हिंदी विश्व कोश जैसे बृहद(बारह खंडों के) ग्रंथ का संपादन करके हिंदी में पहली बार एक विशाल शब्द-अर्थ-ज्ञान का संगम तैयार करने वाले डॉ० धीरेंद्र वर्मा, स्वयं ज्ञान के बृहद कोश थे। यह कोश अपने-आप में अभूतपूर्व कार्य था, ऐसे कई असाध्य दिखने वाले कार्यों को करने वाले डॉ० धीरेंद्र वर्मा का नाम हिंदी भाषा और साहित्य के मूर्धन्य चिंतकों और लेखकों में बहुत आदर से लिया जाता है। एक समय था, जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी पढ़े हुए विद्यार्थियों का बहुत नाम और सम्मान था; आज भी वहाँ के हिंदी-विभाग का बहुत नाम है। विश्वविद्यालय के हिंदी-विभाग के इस नाम और सम्मान की आधारशिला डाली थी, डॉ० धीरेंद्र वर्मा ने। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय हिंदी-विभाग के प्रथम अध्यक्ष थे। उन्होंने योग्य व्यक्तियों को विभाग में लेकर और अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों से हिंदी शिक्षण में एक नया इतिहास रचा।
डॉ० धीरेंद्र वर्मा का जन्म १७ मई, सन १८९७ को बरेली, उत्तर प्रदेश में हुआ था। इनके पिता खानचंद जी एक ज़मींदार थे, और भारतीय संस्कृति के अच्छे जानकार व उससे प्रेम करने वाले भी। वे आर्य समाजी थे; धीरेंद्र वर्मा जी पर अपने पिता के गुणों का बहुत प्रभाव पड़ा। उन्होंने क्वींस कॉलेज, लखनऊ से हिंदी में विशेष योग्यता के साथ परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। म्योर सेंट्रल कॉलेज, इलाहाबाद से १९२१ में संस्कृत से एम० ए० परीक्षा पास करने के बाद पेरिस विश्वविद्यालय से डी० लिट० की उपाधि प्राप्त की। फ़्रेंच भाषा में ब्रजभाषा पर किये गए उनके शोध-प्रबंध का बाद में हिंदी अनुवाद किया गया। वे चाहते तो उस समय के प्रचलित व्यवसाय यानी आई० ए० एस० बनने की ओर जा सकते थे, परंतु उन्होंने उस प्रसिद्ध और लोकप्रिय व्यवसाय को अपनाने के स्थान पर एक प्राध्यापक बन कर नई-पीढ़ी को हिंदी सिखाने और साहित्य से जोड़ने के कार्य को अपना जीवन समर्पित किया। उनके अध्यापन का प्रभाव अनेक पीढ़ियों पर पड़ा और अनेक ऐसे विद्यार्थी निकले जिन्होंने हिंदी-साहित्य को समृद्ध किया; जैसे धर्मवीर भारती, डॉ० रामस्वरूप चतुर्वेदी, डॉ० रघुवंश आदि। डॉ० धर्मवीर भारती अपने गुरु डॉ० धीरेंद्र वर्मा का बहुत आदर करते थे और उन्होंने ‘धर्मयुग’ में डॉ० धीरेंद्र वर्मा जी पर विशेषांक भी निकाला। धीरेंद्र वर्मा जी बहुत ही ईमानदार, आत्मानुशासित और संयमी व्यक्ति थे। उन्होंने कई सरकारी और ग़ैर-सरकारी संस्थाओं की अध्यक्षता की। बड़े पदों पर रहे, पर न तो कभी किसी की सिफ़ारिश मानी और न कभी किसी की सिफ़ारिश की। उन्होंने सदैव सही का साथ दिया। डॉ० रघुवंश दिव्यांग थे; पर हाथ और पैर जोड़ कर वे बहुत सुंदर (मोती जैसे) अक्षर लिखते थे। उन्होंने ऐसी अवस्था के बाद भी अनेक पुस्तकें लिखी थीं। विश्वविद्यालय के हिंदी-विभाग में जब नियुक्ति की बात हुई, तो कम लोग डॉ० रघुवंश की नियुक्ति के पक्ष में थे। अधिकांश लोग इसका विरोध कर रहे थे, कि वे अपनी शारीरिक स्थिति के कारण श्याम-पट्ट पर कैसे लिखेंगे? परंतु डॉ० रघुवंश की योग्यता को देखते हुए धीरेंद्र वर्मा जी ने उन्हीं का पक्ष लिया और उन्हें नियुक्त किया। फ़ादर कामिल बुल्के को भी डॉ० वर्मा ने हिंदी-क्षेत्र में आने के लिए प्रोत्साहित किया और बाद तक उनके हिंदी भाषा-साहित्य संबंधी कार्यों को प्रोत्साहन देते रहे। फ़ादर बुल्के ने भी अपनी पुस्तक में डॉ० वर्मा की प्रेरणा के प्रति कृतज्ञता जताई है। हिंदी-साहित्य को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से निरंतर समृद्ध करने वाले, धीर-गंभीर डॉ० वर्मा अपने सहयोगियों और मित्रों से बहुत स्नेह रखते थे। उनके बचपन के परम मित्र डॉ० बाबूराम सक्सेना ने उनके कई शोध-ग्रंथों के कार्यों में अपना सहयोग दिया। जब डॉ० वर्मा पेरिस में थे, तब डॉ० सक्सेना ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे। डॉ० वर्मा ने अपने मित्र से न मिल पाने के दु:ख को एक पत्र में (शेर) लिखा-
आँख की पुतली से बढ़कर
जिसको हम करते थे प्यार
या इलाही, उनको देखे एक ज़माना हो गया।
उनकी आत्मीयता और मौन-स्नेह उनकी सौम्य-मूर्ति से छलकता था, पर उनकी गंभीर मुद्रा और कम बोलने की आदत के चलते बहुत लोग उनसे डरते थे; पर जो उनको एक बार जान जाता था, वह उनके निष्कपट, अनुशासित, कर्मठ-जीवन के प्रति श्रद्धा भाव रखे बिना नहीं रह सकता था। वे सभी की बात बहुत ध्यान से सुनते थे और माँगे जाने पर अपनी राय देते थे। अगर उसके बाद उनकी राय नहीं मानी जाती थी और नुकसान हो जाता, तो वे कभी यह नहीं कहते थे कि ‘देखो मैंने कहा था न...’। वे इस बात को कह कर व्यक्ति को और संकोच में डालने के बजाय, उस समस्या से निपटने के रास्ते ढूँढते थे।
डॉ० वर्मा की शोध-प्रवृति वाली लेखनी ने हिंदी भाषा और साहित्य को किस प्रकार समृद्ध किया? वह आपको उनकी प्रकाशित कृतियों की सूची देखकर हो जाएगा; पर उनकी सहज भाषा में लिखे सरल पर बहुत ईमानदार प्रश्नों का पता उनकी डायरी से लग सकता है। ‘हंस’ में प्रेमचंद जी ने उनकी डायरी के कुछ पृष्ठ छापे थे, उनमें से कुछ पंक्तियाँ देखिए-
"कुछ विद्वानों ने सत्य और असत्य को जानने के लिए बहुत परिश्रम के बाद कुछ सिद्धांत रचे हैं; किंतु यह भी अलग-अलग हैं। एक कहता है कि जो आँख से दिखाई दे, वह अवश्य है। किंतु दूसरी ओर एक धुरंधर विद्वानों की मंडली कहती है, कि जो कुछ दिखाई पड़ता है, वह भ्रम मात्र है। हद हो गई! कैसे पता चले कि इनमें कौन ठीक है?"
एक ओर सरल भाषा में डॉ० वर्मा दार्शनिक बात को व्यक्त करते हैं, वहीं उन्होंने भाषा को क्लिष्ट किए बिना बहुत गहरे अध्ययन, शोध और विवेचना के बाद ‘हिंदी भाषा का इतिहास’ लिखा। भूमिका में अनेक विद्वानों जैसे टर्नर, हार्नर, ग्रियर्सन, डॉ० बाबू राम सक्सेना, रूडोल्फ़ हार्नी, रामकृष्ण गोपाल भंडारकर आदि ने जो भाषा, इतिहास, निबंध, व्याकरण और सर्वे आदि किए हैं; उनका परिचय देते हुए वे लिखते हैं-
"प्रस्तुत 'हिंदी भाषा का इतिहास' इस विषय पर हिंदी में एक विस्तृत तथा पूर्ण ग्रंथ की आवश्यकता की पूर्ति के प्रयास-स्वरूप है। हिंदी भाषा के इस इतिहास की सामग्री का मुख्य आधार गत साठ-सत्तर वर्ष के अंदर यूरोपीय तथा भारतीय विद्वानों द्वारा किया गया आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं से संबंध रखने वाला वह कार्य है, जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। ...सामग्री के एकत्रित करने में तथा एक-एक रूप की तुलना करने में जो परिश्रम करना पड़ा, वह पुस्तक पर एक दृष्टि डालने से ही विदित हो सकेगा। यह सब होने पर भी पुस्तक की त्रुटियों को लेखक से अधिक और कोई नहीं समझ सकता। हिंदी भाषा का सर्वांगपूर्ण इतिहास तभी लिखा जा सकता है, जब हिंदी की प्रत्येक बोली पर वैज्ञानिक ढंग से काम हो चुके। अभी तो इस तरह का कार्य प्रारंभ ही हुआ है। ऐसी अवस्था में हिंदी भाषा का पूर्ण इतिहास लिखने के लिए दस-बीस वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ती। इतनी प्रतीक्षा करना व्यावहारिक न समझ कर लेखक ने हिंदी भाषा के इतिहास के इस पूर्वरूप को हिंदी भाषा के विद्यार्थियों तथा विद्वानों के सामने रख देना आवश्यक समझा। ...आशा है कि भविष्य में हिंदी भाषा के पूर्ण इतिहास के लिखने तथा इस विषय पर नए मार्गों में खोज करने के लिए यह ग्रंथ पथ-प्रदर्शक का काम कर सकेगा।"
इस विस्तृत उद्धरण के देने का कारण इस कार्य की महत्ता और श्रम को बताना था। उन्होंने दुनिया की अनेक भाषाओं और हिंदी के बीच व्याकरण-ध्वनि आदि के आदान-प्रदान, भारत की प्राचीन आर्य और द्रविड़ भाषाओं के साथ हिंदी भाषा के संबंध के विस्तृत विवेचन का लगभग असंभव काम किया है। यह काम ५० से अधिक साल तक अपने प्रकार का एक ही काम रहा, उसके बाद ही प्रकाशकों और अन्य लेखकों ने इसको आधार बना कर आगे का काम किया। इसीलिए विकीपीडिया में उनके बारे में लिखा गया है कि "जो कार्य हिंदी-समीक्षा के क्षेत्र में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने किया, वही कार्य हिंदी-शोध के क्षेत्र में डॉ० धीरेंद्र वर्मा ने किया था।"
हिंदी और हिंदुस्तानी भाषाओं के इतिहास और भविष्य के विषय में उनका अध्ययन और चिंतन अद्भुत था, जो उनकी अनेक पुस्तकों में मिलता है। १९३० में प्रकाशित ‘हिंदी राष्ट्र या सूबा हिंदुस्तान’ पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं, “हिंदी में हिंदी राष्ट्र के विशाल इतिहास की अभी कल्पना भी नहीं हो पाई है। मेरी यह पुस्तक उस कल्पना को साकार करने का प्रारंभिक प्रयास मात्र है।”
डॉ० अमरनाथ कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफ़ेसर और हिंदी विभागाध्यक्ष भी रह चुके हैं; उन्होंने ५० से अधिक हिंदी आलोचकों के अवदान को रेखांकित करते हुए लेख लिखे हैं। डॉ० धीरेंद्र वर्मा पर वे लिखते हैं "...इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रथम हिंदी विभागाध्यक्ष, सागर विश्वविद्यालय में भाषा-विज्ञान विभाग के अध्यक्ष तथा जबलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति रहे डॉ० धीरेंद्र वर्मा (१७.०५.१८९७-२३.०४.१९७३) ने हिंदी भाषा और साहित्य के अध्ययन-अध्यापन और अनुसंधान के क्षेत्र में पथ-प्रदर्शन का काम किया है। वे सिर्फ़ एक व्यक्ति नहीं, एक संस्था थे। हिंदी में शिक्षण, शोध और साहित्य-सृजन के क्षेत्र में उन्होंने नए कीर्तिमान स्थापित किए।"
डॉ० वर्मा की सभी प्रमुख पुस्तकों में वैज्ञानिक-शोध चर्चा देखने को मिलती हैं; जैसे- ब्रजभाषा व्याकरण, आधुनिक हिंदी काव्य में नारी भावना, प्राकृत अपभ्रंश साहित्य, मध्यदेश, ग्रामीण हिंदी, हिंदी राष्ट्र या सूबा हिंदुस्तान, संपादित-हिंदी विश्वकोश (बारह खंड), हिंदी साहित्य कोश (दो खंड), हिंदी साहित्य (तीन खंड) आदि। डॉ० अमरनाथ लिखते हैं, "हिंदी साहित्य कोश उनका दूसरा असाधारण कार्य है। अपने प्रकाशन के छः दशक से अधिक हो जाने के बावजूद आज भी इस ग्रंथ की महत्ता कम नहीं हुई है। हिंदी भाषा और साहित्य के हर गंभीर अध्येता के लिए यह अनिवार्य जैसा है। आज भी इसका कोई विकल्प नहीं है।" उनके कई शोध-ग्रंथ इसी प्रकार से आज भी प्रासंगिक और महत्त्वपूर्ण हैं।
इतने सारे लेखन, प्रबंधन, व्यवस्थापन और अध्यापन के कामों के बीच उन्होंने अपने पारिवारिक दायित्वों को भी पूरी तरह से निभाया। पत्नी श्रीमती माया देवी के साथ अपने तीनों बेटे और तीनों बेटियों को उच्च शिक्षा दिलवाई। बेटियों के वैवाहिक-जीवन में अनेक समस्याओं के आने और उनके संबंध-विच्छेद होने पर डॉ० वर्मा ने अपनी बेटियों के पुनर्विवाह पर सहर्ष सहमति दी। उनकी प्रगतिशीलता मात्र शब्द की नहीं, व्यवहार की प्रगतिशीलता थी। वे कभी क्रोध नहीं करते थे, बच्चों की शरारतों पर भी वे सरल-संवाद से स्थिति को सहज कर देते और बच्चों को अपने कार्यों पर स्वतंत्र विचार करने के लिए प्रेरित करते थे।
उनके एक पुत्र स्व० श्री अशोक कुमार जी विगत वर्ष तक टोरोंटो में ही रहते थे। वे भी अपने पिता के समान अध्ययनशील और गहरी समझ रखने वाले व्यक्ति थे। उनकी पत्नी श्रीमती अचला दीप्ति कुमार जो स्वयं एक प्रतिष्ठित लेखिका हैं, उन्होंने बातचीत में डॉ० धीरेंद्र वर्मा के संयमी, गंभीर, विचारशील और आत्मानुशासित व्यक्तित्व के बारे में बताया। अचला जी बहुत प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान और भाषा वैज्ञानिक डॉ० बाबूराम सक्सेना की पुत्री हैं और स्वयं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास की प्राध्यापक रह चुकी हैं। उन्होंने अपने पिता और ससुर का भाषा और साहित्य के प्रति गहरा समर्पण और कर्म-निष्ठा देखी थी और दोनों के व्यक्तित्वों को बहुत निकट से जानती थीं। इस लेख में डॉ० वर्मा के व्यक्तित्व के बारे में लिखने में उनसे बहुत सहायता मिली है, जिसके लिए मैं उनकी बहुत आभारी हूँ।
डॉ० धीरेंद्र वर्मा जैसे शोध-प्रिय चिंतक और लेखक का होना हिंदी भाषा और साहित्य के लिए गौरव की बात है। कविता-कहानी लिखने वाले लेखक तो बहुत होते हैं, पर इन लेखकों के पीछे संप्रेषण की अबाध-धारा बहाने वाली भाषा के आदि-स्त्रोतों की खोज करने वाले, इस धारा में मिल चुके तत्वों को छाँट कर पहचानने वाले और फिर इसके वैज्ञानिक स्वरूप को प्रस्तुत करने वाले डॉ० धीरेंद्र वर्मा जैसे भाषा-ऋषि विरले ही होते हैं। उनके इन अनेक महान कामों की महत्ता को आज के विद्यार्थी और प्राध्यापक समझें, और इस कार्य को आगे बढ़ाएँ, यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
संदर्भ
श्रीमती अचला दीप्ति कुमार (डॉ० वर्मा की पुत्रवधु से बातचीत)
हिंदी भाषा का इतिहास - डॉ० धीरेंद्र वर्मा
हिंदवी - नेट पत्रिका-पुस्तक
हंस (आत्मकथा अंक) संपादक : प्रेमचंद, प्रकाशन- विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, संस्करण: १९३२
विकीपीडिया
भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश, भाग-२
धीरेन्द्र वर्मा : अध्यापन और अनुसंधान के पथ प्रदर्शक- डॉ० अमरनाथ (देस हरियाणा-साहित्यिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का मंच-२२/०७/२०२१)
विश्व हिंदी कोश- संपादक- डॉ० धीरेंद्र वर्मा
भारत कोश में डॉ० धीरेंद्र वर्मा
हिंदी लायब्रेरी इंडिया.कॉम (बायोग्राफ़ी)
लेखक परिचय
शैलजा सक्सेना
शिक्षा : एमए, (हिंदी), एमफिल, पीएचडी (दिल्ली विश्वविद्यालय), मानव संसाधन डिप्लोमा (ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमेंट) (मैक मास्टर यूनिवर्सिटी, हैमिल्टन, कनाडा)
स्वतंत्र लेखन, "हिंदी राइटर्स गिल्ड" की सह-संस्थापक निदेशिका;
हिंदी साहित्य सभा की आजीवन सदस्या और भूतपूर्व उपाध्यक्षा।
ईमेल : shailjasaksena@gmail.com फोन : 1-905-580-7341
शैलजा जी प्रकांड पंडित धीरेन्द्र वर्मा जी के व्यक्तित्व और कृतित्व की व्यापकता को दर्शाता यह आलेख बड़ा सार्थक, सहज और पठनीय है। इसके लिए आपको धन्यवाद और बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteबहुत सार्थक लेख,शैलाजा जी, हिंदी विश्व कोष के निर्माता की जानकारी और परिचय बहुत रोचक शैली में प्रस्तुत किया है। डॉ धीरेंद्र वर्मा जी ने हिंदी भाषा शोधकर्ताओं के लिए विस्तृत मार्ग प्रदान किया है। सादर वंदन 🙏💐
ReplyDeleteधीरेन्द्र वर्मा जी के कार्यों और उनके व्यक्तित्व को नमन! शैलजा जी, आपने कितने सहज और रोचक तरीके से धीरेन्द्र जी द्वारा किए गए महत्वपूर्ण और शोधपरक कार्यों को प्रस्तुत किया है, यह आप द्वारा उनपर किए गए शोध को दर्शाता है। आपको इस जानकारीपूर्ण लेख के लिए बहुत-बहुत आभार और बधाई।
ReplyDeleteशैलजा जी, डॉक्टर धीरेंद्र वर्मा पर आपने पठनीय आलेख दिया है। उनके योगदान का विस्तृत वर्णन देने के लिए धन्यवाद, बधाई। 💐
ReplyDeleteसारगर्भित संग्रहणीय,समादरणीय और अभिनंदनीय लेख।
ReplyDeleteशैलजा जी नमस्ते। हिंदी विश्व कोश के संपादक डॉ. धीरेंद्र वर्मा जी पर आपका यह लेख बहुत अच्छा और महत्वपूर्ण है। डॉ वर्मा जी ने अपने शोध एवं चिंतन से हिंदी भाषा एवं साहित्य को मजबूत करने में अपना विशेष योगदान दिया। आपने इस लेख के माध्यम से उनके इस साहित्यिक योगदान को बखूबी पटल पर रखा। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिये हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteआदरणीय डॉ शैलजा जी,
ReplyDeleteआपने डॉक्टर धीरेंद्र वर्मा को उचित ही 'भाषा ऋषि' कहा है। उन्होंने आजीवन शब्द-संधान किया।
हिंदी में विशेष योग्यता, संस्कृत में एम ए, फ्रेंच भाषा में ब्रज भाषा पर शोध प्रबंध- केवल इन्हीं बातों से उनकी मेधा के विस्तार एवं प्रखरता का परिचय मिल जाता है। इसके बाद जीवन भर गंभीर अध्ययन और गहन शोध में रत रहकर, निरंतर मंथन के पश्चात उन्होंने जिन ग्रंथ-रत्नों का प्रादुर्भाव किया वे भी कितने विविधता एवं विद्वतापूर्ण हैं। कहां 'प्राकृत व अपभ्रंश साहित्य', कहां 'ग्रामीण हिंदी'; कहां 'ब्रज भाषा व्याकरण' कहां 'कंपनी के पत्र'! हिंदी विश्वकोश एवं हिंदी साहित्य कोश तो उनके द्वारा स्थापित ऐसे मानदंड हैं जिन्हें पार करना तो दूर छूना तक मुश्किल!
एक जीवन में उन्होंने कर दिए जैसे,जो काम,
क्या कोई वैसा कई जन्मों में भी कर पाएगा।
पाँव-पाँव चल उन्होंने मार लीं जो मंज़िलें,
कुछ पड़ावों तक भी उनके,क्या कोई चल पाएगा।
आपने जिस परिश्रम के साथ इस आलेख की तैयारी की है,वह आलेख में आद्योपांत देखने में आता है।
डॉक्टर धीरेंद्र वर्मा जी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व ऐसा है कि उनका उचित परिचय कराने के लिए भी योग्यता होनी चाहिए। आपने बड़ी सुंदरता से इस योग्यता का निर्वहन किया है।
सफल प्रस्तुतीकरण के लिए बहुत-बहुत बधाई एवं भविष्य के लिए हार्दिक शुभकामनाएं!
बहुत बहुत बधाई आदरणीया । धीरेंद्र वर्मा जी के जीवन के कई पहलुओं से परिचित कराने के लिए आभार। सुंदर आलेख
ReplyDeleteबहुत खोजपरक सुन्दर लेख ������
ReplyDeleteमातृभाषा को समर्पित इस महान विभूति को सादर नमन ।इनसे परिचय कराने वाली शैलजा जी को साधुवाद और मेरा आभार ।
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