कथा साहित्य में जो स्थान प्रेमचंद का है, गायन की दुनिया में जो प्रतिष्ठा लता मंगेशकर की है, शहनाई वादन में जो मुकाम बिस्मिल्लाह ख़ाँ का है, वही मान-सम्मान फ़िल्म जगत में सत्यजित राय का है। सत्यजित राय सार्थक, कलात्मक, यथार्थपरक और विश्वस्तरीय जीवन को गढ़ती फ़िल्में बनाते-बनाते विश्व में भारतीय सिनेमा की पहचान बन गए। २ मई १९२१ को कोलकाता में जन्मे सत्यजित राय ने भारतीय सिनेमा का न केवल कायाकल्प किया, बल्कि मानवीय सौंदर्य, कलात्मक उत्कर्ष और सौंदर्य शास्त्र के नए प्रतिमान गढ़े। 'राशोमोन' जैसी विश्वविख्यात कालजयी फ़िल्म के महान जापानी फ़िल्मकार अकीरा कुरोसावा ने सत्यजित राय की शख़्सियत के बारे में लिखा है, "सत्यजित राय की फ़िल्मों को न देखने का अर्थ इस जगत में सूरज और चाँद के अस्तित्व को जाने बिना रहने जैसा है।"
सत्यजित राय के जन्म के ढाई साल बाद, जब उनके पिता सुकुमार सेन का देहांत हुआ, उनके मामा ने उन्हें और उनकी माँ को शरण दी। साहित्य, पश्चिमी शास्त्रीय संगीत और फ़िल्मों के प्रति जुनून किशोरावस्था से ही प्रारंभ हो गया था। स्नातक की पढ़ाई के बाद उनकी माँ चाहती थीं कि बेटा शांतिनिकेतन में आगे की पढ़ाई करके गुरुदेव टैगोर के सान्निध्य में एक काबिल और सफल इंसान बन सके। इसलिए उन्होंने पेंटिंग में अध्ययन हेतु शांति निकेतन में दाखिला ले लिया। यहाँ उन्हें नंदलाल बोस और विनोद बिहारी मुखोपाध्याय जैसे अनुभवी और प्रतिभाशाली कला अध्यापकों का मार्गदर्शन मिला। टैगोर के विराट व्यक्तित्व से राय भी बहुत प्रभावित थे, लेकिन उन्होंने कोर्स पूरा किए बिना ही शांति निकेतन १९४२ में छोड़ दिया। सत्यजित राय अपने लेख 'मेरा जीवन मेरी फ़िल्में' में शांति निकेतन के अनुभव के बारे में लिखते हैं, "ढाई साल में मुझे सोचने का समय मिला और मैंने यह महसूस किया कि अनजाने इस स्थान ने नई खिड़कियाँ खोल दी हैं। कहीं और से ज़्यादा मुझमें अपनी परंपरा की समझ पैदा हुई। शांति निकेतन ने मुझे दो बातें सिखाईं, चित्रकला की समझ और प्रकृति की समझ। दोपहर में हम लोग बाहर जाकर प्रकृति का रेखांकन करते थे।.... शांति निकेतन में फ़िल्मों का न होना सबसे ज़्यादा खटकता था।"
साल १९४४ में उन्होंने ब्रिटिश विज्ञापन एजेंसी डी जे केमर एंड कंपनी में नौकरी शुरू की, जहाँ पुस्तकों के आवरण, पृष्ठों की डिज़ाइनिंग और रेखांकन कार्य के लिए कमर्शियल आर्टिस्ट के रूप में उनकी नियुक्ति हुई। इसी दौरान उन्होंने विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय की चर्चित पुस्तक 'पथेर पांचाली' और नेहरू जी की पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' जैसी महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का रेखांकन कार्य किया। साल १९४८ में फ्रांस के प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक ज्यां रेनुआ, बंगाल में अपनी एक फ़िल्म के निर्माण के लिए स्थलों का चुनाव करने के उद्देश्य से कोलकाता आए हुए थे। रेनुआ से राय बहुत प्रभावित हुए। स्थल के चयन में रेनुआ ने राय की भी राय ली। रेनुआ कहते थे, "फ़िल्म में बहुत ज़्यादा तत्त्व आवश्यक नहीं होते, लेकिन जिन्हें शामिल करो वे सही और स्पष्ट होने चाहिए। अभिव्यक्ति में मितव्ययिता मूल मंत्र होना चाहिए। जब भारतीय सिनेमा हॉलीवुड की नकल छोड़ देगा और अपने आसपास की वास्तविकता को अभिव्यक्त करने का प्रयास करेगा, तो वह एक राष्ट्रीय शैली तलाश लेगा।"
रेनुआ के इस जादुई मंत्र को सत्यजित राय ने अपनी आने वाली फ़िल्मों का मूलाधार बनाया। सन १९५० में सत्यजित राय को कंपनी ने लगभग ६ महीनों के प्रशिक्षण हेतु लंदन भेजा। सत्यजित राय का भाग्य और भविष्य बदलने वाली यह यात्रा थी। लंदन में ट्रेनिंग के साथ-साथ जुनून की हद तक रोज़ फ़िल्में देखना राय का शग़ल बन गया था। लंदन पहुँचकर जो पहली फ़िल्म राय ने देखी, वह प्रख्यात इतालवी फ़िल्मकार डी सीका की फ़िल्म 'बाइसिकिल थीव्स'(साइकिल चोर) थी। इस फ़िल्म ने राय पर जादू कर दिया। नव यथार्थवादी आंदोलन की प्रमुख फ़िल्म की खास बात थी, गैर पेशेवर कलाकार, सीमित बजट और स्टूडियो के बजाय वास्तविक लोकेशन पर फ़िल्म की शूटिंग। इस फ़िल्म को उन्होंने बार-बार देखा और हिंदुस्तान पहुँचकर विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के उपन्यास 'पथेर पांचाली' पर फ़िल्म बनाने का मन बना लिया और इस सपने को साकार करने के लिए नौकरी तक छोड़ने का फैसला कर लिया।
अपू-त्रयी
सत्यजित राय ने विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के दो उपन्यासों 'पथेर पांचाली' तथा 'अपराजितो' के आधार पर तीन फ़िल्मों - 'पथेर पांचाली'(१९५५), 'अपराजितो'(१९५६) तथा 'अपूर संसार'(१९५९) का निर्माण किया, जिसे 'अपू-त्रयी' के रूप में जाना जाता है। पथेर पांचाली में अपू का बचपन दिखाया गया है। 'अपराजितो' में अपू का बचपन और किशोरावस्था, दोनों को दिखाया गया है और तीसरे भाग में अपू को एक युवक के रूप में दर्शाया गया है। साल १९५१ में राय ने पटकथा तैयार की और १९५२ में सीमित संसाधनों से फ़िल्म पर काम करना शुरू कर दिया। अपू, दुर्गा, हरिहर, सर्वजया, सँझली और इंदिर दादी आदि मुख्य पात्रों का चुनाव किया जाना था। राय चाहते थे कि इंदिर दादी की भूमिका के लिए ऐसी महिला का चयन किया जाए, जो उपन्यास का जीता जागता पात्र लगे। उपन्यास में इंदिर दादी की काया का वर्णन करते हुए विभूतिभूषण लिखते हैं, "पचहत्तर वर्ष की वृद्धा, गाल पिचके हुए, कमर थोड़ी टेढ़ी होने से पूरी देह सामने की तरफ़ झुकी हुई है।" सत्यजित राय ने अपनी पुस्तक 'विषय चलचित्र' के एक निबंध 'चुनीबाला देवी उर्फ़ इंदिर दादी' में लिखा है, "विभूतिभूषण के इस वर्णन के साथ संगति रखते हुए एक अभिनेत्री का चुनाव करना कोई सरल बात तो थी नहीं। विशेष रूप से जब समाचारपत्रों में बार-बार घोषणा की गई कि इस फ़िल्म में मेकअप का प्रयोग जरा भी नहीं किया जाएगा।" आख़िर बहुत खोज के बाद इंदिर दादी की भूमिका के लिए चुनीबाला चुन ली गईं। सन १९५२ में 'पथेर पांचाली' का निर्माण प्रारंभ हो गया। यह तत्कालीन बंगाल के एक ऐसे गाँव की कहानी है, जहाँ ग़रीबी, बेरोज़गारी और असमानता है। हरिहर आमदनी न होने के कारण रोज़गार की तलाश में गाँव से पलायन कर कोलकाता पहुँच जाता है। उसकी बेटी दुर्गा बीमार पड़ने पर इलाज के पैसे न होने के कारण काल के गाल में समा जाती है। दुर्गा का भाई अपू, उनकी माँ सर्वजया किन अभावों और दुखों से रूबरू होते हैं, इन सभी मार्मिक मानवीय प्रसंगों का जीवंत दस्तावेज़ है ‘पथेर पांचाली’। प्रसिद्ध लेखक और समीक्षक प्रयाग शुक्ल ने अपनी पुस्तक 'जीवन को गढ़ती फ़िल्में' में 'पथेर पांचाली' की समीक्षा करते हुए लिखा है, "सत्यजित राय ने उपन्यास को इतनी गहरी आस्था, प्रेम और विश्वसनीयता के साथ फ़िल्माया कि उपन्यास की कथा का हर एक गुण सजीव हो उठा है"। लेकिन राय ने इस फ़िल्म को बनाने के लिए घर का कुछ सामान बेचा और कुछ गिरवी रखा। ऐसे मुश्किल समय में उनकी पत्नी बिजोया ने अपने सारे गहने गिरवी रख दिए।
सन १९५५ में फ़िल्म कोलकाता के तीन सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई। पहले दो-तीन दिन दर्शकों की भीड़ नहीं जुटी लेकिन धीरे-धीरे फ़िल्म ने रफ़्तार पकड़ी। पथेर पांचाली ने दर्शकों को अपनी ओर खींचना शुरू किया। फ़िल्म १३ सप्ताह चली। प्रसिद्ध लेखक, निर्माता, निर्देशक और राय के मित्र चिदानंद दासगुप्ता ने अपनी पुस्तक, 'सत्यजित राय का सिनेमा' में इस फ़िल्म के बारे में लिखा है, "सामान्य कलकत्तावासियों की लंबी कतारें इसे देखने को जुटने लगीं। फ़िल्म ने उन्हें विचलित किया और वे आश्चर्यचकित थे कि सिनेमा में ऐसी चीज़ें भी संभव थीं। भदेश भाषा में, कुछ लोगों को कहते सुना गया, “ये नाजायज़ लोग हमें लगातार धोखा देते रहे हैं, असली चीज तो यह है।”"
सुप्रसिद्ध फ़िल्म इतिहासकार और 'हिंदी सिनेमा का इतिहास' के लेखक प्रोफ़ेसर मनमोहन चड्ढा के अनुसार, "पथेर पांचाली का वास्तविक सौंदर्य एक-एक शॉट में रचा बसा था। अपनी पहली फ़िल्म निर्देशित करने वाले सत्यजित राय, पहली फ़िल्म में छायांकन करने वाले सुब्रत मित्र और संपादक दुलाल दत्त ने, भारतीय सिनेमा में तकनीक के दिग्गज कहलाने वाले बड़े-बड़े निर्देशकों को पीछे छोड़ दिया था।" इस फ़िल्म ने न केवल कलात्मक फ़िल्म का प्रतिमान रचा, बल्कि आमदनी के मामले में यह फ़िल्म सोने की खान सिद्ध हुई। बंगाल सरकार को इस फ़िल्म से डेढ़ हज़ार प्रतिशत का मुनाफ़ा हुआ। इस फ़िल्म को १९५५ का सभी भारतीय भाषाओं में सर्वश्रेष्ठ भाषा का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार का स्वर्णपदक प्राप्त हुआ और क्षेत्रीय भाषा (बाँग्ला भाषा) का भी मेडल मिला। रविशंकर का संगीत अपू-त्रयी की अनुपम सौगात है।
रूस में सत्यजित राय
सत्यजित राय की १९५९ में प्रदर्शित फ़िल्म 'जलसाघर' को पहले अंतर्राष्ट्रीय मॉस्को फ़िल्म फ़ेस्टिवल १९५९ में शामिल किया गया और तीसरे अंतर्राष्ट्रीय मॉस्को फ़िल्म फेस्टिवल १९६३ में राय को बतौर जूरी मेंबर आमंत्रित किया गया था। अपने निबंध 'सोवियत चलचित्र' में उन्होंने मशहूर सोवियत फ़िल्मकारों और उनकी उल्लेखनीय फ़िल्मों की चर्चा की है। सन १९८५ में सत्यजित राय को 'सोवियत लैंड नेहरू' पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
सम्राट बनाम सम्राट - प्रेमचंद और सत्यजित राय, दोनों अपने-अपने क्षेत्रों के सम्राट माने गए। जब फ़िल्म निर्माता सुरेश जिंदल ने फ़िल्म निर्देशक टीनू आनंद (जो सत्यजित राय के सहायक निर्देशक रह चुके थे) के माध्यम से राय से संपर्क किया, तो उन्होंने प्रेमचंद की कहानी पर हिंदी में फ़िल्म बनाने की सहमति दे दी। निर्माता सुरेश जिंदल के इस मेगा प्रोजेक्ट का बिना विज्ञापन के ही धुआँधार प्रचार शुरू हो गया। राय ने संजीव कुमार, अमजद ख़ान, सईद ज़ाफ़री, शबाना आज़मी, फ़ारुख़ शेख़ और रिचर्ड एटनबरो को मुख्य भूमिकाओं के लिए चुना और राय के कारण सभी कलाकारों ने अपने मार्केट रेट से कम पारिश्रमिक पर काम करना स्वीकार किया। संवाद कहानी के प्राण होते हैं इसलिए संवाद लेखक के रूप में राय ऐसे लेखक की तलाश में थे, जो उर्दू, हिंदी और अँग्रेज़ी में निपुण हो। कई लेखकों पर विचार करके अंत में कैफ़ी आज़मी साहब के लिए सत्यजित राय ने अपनी स्वीकृति दी। मशहूर संवाद लेखक जावेद सिद्दीक़ी के हिस्से में यह ऐतिहासिक कालजयी फ़िल्म कैसे आई, इस बात का दिलचस्प खुलासा उन्होंने अपने एक लेख 'क्या आदमी था राय' में किया है, "फैसला हुआ कि ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के डायलॉग कैफ़ी साहब लिखेंगे। चुनांचे एक मुलाकात का बंदोबस्त किया गया। मगर वह मुलाक़ात जिसे फ़िल्म और अदब का संगे मील बनना था, बुरी तरह फ्लॉप हो गई, क्योंकि .. कैफ़ी साहब ने उर्दू के अलावा किसी और ज़बान को मुँह नहीं लगाया था और सत्यजित राय बाबू बँगला और इंग्लिश के अलावा कोई और ज़बान न बोल सकते थे, न समझ सकते थे" और आख़िरकार क़िस्मत के धनी और अँग्रेज़ी और उर्दू के बहुत अच्छे जानकार जावेद सिद्दीक़ी को 'शतरंज के खिलाड़ी' में संवाद लिखने का सुनहरा मौका हाथ लगा।
'शतरंज के खिलाड़ी' फ़िल्म उत्तर भारत में कामयाबी के झंडे नहीं गाड़ सकी, अलबत्ता वेस्ट बंगाल में फ़िल्म खूब कामयाब हुई। कवि और आलोचक लीलाधर मंडलोई के अनुसार, "इस फ़िल्म में बौद्धिक क्षमता को जागृत करने की सलाहियत है। यह आपकी चाक्षुष संवेदना का परिष्कार करती है और दृश्यों के संकेतों में अपना अर्थ छोड़ती चलती है।" उनकी शख़्सियत के बारे में कुँवर नारायण अपनी पुस्तक 'लेखक का सिनेमा' में लिखते हैं, "मेरे लिए सत्यजित राय को उनके कामों के द्वारा जानना इस युग के अत्यंत प्रतिभा संपन्न, कुशल और संवेदनशील फ़िल्मकार को जानना था। उन्हें व्यक्तिगत स्तर पर निकट से जानना एक बहुत ही उदार, सुहृदय, स्नेही और सुसंस्कृत इंसान को जानना था।"
सन १९८१ में उन्होंने दूरदर्शन के लिए प्रेमचंद की कहानी 'सद्गति' पर फ़िल्म बनाकर प्रेमचंद जन्मशती (भले ही एक साल बाद) के पावन अवसर पर हिंदी साहित्य और भाषा प्रेमियों को एक नायाब तोहफा भेंट किया। इस फ़िल्म के लिए राय की आलोचकों ने दिल खोलकर सराहना की।
प्रसिद्ध कथाकार
सत्यजित राय ने फ़िल्म निर्देशक के रूप में बेशुमार लोकप्रियता हासिल की। देश दुनिया से अनेक सम्मान प्राप्त हुए। उन्होंने न केवल लोकप्रिय लेखकों की साहित्यिक कहानियों और उपन्यासों पर कालजयी फ़िल्में बनाईं, अपितु स्वयं भी एक कथाकार के रूप में अनेक प्रसिद्ध कहानियों का सृजन भी किया। राय ने 'प्रोफेसर हिजबिजबिज', 'ब्राउन साहब की कोठी', 'सदानंद की छोटी दुनिया', 'खगम', 'रतन बाबू और वह आदमी', 'भक्त', 'सियार देवता का रहस्य' और 'घुरघुटिया की घटना' आदि दिलचस्प और स्तरीय कहानियाँ लिखकर बतौर लेखक प्रसिद्धि प्राप्त की।
संदर्भ
अवर फिल्म्स देयर फिल्म्स – सत्यजित राय
पोर्ट्रेट ऑफ अ डाइरेक्टर – मेरी सेटन
सत्यजित राय – द इनर आई – एंड्रयू रॉबिंसन
जीवन को गढ़ती फ़िल्में - प्रयाग शुक्ल
हिंदी सिनेमा का इतिहास – मनमोहन चड्ढा
लेखक परिचय
३४ साल अध्यापन के बाद केंद्रीय विद्यालय संगठन से प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त। पत्राचार - केंद्रीय विद्यालय, भारतीय राजदूतावास मॉस्को (रूस)
ईमेल indrajeetrita@gmail.com
उम्दा आलेख! साधुवाद सिंह साहब!!
ReplyDeleteअति सुन्दर
ReplyDeleteइंद्रजीत सिंह जी, सत् श्री अकाल।सत्यजीत राय पर आपका आलेख ऐसा है जैसे कोई कलाकार बेहतरीन फूलों को ढूँढ कर तरतीब से अपने विशिष्ट अन्दाज़ में रंगोली सजाए। इतने कम शब्दों में आपने उनके जीवन, फ़िल्मी सफ़र और विद्वान लोगों के नगीने से उद्धरण, सबको बड़ी कलात्मकता से प्रस्तुत किया है। यह लेख आपके विषय-वस्तु के ज्ञान और लेखकीय कौशल का परिचायक है। बधाई।
ReplyDeleteसत्यजीत राय पर बहुत लिखा जा चुका है और आगे भी लिखा जाता रहेगा।हिंदी दर्शकों के लिए उनकी शतरंज के खिलाड़ी ही यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि वह लेखक के संसार को जीवंत करते करते एक और बड़े संसार का सृजन करने वाले निर्देशक थे। तत्कालीन समाज के रीति-रिवाज, राजनैतिक पैंतरेबाज़ी, शासकों का नैतिक पतन और चरित्रों का व्यक्तिगत संबंध, सबका ऐसा कलात्मक चित्रण सत्यजीत राय ही कर सकते थे। उन्हें सलाम ।💐💐
इंद्रजीत जी, नमस्ते। आपने सत्यजित राय के विराट व्यक्तित्व की विस्तृत कहानी के कुछ दिलचस्प अंश निकालकर हमें उनका अच्छा परिचय दिया। आलेख में दिए गए सब प्रसंग और सम्बद्ध क्षेत्रों के विशेषज्ञों के उद्धरण लेख को अत्यंत मानीखेज़ और दिलचस्प बनाते हैं। आपका लिखने का तरीक़ा शुरू से आखिर तक बाँध कर रखता है। आपको इस आलेख के लिए बहुत-बहुत बधाई और आभार।
ReplyDeleteइंद्रजीत जी नमस्ते, भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के गौरव माने जाने वाले महान फ़िल्मकार, लेखक और चित्रकार सत्यजित रे पर आपका शानदार और जानदार आलेख पढ़कर बहुत मज़ा आया। इनके कार्यों की व्यापकता से चकित हूँ में। आपको आलेख के लिए हार्दिक धन्यवाद और बहुत-बहुत बधाई! आगे भी ऐसे आलेख हमें पढ़ाते रहिएगा।
ReplyDeleteडॉ. इंद्रजीत जी नमस्कार। आपका आज का सत्यजित राय पर लेख पढ़ा। लेख बहुत अच्छा और जानकारी भरा है। सत्यजित राय जी के योगदान के बारे में सुना तो था पर मेरे लिये ये विस्तृत जानकारी बिल्कुल नई है। आपको इस शोधपरक एवं रोचक लेख के लिये हार्दिक बधाई।
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