मुक्त हो संसार हिंसापात से, संहार से,
मुक्त हो मानव-हृदय संशय, मरण की भीति से।
प्रेम का साम्राज्य स्थापित हो, दया फूले फले,
मुक्त हों मन हिंसा लिप्सा से-अधर्म, अनीति से.....
.....अब न मनु-संतान स्वाहा हो कभी समराग्नि में
फिर मनुजता से न भू पर युद्ध का अपराध हो।
उक्त पंक्तियों में कवि ने मानवता की रक्षा के लिए हिंसा को समाप्त कर सर्वे भवंतु सुखिनः की स्थापना का उद्देश्य रखा है। इन पंक्तियों के रचनाकार छायावादोत्तर हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्षर रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' हैं, जिन्होंने रोमानी भावधारा और प्रगति-चेतना के समवेत स्वर में काव्य-सृजन किया। हिंदी कविता के विकास के छायावादोत्तर काल में अनेक कवियों ने अपने गीतों और रचनाओं के माध्यम से साहित्यजगत में खूब नाम कमाया। उनमें प्रमुख रूप से हरिवंशराय बच्चन, नरेंद्र शर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', शिवमंगल सिंह 'सुमन', शंभुनाथ सिंह, जानकी वल्लभ शास्त्री, गोपालदास 'नीरज' एवं रमानाथ अवस्थी आदि सम्मिलित हैं।
कविता लेखन के संस्कार अंचल जी को अपने पिताश्री से सहज ही मिले जो अध्यापक होने के साथ-साथ अच्छे कवि, साहित्यकार और माधुरी पत्रिका के संपादक भी थे। परिवार के साहित्यिक वातावरण में किशोरावस्था से ही अंचल जी कविता के प्रति आकर्षित हुए। शैशव से ही वे पुस्तकों में डूबे रहते थे। पिताश्री मातादीन का खंडकाव्य 'स्वराज का शंख', राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त रचित 'भारत भारती', रामनरेश त्रिपाठी का 'पथिक', 'बालकथा', 'गांधीजी कौन हैं' और 'मिलन' का उन्होंने अनेक बार अध्ययन कर लिया था। प्रेमचंद के सेवासदन, विक्टर ह्यूगो के 'नाइंटी थ्री' के हिंदी अनुवाद को पढ़ लिया था। १२-१३ वर्ष की अवस्था में जयशंकर प्रसाद और सुमित्रानंदन पंत की कविताओं के पूर्ण भाव को न पकड़ पाने पर भी उन कविताओं में निहित आत्मिक सौंदर्य को चाक्षुष कर लिया था। पिता और अन्य कवियों के साथ पंत जी की रचनाओं ने अंचल को बहुत प्रभावित किया और बालपन में उन्होंने 'उस क्षण' नामक कविता लिखी। यहीं से उनकी बहुमुखी प्रतिभा विकास के कदम नापने लगी। अंचल जी ने काव्य संग्रह की भूमिका में लिखा है, "कविता की ओर मेरी प्रवृत्ति पूज्य पिता पंडित मातादीन शुक्ल के श्रीमुख से स्वरचित और भिन्न-भिन्न कवियों की सरस कविताएँ सुनकर हुई। देव, मतिराम, पद्माकर, भारतेंदु आदि के न जाने कितने छंद उन्हें याद थे। उठते-बैठते वे उन्हें गाया करते थे। घनाक्षरी और सवैया गाने का उनका ढंग इतना ललित और संगीतात्मकता लिए होता था कि अनायास मन को छू जाता था। उन्हीं की वाणी के प्रभाव से मेरे भीतर कविता का उत्स फूटा।"
कविता के संबंध में रामेश्वर शुक्ल अंचल की धारणा थी कि "अपने ह्रदय के भावों, आवेग-प्रवेगों और जीवन की आतंरिक एवं बाह्य परिस्थितियों के संघर्ष के फलस्वरूप उठने-मरने वाली भावनाओं और क्रिया-प्रक्रियाओं की ईमानदार अभिव्यक्ति का नाम कविता है। कविता जीवन के नैतिक मूल्यों की भाँति सामूहिक कल्याण और भौतिक चिरंतनता के आलोक के प्रसार के लिए आवश्यक तत्व है। वह वास्तविकता और जीवन की कुरूप यथार्थता को ही सत्य बन जाने वाले सपनों में परिणत करने हेतु प्रेरक होकर स्वप्न और सत्य के बीच सेतु का काम करती है।"
छायावाद की अशरीरी काव्य कल्पनाओं को अंचल ने अपने काव्य में पराकाष्ठा तक पहुँचाया है। विशेषतः नारी के प्रति उनकी आसक्ति उनके काव्य में तीव्रता से अभिव्यंजित हुई है। इसी तीव्र आसक्ति तथा उद्दाम कामना के चित्र उनके काव्य संग्रह मधुलिका और अपराजिता में संकलित रचनाओं में प्रमुखता से प्रस्तुत हुए हैं। दोनों ही कृतियों की कविताओं में कवि का किशोर ह्रदय ही तरंगायित हुआ है। तभी उनकी कविताओं में स्थूल शृंगारिकता की बहुलता है और कविता की प्रकृति के व्यापारों और अपने चारों ओर बिखरे सौंदर्य के उपादानों में मादकता और मोहकता दृष्टिगोचर होती है। सुख, तृप्ति, सौंदर्य-सुषमा और संपूर्ति के वातावरण में केवल कवि-ह्रदय तृषित और विकल है, तभी कवि लिखता है,
जब परिमल की अमराई में मलय पवन कुछ डोला
तब इक एकाकी पंक्षी ने आकुल अंतर खोला।
जब पराग की धन जाली में बेसुध कोयल बोली
तब मैंने अंगड़ाई लेकर अपनी जलन टटोली।
रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' ने कविता लेखन ऐसे समय में शुरू किया जब कविता का छायावादी समय अपने चरम पर था। किंतु छायावाद की रहस्यात्मकता और अलौकिकता से वे कई हाथ दूर रहे हैं। छायावादियों की भांति उनकी नारी रहस्य का अवगुंठन डालकर अवतरित नहीं होती है। वह तो आपादमस्तक इसी धरती की है और अंचल जी ने इस मानवी के प्रति अपनी भावनाएँ उन्मुक्त रूप से व्यक्त की हैं। उसके प्रति उनके मन में परंपरागत कुंठाजन्य संकोच नहीं है, तभी तो वे लिखते हैं -
मेरा वश चलता मैं बन जाता कौमार्य तुम्हारा
होठों पर निर्माल्य अछूता बन कर मैं छा जाता
अंगों के चंपई रेशमी परदों में सो जाता
आँखों की सुरमई गुलाबी चितवन में खो जाता
मेरा वश चलता मैं बन जाता सौंदर्य तुम्हारा....
अंचल जी के काव्य में विरह का भी प्रोज्ज्वल स्वर मुखर होता है और इसके पीछे जो कारण है उसके बारे में वे स्वयं स्वीकारते हैं कि "मैंने केवल स्मृतियों के गीत गाए हैं। जीवन का सबसे बड़ा सपना टूट जाने पर उसके बिखरे टुकड़ों से मन की मूर्ति बनाई है। कभी-कभी यह सारा सपना झूठा और बेमानी लगता था। सारी सृष्टि श्री हीन, निस्सार और निष्प्रयोजन लगती थी"। इन्हीं भावों को इन पंक्तियों में अभिव्यक्त करते हैं,
झूठे ये सुख-दुख के बंधन जीवन के उच्छृंखल यात्री
झूठी वह ममता की बंदिश, वह अवशेष स्नेह की यात्री
धूप-छाँव का रैन-बसेरा झूठी उसकी याद सुहानी
झूठे बर्बादी के सौदे जिनमें बीती विकल जवानी...
अंचल जी की कविताओं में समसामयिक परिस्थितियों का भी चित्रण हुआ है तभी तो उनमें समाज और राष्ट्रवादी विचारधारा की अभिव्यक्ति होती है। स्वतंत्रता से पूर्व ही कवि शांतिपर्व नामक शीर्षक में लिखता है,
ओ हिंसा के सौदागर अपनी दुकान उठा लो
शांति पर्व है भागो भागो घृणा बेचने वालों....
समाज में गांधीवादी विचारधारा का गुणगान बहुत किया जाता है पर वास्तविकता में उसको व्यवहार में बहुत कम लाया जाता है। समाज, गांधी जी द्वारा बताए सत्य-अहिंसा के गीत तो बहुत गाता है, पर उनका अनुसरण नहीं करता, इसी बात को अंचल जी इन शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं,
गीत तुम्हारे गाते गाते हम तुमको ही भूल गए
मंदिर में ठहराया तुमको हम पापों में झूल गए
साथ तुम्हारे सत्य अहिंसा के दो जीवन भूल गए...
महात्मा गांधी की निर्मम हत्या से समकालीन कवियों की भाँति अंचल जी भी मर्माहत हुए। उनकी श्रद्धा निम्न पंक्तियों में अभिव्यक्त हुई,
जो पाप धरा का धोते हैं, दुनियाँ उनका लहू पीती
साकार हुआ आदर्श
सत्य मानवता तन घर आया था
स्वतंत्रता का जीवित
संदेश धरा पर छाया था
हमने न सूना हमने न गुना
केवल अपना ही स्वार्थ चुना
पहली उसकी हत्या की
फिर हम रोए अपना शीश धुना
देवत्व बधाँ जाता जगत में, होती पापों की मन चींटी
जो पाप धरा का धोते हैं दुनिया उनका लहू पीती...
अंचल अपने समय के झंझावातों को अपने काव्य में अभिव्यक्त करते हैं। इन्हीं झंझावातों में एक ज्वलंत विषय था, सोवियत संघ। इसको विषय बनाकर उन्होंने एकाधिक कविताओं की रचना की, उनमें से 'लाल रूस के प्रति' की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं,
दुनिया के मज़दूर किसानों के जत्थे कब किससे हारे?
दुनिया के श्रमजीवी सारे डटे खड़े हैं साथ तुम्हारे!
आज फैसला है भविष्य का वीर! तुम्हारे मैदानों में!
एक नया इतिहास बन रहा है बर्फीले खलिहानों में!
‘सबके सुख’ की माँग लगाती आई है ललकार तुम्हारी!
प्राणों को तड़पा देने वाली कैसी हुंकार तम्हारी!
अंचल जी ने प्रबंधात्मक कविता लेखन में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया और पाँच खंडकाव्यों से हिंदी काव्य को समृद्ध किया। उनका खंडकाव्य 'शीलजयी' सम्राट अशोक के ह्रदय परिवर्तन की अविस्मरणीय घटना पर आधारित है। 'त्यागपथी' राजा हर्षवर्धन के समग्र जीवन का लेखाजोखा प्रस्तुत करता है। राजा का जीवन त्याग, बलिदान, सदाचार, सहयोग, और सद्भावना के प्रति जीवंत आस्था का महान उदाहरण है। 'ज्योतिपुरुष' में कबीर को ज्योति-पुरुष के रूप में चित्रित किया है और कबीर को क्रांतिकारी युग प्रवर्तक समाज सुधारक मानवतावादी धर्म प्रचारक के रूप में चित्रित किया गया है। 'अपराधिता' खंडकाव्य में महाभारत के पात्रों के चरित्र को प्रतिबिंबित किया है। इसमें सत्यवती, भीष्म, विचित्रवीर्य, अंबालिका, अंबिका, शिखंडी और द्रौपदी की मनःस्थितियों का अलग-अलग वर्णन है। 'ध्रुवांतर' भी महाभारत की कथा से संबंधित है। इस तरह देखा जाए तो खंडकाव्यों में अंचल जी ने मानवतावादी जीवनमूल्यों को नवीनता के साथ स्थापित करने का स्तुत्य प्रयास किया है। अभिव्यक्ति बहुत ही सहज और सरल है, जो पाठकों को कथा को आत्मसात करने में मदद करता है। इनके पदों की गेयता मनमोह लेती है और कवि को विशिष्ट बनाती हैं।
रामेश्वर शुक्ल अंचल ने गद्य लेखन भी किया, इनके चार उपन्यास और सात कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। उनके चारों उपन्यासों का मूल विषय सुख-दुख, आशा-निराशा और समाजगत विषमताओं के विरुद्ध विद्रोह का भाव ही रहा है। फिर भी उनमें प्रमुखता से नारी, प्रेम और विवाह की कथा को बेबाकी से उठाया है। 'चढ़ती धूप' में एक ऐसी नारी का चित्रण है, जो पति की अपेक्षा प्रेमी को अधिक महत्त्व देती है, प्रेमी की मृत्यु के बाद अपने को विधवा स्वीकार कर लेती है। 'नई इमारत' उपन्यास का प्रतिपाद्य हिंदू-मुस्लिम एकता है। 'उल्का' में भारतीय नारी का क्रंदन ही अभिव्यक्त हुआ है। उसकी सामाजिक स्थिति कितनी करुणाजनक, दीन और असहाय हो जाती है पर फिर भी उसे किस प्रकार सामाजिक अन्यायों का सामना करना पड़ता है। प्रेम की विफलता, असंगत विवाह की असफलता को ही इसमें चित्रित किया गया है। 'मरुप्रदीप' में बाल-विधवा के कलंकित जीवन विषय को उठाया है। इस प्रकार देखा जाए तो अंचल के उपन्यास के कथानक नारी विषयक समस्याओं से जुड़े हैं और समाज में नारी जीवन की यथार्थ अभिव्यक्ति में सफल हुए हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' का साहित्य समसामयिक स्थितियों-परिस्थितियों में प्रस्फुटित भावों-विचारों का शक्तिपुंज है, जिसमें जीवन के विविध रंग अभिव्यक्त हुए हैं।
रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' : जीवन परिचय |
जन्म | ०१ मई १९१५, ग्राम - किशनपुर, ज़िला - फतेहपुर, उत्तर प्रदेश |
निधन | १२ अक्तूबर १९९५, भोपाल |
माता | श्रीमती मधुर शुक्ल |
पिता | पंडित मातादीन शुक्ल (खड़ी बोली और ब्रजभाषा के कवि एवं संपादक) |
कार्यक्षेत्र |
जबलपुर के रॉबर्टसन कॉलेज से अध्यापन शुरू कर जबलपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष, शासकीय महाविद्यालय, रायगढ़ के प्राचार्य रहे। रायपुर विश्वविद्यालय के कला संकाय के पूर्व डीन, मध्य प्रदेश भाषा अनुसंधान संस्था के पूर्व निदेशक, हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति पद पर कार्य किया। छात्र सहोदर, तिलक, कर्मवीर, माधुती आदि पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया।
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साहित्यिक रचनाएँ |
काव्य संग्रह | मधूलिका अपराजिता किरण वेला करील लाल चूनर बर्षांत के बादल
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खंडकाव्य | ज्योतिपुरुष शीलजयी त्यागपथी
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उपन्यास | |
कहानी संग्रह | तारे ये वे बहुतेरे कुँवर की दुलहन मलंग बुआ
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निबंध संग्रह | समाज और साहित्य रेखा-लेखा आस्था-कल्प
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संस्मरण | |
आलोचना | |
पुरस्कार व सम्मान |
जबलपुर विश्वविद्यालय से मानद डी लिट उपाधि उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा सम्मान हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा 'साहित्य वाचस्पति' सम्मान राष्ट्रपति द्वारा विशेष सम्मान मध्यप्रदेश का चक्रधर पुरस्कार म० प्र० साहित्य सम्मेलन द्वारा भवभूति अलंकरण काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा विशिष्ट सम्मान आल इंडिया आर्टिस्ट एसोसियेशन, मध्य भारत हिंदी साहित्य समिति, म० प्र०, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा, जबलपुर साहित्य संघ, भोपाल जन धर्म संस्थान, महाराष्ट्र हिंदी साहित्य अकादमी, केंद्रीय हिंदी संस्थान आदि अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
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संदर्भ
खंडकाव्यकार रामेश्वर शुक्ल अंचल - डॉ० नीता सिंह, विकास प्रकाशन, कानपुर उ० प्र०
उपन्यासकार रामेश्वर शुक्ल अंचल - वीणा गौतम, रूपांबरा प्रकाशन, दिल्ली
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कविता की विभिन्न प्रवृतियाँ - डॉ० सुषमा दुबे, आलोक प्रकाशन, जबलपुर
आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास - नंदकिशोर नवल, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली
डॉ० दीपक पाण्डेय
वर्तमान में भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत केंद्रीय हिंदी निदेशालय में सहायक निदेशक पद पर कार्यरत हैं। वह २०१५-२०१९ तक भारतीय उच्चायोग में द्वितीय सचिव (हिंदी एवं संस्कृति) पद पर पदस्थ रहे। भारत से बाहर लिखे जा रहे हिंदी साहित्य में आपकी विशेष रुचि है और इसी क्रम में आपकी १० पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। लेखन के साथ-साथ आप निरंतर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों/सेमीनारों में प्रतिभागिता करते रहते हैं।
ईमेल- dkp410@gmail.com मोबाइल - 8929408999
डॉ. दीपक पाण्डेय जी नमस्कार। छायावादोत्तर हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर आदरणीय रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' पर आपने एक समृद्ध लेख लिखा है। लेख में दी गई कविता के अंशों ने लेख को सरस् बना दिया है। आप हमेशा ही शोधपूर्ण लेख प्रस्तुत करते हैं। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteशानदार लेखन,बधाई हो सर
ReplyDeleteदीपक जी, आप निश्चित रूप से सौभाग्यशाली हैं कि आपको हिंदी साहित्य की इन विभूतियों का सान्निध्य और आशीर्वाद प्राप्त हुआ है। आपका ‘अंचल’ जी पर आलेख उनके साहित्य के सभी पहलुओं पर इतना प्रकाश डालता है कि इनके सृजन के प्रति पर्याप्त रुचि पैदा हो और हमारे जैसे अनभिज्ञ उनके बारे में जानने के उत्सुक हों। यह उत्सुकता जगाने के लिए आपको बहुत आभार और बधाई।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लेख,दीपक जी, रामेश्वर शुक्ल ' अंचल ' जी का साहित्यिक परिचय के साथ उनकी कुछ कविताओं से परिचय भी हुआ। गांधीवाद और समाजवाद का सम्मिश्रण अद्भुत है।
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