मक्के गयां गल मुकदी नहीं भावें सौ सौ जुम्मे पढ़ आइये
गंगा गयां गल मुकदी नहीं भावें सौ सौ गोते खाइये
गया गयां गल मुकदी नहीं भावें सौ सौ पंड पढ़ाइये
बुल्ले शाह गल ताइयों मुकदी जदों मैं नू दिलों गवाइये
(मक्का जाने से बात बनती नहीं है चाहे सौ-सौ नमाज़ें पढ़ आएँ। गंगा जाने से बात बनती नहीं चाहे सौ-सौ गोते खा आएँ। गया जाने से बात बनती नहीं चाहे सौ-सौ प्रार्थनाएँ कर आएँ। बुल्ले शाह, बात तो तभी बनती है जब दिल में से "मैं" को निकाल बाहर फेंकें!)
मिलिए बुल्ले शाह (१६८०-१७५७) से। पूर्वी पंजाब (भारत) और पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) में वारिस शाह के साथ सर्वाधिक लोकप्रिय सूफ़ी फ़कीर। भक्ति काल के संतों और सूफ़ी फ़कीरों का बड़ा सहज-सरल मार्ग था। बिना किसी पाखंड, कर्म कांड के, प्रेम से भरकर, पूर्ण समर्पण कर प्रभु से एक हो जाना। स्वयं को शून्य कर, महाशून्य में विलीन हो, अनंत हो जाना। लेकिन स्वयं को शून्य करें कैसे? देखिए, बुल्ले शाह बताते हैं, कैसे कुछ भी ना होकर सब कुछ हो जाना -
बुल्ला की जाणां मैं कौण?
(बुल्ले शाह, क्या जानूँ मैं कौन हूँ?)ना मैं मोमन विच मसीतां ना मैं विच कुफ़र दीयां रीतां
ना मैं पाकां विच पलीतां ना मैं मूसा ना फ़रौन
बुल्ला की जाणां मैं कौण?
(न मैं मस्जिद का मोमिन हूँ, न ही कुफ़्र की रीतियों को मानने वाला काफ़िर। न मैं अपवित्रता में पवित्र हूँ। न मैं हज़रत मूसा हूँ, न ही फ़िरौन(मिश्र के देवता)।)ना मैं अंदर बेद किताबां ना विच भंगां ना शराबां
ना मैं रिंदां मस्त खराबां ना विच जागण ना विच सौण
बुल्ला की जाणां मैं कौण?
(न मैं वेद-ग्रंथों में हूँ, न मैं भांग, शराब जैसे नशों में हूँ, न ही मैं मदहोश की मस्ती में खोया हुआ हूँ। न मैं जागने में हूँ, न सोने में)ना मैं शादी ना ग़मनाकी ना मैं विच पलीतां पाकीं
न मैं आबी ना मैं खाकी ना मैं आतिश ना मैं पौण
बुल्ला की जाणां मैं कौण?
(बुल्ले शाह, क्या जानूँ मैं कौन हूँ?)(न मैं खुशी में हूँ, न ग़म में हूँ। न मैं शुद्ध हूँ, न अशुद्ध। न मैं जल से हूँ, न थल से। न मैं अग्नि हूँ, न वायु।)
ना मैं अरबी ना लाहौरी ना मैं हिंदी शहर नागौरी
ना हिंदू ना तुर्क पशौरी ना मैं रहंदा विच नदौण
बुल्ला की जाणां मैं कौण?
(न मैं अरबी हूँ, न लाहौरी। न मैं नागौर (राजस्थान) का रहने वाला हिंदी हूँ। न मैं पेशावर का रहने वाला तुर्क (मुसलमान) हूँ, न ही मैं नदौन में रहता हूँ ।))ना मैं भेत मज़हब दा पाया ना मैं आदम हव्वा जाया
ना कोई अपणा नाम धराया ना विच बैठण ना विच भौण
बुल्ला की जाणां मैं कौण?
(न मैंने मज़हब के भेद को जाना, न मैं आदम और हव्वा की संतान हूँ। न ही मैंने अपना कोई नाम धारण किया है। न मैं स्थिर (बैठा हुआ) हूँ, न ही गतिमान (भ्रमण में) हूँ।)अव्वल आखर आप नू जाणां
न कोई दूजा होर पछाणां
मैं तों ना कोई होर स्याणा
बुल्ले शाह खड़ा है कौण?
(प्रारंभ और अंत स्वयं को जानता हूँ। किसी द्वैत (दूजे) को नहीं जानता। मुझ से ज़्यादा सयाना कोइ नहीं! वह बुल्ले शाह कौन खड़ा है?)देखिए, अब विलय हो गया। यह "अहं निर्विकल्पो, निराकार रूपो" वाली स्थिति आ गई है। ब्रह्म से एकात्म हो द्वैत भाव मिट गया है।
ऐसी मस्त, मुक्त, बेफ़िक्र रचनाएँ (जो बुल्ले शाह की काफ़ी कहलाती हैं) लिखकर गाने और नाचने वाले बुल्ले शाह को आज भी सारा पंजाब गाता है, सरहद के इस पार भी और उस पार भी। उनकी कही बातें लोकोक्तियाँ बन चुकी हैं, मुहावरों की तरह दैनिक बोल-चाल की भाषा का हिस्सा हैं।
आपका जन्म १६८० ईस्वी में मुग़ल-शासित पंजाब में उच्च, बहावलपुर (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था। आपका पूरा नाम सैयद अब्दुल्ला शाह क़ादरी था। आपके पिता कसूर से ५० मील दूर पंडोके चले गए थे। आपकी प्रारंभिक शिक्षा पिता की देख-रेख में हुई एवं उच्चतर शिक्षा कसूर में संपन्न हुई। शिक्षा प्राप्त करने के बाद बुल्ले शाह लाहौर आ गए जहाँ उनकी भेंट इनायत शाह (बाबा इनायत शाह क़ादरी) से हुई और वे इन सूफ़ी फ़कीर के शागिर्द बन गए। बुल्ले शाह ने सूफ़ी रवायत के पंजाबी काव्य को अपनाया जैसे शाह हुसैन (१५३८-१५९९), सुल्तान बाहु (१६२९-१६९१) और शाह शरफ़ (१६४०-१७२४) का काव्य लेखन था। इनकी प्रमुख रचनाएँ पंजाबी और सिंधी भाषाओं की प्रचलित काफ़ी शैली में लिखी गई हैं। इनका स्वयं का लिखा हुआ कोई संकलन उपलब्ध नहीं है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुने गए एवं समय-समय पर साहित्यकारों, संगीतकारों द्वारा दर्ज़ किए गए काव्य को ही आज भी उनकी याद में गाया जाता है। आपकी काफ़ी को आबिदा परवीन, रेश्मा, रुना लैला, नुसरत फ़तेह अली खान, रब्बी शेरगिल, साबरी बंधु, वडाली बंधु, लखविंदर वडाली, जुनून बैंड, साईं ज़हूर और ऐसे अनेक नामचीन गायकों एवं घरानों ने गाया है। बुल्ले शाह की विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय रचना है, दमादम मस्त कलंदर। १३वीं शताब्दी में मूल लेखन अमीर खुसरो ने किया था लेकिन १८वीं शताब्दी में बुल्ले शाह ने इस रचना का स्वरूप ही बदल दिया और यह सिंध एवं पंजाब में अत्यधिक लोकप्रिय हो गई।
बुल्ले शाह जात-पात के पाखंड को नहीं मानते थे, यह बात तो उन्होंने अपने गुरु के चयन में ही सिद्ध कर दी थी। बुल्ले शाह सय्यद घराने से थे जो एक सम्मानित वंश माना जाता था। यह लोग हज़रत अली के वंशज माने जाते थे। बुल्ले शाह के मुर्शिद शाह इनायत राईं (आराइन) जाति के थे जो सय्यद की अपेक्षा हीन जाति मानी जाती थी। इसीलिए हमारे इन सूफ़ी कवि को इनकी बहनें-भाभियाँ समझाने आईं कि शाह इनायत का साथ छोड़ दें। कवि का वर्णन इस प्रकार है-
बुल्ले नू समझावण आइयां भैणां ते भरजाईयां
मन लै बुल्ला साडा कहणा छड दे पल्ला राईयां
आल नबी औलाद अली नू तूं की लीकां लाईयां
जेहड़ा सानूं सय्यद सदे दोज़ख़ मिलण सजाईयां
जो कोई सानूं राईं आखे बहिश्ती पींघां पाईयां
राईं साईं सभनी थाईं रब दीयां बेपरवाहीयां
सोहणीयां परे हटाईयां ने ते कोझीयां लै गल लाईयां
जे तूं लोड़ें बाग़ बहारां चाकर हो जा राईयां
बुल्ला शाह दी ज़ात की पुछना ऐं शाकर हो रजाईयां
(बुल्ले को उसकी बहनें और भाभियाँ समझाने आईं। कहने लगीं कि बुल्ला हमारा कहना मान ले और राईं (शाह इनायत) का साथ छोड़ दे। तू क्यों नबी की शान पर और अली के वंश पर लकीर फेर रहा है। बुल्ले शाह उत्तर देते हैं, कि जो भी हमें सय्यद कहता है, वह नर्क की सज़ा पाएगा। जो कोई मुझे राईं (आराइन) कहेगा, उसे स्वर्ग के झूले मिलेंगे। राईं के प्रभु तो सर्वत्र व्याप्त हैं और वह इस भेद-भाव से बेपरवाह हैं। उन्होंने सुंदरियों को परे हटा दिया है और कुरूप को गले लगा लिया है। यदि बुल्ले शाह को बाग़-बहारें (प्रभु से मिलन, स्वर्ग का सुख) चाहिए तो राईं (शाह इनायत) का चाकर हो जाना है। बुल्ले शाह की ज़ात क्या पूछते हो, वह तो शुक्रगुज़ार होकर आनंदित है।)बुल्ले शाह का काव्य विशुद्ध प्रेम एवं समर्पण का काव्य है। यदि प्रभु प्रियतम से एक होना है तो वह कुत्तों से भी प्रेरणा लेने में नहीं हिचकिचाते,
राती जागें ते शेख सदावें पर रात नू जागण कुत्ते, तैथों उत्ते
राती भौंकण बस न करदे फेर जा लड़ा विच सुत्ते, तैथों उत्ते
यार दा बूहा मूल ना छडदे भावें मारो सौ-सौ जुत्ते, तैथों उत्ते
बुल्ले शाह उठ यार मना लै नईं तां बाज़ी लै गए कुत्ते, तैथों उत्ते
(तू रात को इबादत में जाग कर शेख़ कहलाता है, रात को कुत्ते जागते हैं, तुझसे ऊपर हैं। रात भर भौंकना बंद नहीं करते, फिर आंगन में जाकर सो जाते हैं, तुझसे ऊपर हैं। अपने प्रियतम का द्वार नहीं छोड़ते चाहे उन्हें सौ-सौ जूते मारो, तुझसे ऊपर हैं। बुल्ले शाह, उठ कर अपने प्रियतम को मना ले नहीं तो कुत्ते ले गए बाज़ी, तुझसे ऊपर हैं।)यह प्रेम का चरम है, स्वयं के भीतर उपस्थित ब्रह्म के साक्षात्कार का श्रम है, जिसके लिए मन पर जमी मिट्टी को साफ़ करना होता है, भ्रम की दीवार को गिराना होता है। इसलिए बुल्ले शाह कहते हैं,
पढ़ पढ़ आलिम फ़ाज़िल होया कदे अपणे आप नू पढ़्या नईं
जा जा वड़दा मंदर मसीतां कदे मन अपणे विच वड़्या नईं
ऐवें रोज़ शतान नाल लड़दा ऐं कदे नफ़स अपणे नाल लड़्या नईं
बुल्ले शाह असमानी उड़दा फिरदा ऐं जेड़ा घर बैठा उहनू फड़्या नईं
(तू पढ़ पढ़ कर ज्ञानी-विद्वान हो गया है लेकिन तूने अपने आप को तो पढ़ा ही नहीं। मंदिरों-मस्जिदों में बार बार घुसता है लेकिन कभी अपने अंदर तो घुस कर देखा ही नहीं। ऐसे ही रोज़ शैतान से लड़ता रहता है लेकिन कभी अपने ही अहं से तो लड़ा ही नहीं। बुल्ले शाह कहता है, कि तू आसमान में खोजता फिरता है, जो घर में (मन में) बैठा है, उसे तो तूने पकड़ा ही नहीं)अब यह मन में जब गहरी डुबकी मारी जाएगी तो पता लगेगा कि रुकावट तो द्वैत भाव की है, ईर्ष्या-द्वेष की है, स्वयं के श्रेष्ठ होने के अहंकार की है। अब इस काई को साफ़ कर ब्रह्मांड से एकात्म हो जाने के लिए क्या करें? तो बुल्ले शाह बोले,
चल बुल्ल्या हुण उत्थे चलिये जित्थे सारे अन्ने
ना कोई साडी ज़ात पछाणे ना कोई सानू मन्ने
(चल बुल्ले शाह अब वहाँ चलते हैं जहाँ सब अंधे हैं। न कोई हमारी जात पहचानेगा/पूछेगा, न कोई हमें मानेगा (कोई भी सुनिश्चित मान्यता नहीं देगा)। अर्थात जहाँ इंसान होने के अतिरिक्त और कोई पहचान ही न हो।) बस, यदि सारे भेद मिट गए, कुछ द्वैत रहा ही नहीं, सब कुछ और सब कोई एक ब्रह्म में ही दिखाई देने लगे तो हो गया एकात्म। जो भी इष्ट हो; राम कहो, कृष्ण कहो, शिव कहो, अल्लाह कहो, गुसाईं कहो, गॉड कहो, वही हो गए। आत्मा परमात्मा हो गई। फिर हीर में कुछ भी हीर का तो रहा नहीं, वह तो राँझा हो गई। बुल्ले शाह कहते हैं,
राँझा राँझा करदी नी मैं आपे राँझा होई
सद्दो नी मैंनू धीदो राँझा हीर ना आखो कोई
राँझा मैं विच मैं राँझे विच होर ख़याल ना कोई
मैं नईं ओह आप है आपणी आप करे दिलजोई
(राँझा-राँझा करते करते मैं स्वयं ही राँझा हो गई। अब मुझे राँझा ही बुलाओ, कोई मुझे हीर ना कहो। मैं राँझे में हूँ और राँझा मुझमें है, अब दूसरा कोई विचार है ही नहीं। मैं हूँ ही नहीं, वह आप ही दिलजोई कर रहा है (खेल खेल रहा है, उसका कौतुक है)।) अब इसके बाद की यात्रा तो विशुद्ध आनंद की यात्रा है। कोई तृष्णा नहीं, पीड़ा नहीं, दुख नहीं, केवल विशुद्ध आनंद। सृष्टि का खेल समझ में आ जाता है और खेल के रचयिता से हर बात में सहमति हो जाती है। कोई आपत्ति है ही नहीं, केवल आभार है, शुक्राना है। विस्मय है उसके कौतुक का, कि उसने स्वयं से अलग कर यह आकार बनाया, फिर हमें यह अद्भुत रचना और इसका खेल दिखाया और फिर से विलीन होने की विधि भी सिखा दी। सो, हर समय आनंद में रहने और धन्यवाद करने के अतिरिक्त शेष कुछ रह ही नहीं जाता। बुल्ले शाह ने इस खेल के विस्मय का प्रदर्शन ऐसे किया है,
चढ़दे सूरज ढलदे वेखे बुझे दीपक बलदे वेखे
हीरे दा कोई मुल ना तारे खोटे सिक्के चलदे वेखे
जिनाँ दा ना जग ते कोई ओह वी पुत्तर पलदे वेखे
ओहदी रहमत दे नाल बंदे पाणी उत्ते चलदे वेखे
लोकी कहंदे दाल नईं गलदी मैं ते पत्थर गलदे वेखे
जिनाँ कदर न कीती यार दी बुल्ल्या हथ खाली ओह मलदे वेखे
(चढ़ते हुए सूरज ढलते हुए देखे। बुझे हुए दीपक जलते हुए देखे। ऐसा भी देखा कि हीरे का तो कोई मोल नहीं लगा रहा और खोटे सिक्के चल रहे हैं। जिन का जग में कोई नहीं है, वह बच्चे भी पल रहे हैं। उसकी रहमत से बंदों को पानी के ऊपर चलते हुए देखा। लोग कहते हैं, कि दाल नहीं गलती, मैंने तो पत्थरों को गलते हुए देखा। जिन्होंने रब की कद्र नहीं की, बुल्ले शाह ने उन्हें खाली हाथ मलते हुए देखा।) इस प्रकार इस सूफ़ी ने स्वयं को खोजते खोजते जो कुछ पाया, वह सब हमको अपनी सुंदर काफ़ियों के माध्यम से सौंप दिया। अब यह हम पर निर्भर करता है कि इस ज्ञान, इस अनुभव का अपने जीवन में लाभ उठाएँ, पुनराविष्कार में अपना जीवन खपा दें।
बुल्ले शाह ने ७७ वर्ष की आयु में (१७५७ ईस्वी) इस संसार से विदा ली। कसूर के कट्टरपंथी मुल्लाओं ने उन्हें कुफ़्र फ़तवा के आदेश के अंतर्गत ग़ैर-मुस्लिम करार दिया और उन्हें कसूर की सीमा में दफ़नाए जाने की इजाज़त नहीं दी। उनकी अंत्येष्टि कसूर के महत्व्पूर्ण धार्मिक व्यक्तित्व क़ाज़ी हफ़ीज़ सय्यद ज़ाहिद हमदानी के नेतृत्व में कसूर के बाहरी इलाके में की गई जहाँ उनकी सुंदर मज़ार है। लोग उनके मज़ार के आस-पास बसते चले गए और यह मज़ार शहर के मध्य में आ गया।
प्रभु के प्रेम में डूबे इस सूफ़ी ने अपनी प्रसिद्ध रचना "तेरे इश्क नचाया" में हमसे ठीक ही कहा है कि यह जीवन नृत्य अपने प्रियतम को रिझाने और उससे मिलन के लिए ही है,
छुप गया वे सूरज बाहर रह गई लाली
वे मैं सदके होवां देवें मुड़ जे विखाली
पीरा मैं भुल गइयां तेरे नाल ना गइयां
तेरे इश्क नचाया कर के थइय्या थइय्या
अद्भुत!इनके बारे में पहली बार इतनी गहराई से कुछ पढ़ा। धन्यवाद आपको!
ReplyDeleteबुल्ले शाह को जितना पढ़ा जाऐ , उतना ही कम है
ReplyDelete- बीजेन्द्र जैमिनी
बाबा बुल्ले शाह पर लिखा यह लेख बहुत ही सूफियाना है। लेख पढ़ कर बहुत सारी नई जानकारी मिली और मन आनंदित हो गया। इस जानकारी भरे विशेष लेख के लिये लेखक को साधुवाद एवं हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteअभी आलेख पढ़ा और देखे लेखक के नाम के स्थान पर जोड़े गये कर-कमल।
ReplyDeleteबुल्ले शाह के आलेख को कलमबद्ध करने वाले द्वारा नाम ना लिखना ही साबित करता है कि वे ही सूफियाना दरवेश बुल्ले शाह पर कुछ लिखने के योग्य हकदार हैं।
जब .." मैं कौन " ही से बात शुरू होनी है तो " मैं " विलोप होना ही था , नाम का क्या काम 🙏
अद्वैत दर्शन के अनेक प्रणेताओं ने एकात्मवाद और एको अहं द्वितीयो नास्ति के सिद्धान्तों का प्रतिपादन अपने अपने ढंग से किया , पर बुल्ले शाह ने इतना गूढ़ दर्शन जिस निरालेपन से व्यक्त किया, वह अद्वितिय है। यह उनके अंदाजे बयां की सरलता ही थी जो आज तक जन मानस उनसे जोड़े है ।
बुल्ला की जाना मैं कौन ...
जब राबी शेरगिल ने इस गीत को अपनी आवाज दी , तो कितने ही दिनों तक बस यही गीत बजता था मेरे घर और एक अजीब सी रूहानी मस्ती छायी रहती थी ।
बुल्ले शाह के सूफियाना कलाम को आत्मसात करते हुए इस आलेख के लेखक ने उतने ही सूफियाना ढ़ग से एक एक शब्द उकेरा है ।
इस आलेख के लेखक को प्रणाम।
बुल्लेशाह की यह चर्चा रोज़ हो, उनकी काफ़ियों में हम ऐसा रमें कि डूब जाएँ, मुहब्बत, इंसानियत और रब से एक होने की बात ही अहम् है बाक़ी सब वहम है समझ जाएँ, तो क्या मनमोहक हो यह दुनिया और सारे मसले अपने आप ही हल हो जाएं, हमें आज जैसी परिस्थितियों (युद्ध) का कभी सामना ही न करना पड़े। महा-ज्ञानी और इंसानियत की उम्दा मिसाल बुल्लेशाह को सलाम। हरप्रीत जी, भक्ति और मानवता में डूबे इस लेख को हम तक पहुँचाने के लिए आपका आभार और बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteऐसी महान विभूति को कोटिशः नमन🙏🙏
ReplyDeleteहरप्रीत जी, बहुत सहजता से आपने बुल्ले शाह के कार्यों पर प्रकाश डाला है। रोचक और सारगर्भित आलेख पढ़कर मजा आया। अति सराहनीय और उत्तम आलेख।
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