भाषा का ज्ञान और भाषा की साधना दो अलग-अलग बातें हैं। कुछ लोग भाषा-ज्ञान को ही पांडित्य मान बैठते हैं और आजीवन इस भ्रम में रहते हैं। किंतु कुछ साधक भाषा की साधना में ऐसे रम जाते हैं कि नित नए प्रयोगों के दम पर उसे एक नया आयाम देने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोग स्वयं को अल्पज्ञ समझते हुए सघन साधना में सदैव लीन रहते हैं। ऐसे ही एक साधक ने हिंदी साहित्य और इसके विभिन्न आयामों पर इतना गहन अध्ययन किया कि 'हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास' लिख डाला; हिंदी के तमाम बड़े लेखकों के कार्य और पुस्तकों को अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से देखते हुए सारगर्भित विवेचना व आलोचनाओं का वृहत संसार बनाया। गुमनामी के सागर में खोया यह नाम है बच्चन सिंह, जिन्हें वर्ष २००७ का साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार भी मिला, किंतु हिंदी जगत में वह पहचान नहीं मिली जिसके वे हकदार थे।
उत्तर प्रदेश के जौनपुर ज़िला के भद्रसेनपुर (भदवार) ग्राम में २ जुलाई १९१९ को जन्मे बच्चन सिंह एक लेखक, साहित्यकार और कवि से अधिक एक आलोचक थे। हालाँकि उनके कार्यों को देखते हुए यह तय कर पाना मुश्किल है कि उनकी किस शैली को कम आँका जाए! हाँ, यह कहना अनुचित नहीं होगा कि उनकी अपनी पसंदीदा शैली आलोचना-विवेचना ही रही, क्योंकि इस क्षेत्र में उनका योगदान निःसंदेह अतुलनीय है। बच्चन सिंह ने बीसवीं सदी के तीसरे दशक की समाप्ति पर लिखना आरंभ किया था, और वे बीसवीं सदी के आठवें दशक तक लिखते रहे। अधिकांश लेखकों की तरह बच्चन सिंह ने भी कविता से ही लेखन की शुरुआत की थी। उन दिनों वे जौनपुर के क्षेत्रीय स्कूल में पढ़ रहे थे, जब वहीं से प्रकाशित एक साप्ताहिक 'समय' में उनकी दो कविताएँ प्रकाशित हुईं। स्कूल की पत्रिका में भी उनकी दो कविताएँ छपीं। इन प्रकाशनों ने उन्हें प्रोत्साहन दिया और उन्होंने नई-नई शैलियों में लिखना आरंभ किया। हाईस्कूल के बाद वाराणसी के उदयप्रताप कॉलेज आना हुआ, जहाँ १९३९-४१ में हिंदी प्राध्यापक ठाकुर मार्कंडेय सिंह उनके पहले साहित्यिक गुरु बने। लेखनी निखारने के गुर सीखते हुए युवा बच्चन यदा-कदा प्रकाशनार्थ सामग्री भेज दिया करते थे। महावीर अग्रवाल को दिए एक साक्षात्कार के दौरान वे बताते हैं, "कहानी के सिद्धांतों पर एक लेख बनारस से निकलने वाले 'आज' के साप्ताहिक संस्करण में छप गया। खुशी हुई। एक कहानी भी छपी। मैं गर्मी की छुट्टियों में गाँव पर था। तीन रुपए का मनीआर्डर मिला, कहानी का पारिश्रमिक। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। मुझे पहली बार ज्ञात हुआ कि लेखन पर पैसा भी मिलता है।"
बच्चन सिंह की शेष सारी शिक्षा-दीक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय में संपन्न हुई। स्नातक की पढ़ाई के दौरान वे हिंदी विभाग के प्राध्यापक आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के सान्निध्य में आए, जो उनके दूसरे साहित्यिक गुरु बने। उनकी प्रेरणा से इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाले 'भारत' में उनके कई आलोचनात्मक लेख व कहानियाँ प्रकाशित हुईं। 'माधुरी' में भी एक कहानी छपी। यह सब उन्हें अच्छा लग रहा था। उनका कहना था, "मुझे लगा कि मैं लेखक बनने की प्रक्रिया में अच्छी दौड़ लगा रहा हूँ। लेखन का कार्य अपने आप किसी आंतरिक प्रेरणा से हुआ है।"
आलोचनात्मक लेखन करते हुए उन्हें आनंद आने लगा और धीरे-धीरे यह विधा उनकी पहचान बन गई। बकौल बच्चन सिंह, "आलोचना का क्षेत्र बड़ा व्यापक है। उत्तर आधुनिकतावादी और बहुलतावादी युग में 'मानक' शब्द ने अपना अर्थ खो दिया है। आलोचना का मानदंड स्वयं रचना होती है, न कि बँधे-बँधाए सिद्धांत!"
अध्ययन के समय में ही 'लोक-जीवन' और 'लोक-साहित्य' के प्रति प्रगाढ़ रुचि के कारण साहित्य के प्रति जिज्ञासा उन्हें विभिन्न प्रकार की साहित्यिक रचनाओं को पढ़ने के लिए प्रेरित करती रहती थी। बनारस की विभिन्न साहित्यिक गोष्ठियों और नागरी प्रचारिणी सभा के साथ उनका अंतरंग लगाव था। लगभग एक दशक तक वे प्रचारिणी पत्रिका के अवैतनिक संपादक रहे। अध्ययन पूर्ण कर वे वाराणसी के ही 'हिंदू इंटरमीडिएट कॉलेज' में अध्यापन कार्य में जुट गए और बनारस से निकलने वाले 'समाज', 'जनवाणी' और 'आज' में बराबर लिखते रहे। उनके लेखों में प्रारंभ से ही एक गतिशीलता का आभास मिलता है। कुछ समय यहाँ पढ़ाने के बाद बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में बतौर रीडर नियुक्त हुए और काफ़ी अरसे यहाँ अपनी सेवाएँ दीं। फिर शिमला के हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के प्रोफे़सर होकर शिमला में बस गए। यहीं कुलपति बनकर अवकाश प्राप्त किया। साथ ही देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में अतिथि प्रोफ़ेसर के रूप में व्याख्यानों द्वारा विद्यार्थियों पर अपना वरद्हस्त रखते रहे।
आलोचक बच्चन सिंह
बच्चन जी के व्यक्तित्व में नवीनता और प्राचीनता की गत्यात्मक शक्ति की पहचान करने की क्षमता है। उन्होंने रीतिकाल से लेकर नई कविता तक और भारतीय साहित्य सिद्धांत से लेकर पाश्चात्य साहित्य चिंतन तक, अनेक विषयों, धाराओं और कृतियों का विवेचन किया है। आलोचना के क्षेत्र में उनका योगदान अविस्मरणीय है। 'क्रांतिकारी कवि निराला', 'नया साहित्य', 'आलोचना की चुनौती', 'हिंदी नाटक', 'रीतिकालीन कवियों की प्रेम व्यंजना', 'बिहारी का नया मूल्यांकन', 'आलोचक और आलोचना', 'आधुनिक हिंदी आलोचना के बीज शब्द', 'साहित्य का समाजशास्त्र और रूपवाद', 'आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास', 'भारतीय और पाश्चात्य काव्यशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन' तथा 'हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास' (समीक्षा) उनकी समीक्षागत दृष्टि की व्यापकता दर्शाता है।
अपनी पुस्तक 'कविता का शुक्लपक्ष' में उन्होंने अपने सहकर्मी डॉ० अवधेश प्रधान के साथ आचार्य रामचंद्र शुक्ल के चयन के आधार पर हिंदी की एक 'गोल्डन ट्रेजरी' एकत्र की है। इसमें सफल काव्य-सृष्टि की 'सिद्धावस्था' के साथ असफल काव्य-प्रयत्नों की 'साधनावस्था' भी मौजूद है। एक दूसरी पुस्तक 'उपन्यास का काव्यशास्त्र' में बच्चन सिंह ने पुराने समीक्षात्मक पैटर्न को तोड़कर नए पैटर्न का प्रयोग किया है। इसमें आलोचनात्मक सिद्धांतों की कसौटी पर उपन्यासों और कहानियों की परख ना कर उपन्यासों-कहानियों की कसौटी पर सिद्दांतों को देखा-कसा गया है। इस पुस्तक में 'गोदान', 'सुनीता', 'बाणभट्ट की आत्मकथा', 'शेखर:एक जीवनी', 'झीनी-झीनी बीनी चदरिया', 'कितने पाकिस्तान' और 'काशी का अस्सी' आदि औपन्यासिक प्रतिमानों को तोड़ने-गढ़ने वाले उपन्यासों के अलावा कुछ कहानियों यथा - 'उसने कहा था', 'एक रात', 'शतरंज के खिलाडी', कफ़न', और 'एक राजा निरबंसिया'- पर भी विचार किया गया है।
अपनी बहुचर्चित पुस्तक 'हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास' की भूमिका में उन्होंने लिखा है, ''रचनात्मक साहित्य पुराने पैटर्न को तोड़कर नया बनता है, तो साहित्य के इतिहास पर वह क्यों न लागू हो?" यह पुस्तक साहित्येतिहास के लेखन के परिप्रेक्ष्य में यही नया पैटर्न इजाद करने का साहसिक प्रयास है। यह ग्रंथ इतिहास की धारावाहिक निरंतरता के साथ ही हिंदी के प्रमुख साहित्यकारों और साहित्यिक कृतियों का मौलिक दृष्टि से मूल्यांकन प्रस्तुत करता है। इसके साथ ही डॉ० बच्चन सिंह ने अपने निजी दृष्टिकोण तथा साहित्यिक समझ के आधार पर इसमें बहुत कुछ नया जोड़ा है, जो इस कृति को सच्चे अर्थों में हिंदी साहित्य का विशिष्ट इतिहास प्रमाणित करता है। प्रस्तुत है इस पुस्तक के कुछ अंश,
"इसमें कोई संदेह नहीं कि मुसलमान आक्रमणकारियों ने मंदिर तोड़े; हिंदू जनता पर अत्याचार किए और लोगों को बलात मुसलमान बनाया। यह भी निःसंदेह है कि गुरु नानकदेव को छोड़कर किसी भक्त कवि ने मुसलमानों के विरुद्ध कुछ नहीं लिखा; पर मुसलमान बादशाहों और उनके अधिनस्थ सामंतों के अत्याचारों का साक्षी इतिहास है। .... शुक्ल जी के कथन को पूर्णतः मान लेने पर भक्तिकाल खंडित हो जाएगा। संत काव्य और सूफ़ी काव्य उनके सैद्धांतिक दायरे से बाहर हो जाऐंगे। द्विवेदी जी का कथन भी अर्ध-सत्य ही है। यदि मुसलमान न आए होते तो न संत-काव्य लिखा जाता और न सूफ़ी-काव्य। क्षितिमोहन सेन और इतिहासकार ताराचंद ने स्पष्ट रूप से संत कवियों पर सूफ़ीयों का प्रभाव स्वीकार किया है। शुक्ल जी का मत भी इससे भिन्न नहीं है। .....पर जहाँ तक सूफ़ी साहित्य का संबंध है, इसका अधिकांश हिंदी में ही लिखा गया। बांग्ला में एक पुस्तक मिलती है - दौलातकाज़ी कृत 'सती मैना ओ लोर चन्द्रानी'।.... हिंदी सूफ़ी काव्य की मूलभूत विशेषता इसमें निहित है कि वे पूर्णतः भारतीय हैं। उन्हें यहाँ की धरती, ऋतुओं, पहाड़ों, समुद्रों और मनुष्यों से गहरा प्रेम है।"
कथाकार बच्चन सिंह
कथाकार के रूप में उन्होंने कहानी-संग्रह 'कई चेहरों के बाद', उपन्यास 'लहरें और कगार', 'पांचाली', 'कुन्ती', तथा शहीद क्रांतिकारियों के जीवन पर आधारित बेहद लोकप्रिय उपन्यास 'फाँसी से पूर्व' (रामप्रसाद बिस्मिल पर पहला उपन्यास), 'शहीद-ए-आज़म' (भगत सिंह पर), व 'शहादत' (चंद्रशेखर आज़ाद पर) लिखे। वीर क्रांतिकारियों पर उपन्यास लिखने के विषय में बच्चन सिंह कहते हैं, "स्वार्थों की अंधी दौड़ भौतिक सुख-सुविधाओं के प्रति बढ़ती ललक और व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों के तीव्रगामी पतन के दौर में भारतीय क्रांतिकारियों का त्यागमय जीवन शायद कुछ प्रकाश बिखेर सके, जिसके आलोक में समाज मूल्याधारित जीवन जीने की प्रेरणा ग्रहण करने की क्षमता विकसित कर पाए। नैतिकता की पुनर्स्थापना हो और सामाजिक व्यवहार में त्याग एवं बलिदान को प्रतिष्ठा मिले। यही सोचकर हमने क्रांतिकारियों पर उपन्यास लिखने का निश्चय किया।"
उनकी एक अन्य कथा-संग्रह 'पाँच लंबी कहानियाँ' यथार्थवादी कहानियों का अनूठा संग्रह है। पहली कहानी 'कलुआ' बाल श्रमिकों के शोषण पर आधारित है, जबकि दूसरी कहानी 'रमई राम की दो बेटियाँ' ग्राम्य और नगर संस्कृतियों में फ़र्क का चित्रण करती हैं। तीसरी कहानी 'मिस चार्ली का ब्यूटी पार्लर' आधुनिक ब्यूटी पार्लरों के पीछे का सच उद्घाटित करती है और चौथी कहानी 'गाँव की सड़क' गाँव के अनपढ़, मासूम और गरीब व्यक्तियों के चालाक तथा दबंग व्यक्तियों द्वारा हो रहे शोषण की सशक्त अभिव्यक्ति है। पांचवीं और अंतिम कहानी 'राक्षस' बाज़ारवाद के कोख से पैदा हो रहे भौतिक सुविधाओं के प्रति तेजी से बढ़ रही ललक को केंद्र में रखकर लिखी गई है। ये सभी कहानियाँ तत्कालीन समाज के विविध आयामों को परत-दर-परत खोलती जाती हैं और भविष्य की ओर संकेत भी करती हैं। एक झलक,
"कलुआ जब कभी अकेला होता; उसका मन गाँव-भर में रमने लगता। आज भी वह पहुँच गया था अपने गाँव में। मालिक पगार भेज ही रहे होंगे घर। माई ने नई धोती खरीदी होगी, पुरानी को कथरी पर चढ़ा दिया होगा। कई जगह से फट गई थी वह। चकतियाँ-ही-चकतियाँ थीं उसमें। माई जबर्दस्ती खींचे जा रही थी। मैं घर होता तब न देखता कि माई कैसी लगती है नई धोती पहिन के। बाबू की पनहीं भी चिथरा हो गई थी। एक जगह सिलाई कराते तो दूसरी जगह मुँह बा देती। बाबू ने नई पनहीं खरीद ली होगी। घर होता तो देखता कि बाबू कैसी पनहीं खरीदे हैं।"
बच्चन सिंह और साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार
'महाभारत की संरचना' बच्चन सिंह की वह रचना है, जिसने उन्हें पुरस्कारों की श्रेणी में ला खड़ा किया। यह बुद्धदेव बसु की पुस्तक 'महाभारतेर' का हिंदी अनुवाद है, जिसे अत्यधिक सराहा गया। इस संदर्भ में बच्चन सिंह के शब्द हैं, "'महाभारत' पढ़ता रहा हूँ और महाभारत मुझे पढ़ता रहा है। यह पढ़ाई अविराम चलती रहेगी। एक-दूसरे के पढ़ने के द्वंद्वात्मक संबंधों की फलश्रुति है यह पुस्तक। अन्य ग्रंथ हमें एक मार्ग से ले जाकर किसी गंतव्य पर छोड़ देते हैं या मार्ग पर प्रश्नचिह्न लगाकर अलग हो जाते हैं। किंतु 'महाभारत' में … , भटकने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। भटकने का अपना अलग सुख होता है। अगर कुछ मिल जाए तो क्या कहना!
'महाभारत' के अनगिनत आयाम हैं। उन पर अनंत काल तक लिखा जा सकता है। दुनिया में प्रतिपल, प्रतिक्षण जो महाभारत हो रहा है, वह हम देख रहे हैं, सुन रहे हैं। इस 'महाभारत' के अतिरिक्त हर व्यक्ति के मन में एक महाभारत होता रहता है– एक-दूसरे से कुछ मिलता-जुलता फिर भी भिन्न। 'महाभारत' के टेक्स्ट को प्रत्येक पाठक अपने-अपने ढंग से 'डी-कन्स्ट्रक्ट' करेगा और अलग-अलग परिणतियों पर पहुँचेगा। तत्त्वान्वेषी पाठकों के लिए एक विशिष्ट कृति।"
हिंदी का यह अनन्य सेवक ५ अप्रैल २००८ को पक्षाघात के कारण चिर निद्रा में लीन हो गया और अपने पीछे हिंदी प्रेमियों के लिए समग्र संसार छोड़ गया। आश्चर्य होता है कि साहित्य के इस परम साधक को हिंदी जगत ने उपेक्षित क्यों रखा? उनकी कृतियों, उनके भावों, उनके गहन शोध व अध्ययन को मुख्य धारा में लाकर विवेचना करने की आवश्यकता है।
बच्चन सिंह : जीवन परिचय |
नाम | बच्चन सिंह |
जन्म | २ जुलाई १९१९, जौनपुर, उत्तर प्रदेश |
निधन | ५ अप्रैल २००८, वाराणसी, उत्तर प्रदेश |
पिता | पुरुषोत्तम सिंह |
शिक्षा | क्षेत्रीय विद्यालय, जौनपुर (हाई स्कूल) उदयप्रताप कॉलेज, वाराणसी (इंटरमीडिएट) बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (स्नातक)
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कार्य | रीडर, हिंदी विभाग, बीएचयू प्रोफ़ेसर/कुलपति हिमाचल विश्वविद्यालय, शिमला अतिथि प्रोफ़ेसर, जेएनयू, नई दिल्ली
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साहित्यिक रचनाएँ |
आलोचना | क्रान्तिकारी कवि निराला समकालीन साहित्य : आलोचना और चुनौती हिन्दी नाटक रीतिकालीन कवियों की प्रेम व्यंजना साहित्य का समाजशास्त्र बिहारी का नया मूल्यांकन आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास हिन्दी आलोचना के बीज शब्द आलोचना और आलोचना भारतीय और पाश्चात्य काव्यशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन कथाकार जैनेन्द्र आचार्य शुक्ल का इतिहास पढ़ते हुए हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास कविता का शुक्ल पक्ष निराला का काव्य औपनिवेशिक तथा उत्तर औपनिवेशिक समय उपन्यास का काव्यशास्त्र निराला काव्य-कोश साहित्यिक निबंध : आधुनिक दृष्टिकोण
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कहानी-संग्रह | कई चेहरों के बाद पाँच लंबी कहानियाँ
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उपन्यास | लहरें और कगार पांचाली कुन्ती फाँसी से पूर्व (रामप्रसाद बिस्मिल पर) शहीद-ए-आज़म (भगत सिंह पर) शहादत (चंद्रशेखर आज़ाद पर)
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हिंदी अनुवाद | |
पुरस्कार व सम्मान |
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संदर्भ
लेखक परिचय
दीपा लाभ
विगत १३ वर्षों से अध्यापन कार्य से जुड़ी दीपा लाभ विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में अतिथि लेक्चरर के रूप में व्याख्यान देती रहतीं हैं। साथ ही हिंदी एवं अँग्रेज़ी भाषा में रोज़गारपरक पाठ्यक्रम तैयार कर सफलतापूर्वक चला रही हैं। इन दिनों 'हिंदी से प्यार है' समूह की सक्रिय सदस्य हैं तथा 'साहित्यकार तिथिवार' परियोजना की प्रबंधक-संपादक हैं।
ईमेल : deepalabh@gmail.com
व्हाट्सएप : +91 8095809095
दीपा दी, बहुत ही सुंदर लेख है। बच्चन सिंह को मैंने भी एक आलोचक के रूप में ही पढ़ा था। उनके साहित्य के विस्तृत आयामों को एक लेख में पिरोना कितना मुश्किल रहा होगा, समझती हूँ, खासकर तब जब कि इतनी महत्त्वपूर्ण रचनाओं के बावजूद भी साहित्यकार के जीवन पर आसानी से दृष्टि न पड़े।
ReplyDeleteऐसे समर्पित रचनाकारों को जोड़कर ही हमारी परियोजना सार्थक होगी।
शुभकामनाएँ🙏
दीपा, बच्चन सिंह जी के बारे में सप्रेम लिखा विस्तृत लेख पढ़कर हिंदी साहित्य के विभिन्न आयामों के साथ-साथ उनके अद्वितीय सृजन-संसार और कर्मशील व्यक्तित्व की अच्छी जानकारी प्राप्त हुई। इस आलेख के लिए बहुत-बहुत बधाई, आभार और आगे ऐसे ही लेखन के लिए शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteदीपा जी नमस्ते। आपको महान साहित्यकार श्री बच्चन सिंह जी पर लिखे इस लेख के लिये साधुवाद एवं बधाई। आपका हर लेख ही प्रसंशनीय होता है लेकिन यह लेख मुझ जैसे अल्पज्ञ के लिए अति महत्वपूर्ण है। इस लेख के माध्यम से श्री बच्चन जी के विशाल साहित्य सृजन को जानने का अवसर मिला और साथ ही उनके साहित्य को पढ़ने की जिज्ञासा बड़ी। आपको इस शोधपूर्ण लेख के लिये पुनः बधाई।
ReplyDeleteहिंदी साहित्य में श्रध्देय बच्चन सिंह जी की ख्याति सैद्धान्तिक लेखन के क्षेत्र में असंदिग्ध है। हिंदी साहित्य के आधुनिक काल का विकास और परिवर्तन इनके युग के दौरान हुआ है। नागरी प्रचारिणी पत्रिका में कार्य करते लोक साहित्य के प्रति प्रगाढ़ रुचि कायम की। आदरणीय बच्चन जी त्रिकालदर्शी थे, उनकी कलम में वह ताकत थी जो पाठक मन को उद्वेलित कर दिशा बदल दे। उनकी कलम भूत, भाविष्य और वर्तमान तीनो के लक्ष्य को लेकर चलती थी। आदरणीया दीपा जी के आलेख से इतिहासकार सिंह जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के संदर्भो का निर्वाह बहुत ही अनोखे अंदाज में हुआ है। आलोचक बच्चन जी के सामाजिक, सांस्कृतिक समस्याओं के दृष्टिकोण को बहुत सुंदर तरीके से स्वतंत्र रूप से प्रस्तुत किया। आपकी लेखनी हमेशा की तरह उल्लेखनीय है। सन्दर्भसहित शोध परख वाले इस आलेख के लिए आपका खूब आभार और अनगिनत शुभकामनाएं।
ReplyDeleteबहुत अच्छा, जानकारीपरक आलेख।
ReplyDeleteबधाई।