोलन को नई दिशा मिली होती।
'तपस्विनी' खंड काव्य इनके काव्य का शीर्ष बिंदु माना जाता है। इसमें परित्यक्ता सीता को तपस्विनी के रूप में प्रस्तुत करके सीता-वनवास की करुण गाथा का बड़ा मनमोहक चित्रण है। इसमें प्रेम प्रमुख है, लेकिन प्रेम के साथ त्याग और भावनाओं का अनोखा सम्मिश्रण इसे विशेष बनाता है। एक जगह सीता कहती हैं, "इस जन्म में और मिलना न हुआ तो अगले जन्म में मुझे ज़रूर अपना लेना। जिस मिट्टी में मेरी राख मिले, उससे फले-फूले वृक्ष की लकड़ी की खड़ाऊँ आप पहनें, यही मेरी इच्छा है।"
सच्चे प्रकृतिवादी कवि गंगाधर ने प्रकृति का सूक्ष्मतम अध्ययन करते हुए कुदरत और मनुष्य के बीच गहरा संवेदनशील संबंध कायम किया। वे धूल-मिट्टी, आसमान, फूल, मधुमक्खी के गुंजन यानी कुदरत के हर तत्व में अमृत ढूँढ़ते और यह अनोखा रसपान कर आनंद पाते। उन्होंने अन्य पात्रों की तरह प्रकृति को भी एक जीवित आत्मा और जीवित पात्र माना है। उनकी दृष्टि में वह अति संवेदनशील है और उसमें मानवीय गुण निहित हैं। कवि राधानाथ राय ने उनके प्रकृति-प्रेम से प्रभावित होकर कहा था, गंगाधर की तरह प्रकृति को आत्मसात करना आना चाहिए। पेश है 'अमृतमय' कविता की कुछ पंक्तियों के भाव,
मैं तो बिंदु हूँ
अमृत-सिंधु का,
छोड़ समुंदर अंबर में
ऊपर चला गया था।
अब नीचे उतर
मिला हूँ अमृत धारा से;
चल रहा हूँ आगे
दरिया की ओर।
पाप-ताप से राह में
सूख जाऊँगा अगर,
तब झरूँगा मैं ओस बनकर।
अमृतमय अमृत-धारा के संग
समा जाऊँगा समुंदर में।
कवि ने पूरी सृष्टि को अमृतमय सागर बताया है और उसमें ख़ुद को एक बूँद के रूप में चित्रित किया है।
स्वभाव-कवि की ईश्वर में गहरी आस्था थी। 'भक्ति', 'अमृतमय' और 'मधुमय' कविताओं में भगवान की भव्यता और मानव-आत्मा के ब्रह्म में लीन हो जाने का आकर्षक चित्रण है। 'भक्ति' कविता में कवि को सब कुछ ईश्वर का दिया हुआ लगता है और ईश्वर की दी हुई वस्तु प्रसाद में ईश्वर को देना अपराध प्रतीत होता है। इसलिए उसने अपना अहंभाव ईश्वर के चरणों में अर्पित कर दिया।
उनका पूरा जीवन 'सादा जीवन उच्च विचार' सिद्धांत पर आधारित था। ईमानदारी, सच्चाई, दया, क्षमा जैसे नैतिक गुण उनके स्वाभाविक गुण थे। गंगाधर ने 'गुरु-शिष्य', 'महाजन', 'परिश्रम' तथा कई दूसरी कविताएँ मनुष्य और समाज को नैतिकता का संदेश देने के लिए ही रची थीं।
ज़ाहिर है, कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व से बहुत लोग प्रभावित हुए। उनके लेखन के प्रशंसक, पदमपुर के राजा ने कवि के सम्मान में 'तेड़ापदर' गाँव का नाम बदलकर 'कविवरपुर' रखकर उन्हें भेंट-स्वरूप दिया था। वर्ष १९२० में बरपालि के राजा और ज़मींदार ने इन्हें चिट्ठी में यह लिखकर कि हम आपकी जन्मभूमि और कर्मभूमि में आपके सान्निध्य में रहना चाहते हैं, वापस बरपालि बुलवा लिया था। गंगाधर ने राजा के साथ रहते हुए भी उसके ख़िलाफ़ जनता के पक्ष में आवाज़ उठाते हुए शासक-रूपी शोषक एवं रक्षक-रूपी भक्षक को धर्मावतार कहकर व्यंग्य लिखा।
साल १९२१ में कवि ने 'साधु-समिति' का गठन किया और जीवन-पर्यंत समाज-सेवा करते रहे। ४ अप्रैल १९२४ को वे महायात्रा पर चले गए।
उड़ीसा में स्वभाव-कवि गंगाधर मेहेर को बड़े सम्मान और श्रद्धा से याद किया जाता है। संबलपुर विश्वविद्यालय को 'गंगाधर मेहेर' नाम दिया गया। उनके सम्मान में वर्ष १९९१ से कविता के क्षेत्र में भारत की विभिन्न भाषाओं के योगदान के लिए वार्षिक 'गंगाधर राष्ट्रीय पुरस्कार' दिया जाता है। पहला पुरस्कार वर्ष १९९१ में अली सरदार जाफ़री को मिला था।
स्वभाव-कवि की आत्मीय, कर्णप्रिय, शिक्षाप्रद और ज्ञानवर्धक कविताएँ पश्चिम उड़ीसा के स्कूलों में प्रार्थनाएँ बन गई हैं। वर्ष २०१८ के ९ अगस्त को, गंगाधर जयंती पर बरगढ़ ज़िले के ढ़ाई लाख विद्यार्थियों और शिक्षकों ने उनकी कविताओं के समूह गान से उन्हें याद किया था।
उड़ीसा में कई जगह उनकी मूर्तियाँ बनी हुई हैं। बरपालि के मेहेर मुहल्ले के उस घर को जहाँ कवि का जन्म हुआ था, विस्तृत करके गंगाधर संग्रहालय और पुस्तकालय बना दिया गया है। उनकी समाधि उड़िया साहित्य-जगत के लिए तीर्थस्थल है। स्वभाव-कवि गंगाधर मेहेर का लेखन उड़िया साहित्य में जड़ा हुआ बहुमूल्य नगीना है।
गंगाधर मेहेर : जीवन परिचय |
जन्म | ९ अगस्त, १८६२, श्रावण पूर्णिमा, रक्षा बंधन के दिन |
जन्म-भूमि | गाँव - बरपालि, ज़िला - बरगढ़ (तब अविभाजित संबलपुर), उड़ीसा |
निधन | ४ अप्रैल, १९२४ |
माता | सेवती देवी |
पिता | चैतन्य मेहेर |
पत्नियाँ | शांता देवी, चंपा देवी |
संतान | (शांता देवी से) पुत्र - अर्जुन मेहेर (१२ वर्ष की आयु में निधन), भगबान मेहेर (कवि पुत्र के रूप में प्रसिद्ध) पुत्रियाँ - बासुमती मेहेर, लखमी मेहेर (दूसरी पत्नी चंपा देवी ने तीन पुत्र गोद लिए थे) |
व्यवसाय | पटवारी, न्यायिक मोहर्रिर, लेखन |
भाषा | उड़िया |
कर्मभूमि | बीजेपुर, पद्मपुर, बरपालि, संबलपुर |
शिक्षा | कक्षा चार तक |
साहित्यिक रचनाएँ |
प्रमुख कविता संग्रह | |
प्रमुख काव्य | अहिल्यामती इंदुमती उत्कल-लक्ष्मी कीचक-वध तपस्विनी प्रणय-वल्लभी
| रसरत्नाकर महिमा कविता-कल्लोड़ अयोध्या-दृश्य बलराम देव पद्मिनी
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काव्य शैली | गीति कविता कथा कविता भक्ति गीतिका
| चतुर्दश पद कविता शोक गीतिका
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गद्य | |
निबंध | - यह पृथ्वी का शब्द है क्या?
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सम्मान |
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डॉ० सरोज शर्मा
भाषा विज्ञान (रूसी भाषा) में एमए, पीएचडी
रूसी भाषा पढ़ाने और रूसी से हिंदी में अनुवाद का अनुभव
वर्तमान में हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर कार्यरत पाँच सदस्यों की एक टीम का हिस्सा।
सुप्रभात, सरोज जी। आपने स्वाभाव-कवि गंगाधर मेहेर पर सुंदर परिचयात्मक आलेख दिया है। शोध और लेखन पर लिए आपके श्रम के लिए धन्यवाद और बधाई। स्वभाव-कवि की यह पंक्तियाँ प्रेम के अतिरेक को सौंदर्य से अभिव्यक्त करती हैं :
ReplyDelete“जिस मिट्टी में मेरी राख मिले, उससे फले फूले वृक्ष की लकड़ी की खड़ाऊँ आप पहनें , यही मेरी इच्छा है।”
ऐसे कवियों- लेखकों की रचनाओं के हिंदी अनुवाद सभी के लिए उपलब्ध होने चाहिएँ। हम अपनी ही भाषाओं के साहित्य का सम्मान नहीं करेंगे तो सबसे हिंदी के प्रति सम्मान की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं ?
हमें इन साहित्यकारों का हिंदी जगत से परिचय अवश्य कराना चाहिए। 💐💐💐
डॉ. सरोज जी नमस्ते। आपका गंगाधर मेहेर जी पर आलेख बहुत अच्छा है। मेरे लिये तो यह लेख बिल्कुल नई जानकारी है। आपके लेख के माध्यम से मेहेर जी के जीवन एवं योगदान के बारे में विस्तृत जानकारी मिली। आपका यह लेख भी आपके हर लेख की तरह शोधपूर्ण एवं रोचक है। आपको लेख के लिये हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसरोज जी नमस्ते। इस सारगर्भित और विस्तृत जानकारीपूर्ण आलेख को पढ़कर अच्छा लगा। गंगाधर मेहेर जी की साहित्यिक गरिमा और रचना संसार को जानने का अवसर मिला। बहुत बहुत बधाई आपको।
ReplyDeleteसरोज, गंगाधर मेहर जैसे अद्भुत व्यक्तित्व से परिचय कराने के लिए हृदय तल से आभार। भाषा के मर्म और उसकी आत्मा से प्रेम करने वाले, सभी भाषाओं का विकास चाहने वाले और भाषा को लेकर पूर्वी और पश्चिमी उड़ीसा के बीच जो खाई थी उसे बड़े संयम और योग से पाटने वाले इस साहित्य-कवि के बारे में जानकर धन्य महसूस कर रही हूँ। हम अंधेरे की परतों में दबे इन नगीनों से गुमनामी की जितनी भी धूल पोंछे वह कम ही होगा, पर प्रयास तो करना ही है। तुमने उस दिशा में एक क़दम बढ़ाया, इस नेक प्रयास के लिए तुम्हें आभार और बधाई।
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