Wednesday, April 27, 2022

कविकुलगुरु महाकवि कालिदास

 

पुरा कवीनां गणनाप्रसंगे कनिष्ठिकाधिष्ठितकालिदासः।
अद्यापि तत्तुल्यकवेरभावात् अनामिका सार्थवती बभूव।।


वैश्विक साहित्याकाश पर ध्रुवतारे के सदृश जाज्वल्यमान महाकवि कालिदास आज भी अमर हैं। उनके समान कवि के अभाव के कारण कवियों की गणना में उनका नाम सर्वप्रथम कनिष्का पर आने के बाद अगली उँगली का नाम अनामिका सार्थक हो गया। कालिदास विश्रुत नाटककार और कवि हैं, जिनकी रचनाओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद किया गया। "अभिज्ञानशाकुंतलम्" नाटक का मंचन विदेश में भी किया गया।


कालिदास के काल के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। उनका समय तीसरी/चौथी शताब्दी के पास माना गया है। प्रायः उनको सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में मान्यता मिली है। उनकी जन्मभूमि उज्जयिनी मानी गई है। कतिपय विद्वान उनका जन्मस्थान उत्तराखंड में रुद्रप्रयाग के कविल्ठा ग्राम को मानते हैं। चारधाम यात्रा मार्ग में गुप्तकाशी में स्थित ग्राम कविल्ठा में शासन ने कालिदास की एक प्रतिमा स्थापित करके एक सभागार का भी निर्माण करावाया है। यहाँ प्रति वर्ष जून मास में तीन दिनों तक गोष्ठी का आयोजन होता है, जिसमें देश भर के विद्वान भाग लेते हैं। कहते हैं कि यहीं पर उनकी प्रारंभिक शिक्षा हुई थी। यहीं उन्होंने मेघदूतम्  कुमारसंभवम् और रघुवंशम् जैसे महाकाव्यों की रचना की थी। एक जनश्रुति के अनुसार कालिदास जीवन के प्रारंभ में बहुत मूर्ख थे। राजा शारदानंद की विदुषी और सुंदरी पुत्री विद्योत्तमा को अपनी विद्वत्ता पर बहुत अभिमान था। विद्योत्तमा की शर्त थी कि जो विद्वान उसे शास्त्रार्थ में पराजित कर देगा, वह उसी से विवाह करेगी। कुछ पराजित हुए पंडितों ने अपमानित होने पर विद्योत्तमा से बदला लेने का संकल्प लिया। उन्होंने कालिदास को वृक्ष की उसी शाखा को काटते हुए देखा, जिस पर वह स्वयं बैठा था। उसे जड़ मूर्ख जानकर नीचे उतरवाया और राजकुमारी से शादी करवाने का लोभ देकर समझाया कि वह राजकुमारी के प्रश्नों का उत्तर केवल मौन रहकर देगा। वे पंडित के वेश में कालिदास को राजसभा में ले गए और कहा कि ये हमारे गुरु जी मौन व्रतधारी हैं, केवल संकेतों से बात करेंगे। हम लोग उनका उत्तर आपको बता देंगे। विद्योत्तमा ने उनको एक उँगली दिखाई कि एक ब्रह्म ही सत्य है। यह सोचकर कि वह मेरी एक आँख फोड़ने को कह रही है, कालिदास ने उसकी दोनों आँखें फोड़ने के लिए अपनी दो उँगलियाँ दिखा दीं। पंडितों ने समझाया कि ये कह रहे हैं कि जीव और ब्रह्म दो हैं। अर्थात द्वैतवाद को मानते हैं। तब विद्योत्तमा ने पंच भूतों के लिए पाँच उँगलियाँ दिखाईं। राजकुमारी थप्पड़ मारने को कह रही है, सोचकर उन्होंने मुट्ठी बाँधकर घूँसा मारने का संकेत किया। पंडितों ने समझाया कि पंचभूत एक साथ मिलकर ही सृष्टि की रचना करते हैं। राजकुमारी ने आश्वस्त होकर विवाह की स्वीकृति दे दी। रात्रि में ऊँट की आवाज़ सुनकर विद्योत्तमा ने पूछा "किं एतत्?" ये क्या है? इस पर कालिदास द्वारा "ऊष्ट्र" के स्थान पर "उट्ट्र" कहे जाने पर वह जान गई कि ये मूर्ख है और पंडितों ने उससे बदला लेने के लिए धोखा दिया है। तब राजकुमारी ने कालिदास को तिरस्कृत करके राजमहल से निकाल दिया और कहा कि जब विद्वान हो जाना तब वापस आना। कहते हैं कि तिरस्कृत होकर वह मधुबनी (बिहार) में उच्चैठ के गुरुकुल में रुके थे। वहीं उनको भगवती से ज्ञान का वरदान भी मिला था। विद्वान होकर कालिदास लौटे और द्वार खटखटा कर कहा "कपाटं उद्घाटय देवि।" इस पर विद्योत्तमा ने पूछा, "अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः ?" क्या वाणी में कुछ विशेषता है? कहते हैं कि इन्हीं तीन शब्दों से कालिदास ने अपने काव्यों के प्रथम श्लोक का प्रारंभ किया।


अस्ति - अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः - कुमारसंभवम्

कश्चिद् - कश्चिद् कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात् प्रमत्तः - मेघदूतम्

वाग् - वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये - रघुवंशम्।


इन काव्यों के अतिरिक्त कालिदास ने ऋृतुसंहारम् काव्य और मालविकाग्निमित्रम्, विक्रमोर्वशीयम् एवं अभिज्ञाऩशाकुंतलम् नामक तीन नाटक भी रचे। श्रुतबोधम्, शृंगारतिलकम् , शृंगाररसाशतम्, सेतुकाव्यम्, पुष्पबाणविलासम् और ज्योतिर्विद्याभरणम् को भी कुछ विद्वान कालिदास की रचना मानते हैं। अन्य विद्वानों का मत है कि इनको अन्य कवियों ने उनके नाम से लिखा था। कालिदास ज्योतिष के भी ज्ञाता थे। उत्तरकलाकृतम् नामक ज्योतिष का ग्रंथ उनकी रचना माना जाता है।


कालिदास का प्रथम नाटक मालविकाग्निमित्रम् शृंगाररस प्रधान पाँच अंकों का नाटक है। नाटककार ने प्रारंभ में सूत्रधार से कहलाया है -

"पुराणमित्येव न साधु सर्वम्,

न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।

संतः परीक्ष्यान्तरद्भजन्ते,

मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः।।"


अर्थात पुरानी होने से ही सब वस्तुएँ अच्छी नहीं होतीं और न नई होने से बुरी होती हैं। विवेकीजन अपनी बुद्धि से परीक्षा करके श्रेष्ठतर वस्तु को अंगीकार कर लेते हैं और मूर्खजन दूसरों के विश्वास पर ही ग्राह्य और अग्राह्य का निर्णय लेते हैं। इस नाटक में मालव देश की राजकुमारी मालविका और विदिशा के राजा अग्निमित्र के प्रेम और विवाह का वर्णन है। नाटक में  नाट्यक्रिया का समग्र सूत्र विदूषक के हाथों में रहता है।


पाँच अंकों में रचित विक्रमोर्वशीयम् नाटक राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रेम कथा पर आधारित है। विक्रम अर्थात पुरुरवा के शौर्य ने ही उर्वशी के मन को जीत लिया था। ऋग्वेद के दशम् मंडल के ९५वें सूक्त "संवादसूक्त" में ये कथा आई है। शतपथ ब्राह्मण में भी उर्वशी-पुरुरवा की कथा आई है। विष्णुपुराण, पद्मपुराण, मत्स्यपुराण, भागवतपुराण, महाभारत और गुणाढ्य की बृहत्कथा में भी ये कथा वर्णित है। कालिदास ने उस कथा को अधिक प्रभावी एवं नाटकीय बनाने के लिए कथा में कुछ परिवर्तन किए हैं। स्वर्ग से उर्वशी का निष्कासन कवि की अपनी कल्पना है। भरतमुनि द्वारा निर्देशित नाटक लक्ष्मीस्वयंवर में लक्ष्मी के अभिनय में भूल से पुरुषोत्तम के स्थान पर पुरुरवा कह देने से कुपित भरत मुनि ने उर्वशी को पृथ्वी पर जाकर रहने का शाप दिया। देवराज इंद्र इसमें संशोधन करते हैं कि पुत्र का मुख देखने के बाद उर्वशी वापस स्वर्ग चली आएगी। तब पुरुरवा उर्वशी को रोकने का प्रयत्न करते हैं। कवि ने पुरुरवा के दुख का वर्णन किया है।


अभिज्ञानशाकुंतलम् विश्व-साहित्य का सर्वश्रेष्ठ नाटक है। जॉर्ज फ़ोल्डर ने इसका जर्मन में अनुवाद किया, जिसे पढ़कर जर्मनी के प्रसिद्ध कवि गेटे ने प्रशंसा करते हुए कविता रची थी। कहा गया है, “काव्येषु नाटकं रम्यम्, तत्र रम्या शकुंतला। तत्रापि चतुर्थो अंकः, तत्र श्लोकाश्चतुष्टयम्।। चतुर्थ अंक में ऋषि कण्व की पालिता पुत्री शकुंतला की विदा का वर्णन है। ऋषि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका की पुत्री शकुंतला और राजा दुष्यंत की प्रणय कथा है। यहाँ भी कवि ने दुर्वासा के श्राप की कल्पना करके दुष्यंत के चरित्र की रक्षा की है। बाद में मछुवारे द्वारा अँगूठी के मिलने से कथा रोचक और सरस हो गई है। वल्कलवस्त्रधारिणी शकुंतला पर मोहित दुष्यंत कहते हैं,

"किमिव हि मधुराणां मंडनं नाकृतीनाम्।"


पिता कण्व उनके गांधर्व विवाह को स्वीकार करके विदा करते समय कहते हैं,

"अर्थो हि कन्या परकीय एव।" कन्या पराया धन है, जिसे पतिगृह भेजकर वह अपने कर्त्तव्य का निर्वाह कर रहे हैं। यहीं पर पितृ-हृदय की ममता का दृश्य मन को द्रवित कर देता है। विदा का दृश्य आँखों के समक्ष आ जाता है।

"यास्यत्यद्य शकुंतलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कंठया, कण्ठः स्तम्भितवाष्पवृत्तिकलुषश्चिन्ताजडं दर्शनम्।

वैक्लव्यं मम तावदीदृशं स्नेहादरण्यौकसः, पीड्यन्ते गृहिणः कथं न तनयाविश्लेषदुखैर्नवैः।।"


मेरा हृदय उत्कंठित है, गला भर आया है, नेत्र अश्रुपूर्ण हैं। जब मुझ जैसे बनवासी की ममतावश ऐसी विकलता है तो गृहस्थ जन  बेटी के वियोग के नए दुख से कैसे पीड़ित नहीं होते होंगे? शाप के कारण हुई दुर्घटना मन को दुखी करती है। शकुंतला को दुष्यंत स्वीकार नहीं करता। वह एक अन्य आश्रम में जीवन व्यतीत करते हुए दुष्यंत के पुत्र भरत को जन्म देती है। अंत में अँगूठी मिलने पर दुष्यंत को स्मरण होता है और दोनों का मिलाप नाटक को सुखांत बना देता है।


रघुवंशम् - १९ सर्गों में विभक्त एक अनुपम महाकाव्य है, जिसमें रघु की पूरी वंशावली का वर्णन है। दिलीप, रघु, अज, दशरथ, राम और लव-कुश, अतिथि से लेकर वंश के कुल २९ राजाओं का विवरण है। अंत में अत्यंत विलासी अग्निवर्ण के कारण वंश का पतन होता है। यहीं कृति का अंत भी होता है। रघुवंशी राजाओं के माध्यम से कवि ने उदारचरित वाले मनस्वी एवं वर्चस्वी पुरुषों के आचरण और स्वभाव का वर्णन किया है। सच्चरित्र, आदर्श और राजधर्म का पालन करने वाले को सुयश मिलता है और इसके विपरीत चरित्रहीन व्यक्ति अपयश का भागी होता है, चाहे वह कितने ही उच्चवंश का क्यों न हो। विद्वानों ने विलक्षण कौशल, सरल प्रसादगुणमयी शैली, सुरुचिपूर्ण अलंकार, सजीव वर्णन, माधुर्य, भाव एवं भाषा के आधार पर संस्कृत के महाकाव्यों में रघुवंशम् महाकाव्य को सर्वश्रेष्ठ स्वीकार किया है। कवि ने इस काव्य में अनेक कथानकों का परस्पर समन्वय करते हुए तेजस्वियों की माला सी गूँथ दी है। इसमें २१ प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है। काव्य का प्रारंभ वशिष्ठ मुनि के आश्रम में प्रवेश करते हुए राजा दिलीप और रानी सुदक्षिणा से होता है, उनके पुत्र प्रतापी एवं धर्मात्मा रघु के नाम से ही ये वंश रघुवंश कहलाता है। रघु के पुत्र अज का विवाह इंदुमती से होता है। इंदुमती के स्वयंवर के समय की मनोरम उपमा कवि ने दी है।

"संचारिणी दीपशिखेव रात्रौयं यं व्यतीताय पतिंवरा सा।

नरेन्द्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे, विवर्णभावं स स भूमिपालः।।"


राजाओं के सामने से जाती हुई इंदुमती रात्रि में संचरण करती हुई दीपशिखा सी लग रही थी जिसके आगे बढ़ जाने पर राजाओं के मुख (अस्वीकृत होने से) विवर्ण( मलिन) हो जाते थे। कालिदास शब्दों की तूलिका से दृश्य का चित्रांकन करते हैं।


रघुवंशम् के प्रथम श्लोक में ही "वागर्थाविव सम्पृक्तौ" की उपमा से "पार्वतीपरमेश्वरौ" की वंदना कवि ने की है। वहीं इंदुमती के दिवंगत हो जाने पर अज के विलाप का दृश्य अत्यंत मार्मिक है। हिंदी के प्रसिद्ध कवि नागार्जुन ने लिखा है, "कालिदास सच सच बतलाना, इंदुमती के विरह-शोक में, अज रोया या तुम रोए थे?"


रघुवंश के राजाओं का ये इतिहास भारत की संस्कृति, सभ्यता और ऐतिहासिक प्राचीनता को भी उजागर करता है। वाल्मीकि रामायण से निकली राम-कथा रघुवंशम् महाकाव्य में विस्तार को प्राप्त करती हैं।


कुमारसंभवम् - काव्य में पार्वती की तपस्या द्वारा शिव को प्रसन्न करके प्रतिरूप में वरण करने और कार्तिकेय के जन्म की कथा के साथ बड़ी विशद रूप से तपस्या का वर्णन है। कुमारसंभवम् में कवि ने हिमालय के प्राकृतिक दृश्यों का अनूठा वर्णन किया है। तपस्यारत पार्वती की परीक्षा लेने के लिए जब ब्रह्मचारी के रूप में आकर शिव "शंकर" की निंदा करते हैं तो वह सुनना नहीं चाहती है। दूर जाने के लिए पैर बढ़ाती है, तभी शिव अपने असली रूप में प्रकट हो जाते हैं। पार्वती वहीं ठिठकी हुई सी, अचंभित होकर स्तब्ध रह जाती है। कवि के कथन से दृश्य सामने आ जाता है - पार्वती न तो जा सकी और न ही ठहर सकी।

"शैलाधिराजतनया न ययौ न तस्थौ।"


मेघदूतम् काव्य में कुबेर से शापित यक्ष विरह में मेघ द्वारा अपना संदेश यक्षिणी को भेजता है। अलकापुरी से उज्जयिनी की यात्रा के मार्ग का मनोरम दृश्य मन को मुग्ध करने वाला है। प्रकृति वर्णन बहुत सुंदर है। कालिदास ने विरहिणी पत्नी यक्षिणी की भाव-भंगिमा और विरहावस्था को सजीवता प्रदान की है, जिस से मेघ रूप दूत उसे पहचान ले। मेघदूत की प्रशंसा करते हुए एक योरोपीय विद्वान ने कहा है कि "योरोप के साहित्य में किसी काव्य को इसकी समता के योग्य नहीं माना जा सकता है।"


ऋतुसंहार काव्य में कवि ने सुललित षड्ऋतुवर्णन में शब्दों की तूलिका से प्रकृति के विविध रूपों के अत्यंत मनोहारी चित्र खींचे हैं।


काव्य-वैशिष्ट्य  

कालिदास ने वैदर्भी रीति को अपनाया है। प्रसाद गुण से समृद्ध, सुललित शब्द योजना उनकी भाषा को माधुर्य प्रदान करती है। उपयुक्त शब्दों का यथोचित प्रयोग है। समासों का प्रयोग अल्प मात्रा में है। भाषा में क्लिष्टता नहीं बल्कि प्रवाह और प्रांजलता है। अर्थालंकार के सुंदर प्रयोग दर्शनीय हैं। प्रसिद्ध है, "उपमा कालिदासस्य"। उनकी उपमाएँ मन को छू लेती हैं। ऊपर इंदुमती-स्वयंवर के प्रसंग में है, "संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ।" की उपमा अत्यंत सटीक है। शकुंतला के सौंदर्य को देखकर दुष्यंत के कथन में उपमा के अभिनव प्रयोग हैं।

"सरसिजमनुविद्धं शैवलेनापि रम्यम्, मलिनमपि हिमांशोः लक्ष्म लक्ष्मीं तनोति।

इय मधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि रम्या, किमिव हि मधुराणां मंडनं नाकृतीनाम्।।"


शैवाल से घिरा हुआ भी कमल सुंदर लगता है। चंद्रमा का मलिन धब्बा भी उसकी शोभा को बढ़ाता है। ये युवती वल्कल में भी (साज सज्जा से रहित भी) अत्यधिक सुंदर लग रही है। सुंदर स्वरूप को कौन सी वस्तु शोभा प्रदान नहीं करती? अर्थात् हर रूप में, सज्जा न होने पर भी वे सुंदर लगते हैं।


शकुंतला के सौंदर्य का चित्रण करते हुए, "अनाघ्रातं पुष्पं, किसलयमलूनं कररुहैः" कहकर उपमा की छटा बिखेरते हैं। कवि ने शब्दालंकार के प्रयोग से काव्य को बोझिल नहीं बनाया है, अपितु काव्य की संप्रेषणीयता पर ही उनका ध्यान केंद्रित है। अतः अर्थालंकारों का ही अधिक प्रयोग किया है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा और अर्थांतरन्यास का बाहुल्य है।


कहा गया है, "अर्थांतरन्यासविन्यासे कालिदासो विशिष्यते।"


उनके कतिपय वचन सूक्ति के रूप में भी प्रयुक्त होते है। यथा कुमारसंभवम् में कामदेव के भस्मीभूत हो जाने पर पार्वती अपने सौंदर्य की व्यर्थता अनुभव करती है, "प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता।" अपने प्रिय जन से सौभाग्य फल मिलने में ही सौंंदर्य की सार्थकता है। दुष्यंत की उक्ति, "किमिव हि मधुराणां मंडनं नाकृतीनाम्।" भी सुभाषित है। ऐसी अनेक उक्तियाँ कवि की रचनाओं में हैं। कालिदास प्रमुखतः श्रृंगार रस के कवि हैं किंतु उन्होंने भारतीय संस्कृति की मर्यादा और आदर्शवादिता का ध्यान सदा रखा है। फलस्वरूप उनका काव्य सुसंयत और शालीन है।

मैकडॉनल ने अपने ग्रंथ "हिस्ट्री ऑफ़ संस्कृत लिट्रेचर" में लिखा है, "कालिदास की कविताओं में भारतीय प्रतिभा का उत्कृष्ट रूप समाविष्ट है। उनके काव्य में भावों का ऐसा सामंजस्य है, जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलता।"


आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार, "भारतीय धर्म, दर्शन, शिल्प और साधना में जो कुछ उदात्त है, जो कुछ ललित और मोहक है, उसका प्रयत्नपूर्वक सजाया सँवारा रूप कालिदास का काव्य है।"


सातवीं सदी के संस्कृत के उत्कृष्ट गद्यकार बाण भट्ट ने भी कालिदास के काव्य की प्रशंसा करते हुए,

"निर्गतासु न वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिषु।

प्रीतिर्मधुरसान्द्रासु मंजरीष्विव ज़ायते।।" 


दो सहस्र वर्षों के बाद आज भी महाकवि कालिदास की रचनाएँ पाठकों का मन मुग्ध करके उनको आनंदित करती हैं। उनका वैदुष्य, रचनाधर्मिता, अभिव्यंजना और कल्पना उनको महान साहित्यकार सिद्ध करते हैं।


महाकवि की मृत्यु कब और कहाँ हुई, प्रामाणिक रूप से अभी तक अज्ञात है। कहते हैं कि उनकी मृत्यु उज्जैन में ही हुई थी। एक शिलालेख के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य के आश्रय में ही कार्तिक शुक्ला एकादशी, रविवार के दिन ९५ वर्ष की आयु में महाकवि ने प्राण त्यागे थे। कालिदास जैसा साहित्यकार न आज तक हुआ है, न होगा।


जयतु जयतु कविर्मनीषी अमरकविः कालिदासः।।


कालिदास : जीवन परिचय

समय

तीसरी-चौथी शताब्दी (अनुमानतः)

जन्मस्थान

उज्जयिनी या उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग का कविल्ठा ग्राम

भाषा

संस्कृत

साहित्यिक रचनाएँ

काव्य

  • ऋतुसंहार

  • कुमारसंभवम्

  • मेघदूतम्

  • रघुवंशम्

नाटक

  • मालविकाग्निमित्रम्

  • विक्रमोवर्शीयम्

  • अभिज्ञानशाकुंतलम्

संदर्भ

  • कालिदास रचनावली

  • हज़ारीप्रसाद द्विवेदी का लेख

  • वागीश्वर विद्यालंकार - संस्कृत - साहित्य के कवि

  • मैकडोनल - History of Sanskrit literature 

  • डॉ० सत्यव्रत शास्त्री - कालिदास के काव्य(आलेख)

  • गूगल एवं विकीपीडिया

लेखक परिचय

प्रो० शकुंतला बहादुर

जन्म और शिक्षा-दीक्षा लखनऊ में‌। लखनऊ विश्व-विद्यालय से एम०ए० संस्कृत(वेद वर्ग) और जर्मन भाषा का डिप्लोमा। १९६२-६४ तक दो वर्ष जर्मन एकेडेमिक एक्सचेंज सर्विस की फ़ेलोशिप पर जर्मनी की ट्यूबिंगेन यूनिवर्सिटी में "वैदिक विवाह सूक्त" पर शोध कार्य। उसी समय में विदेशी छात्रों को सप्ताह में दो दिन हिंदी, संस्कृत का शिक्षण।

लखनऊ विश्वविद्यालय एवं संबद्ध महिला कॉलेज में ३५ वर्षों तक संस्कृत की विभागाध्यक्षा रहते हुए प्राचार्या के पद से अवकाश प्राप्त किया। दो बार मॉरीशस हिंदी मंत्रालय से पुरस्कृत। हिंदी दिवस पर सैन फ़्रांसिस्को के भारतीय-दूतावास द्वारा सम्मानित। विगत २४ वर्षों से कैलिफ़ोर्निया में निवास। लखनऊ की भारतीय लेखिका परिषद्, कैलिफ़ोर्निया की "विश्व हिंदी-ज्योति", उत्तर प्रदेश मंडल ऑफ़ अमेरिका तथा इंडिया कम्यूनिटी सेंटर से संबद्ध कर्मठ सदस्या। देश विदेश की साहित्यिक गोष्ठियों में भाग लेते हुए योरोप के अनेक देशों का भ्रमण।

11 comments:

  1. इस सारवान आलेख को पढ़कर, नतमस्तक हूं !

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  2. डॉ शकुंतला बहादुर जी कालिदास पर जो जानकारी दी है वह स्तुत्य है। कालिदास जैसा कवि तो हुआ ही नहीं। उन्हें पढकर लोगों ने कविता करना सीखा है। लेकिन उनके जीवन पर लेखनी चलाने वाले डॉ बहादुर जैसे विद्वान विदुषी और भी महान हैं जो उनकी अमरता को अक्षुण्ण बनाए हुए हैं। डॉ शकुंतला बहादुर जी को अनेकानेक धन्यवाद व शत् शत् नमन।
    सत्येंद्र सिंह, पूर्व वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी मध्य रेल, पुणे 411046 महाराष्ट्र मो 9922993647

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  3. बहुत ही रोचक, सारगर्भित और ज्ञानवर्धक लेख।
    डॉ सुनीता यादव

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  4. प्रो. शकुंतला मैडम नमस्ते। आपका लिखा आज का महाकवि कालिदास पर आलेख बहुत ही ज्ञानवर्धक है। महाकवि कालिदास अद्वितीय हैं। उनको पढ़ना और समझना सौभाग्य की बात है। उनके अतुलनीय सृजन का परिचय आपने अपने शोध एवं ज्ञान से भरे इस लेख में प्रस्तुत किया है। आशा है कि भविष्य में भी आपके लिखे और भी ज्ञानवर्धक लेख पढ़ने को मिलेंगे। इस महत्वपूर्ण लेख के लिये आपको हार्दिक बधाई एवं साधुवाद।

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  5. वाह .. बहुत सुंदर और सारगर्भित आलेख शकुंतला जी। इस शोधपरक लेख के द्वारा कालिदास के रचना संसार और जीवन से परिचित कराने के लिए आपका बहुत बहुत आभार।

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  6. महाकवि विद्यापति कालिदास जी के बारे में विस्तारपूर्वक जानकारी और उनके द्वारा रचित विभिन्न साहित्यिक रचनाओं का ज्ञान आदरणीया शंकुतला जी के आलेख द्वारा हो रहा है। बहुत ही शुक्ष्म पहलुओं को ध्यान में रखकर आलेख में अपनी लेखनी द्वारा पाठकमन को जोड़नेवाला लेख जड़ा है। भाषा का सौन्दर्य बड़ी अनुपमता के साथ प्रसारित हो रहा है।
    खूब खूब सराहनीय लेख और आपकी लेखनी को नमन।

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  7. सुप्रभात, शकुंतला बहादुर जी। आपका महाकवि कालिदास पर लिखा आलेख वैसे ही सौंदर्य और आनंद देता है जैसे कालिदास की रचनाएँ।आपने एक आलेख में एक पूरी पुस्तक की सामग्री समाहित कर दी है। इस संग्रहणीय लेख के लिए आपको साधुवाद, बधाई। 💐💐💐

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  8. शकुंतला जी, नमस्कार। कल समय का अभाव था तो सोचा कविवर कालिदास पर आलेख निश्चिंत होकर पढ़ूँगी।अपने इस निर्णय पर स्वयं ही प्रसन्न हूँ। आपने कालिदास के कृतित्व और व्यक्तित्व का अत्युत्तम रेखाचित्र प्रस्तुत किया है। बस हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि हम उसी देश के वासी हैं जो कभी कालिदास की कर्मभूमि रही है।आपको इस आलेख के लिए बधाई और आभार।

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कलेंडर जनवरी

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