Sunday, April 3, 2022

मन्नू भंडारी : नारी मन की कुशल चितेरी

 

सन पचास के दशक में जब ताज़ा बयार के झोंके की तरह 'नई कहानी आंदोलन' हिंदी कथा संसार को सुवासित कर रहा था, मन्नू भंडारी ने अपनी सहज प्रवाहमयी लेखनी से लेखन जगत में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज की।
देखने में सरल, सादगी भरी छवि और बोलती आँखों की स्वामिनी मन्नू भंडारी अपने अंतर्मन से भी उतनी ही सरल और निश्छल थीं। स्त्री मन की कोमल अनुभूतियों, पारंपरिक मूल्यों और आदर्शों के बीच उसके आतंरिक द्वंद्व को उन्होंने बड़ी ही ईमानदारी से शब्दों में ढाला है। उन्होंने अपने मुखर लेखन से २० के दशक की रूढ़ियों में बंधी स्त्री की पारंपरिक छवि को तोड़ा। मन्नू भंडारी ने अपने आस-पास जिन विसंगतियों और अंतर्विरोधों को देखा-जिया, उन्हें बड़ी ही सहजता से कागज़ पर उकेर दिया, ज्यों का त्यों। उनकी कथाएँ महज़ कल्पना की उड़ान नहीं, यथार्थ की ठोस ज़मीन से उपजी हैं।  उनकी कहानियों के पात्र वास्तविक और हमारे अपने बीच के हैं। वे स्वयं भी अपनी कथाओं में किसी न किसी रूप में उपस्थित हैं। 
हालाँकि, उनके कथा शिल्प में 'नई कहानी' की सभी विशेषताएँ समाहित हैं, पर वे प्रत्यक्षतः इस आंदोलन में भागीदारी से इनकार करती हैं। यह वह दौर था, जब बदलती हुई सामाजिक परिस्थितियों और उनसे उपजे नई पीढ़ी के द्वंद्व पर कहानियाँ लिखी जा रही थीं। पारंपरिक मूल्यों की गहरे तक पैठी जड़ों के साथ मिली सीमित आज़ादी से उपजी छटपटाहट की एक बानगी उनकी कहानी त्रिशंकु के एक अंश में,
"घर की चारदीवारी आदमी को सुरक्षा देती है, पर साथ ही उसे एक सीमा में बांधती भी है। स्कूल-कॉलेज जहाँ व्यक्ति के मस्तिष्क का विकास करते हैं, वहीं नियम-कायदे और अनुशासन के नाम पर उसके व्यक्तित्व को कुंठित भी करते हैं.. बात यह है बंधु, कि हर बात का विरोध उसके भीतर ही रहता है।"
उनके व्यक्तित्व को शब्दों में बाँधना कठिन है। एक जोशीली, विद्रोही स्वभाव की छात्रा जिसने स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया, से लेकर अपने विवाह को बचाने का हर संभव यत्न करती पत्नी की भूमिका में भी वही हैं। वे बच्ची के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन करती स्नेहमयी माँ, घर को संवारती-सहेजती, हंसती-खिलखिलाती अतिथियों की आवभगत में जुटी गृहिणी और इन सबके बीच सहज ही कितना कुछ लिख लेती एक प्रखर लेखिका भी हैं। त्रासद वैवाहिक जीवन से उपजे अंतःद्वंद्व से गुज़रती उनके भीतर की स्त्री खुद से ही जीवन भर कितना लड़ी होगी। बावजूद इसके, अपने इन नितांत निजी संघर्षों से ऊपर उठ कर एक व्यापक दृष्टिकोण लिए वे जीवन और समाज से जुड़े संदर्भों को अपनी कहानियों में उतारती रहीं। बालमन हो या सामाजिक-राजनीतिक सरोकार, बड़ी ही कुशल चितेरी थीं मन्नू भंडारी! 
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
मन्नू भंडारी का जन्म ३ अप्रैल सन १९३१ में ग्राम भानपुरा, ज़िला मंदसौर (मध्य प्रदेश) में हुआ। उनके छुटपन में ही उनका परिवार राजस्थान के अजमेर शहर में बस गया था। वहीं उनकी इंटर तक की शिक्षा संपन्न हुई। अपने अजमेर वाले घर से जुड़ी यादों को उन्होंने अपने आत्मकथ्य 'एक कहानी यह भी' में साझा किया है।
"ऊपरी मंज़िल में पिताजी का साम्राज्य था, जहाँ वे निहायत अव्यवस्थित ढंग से फैली-बिखरी पुस्तकों- पत्रिकाओं और अख़बारों के बीच या तो कुछ पढ़ते रहते थे या फिर 'डिक्टेशन' देते रहते थे। नीचे हम सब भाई-बहनों के साथ रहती थीं, हमारी बेपढ़ी-लिखी व्यक्तित्वहीन माँ.. सवेरे से शाम तक हम सब की इच्छाओं और पिताजी की आज्ञाओं का पालन करने के लिए सदैव तत्पर।" 
उनके पिता सुखसंपत राय स्वयं एक प्रतिष्ठित लेखक और समाज सुधारक थे। बाद में विषम आर्थिक परिस्थितियों और अपनों से मिले विश्वासघात ने उनके जैसे संवेदनशील व्यक्ति को बेहद क्रोधी, शक्की और अहंवादी बना दिया था। मन्नू जी लिखती हैं,
"होश संभालने के बाद से ही जिन पिताजी से किसी न किसी बात पर हमेशा मेरी टक्कर चलती रही, वे तो न जाने कितने रूपों में मुझ में हैं.. कहीं कुंठाओं के रूप में, कहीं प्रतिक्रिया के रूप में तो कहीं प्रतिच्छाया के रूप में.."
सांवली-सलोनी, दुबली-पतली मन्नू पाँच भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं। बचपन में दो वर्ष बड़ी बहन सुशीला जो सुंदर और स्वस्थ थीं, से हमेशा तुलना होने के कारण एक हीन ग्रंथि उनके मन में घर कर गई थी। उनके साधारण से असाधारण बनने की इस यात्रा में उनकी कॉलेज प्राध्यापिका शीला अग्रवाल का बहुत योगदान रहा। कॉलेज शिक्षा के प्रारंभ में शीला अग्रवाल के सानिध्य ने उन्हें ओजस्वी, मुखर और आत्मविश्वास से लबरेज़ युवती के रूप में ढाला। उनके व्यक्तित्व पर स्वाधीनता आंदोलन और घर में होने वाली राजनैतिक बैठकों-बहसों का भी प्रभाव पड़ा। देश की परिस्थितियों को जानने-समझने की जो शुरुआत पिता के सान्निध्य में घर की चारदीवारी के भीतर हुई थी, शीला अग्रवाल के प्रभाव ने उसे सक्रिय भागीदारी में बदल दिया। पिता से टकराव की शुरुआत भी यहीं से हुई क्योंकि तमाम आधुनिकता के बाद भी लड़कों के साथ हड़तालें करवाती और नारे लगवाती लड़की का यह रूप स्वीकार करना उनके भीतर के परंपरावादी पिता के लिए मुश्किल था।
शीला अग्रवाल के कॉलेज छोड़ने के बाद उन्होंने भी अजमेर छोड़ दिया। कलकत्ता में अपने भाई और बहन सुशीला के यहाँ रहते हुए उन्होंने बी० ए० किया और फिर बनारस से एम० ए०। कलकत्ता रहते हुए ही उनकी राजेंद्र यादव से मुलाकात और विवाह (१९५९) हुआ। बाद में वे पति के साथ दिल्ली चली गईं।
कार्यक्षेत्र
एम० ए० के पश्चात उन्होंने कलकत्ता के बालीगंज शिक्षा सदन विद्यालय (१९५२-६१), रानी बिड़ला कॉलेज (१९६१-६४) में अध्यापन किया। उन्होंने १९६४ से अवकाश प्राप्ति तक दिल्ली के मिरांडा हाउस कॉलेज में अध्यापन किया। अवकाश प्राप्ति के बाद दो वर्ष (१९९२-९४) तक वे उज्जैन में प्रेमचंद सृजनपीठ की निदेशिका रहीं।
रचना संसार में प्रवेश 
'बालीगंज शिक्षा सदन' विद्यालय में अध्यापन के दौरान ही उन्होंने अपनी पहली कहानी 'मैं हार गई' लिखी थी। उनके अनुसार यह कहानी "कलात्मकता, शिल्प और बिंब की समझ से परे एक अबोधपन के साथ सहज भाव" में लिखी गई थी। कहानी छपी भैरव प्रसाद गुप्त की पत्रिका 'कहानी' में। कहानी की स्वीकृति और प्रशंसा ने उनके लेखन के मार्ग को प्रशस्त किया। 
कथा शिल्प की अपनी समझ पर वे कहती हैं, "पहले घटनाएँ अपने-आप क्रम से जुड़ती चलती थीं...एक के बाद एक-सहज, अनायास पर आज! एक परत पकड़ो तो चार परतें और उघड़ती हैं- नई संवेदना, नई समझ, नए विश्लेषण की मांग करती हुईं। अब इकहरे पात्रों की जगह अंतःद्वंद्व में जीते पात्र ही आकर्षित करने लगे- विचारों और संस्कारों के द्वंद्व में लटकी 'त्रिशंकु' की माँ हो या मातृत्व और स्त्रीत्व के द्वंद्व के त्रास को झेलती 'आपका बंटी' की शकुन। आदर्श और यथार्थ, स्वप्न और वास्तविकता के बीच टूटती-चरमराती 'क्षय' की कुंती हो या 'तीसरा हिस्सा' के शेरा बाबू।"
उनके रचना शिल्प में सहज प्रवाह के साथ एक सुघड़ कलात्मकता भी है। उनके अनुसार किसी रचना के असली मानक होते हैं, रचनाकार का दायित्व बोध, उसके सरोकार, जीवन दृष्टि और कलात्मक निपुणता। आगे वे कहती हैं,
"यहाँ कलात्मक निपुणता को मैं पूरे बलाघात के साथ रेखांकित करना चाहूँगी, क्योंकि यही आपके गहरे से गहरे यथार्थ-बोध को संवेदना के धरातल पर ले जाती है... आपके अनुभव को एक रचना में... एक कलाकृति में ढाल देती है।"
अपनी कहानियों 'त्रिशंकु' और 'स्त्री सुबोधिनी' के बारे में वे लिखती हैं, "इन दोनों कहानियों के कथ्य का वर्णन करना इनके साथ ज़्यादती करना ही है, क्योंकि इनकी सारी खूबसूरती या विशेषता इनकी कलात्मक प्रस्तुति में ही है, जिसने इन्हें इतना आकर्षक और सार्थक बनाया।"
उनकी कहानी 'अकेली' भी ख़ासी चर्चित हुई है, जिसके केंद्र में एक अकेली परित्यक्ता बूढ़ी महिला है। इस कहानी पर टेलीफ़िल्म भी बनी है। 'यही सच है' कहानी पर रजनीगंधा फ़िल्म बनी। इस कहानी में नायिका के मन की ऊहापोह जो पूर्व प्रेमी और वर्तमान प्रेमी में चुनाव को लेकर है, मन्नू भंडारी ने बड़ी ही स्वाभाविकता और ईमानदारी से व्यक्त की है, ओढ़ी हुई नैतिकता से परे।
उनके उपन्यास 'आपका बंटी' में माता-पिता के अलगाव को महसूस करते ९ वर्षीय बालक बंटी की मनोदशा का प्रभावी चित्रण है। बाल मनोविश्लेषण की दृष्टि से इसे उनकी श्रेष्ठ कृतियों में सम्मिलित किया जाता है। यह उपन्यास धर्मयुग में धारावाहिक के रूप में भी प्रकाशित हुआ है।
दलित राजनीति और कुत्सित राजनैतिक षड्यंत्रों पर आधारित उनका चर्चित उपन्यास 'महाभोज' एक उत्कृष्ट कृति है, जिसका सफल नाट्य मंचन भी हुआ है। यह उपन्यास एक लेखक के समाज के प्रति दायित्व बोध को दर्शाता है। अपने उपन्यास की प्रस्तावना में वे कहती हैं,
"जब घर में आग लगी हो तो सिर्फ़ अपने अंतर्जगत में बने रहना या उसी का प्रकाशन करना क्या खुद ही अप्रासंगिक, हास्यास्पद और किसी हद तक अश्लील नहीं लगने लगता?"
राजेंद्र यादव के साथ लिखा गया उनका उपन्यास 'एक इंच मुस्कान' एक अनूठा प्रयोग था, जिसे क्रमानुसार उन्होंने एक-एक अंक लिखा था। उन्होंने 'बिना दीवारों का घर' शीर्षक से एक नाटक लिखा जो काफी चर्चित रहा। 
एक कहानी यह भी
मन्नू भंडारी का एक बड़े समयांतराल में टुकड़ों- टुकड़ों में लिखा आत्मकथ्य 'एक कहानी यह भी' के रूप में प्रकाशित हुआ है। इसे पढ़ना उनकी रचना यात्रा और जीवन के विभिन्न पड़ावों से गुज़रने के समान है, जहाँ उनके मन की एक-एक परत खुलती जाती है। अपने स्वयं के बारे में ईमानदारी से लिखना सबसे दुष्कर कार्य होता है। एक तरफ सफलता, उपलब्धियाँ और यश, दूसरी तरफ मन को छीलते, व्यक्तित्व को कुंठित करते निजी जीवन के टकराव, संघर्ष, आँसू, घुटन।
खंड-खंड होते आत्मविश्वास ने उनकी कलम को भी कुंठित कर दिया था। सन १९९२ में उज्जैन निवास के दौरान उन्होंने लिखने का क्रम पुनः प्रारंभ किया किंतु अपनी किसी रचना को पूर्ण नहीं कर पाईं।
उनकी पुत्री रचना के शब्दों में, "मानसिक और शारीरिक परिस्थितियों ने उनको इतना तोड़ा है कि आज मन्नू भंडारी अपने पुराने खिलखिलाते चेहरे को खुद नहीं पहचानतीं। परंतु मैं यह जानती हूँ कि आज की इस आत्मविश्वासहीन, कमज़ोर दिखने वाली मन्नू भंडारी के भीतर अभी भी वह दबंग और स्वावलंबी मन्नू भंडारी किसी कोने में दुबकी बैठी है..."
उन्हें न्यूरेल्ज़िया था। अपने अंतिम दिनों में वे स्मृति भ्रंश का शिकार हो गई थीं। लिखने की प्रबल इच्छा के बावजूद विचारों और हाथ की उँगलियों में कोई तालमेल नहीं बैठता था। वे लोगों से मिलने-जुलने और बात करने से कतराने लगी थीं। यह सच है कि जीवन भर संघर्ष और दर्द उनकी लेखनी को ऊर्जावान बनाते रहे, जब संघर्ष थमे तो भीतर तक एक गहरा सन्नाटा.. एक शून्य व्याप गया।
मानव मन की गहनतम अनुभूतियों को शब्दों में ढालती इस कुशल रचनाकार ने १५ नवंबर २०२१ को अंतिम सांस ली।

मन्नू भंडारी : जीवन परिचय

नाम

मन्नू भंडारी (बचपन में महेंद्र कुमारी)

जन्म

३ अप्रैल १९३१

निधन

१५ नवंबर २०२१

पिता

सुखसंपत राय भंडारी

माता

अनूपकुंवरी

भाई-बहन

प्रसन्न कुमार, बसंत कुमार, स्नेह लता, सुशीला

जीवनसाथी

राजेंद्र यादव 

संतान

रचना यादव

साहित्यिक रचनाएँ

कथा संग्रह

  • मैं हार गई (१९५७)

  • तीन निगाहों की एक तस्वीर (१९५९)

  • यही सच है (१९६६)

  • एक प्लेट सैलाब (१९६८)

  • त्रिशंकु (१९७८)

  • मेरी प्रिय कहानियाँ (१९७९)

  • प्रतिनिधि कहानियाँ

  • नायक खलनायक विदूषक

पटकथा

  • कथा पटकथा (दूरदर्शन पर प्रसारित 'धारावाहिक रजनी की पटकथा')

उपन्यास

  • एक इंच मुस्कान (१९६९) राजेंद्र यादव सहलेखक

  • आपका बंटी (१९७१)

  • महाभोज (१९७९)

  • स्वामी (शरद चंद्र की बांग्ला कहानी का रूपांतरण) (१९८२)

नाटक

  • बिना दीवारों का घर (१९६६)

  • महाभोज का नाट्य रूपांतरण (१९८३)

बाल कहानियाँ

  • आँखों देखा झूठ

  • आसमाता

  • कलवा

आत्मकथ्य

  • एक कहानी यह भी (२००७)

पुरस्कार और सम्मान

  • उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान (१९८०-८१)

  • भारतीय भाषा परिषद कोलकाता (१९८२)

  • कला-कुंज सम्मान, नई दिल्ली (१९८२)

  • भारतीय संस्कृत संसद समारोह, कोलकाता (१९८३)

  • बिहार राज्य भाषा परिषद (१९९१)

  • राजस्थान संगीत नाटक अकादमी (२००१-०२)

  • महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी (२००४)

  • हिंदी अकादमी, दिल्ली शलाका सम्मान (२००६-०७)

  • मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन, भवभूति अलंकरण (२००६-०७)

  • १८वां व्यास सम्मान, केके बिड़ला फाउंडेशन (२००८)

संदर्भ

  • विकिपीडिया

  • एक कहानी यह भी

  • मन्नू भंडारी : एक ज़िंदगी की दो तस्वीरें- Femina.in

  • मन्नू भंडारी जीवनी

  • मन्नू भंडारी - संपूर्ण जीवन परिचय

  • स्मृतिशेष : मन्नू भंडारी; गरिमा श्रीवास्तव। समालोचन

  • लेखन बिखरने नहीं देता - मन्नू भंडारी, साक्षात्कार (वेबदुनिया)

लेखक परिचय

प्रज्ञा गौतम
शिक्षा - एम० एस० सी० (पादप रोग विज्ञान), बी० एड० 

वर्तमान में व्याख्याता के पद पर कार्यरत

निवास- कोटा, राजस्थान।

आठ वर्षों से निरंतर प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिकाओं- विज्ञान प्रगति, आविष्कार, वैज्ञानिक, और इलेक्ट्रोनिकी आपके लिए में विज्ञान आलेखों और कथाओं का प्रकाशन। एक विज्ञान कथा संग्रह ‘अलौकिक और अन्य कहानियाँ’ प्रकाशित। अनेक विज्ञान कथाओं का भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद।

ईमेल - pragyamaitrey@gmail.com

18 comments:

  1. बहुत सुंदर आलेख
    मन्नू भंडारी को पुनर्जीवित किया आपने

    ReplyDelete
  2. विजया जी, आपका आभार।

    ReplyDelete
  3. I have read Mannu Bhandari and really appreciate her approach and emotional connectivity with her readers. And now when I read this piece of writing about the great author, written by another eminent writer I can see a lot of things which I could not realize about Mannu ji. I am really thankful to Pragya ji for bringing a lot of things in light. A splendid piece of writing indeed!

    ReplyDelete
  4. प्रज्ञा जी नमस्ते। आपने मन्नू भंडारी जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। आपने इस लेख में मन्नू भंडारी जी के जीवन एवं साहित्य को बखूबी समेटा। उनका सृजन काफी विस्तृत है जिसे एक लेख में समेटना कठिन है। आपको इस रोचक लेख के लिये हार्दिक बधाई।

    ReplyDelete
  5. आलेख में व्यक्तित्व व कृतित्व की विवेचना की गई है ।बहुत सुन्दर सामग्री का समावेश किया है । आलेख में शोध की दिशा स्पष्ट है ।
    - बीजेन्द्र जैमिनी

    ReplyDelete
  6. आप विज्ञान लेख, विज्ञान कथा के अतिरिक्त भी लिखती हैं! बहुत खूब लिखा है। मन्नू भंडारी: नारी मन की कुशल चितेरी! बहुत सुन्दर आलेख। उनके जीवन और साहित्य को, उनके अंतर्द्वंद्व को, उनकी रचना शीलता को, उनके टकराव को, उनकी जीवंतता को आपने फिर से जीवंत कर दिया है। हार्दिक आभार, बधाई, अभिनन्दन।

    ReplyDelete
  7. प्रज्ञा जी, मन्नू जी की जीवंत और समाज की हर विद्रूपता एवं विसंगति से विद्रोह करने वाली लेखनी तथा उनके दबंग एवं संयमी व्यक्तित्व को बड़ी ख़ूबसूरती से आपने इस आलेख में उकेरा है। बहु-पठित और बहु-चर्चित मन्नू भंडारी जी के कृतित्व और व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक पेश करते इस आलेख के लिए बहुत-बहुत आभार और बधाई।

    ReplyDelete
  8. मन्नू भंडारी के जीवन वृत्त को आपकी लेखनी ने जीवंत कर दिया है।

    ReplyDelete
  9. मन्नू भंडारी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को प्रकाशित करता हुआ ज्ञानवर्धक आलेख । बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं, प्रज्ञा जी !

    ReplyDelete
  10. हाशश....
    वाह वाह वाह क्या लेख लिखा है आदरणीया प्रज्ञा जी। एक सांस में बिना पलके बंद कर पढ़ने वाला लेख। अद्भुत शब्दरचना। अप्रतिम भाव। कठिन जीवनसंघर्ष का ब्यौरा। गहन अनुभूतियों का ताल मेल। साहित्यिकजीवन और सामाजिक सरोकार का उत्कृष्ट उदाहरण।
    श्रध्देया मन्नू जी को पढ़ना और उनके बारे में शब्द सीमित होकर लिखना यह कोई साधारण बात नही है। आपके आलेख ने इतनी सफलतापूर्वक उनके जीवनवृत्तांत का अद्भुत चित्र खींचा है कि अंत मे गहरा सन्नाटा मन में उद्वेलित कर दिया है। खूबसूरत और प्रशंसनीय लेखन के लिए खूब खूब आभार। अतिसंतुलित और सराहनीय लेख। अनंत शुभकामनाएं।

    ReplyDelete
  11. संजय जी,सूर्या जी,बहुत बहुत आभार।

    ReplyDelete
  12. मन्नू भंडारी के समूचे व्यक्तित्व को समेटता सुंदर आलेख। ऐसे आलेख लिखने के लिए बहुत शोध और अध्ययन की ज़रूरत होती है जो प्रज्ञा जी ने किया है।
    बहुत बहुत बधाई

    ReplyDelete
  13. आभार अनूप जी।

    ReplyDelete

आलेख पढ़ने के लिए चित्र पर क्लिक करें।

कलेंडर जनवरी

Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat
            1वह आदमी उतर गया हृदय में मनुष्य की तरह - विनोद कुमार शुक्ल
2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
23हिंदी साहित्य के गौरव स्तंभ : पं० लोचन प्रसाद पांडेय 24हिंदी के देवव्रत - आचार्य चंद्रबलि पांडेय 25काल चिंतन के चिंतक - राजेंद्र अवस्थी 26डाकू से कविवर बनने की अद्भुत गाथा : आदिकवि वाल्मीकि 27कमलेश्वर : हिंदी  साहित्य के दमकते सितारे  28डॉ० विद्यानिवास मिश्र-एक साहित्यिक युग पुरुष 29ममता कालिया : एक साँस में लिखने की आदत!
30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...