Sunday, April 24, 2022

विराट स्वर का निनाद : रामधारी सिंह 'दिनकर'

 

राष्ट्रकवि दिनकर जी का हिंदी साहित्य में अविस्मरणीय योगदान है, वे वस्तुतः हिंदी के दिनकर ही हैं। गद्य हो, पद्य हो या निबंध, इनकी लेखनी के जादू से कोई विधा अछूती नहीं रही है। छायावादी युग के उपरांत आधुनिक युग के हिंदी साहित्यकारों में, विशेष कर कवि के रूप में, इनके नाम से हिंदी काव्य दीर्घा आलोकित है।


यूँ तो इनका रचना संसार विस्तृत है, परंतु शुरुआत से ही आक्रोश और ओज इनके लेखन की पहचान बन गए

"वन में प्रसून तो खिलते हैं,

बागों में साल ना मिलते हैं"


यह वही लिख सकता है जिसने २ वर्ष की आयु में, अपने पिता को खो दिया हो! रामधारी ने अर्थाभावों तथा विषम परिस्थितियों को ना सिर्फ़ जिया बल्कि उन पर जीत हासिल कर के खुद को इतना तपाया कि बिहार के छोटे से गाँव 'सिमरिया' के रामधारी सिंह को हिंदी साहित्य का दैदिप्यमान 'दिनकर' बना दिया।

 

दिनकर जी का जन्म १९०८ में एक मध्यमवर्गीय कृषक परिवार में हुआ। पिता के  निधन के बाद इस परिवार और बच्चों की ज़िम्मेदारी का भार विधवा माँ के कंधों पर आ पड़ा। छोटी सी उम्र में ही रामधारी भी जीवन के यथार्थ से परिचित हो गए। कुछ आर्थिक समस्याओं और कुछ तत्कालीन राजनीतिक परिस्तिथियों ने खेत-खलिहानों, बागों तथा ताल-पोखरों के बीच स्वच्छंद घूमने वाले इस किशोर के कवि हृदय में संवेदनशीलता के साथ साहस के बीज भी अंकुरित कर दिए। ऐसी स्थिति में बचपन टिक भी कहाँ पाता है, "सूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते" के विचार को शब्दों में उकेरने का अवसर भले ही जीवन ने बाद में दिया हो, लेकिन ये भाव तो विधाता ने घुट्टी में ही पिला दिए थे।


राजनीति, दर्शन और इतिहास में इनकी रुचि शुरू से रही, इतिहास में तो इन्होंने स्नातक की डिग्री भी प्राप्त की। कुछ वर्ष स्थानीय विद्यालय में काम करने के बाद दिनकर जी को बिहार सरकार ने रजिस्ट्रार एवं प्रचार विभाग के उपनिदेशक के पदपर नियुक्त किया।

 

लेकिन दिनकर तो आखिर 'दिनकर' ठहरे, सरकारी नौकरी रहे चाहे जाए, "हुंकार" और "रेणुका" जैसी क्रांतिकारी रचनाओं का प्रकाशन होना था, सो हुआ। इन रचनाओं के पारिश्रमिक में जहाँ एक तरफ इन्हें सरकार से चार साल में बाईस तबादलों की सौग़ात मिली और वहीं दूसरी तरफ़ भारत की जनता और पाठकों से अतिशय नेह और सम्मान मिला!!


उस समय स्वतंत्रता आंदोलन अपने उत्कर्ष पर था और ओजपूर्ण कविताएँ लिखने वाले दिनकर जैसे कवि का लोकप्रिय होना स्वाभाविक ही था। इसी बीच ये पंडित नेहरू के संपर्क में आए और प्रभाव में भी। पंडित नेहरू के ऊपर इन्होंने 'लोकदेवनेहरू' के नाम से एक किताब भी लिखी। कदाचित, स्वयं के मृदुभाषी और सौम्य स्वभाव के कारण दिनकर जी का पंडित नेहरू पर स्नेह रहा हो किंतु उनकी लेखनी का समर्पण केवल और केवल भारत की अस्मिता के प्रति था।

 

यही तेवर हैं, जो भारतीय साहित्य के वीर रस के कवियों में दिनकर जी विशिष्ट स्थान निश्चित करते हैं। दिनकर जी की कलम महाकवि भूषण के वीर रस से इतर है l जहाँ राज्याश्रय में रहने वाले महाकवि भूषण "शिवा को सराहौ, कि सराहौ छत्रसाल कौं" लिखते हैं, वहाँ दिनकर की लेखनी किसी राज्याश्रय की प्रार्थी नहीं है, वह उस सब को जला देती है जो देशहित में न हो।

 

वही दिनकर, जिन्होंने स्वयं को 'नेहरू भक्त' तक कह डाला था, १९६२ में देश की राजनीतिक चेतना पर चोट करते हुए उन्होंने कहा,

"ओ राही दिल्ली जाना तो, कहना नेहरू सरकार से

चरखा चलता है हाथों से, शासन चलता तलवार से"

 

राज्यसभा के सांसद तो वे थे ही, जब इतना कहने पर भी क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई, तो संसद के पटल पर इस आहत सिंह ने पूरे देश की राजनैतिक़ व्यवस्था झिंझोड़ कर रख दिया था,

"देखने में देवता सदृश लगता है,

बंद कमरे में ग़लत हुक्म लिखता है।

जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यारा हो

समझो उस ने हमें मारा है।"

 

भारत के संसदीय इतिहास में ऐसे बिरले ही उदाहरण हैं जब सत्ता पक्ष के प्रधान को संसद के पटल पर ऐसा विरोध सुनना पड़ा हो। कहा जाता है इस काव्य पाठ के दौरान राज्यसभा में खलबली मच गई थी लेकिन प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू पूरे समय सिर झुका कर ही बैठे रहे।

 

आज की पीढ़ी, जो टेलिविज़न और फ़िल्मों के बीच पली-बढ़ी है, उनको यह समझाना दुष्कर है कि एक कवि की लेखनी ऐसी लोकप्रिय भी हो सकती है, जिसकी धार से सरकारों की चूलें तक हिल जाएँ। "सिंहासन ख़ाली करो, कि जनता आती है" ना सिर्फ़ एक कविता थी अपितु देश की राजनीति में सत्तर के जन आंदोलन में क्रांति का उद्घोष बन गई थी।

 

हिंदी भाषा के प्रति दिनकर जी का प्रेम होना स्वाभाविक ही था, ना सिर्फ़ उन्होंने हिंदी में रचनाएँ लिख़ी बल्कि उन्होंने हिंदी के अध्यापन से ले कर भाषा के प्रचार प्रसार और उत्थान के लिए निरंतर संघर्ष भी किया। भागलपुर वि०वि० के कुलपति का कार्यभार संभालने के बाद दिनकर जी भारत सरकार में हिंदी सलाहकार के पद पर नियुक्त हुए। यह समय हिंदी भाषा के अस्तित्व के लिए बड़ा चुनौतीपूर्ण था, पर हिंदी को उसका उचित सम्मान दिलवाने के लिए दिनकर जी कटिबद्ध थे। वे अपने अकाट्य तर्कों, प्रमाणों और टिप्पणियों से विरोधियों को निरुत्तर कर दिया करते थे।

 

हिंदी साहित्य में दिनकर जी का योगदान केवल वीर रस तक सीमित नहीं रहा। उन्होंने भारत की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक विरासत को अपने शब्दों में उकेरा भी और समेटा भी।


उनके खंडकाव्य 'उर्वशी' को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। 'उर्वशी' में सोमवंश के राजा पुरुरवा एवं स्वर्ग से निष्कासित अप्सरा उर्वशी के प्रेम का बहुत कोमल और शृंगारिक वर्णन मिलता है। इंद्र से भी शक्तिशाली राजा एक अप्सरा के प्रेम में आसक्त हो कर कह उठते हैं,

"कौन है अंकुश जिसे मैं भी नहीं पहचानता हूँ,

पर सरोवर के किनारे कंठ में जो जल रही है-

उस तृषा, उस वेदना को जनता हूँ।"

 

दिनकर जी को पढ़ने वाले इन पंक्तियों को पढ़ कर अचंभित हो ही रहे थे, कि उनकी लेखनी फिर ओज के आग़ोश में जा पहुँची और प्रेमपाश में बंधे महाराज पुरुरवा से भी कहलवा ही उठी,

"मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं।

उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं।।"

 

भारत की सांस्कृतिक एकात्मकता के पुरोधा बन कर इन्होंने 'संस्कृति के चार अध्याय' जैसा शोधपूर्ण एवं परिष्कृत ग्रंथ हिंदी साहित्य को एक अनमोल धरोहर स्वरूप भेंट किया। इसके लिए इन्हें १९५९ में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और इसी वर्ष उन्हें पद्मभूषण से भी अलंकृत किया गया।

 

इनकी कालजयी रचनाएँ हर युग में युवाओं के लिए जोश और स्फूर्ति का पावर हाउस रही हैं। जब दिनकर जी के कृष्ण भरी सभा में ललकारते हैं,

"ज़ंजीर बढ़ा कर साध मुझे,

आ, आ दुर्योधन बाँध मुझे।"

 

तो श्रोताओं के श्री कृष्ण के प्रति भक्ति, समर्पण, आश्चर्य और भय से रौंगटे खड़े हो जाते हैं! यह रोमांच ही दिनकर जी की रचनाओं का 'सम' रहा है। वे खुद को गाँधीवादी तो कहते हैं, पर साथ ही यह भी जोड़ देते हैं कि वे 'बुरे' गांधीवादी हैं क्योंकि वो मानते हैं कि "युद्ध विनाशकारी है, लेकिन स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अनिवार्य है"। वे शक्ति के उपासक हैं, आज भी उनके विचार उतने ही प्रासंगिक हैं जितने ७०-८० साल पहले थे,

"सच पूछो तो शर में ही बसती है, शक्ति विनय की।

संधि वचन संपूज्य उसी का, जिसमें शक्ति विजय की।"

 

इनकी रचनाएँ, जीवन मूल्यों की पयस्विनी हैं। दिनकर जी के कर्मठ विश्व में असाध्य, असंभव कुछ भी नहीं है, 'स्वर्ग के सम्राट' भी इनके मानव की कर्मण्यता की परिधि में हैं,

"वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,

स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।।

स्वर्ग के सम्राट को जा कर ख़बर कर दे,

रोज़ ही आकाश चढ़ते आ रहे हाँ वो।।"

 

दिनकर जी अपने जीवनकाल में जन प्रिय कवि बन कर उभरे, सरकारी पदों पर भी आसीन रहे और राजनैतिक सत्ता भी प्राप्त की, पर कभी भी अपनी विशिष्टता को जन-गण की बाधा नहीं बनने दिया। बनारस का एक रोचक प्रसंग सुनने में आता है, जब इनको एक काव्यगोष्ठी में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था, इस गोष्ठी में अंदर जाने का टिकट लगाया गया था। आयोजन स्थल के बाहर श्रोताओं की भीड़ लग गई, सब इन्हें दूर-दूर से सुनने आए थे, आने वालों में अधिकांश छात्र थे जो टिकट नहीं ले सकते थे, ये बात दिनकर जी तक पहुँची, फिर क्या था, आयोजन स्थल के बाहर तख़्त और माइक लगा और वहीं काव्य पाठ शुरू,

"रे रोक युधिष्ठिर को ना यहाँ, जाने दे उनको स्वर्ग धीर।

पर फिरा हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।।"

 

दिनकर जी की कविताओं के उद्धरणों का अपने भाषणों और वादविवाद प्रतियोगिताओं में प्रयोग कर के न जाने कितने छात्र-छात्राओं ने पुरस्कार जीते हैं। बचपन में मैंने भी एक कविता याद की थी,

"हठ कर बैठा चाँद, एक दिन माता से यों बोला,

सिलवा दे माँ मुझे, ऊन का मोटा एक झिंगोला।"

 

बाद में पता चला ये कविता भी दिनकर जी की ही लिखी हुई है।

 

वह 'दिनकर' जिनका भोला बच्चा भी अपनी माँ से झिंगोला 'बनाने' का आग्रह करता है, ना कि 'मोल' लाने का, उनको सीमित शब्दों में समेटने का प्रयास करना आकाश को मुट्ठी में लेने जैसा है, इनको तो बस पढ़ते रहो, पढ़ते ही रहो!


२४ अप्रैल १९७४ को हिंदी का यह सूर्य दक्षिण में जा कर अस्त हुआ।

"सूरज बोला, यह बड़ी रोशनीवाला था,

मैं भी न जिसे भर सका कभी उजियाली से

रंग दिया आदमी के भीतर की दुनिया को

इस गायक ने अपने गीतों की लाली से!"


रामधारी सिंह दिनकर : जीवन परिचय

जन्म

२३ सितंबर १९०८, सिमरिया, मुंगेर (बिहार)

निधन

२४ अप्रैल १९७४ (उम्र ६५) मद्रास, तमिलनाडु, भारत

पिता

बाबू रवि सिंह

माता

मनरूप देवी

भाई

केदारनाथ सिंह, रामसेवक सिंह

पत्नी

श्यामा  देवी

शिक्षा

पटना विश्वविद्यालय से इतिहास विषय में बी० ए०, पीएचडी (मानद) भागलपुर विश्वविद्यालय

कर्मभूमि

बिहार और दिल्ली

विधा / विषय

कवि, लेखक, निबंधकार, साहित्यिक आलोचक, पत्रकार, व्यंग्यकार, स्वतंत्रता सेनानी और संसद सदस्य

साहित्यिक आंदोलन

राष्ट्रवाद और प्रगतिवाद

साहित्यिक रचनाएँ

  • रश्मिरथी
  • उर्वशी
  • कुरुक्षेत्र
  • संस्कृति के चार अध्याय
  • हुंकार
  • हाहाकार
  • चक्रव्यूह
  • परशुराम की प्रतीक्षा

सम्मान

  • १९५९ : साहित्य अकादमी पुरस्कार

  • १९५९ : पद्म भूषण

  • १९७२ : भारतीय ज्ञानपीठ


संदर्भ 

  • कविता कोश 

  • रामधारी सिंह "दिनकर" - विकीपीडिया 

  • संस्कृति के चार अध्याय (रामधारी सिंह "दिनकर")

  • रश्मिरथी, हिमालय, कुरुक्षेत्र (रामधारी सिंह "दिनकर")


लेखक परिचय


हिना चतुर्वेदी 


B.SC, M.A.(हिंदी), रविशंकर वि०वि० रायपुर

M.A(समाजशास्त्र) एवं B.Ed लखनऊ वि०वि० तत्पश्चात R.V.M. विद्यालय कोलकाता में अध्यापन।

संप्रति अवकाश प्राप्ति के बाद लगभग १० वर्षों से बेटे के साथ शंघाई में प्रवास।

कुछ रचनाएँ कोलकाता के दैनिक पत्र सन्मार्ग में प्रकाशित।

3 comments:

  1. हिना जी, हिंदी साहित्य के 'दिनकर' को आपका आलेख एक सुन्दर भावांजलि है, आपने उनकी सोच के तेवरों और कलम के जादू को चंद उदाहरणों के माध्यम से बख़ूबी सामने लाया है। आपका आलेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा। इस सुन्दर भेंट के लिए आपको आभार और बधाई।

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  2. हिना जी नमस्ते। भारतीय साहित्य को सूर्य सदृश अपनी मेधा से रौशन करने वाले कवि रामधारी सिंह 'दिनकर' पर आपका आलेख बहुत अच्छा है। शायद ही कोई हिंदी प्रेमी हो जो दिनकर को न जानता हो। हम सभी को उनकी कोई न कोई कविता कंठस्थ है। आपने अपने लेख में दिनकर जी के विशाल साहित्य सृजन का बहुत सुंदर परिचय दिया है। आपको इस रोचक लेख के लिये बहुत बहुत बधाई।

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  3. सुप्रभात, हिना जी। आपने दिनकर जी पर आलेख के रूप में सुंदर प्रस्तुति की है। उन जैसे महान कवि के जीवन एवं कृतित्व को सीमित शब्दों में समेटना आसान नहीं है। आपने महत्वपूर्ण घटनाओं एवं काव्य उद्धरणों का अच्छा वर्णन किया है। आपको बधाई, शुभकामनाएँ। 💐💐

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