तस्य विस्तरिता बुद्धिः तैलबिन्दुरिवाम्भसि॥
- समयोचितपद्यमालिका
जैसे तेल की एक बूँद भी जल में फैल जाती है वैसे ही विद्वत की विद्वत्ता और विश्व भ्रमण करने वाले का अनुभव छिपा नहीं रहता, फैलता है। उक्त कथोक्ति पंडित माखनलाल चतुर्वेदी जी पर बिल्कुल सटीक बैठती है। उनकी विद्वता की सुरभि कुछ यूँ फैली कि छायावाद और राष्ट्रवाद के समन्वय से उत्पन्न उनकी रचनाओं ने सबको मुग्ध कर दिया।
छायावाद कल्पनाप्रधान और भावोन्मेषयुक्त कविता है। भाषा और भाव के अतिरेक को कैसे प्रतीकों के रहस्य से बुना जाता है, यह गुण रवींद्रनाथ ठाकुर की गीतांजलि से ले छायावाद प्रभावित हुआ। छायावाद पर प्राचीन संस्कृत साहित्य (वेदों, उपनिषदों तथा कालिदास की रचनाओं) एवं मध्यकालीन हिंदी साहित्य (भक्ति और शृंगार की कविताओं) का भी प्रभाव पड़ा। छायावाद युग उस सांस्कृतिक और साहित्यिक जागरण का सार्वभौम विकासकाल था, जिसका आरंभ राष्ट्रीय परिधि में भारतेंदु युग से हुआ था। छायावाद के बारे में आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं, "वर्ष १९१८ से १९३६ का समय प्रखर छायावाद का युग रहा। यदि छायावाद के प्रवर्तक मुकुट बिहारी पांडे थे, तो इसे शीर्षस्थ पर ले जाकर राष्ट्र भावना से जोड़ने का शक्तिशाली कार्य पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने किया।"
जब मैं कक्षा आठ में था, तब इनकी रचना 'पुष्प की अभिलाषा' पढ़ी थी, जिसमें एक पुष्प के माध्यम से राष्ट्र हेतु सर्वोच्च बलिदान की महिमा बताई गई थी। इस कविता को शायद ही कोई हिंदी-भाषी हो, जो न जानता हो। राष्ट्र-प्रेम और रहस्यात्मक-प्रेम का इससे सुंदर उदाहरण और क्या हो सकता है!
चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
…
मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक
हिंदी साहित्य के ख्यातिप्राप्त कवि, लेखक और पत्रकार पंडित माखनलाल चतुर्वेदी एक महान स्वतंत्रता सेनानी भी थे। छायावाद युग को अधिक विशेष बनाने वाले सृजनकर्ताओं की श्रेणी में वे अग्रणी हैं। इस युग के कवि प्रायः प्रकृति और परिवेश की गहराई से अनुभूति कर, उससे ओत-प्रोत होकर लिखते थे, परंतु माखनलाल जी के परिवेश-प्रेम, प्रकृति-प्रेम और मानव-प्रेम का स्तर बिलकुल अलग था और उसमें राष्ट्र-प्रेम का समावेश होने से उनकी रचनाओं ने नए स्वर और रूप प्राप्त किए।
होशंगाबाद के पास स्थित गाँव बाबई में ४ अप्रैल, १८८९ को जन्मे पंडित माखनलाल चतुर्वेदी के पिता प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक थे। वे एक साहसी और स्वाभिमानी व्यक्ति थे, उनके इन गुणों की माखनलाल के व्यक्तित्व-निर्माण में अहम भूमिका रही। पिता की असमय मृत्यु के कारण उनकी परवरिश की ज़िम्मेदारी उनकी सात्त्विक माता श्रीमती सुकर बाई पर आ गई। माँ को लगा कि बाबई जैसी छोटी बस्ती में माखनलाल को उपयुक्त शिक्षा न मिल पाएगी और उनका सर्वांगीण विकास न हो पाएगा, अतः उन्होंने पुत्र-लगाव त्याग कर माखनलाल जी को सिमरनी शहर में मौसी के पास पढ़ाई के लिए भेज दिया। माखनलाल ने वहाँ लगभग दस वर्षों तक शिक्षा प्राप्त की और वहीं उन्हें कविता-लेखन की पहली प्रेरणा प्राप्त हुई। बचपन से तुकबंदी का शौक़ रखने वाले माखनलाल जी धीरे-धीरे काव्य-सृजन में पारंगत होते गए। स्व-अध्ययन के जन्मजात गुण के बल पर उन्होंने संस्कृत, अँग्रेज़ी, मराठी, गुजराती, बंगाली भाषाएँ सीखीं और इन भाषाओं के साहित्य का गहन अध्ययन किया।
उनकी शादी १५ वर्ष की आयु में ग्यारसी बाई से हुई। माखनलाल जी अपने कामों में दिनभर व्यस्त रहते थे और रातें उनकी अध्ययन में बीत जाती थीं। उनकी कर्मनिष्ठा इन पंक्तियों से व्यक्त होती है,
इस चढ़ाव पर चढ़ न सकोगे,
इस उतार से जा न सकोगे,
तो तुम मरने का घर ढूँढो,
जीवन-पथ अपना न सकोगे। …
मैं यह चला पत्थरों पर चढ़,
मेरा दिलबर वहीं मिलेगा, फूँक जला दें सोना-चाँदी,
तभी क्रांति का सुमन खिलेगा।
वे अपने परिवार को समुचित समय नहीं दे पाते थे। उनकी पत्नी राजयक्ष्मा रोग की शिकार हो गई थीं, जिसकी ख़बर माखनलाल जी को तब लगी, जब बहुत देर हो चुकी थी। उनकी मृत्यु के बाद चतुर्वेदी जी ने अपने पश्चाताप और दुःख को प्रकट करती ये पंक्तियाँ लिखी थीं,
भाई, छेड़ो नहीं, मुझे खुलकर रोने दो,
यह पत्थर का हृदय आँसुओं से धोने दो।
शादी के अगले ही वर्ष यानी १९०५ में उन्हें बतौर शिक्षक ८ रुपये मासिक वेतन पर बंबई के निकट एक देहात में नौकरी मिल गई थी। देश-प्रेम और क्रांतिकारी भाव उनके ह्रदय में इस क़दर उद्वेलित होते रहे कि वे सरकारी नौकरी ज़्यादा समय न कर सके। वर्ष १९१३ में नौकरी की जगह उन्होंने लेखन, भाषण और अस्तित्व की स्वतंत्र राह चुनी और आजीवन उनके कर्म, बोल और लेखनी उस पर अडिग रहे।
उन्हें बचपन से ही देश की मिटटी से विशेष लगाव था और पराधीनता की बेड़ियों को तोड़ने के लिए सदा तत्पर रहते थे। यही कारण था कि जब वे इंटरमीडिएट की परीक्षा देने जबलपुर गए तो वहाँ क्रांतिकारी युवाओं से मिलकर उन्हें बहुत अच्छा लगा। वे उनकी बंदूकें, हथियार आदि छिपाने और उनके आवागमन में उनकी सहायता करने लगे। लोकमान्य तिलक के प्रति उनकी विशेष श्रद्धा थी। सन १९०६ के कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में तिलक जी से मिलने और उनकी सुरक्षा के लिए वे वहाँ गए थे। वहाँ से वापस आते समय काशी में इन्होंने क्रांतिकारी नेता देवसकर से दल की दीक्षा ली। इसके बाद इनका क्रांतिकारियों से संपर्क बढ़ता चला गया। कुछ लोगों ने इन्हें विशेष रूप से प्रभावित किया; उनमें सैयद अली मीर, स्वामी रामतीर्थ, पं० माधवराव सप्रे और माणकचंद जैन प्रमुख थे। सप्रे जी के सान्निध्य में इनकी देश-भक्ति की भावना और सुदृढ़ हुई तथा सप्रे जी इनके राजनीतिक गुरु बने।
माखनलाल चतुर्वेदी के राजनीति में प्रवेश के समय राष्ट्रीय परिदृश्य और घटनाचक्र कुछ यूँ था, देश के क्रांतिकारियों का प्रेरणास्रोत लोकमान्य तिलक का उद्घोष 'स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे' बन चुका था। मोहनदास करमचंद गाँधी 'सत्याग्रह' के अमोघ अस्त्र का सफल प्रयोग दक्षिण अफ्रीका में कर राष्ट्रीय परिदृश्य के केंद्र में स्थापित हो चुके थे। आर्थिक स्वतंत्रता के लिए 'स्वदेशी' का मार्ग चुना जा चुका था, सामाजिक सुधार के अभियान गति प्राप्त कर चुके थे और स्वतंत्रता की चाह राजनीतिक चेतना की सर्वोच्च प्राथमिकता बन गई थी। इस परिवेश में चतुर्वेदी जी लेखन, पत्रकारिता और अपने भाषणों के माध्यम से राष्ट्र-चेतना जागृत करने में जुट गए।
पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े राष्ट्र में देश-प्रेम की भावना और अपनी बात को को दूर-सुदूर तक पहुँचाने का माध्यम पत्रकारिता थी और इसी को चतुर्वेदी जी ने अपनी बात कहने का माध्यम बनाया और जीवन का अधिकांश हिस्सा समर्पित किया।
माधवराव सप्रे संग्रहालय के संस्थापक विजय दत्त श्रीधर का कहना है कि "७९ वर्षीय जीवन के सुदीर्घ ४६ साल दादा ने पत्रकारिता को समर्पित किए। … सन १९०८ में माधवराव सप्रे द्वारा सुसंपादित 'हिंदी केसरी' द्वारा आयोजित निबंध प्रतियोगिता का 'राष्ट्रीय आंदोलन और बहिष्कार' शीर्षक पर लिखे निबंध के लिए प्रथम पुरस्कार दादा को मिला। और वहीं से माधवराव सप्रे और दादा के बीच गुरु-शिष्य का जो रिश्ता क़ायम हुआ, वह अंतिम श्वास तक न केवल बरक़रार रहा, बल्कि एक पत्रकार के रूप में दादा के यश-सौरभ का केंद्र बिंदु भी बना, … । खंडवा के वकील कालूराम गंगराड़े ने ७ अप्रैल, १९१३ में हिंदी मासिक 'प्रभा' का प्रकाशन आरंभ किया, तब दादा ही उसके संपादक बनाए गए। माखनलालजी को मानो अपना मार्ग मिल गया। … दादा की पत्रकारिता के तेवर 'कर्मवीर' (१९२०) से पहले 'प्रभा' में ही बेबाकी के साथ मुखर हो उठे थे। भाषा, भाव और संकल्प की यह ताज़गी और रवानी अंत तक दादा की पत्रकारिता की अकूत निधि बनी रही। वर्ष १९१५ में 'प्रभा' के प्रकाशन में व्यवधान आ गया। लेकिन इस वर्ष दादा के ख़ज़ाने में बंधुता का एक दुर्लभ रत्न, श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के रूप में आ जुड़ा, जो कानपुर से तेजस्वी 'प्रताप' निकाल रहे थे। उन्हीं ने १९२० में 'प्रभा' का कानपुर से पुनर्प्रकाशन किया और इसी वर्ष जबलपुर में 'कर्मवीर' का प्रकाशन हुआ।"
सन १९१६ के लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन के दौरान माखनलाल जी ने विद्यार्थी जी के साथ मैथिलीशरण गुप्त और महात्मा गाँधी से मुलाक़ात की। महात्मा गाँधी के विचारों से वे शुरू से ही प्रभावित रहे और वे एकमात्र ऐसे कवि थे जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलनों में बतौर क्रांतिकारी और अहिंसात्मक सत्याग्रही भाग लिया। कविता के क्षेत्र में वे मैथिलीशरण गुप्त को अपना गुरु मानते थे। माखनलाल जी ने कविता के माध्यम से राष्ट्र-प्रेम के भाव जगाए और पत्रकारिता के माध्यम से देश की राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई। उनके पत्रों और लेखों के तेवर तथा विचारों से ब्रिटिश शासक बौखला गए और राजद्रोह के अभियोग में उन्हें सन १९२१, १९२२, १९२७ में कारागार भेजते रहे। महात्मा गाँधी द्वारा आहूत सन १९२० के 'असहयोग आंदोलन' में महाकौशल अंचल से पहली गिरफ़्तारी देने वाले माखनलालजी ही थे। सन १९३० के सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी उन्हें ही गिरफ़्तारी देने का प्रथम सम्मान मिला। ये जेल-यात्राएँ इनके लिए गौरव-यात्राएँ होती थीं, उन्होंने कहा है,
क्या? देख न सकती जंज़ीरों का पहना?
हथकड़ियाँ क्यों? यह ब्रिटिश राज का गहना! …
हूँ मोट खींचता लगा पेट पर जूआ,
ख़ाली करता हूँ ब्रिटिश अकड़ का कूआँ …
ये पंक्तियाँ उनकी कविता 'क़ैदी और कोकिला' से हैं, जो बाद में क्रांतिकारियों और क़ैदियों के लिए वंदना समान हो गई थी। इनसे उनके जीवट का भी परिचय मिलता है। आजीवन आर्थिक संघर्षों से जूझने के बावजूद शिथिलता और हताशा उनके क़रीब न आ पाई, तन के थक जाने पर भी वे मन से चिर युवा बने रहे। उनके उत्साह को ये पंक्तियाँ बख़ूबी व्यक्त करती हैं,
सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।
माखनलाल चतुर्वेदी ने १५ वर्ष की आयु से कृष्ण-भक्ति की कविता लिखी और अंतिम समय तक कृष्ण उनकी रचनाओं से बाहर नहीं हुए। साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित संगोष्ठी 'माखनलाल चतुर्वेदी - व्यक्ति और अभिव्यक्ति' में बोलते हुए प्रसिद्ध कवि, आलोचक एवं संपादक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा, "वैष्णव चेतना किसी भी विद्रोही चेतना से बड़ी है क्योंकि उसका मूल है पराई पीर को जानना। माखनलाल चतुर्वेदी का जीवन और कृतित्व भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभावी साहित्यिक स्वर है। इस स्वर की मुख्य चेतना वैष्णव है और माखनलाल चतुर्वेदी के प्रेरक प्रतीक कृष्ण हैं।"
इस तरह राष्ट्रीय चेतना की ज्योति जलाने वाला छायावादी कवि, कृष्ण को अपनी प्रेरणा मानने वाला साधक, स्वतंत्रता संग्राम का सचेत सिपाही बना, और उसे उपनाम 'एक भारतीय आत्मा' प्राप्त हुआ।
माखनलाल चतुर्वेदी के सृजन-संसार पर शोधकर्ता और कर्मवीर विद्यापीठ खंडवा के निदेशक संदीप भट्ट बताते हैं कि "माखनलाल चतुर्वेदी जी के पुण्य स्मरण पर उनके साहित्य और पत्रकारिता के गौरवशाली इतिहास से गुज़रना अतुल्य अनुभव है। … उन्होंने लेखन और पत्रकारिता में देशभक्ति को सर्वोच्च स्थान दिया। वे अकेले ऐसे व्यक्ति थे, जो गांधी और क्रांति को साथ लेकर चले। … उनका समाचार पत्र 'कर्मवीर' आज भी पत्रकारिता और मीडिया जगत का आदर्श स्तंभ है। उनकी पत्रकारिता और लेखनी अपने सर्वोच्च मानदंडों से हमारा मार्ग प्रशस्त करती है। कर्मवीर के पुनः प्रकाशन पर उन्होंने आह्वान किया, 'आइए, ग़रीब और अमीर, किसान और मज़दूर, उच्च और नीच, जीत और पराजित के भेदों को ठुकराइए। प्रदेश में राष्ट्रीय ज्वाला जगाइए और देश तथा संसार के सामने अपनी शक्तियों को ऐसे प्रमाणित कीजिए, जिसका आने वाली संतानें स्वतंत्र भारत के रूप में गर्व करें। … हम आज़ाद हैं, लेकिन उनके विचार, संपादकीय टिप्पणियों में व्यक्त दर्शन नई पीढ़ी के लिए आज अधिक प्रासंगिक है। चतुर्वेदी जी के राष्ट्र और समाज के कल्याण, उन्नति के प्रति व्यक्त विचारों को आज आत्मसात करें तो देश की अनगिनत समस्याओं का सहज समाधान मिल जाएगा।"
उन्होंने अपने विचारों पर आज़ादी के बाद भी अमल किया। जब उन्हें मध्य प्रदेश राज्य का पहला मुख्यमंत्री बनने की पेशकश की गई तो सबने उन्हें बधाई दी और मुख्यमंत्री के पद का कार्यभार सँभालने का आग्रह भी किया। इस प्रस्ताव पर माखनलाल जी की प्रतिक्रिया कुछ यूँ थी, "मैं पहले से ही शिक्षक और साहित्यकार होने के नाते 'देवगुरु' के आसन पर बैठा हूँ। मेरी पदावनति करके तुम लोग मुझे 'देवराज' के पद पर बैठाना चाहते हो, जो मुझे सर्वथा अस्वीकार्य है।"
वर्ष १९६३ में भारत सरकार ने इन्हें 'पद्मभूषण' से अलंकृत किया, लेकिन राष्ट्रभाषा हिंदी पर आघात करने वाले राजभाषा संविधान विधेयक के विरोध में १० सितंबर १९६७ को माखनलाल चतुर्वेदी ने वह अलंकरण लौटा दिया।
देश की आज़ादी के बाद भी अपनी बात वे सुदृढ़ता से रखते रहे तथा उदार एवं प्रगतिशील विचारों के प्रवर्तक बने रहे। उनका राष्ट्रप्रेम देश की प्रगति चाहता था, उन्हें उससे किसी व्यक्तिगत लाभ की अपेक्षा किंचित न रही।
छायावाद में राष्ट्रवाद के समावेश के अलावा उन्होंने भाषा-शैली में भी नए प्रयोग किए। वे मूलतः खड़ी बोली में लिखते थे, संस्कृत और फ़ारसी के शब्द भी इस्तेमाल करते थे। उनकी भाषा-शैली के बारे में फिराक़ गोरखपुरी ने कहा था, "उनके लेखों को पढ़ते समय ऐसा मालूम होता था कि आदिशक्ति शब्दों के रूप में अवतरित हो रही है या गंगा स्वर्ग से उतर रही है। यह शैली हिंदी में ही नहीं, भारत की दूसरी भाषाओं में भी विरले ही लोगों को नसीब हुई। मुझ जैसे हज़ारों लोगों ने अपनी भाषा और लिखने की कला माखनलाल जी से ही सीखी।"
भावों का यह चिर युवक अपनी लेखनी और विचारों के तिलिस्म को आजीवन फैलाता हुआ ३० जनवरी १९६८ को चिर-निद्रा में सो गया। उनकी रचनाएँ, बोल, विचार आज भी जाग रहे हैं और पाठकों को जागृत रखते हैं। इस महान स्वतंत्रता सेनानी और कवि को नमन।
माखनलाल चतुर्वेदी : जीवन परिचय |
जन्म | ४ अप्रैल १८८९, बाबई, होशंगाबाद, भारत |
निधन | ३० जनवरी १९६८, खंडवा, भारत |
पिता | श्री नंदलाल चतुर्वेदी |
माता | श्रीमती सुकर बाई |
पत्नी | ग्यारसी बाई |
व्यवसाय | अध्यापक, कवि, लेखक, पत्रकार |
भाषा | हिंदी |
कर्मभूमि | मध्य प्रदेश |
शिक्षा | प्राइमरी टीचर्स ट्रेनिंग जबलपुर से - १९०५ |
साहित्यिक रचनाएँ |
कविता संग्रह | |
निबंध संग्रह | |
भाषण संग्रह | |
नाटक | |
पुरस्कार व सम्मान |
देव पुरस्कार (तत्कालीन हिंदी साहित्य का सबसे बड़ा पुरस्कार) १९४३ साहित्य अकादमी पुरस्कार (हिंदी साहित्य के लिए सर्वप्रथम पुरस्कृत) १९५५ डी० लिट० की मानद उपाधि, सागर विश्वविद्यालय, १९५९ पद्म भूषण पुरस्कार, १९६३ भोपाल का पत्रकारिता विश्वविद्यालय इनके नाम पर
|
|
संदर्भ
लेखक परिचय
ये विज्ञान स्नातक, चार्टर्ड अकाउंटेंट, अर्थशास्त्र विशेषज्ञ , मानद विद्यावाचस्पति हिंदी हैं। २९ पुस्तकों का प्रकाशन कर चुके हैं। ये मुख्यतः अध्यात्म, धर्म, यात्रा संस्मरण, काव्य, बालकविता, आर्थिक विषयों पर लिखते हैं। स्टेनलेस स्टील में विशेष कार्य हेतु भारत गौरव सम्मान। राजभाषा केंद्रीय सचिवालय द्वारा साहित्य गौरव सम्मान,पं० बंगाल राज्यपाल द्वारा प्रदत्त। अखिल भारतीय अग्रवाल सम्मेलन द्वारा भाई हनुमानप्रसाद पोद्दार साहित्य शिरोमणि सम्मान। दामोदरदास चतुर्वेदी साहित्य शिखर सम्मान।
प. माखनलाल चतुर्वेदी का हिन्दी साहित्य में बहुत बड़ा नाम है । जिन्होंने साहित्य लेकर पत्रकारिता में विभिन्न आयाम दिये हैं ।अतः इस आलेख में विभिन्न जानकारी का समावेश है । जो आज के विधार्थियों का मार्गदर्शन करते हैं ।
ReplyDelete- बीजेन्द्र जैमिनी
सराहनीय
ReplyDeleteसुरेश जी, आपने माखनलाल जी के विस्तृत सृजन-संसार और विराट व्यक्तित्व को चंद शब्दों और उद्धरणों में बख़ूबी समेटा है। आजीवन स्वराज-प्राप्ति के उद्देश्य में जुटे रहे और कलम तथा विचारों से आमजन को जागृत करने वाले चतुर्वेदी जी को सादर नमन और आपको इस महान विभूति का इतना आत्मीय परिचय देने के लिए आभार और बधाई।
ReplyDeleteसुंदर।
ReplyDeleteसुरेश जी नमस्कार। आपका आदरणीय माखनलाल चतुर्वेदी जी पर यह लेख बहुत अच्छा है। लेख पढ़कर मन आंनदित हो गया। आपने बहुत अच्छी अच्छी कविताओं को लेख में सम्मिलित किया। लेख में आपने पंडित चतुर्वेदी जी के साहित्य एवं जीवन को बहुत अच्छे से समेटा। आपको इस रोचक लेख के लिये बहुत बहुत बधाई।
ReplyDelete
ReplyDeleteशानदार आलेख पंडित माखनलाल चतुर्वेदी पर। सुरेश जी, बहुत सहजता से आपने उनके व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला है। उनके कृतित्व की व्यापकता को दर्शाता यह आलेख बड़ा सार्थक है। इसके लिए आपको बधाई।
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसुरेश जी, माखन लाल जी चतुर्वेदी पर लिखे सुंदर आलेख के लिए आपको बधाई। माखन लाल जी की रचनाएँ तो हम सब विद्यालय से ही पढ़ते आ रहे हैं , और पुष्प की अभिलाषा तो अधिकांश हिंदी प्रेमियों को कंठस्थ है। आपके लेख में एक तो उनके सक्रिय स्वतंत्रता सेनानी के रूप में कार्य की विस्तृत जानकारी मिलती है।दूसरा , आपने गणमान्य व्यक्तियों के उद्धरण देकर उनके जीवन एवं कृतित्व के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला है। आपको धन्यवाद एवं निरंतर लेखन के लिए शुभकामनाएँ । 💐💐
ReplyDeleteअपनी पाठ्यपुस्तकों में ख्यातिप्रख्यात रचनाकार माखनलाल चतुर्वेदी जी की पढ़ी हुई कविताओं के कुछ कुछ अंश आज भी याद है। छायावाद युग के हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध कवि आदरणीय पंडित माखनलाल जी का रचनासंसार बहुत ही विशाल है और इस विशाल महासागरीय रचनाशीलता को अति संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत करने हेतु आदरणीय सुरेश जी का असंख्य धन्यवाद। इस आलेख के द्वारा पंडितजी के जीवनवृत्तांत से परिचय करवाने के लिए आभार।
ReplyDelete