पूछो, मज़दूरी की खातिर लोग भटकते क्यों हैं?
पढ़ो, तुम्हारी सूखी रोटी गिद्ध लपकते क्यों हैं?
पूछो, माँ-बहनों पर यों बदमाश झपटते क्यों हैं?
पढ़ो, तुम्हारी मेहनत का फल सेठ गटकते क्यों हैं?
उपरोक्त पंक्तियाँ आम आदमी के रक्त में विद्युत प्रवाह की तरह नवचेतना का संचार करने के साथ-साथ उसे दिशा बोध कराते हुए शोषण के प्रति सचेत भी करती हैं। सफ़दर के इस आह्वान गीत ने प्रौढ़ अनपढ़ों में शिक्षा की लौ तो जलाई ही, साथ ही उन्हें यह आभास भी कराया कि पढ़-लिख कर वे यह तो जान जाऐंगे कि कौन से कारण हैं, जो उनका शोषण होता है और वे कौन लोग हैं जो उनको लूटते हैं। राष्ट्रीय साक्षरता मिशन का यह गीत संपूर्ण भारतीय परिवेश में विकीर्ण होकर आम आदमी को प्रभावशाली ढंग से जागरूक कर रहा था और इस आह्वान ने ही प्रौढ़ों की शिक्षा के प्रति नए आयाम गढ़े।
प्रसिद्ध मुस्लिम विद्वान(आलिमे-दीन) मौलाना अहमद सईद देहलवी सफदर हाशमी के चाचाजाद दादा थे। हाशमी ख़ानदान के तीन बेटे, हमीद हाशमी, अनीस हाशमी और हनीफ़ हाशिमी(सफ़दर के पिता) वामपंथी विचारों से लैस देश की आज़ादी के योद्धा थे। सफ़दर के चाचा और ताऊ बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए ,जबकि सफ़दर के पिता हनीफ़ हाशमी भारत में ही रहे। सफ़दर के पिताजी ने गाँधी जी के आह्वान पर 'भारत छोड़ो' आंदोलन में हिस्सा लिया था। वे १९४२ में गिरफ़्तार हुए, चार साल जेल में काटकर १९४६ में रिहा हुए। इसके पश्चात मुल्क के बँटवारे के बाद पाकिस्तान जाने के बजाय भारत में ही रहकर दिल्ली में कश्मीरी गेट पर फर्नीचर की दुकान खोली। दो भाइयों के पाकिस्तान चले जाने तथा बंटवारे से उत्पन्न कारीगरों की कमी के कारण हनीफ़ हाशमी गंभीर आर्थिक संकट से घिर गए। इन्हीं संकट के दिनों में १२ अप्रैल १९५४ ई० को सफ़दर का जन्म हुआ। डॉ० ज़ाकिर हुसैन उन दिनों अलीगढ़ विश्वविद्यालय के कुलपति थे और उस समय दिल्ली आए हुए थे। उनके किसी दोस्त ने बताया कि आपके पुराने नैश्नलिस्ट दोस्त इदरीश हाशमी का मँझला बेटा हनीफ़ हाशमी पाकिस्तान नहीं गया है और आजकल गंभीर आर्थिक संकट से ग्रस्त है। ज़ाकिर हुसैन साहब यह सुनकर उनके घर मिलने गए। घर की आर्थिक दशा देखकर उन्होंने हनीफ़ से कहा कि तुरंत अलीगढ़ आ जाओ, विश्वविद्यालय को तुम्हारी कला की ज़रूरत है। हनीफ़ हाशमी के वहाँ पँहुचने पर डॉ० हुसैन ने इंजीनियरिंग कॉलेज में वर्कशाप खुलवा दी। इस तरह फरवरी १९५५ में सफ़दर की माँ भी अपने बच्चों के साथ अलीगढ़ पँहुच गईं। हामिद इलाहाबादी ,जो यूनिवर्सिटी में सोवियत साहित्य बेचा करते थे, वे सफ़दर से बहुत स्नेह करते थे और उन्हें महान सोवियत साहित्यकारों, जैसे- गोर्की, टॉलस्टॉय, पुश्किन, चेखव, मिखाईल शोलोखोव, चेर्नविस्की, फ्योदार दायतोवस्की, गोगोल, तुर्गनेव, लेर्मेन्तोव की किताबें पढ़ने के लिए दिया करते थे। बहुत ही छोटी उम्र में सफ़दर ने टीन के एक छोटे से डिब्बे में कँकड़ डाल कर उसे डुगडुगी की तरह बजाना शुरू कर दिया। सफ़दर को बचपन से ही ड्राइंग का शौक था और वह बहुत अच्छे स्केच व पेंटिंग कर लेते थे।
सफ़दर के व्यक्तित्व के विकास में बाल-भवन का बहुत योगदान रहा। सफ़दर और उनके भाई-बहनों ने क्ले-मॉडलिंग, म्युजिकल-इंस्ट्रुमेंटस, क्रिएटिव आर्टस, ड्रामा, गायन आदि यहीं से सीखे, जो उनके जीवन के विकास में नींव के पत्थर साबित हुए। वहीं इन बच्चों ने अपने खुद के तैयार किए हुए कई नाटक प्ले किए। इससे उन्हें भरपूर सीखने व आगे बढ़ने का मौका मिला।
सफ़दर हाशमी का रचना संसार और कृतित्व
सफ़दर हाशमी एक प्रगतिशील कम्युनिस्ट, भारत की आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी से संबंधित परिवार में पैदा हुए। परिवार के प्रगतिशील संस्कार बाल-सभा के सदस्य रहते और मजबूत हुए। मज़दूर संगठन सीटू और इप्टा से वह शुरूआत से ही जुड़ गए थे। सफ़दर स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के सदस्य बनकर उनकी गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया करते थे। सफ़दर के एस०एफ०आई० में शामिल होने के कुछ समय बाद ही कई नौजवानों द्वारा प्रसिद्ध नाटक 'न्याय की तलाश में' जो "In Search of Justice" का हिंदी अनुवाद है तथा "Exception And The Rule " को हिंदी में अनुवाद कर खेला गया। इनसे सफ़दर का रुझान ड्रामे की तरफ़ तेज़ी से बढ़ा।
उन्हीं दिनों १९७३ में इप्टा से निकले नौजवानों ने 'जन नाट्य मंच' की स्थापना की। १९७३ से १९७५ तक के वर्ष "जनम" के लिए बहुत अच्छे दिन रहे। जनम द्वारा बँगला नाटक "मृत्यु अतीत" का हिंदी अनुवाद १९७३ में खेला गया। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का लिखा हुआ नाटक "बकरी" का कई बार मंचन किया गया और इस नाटक ने पूरे नाट्य जगत में तहलका मचा दिया। इसी प्रकार एक नाटक "भारत भाग्य विधाता" आयोजित किया गया, जिसमें जनम के बेहतरीन कलाकार शामिल हुए।
कुछ समय तक सफ़दर हाशमी ने लीव वैकेंसी पर दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। आपातकाल के दौर में उन्होंने गढ़वाल और कश्मीर विश्वविद्यालय में भी अध्यापन का कार्य किया। गढ़वाल में सफ़दर के साथी पंत, श्यामल, सच्चानंद, अरुण सेनन रहे। इसी बीच सफ़दर ने कश्मीर में भी एक ड्रामेटिक सोसाएटी की स्थापना कर ली। अगस्त, १९७८ में सफ़दर दिल्ली वापस आ गए और जन नाट्य मंच, अपनी पार्टी सीपीएम, मज़दूर संगठन सीटू के कामों को बखूबी संचालित करने लगे। प्रारंभ में जन नाट्य मंच प्रोसीनियम थियेटर करता था, बाद में पैसे की तंगी के कारण सफ़दर की पहल पर नुक्कड़ नाटक करना शुरू किया गया। उन्हीं दिनों मज़दूरों की एक फैक्ट्री हैरिंग इंडिया में कैंटीन व सायकिल स्टैंड के प्रश्न पर मालिकों से वार्ता विफल होने के पश्चात हड़ताल हुई। हड़ताल करने वाले मज़दूरों पर फैक्ट्री मालिकों द्वारा गोली चलवाई गई। छह मज़दूर मारे गए। इसी पृष्ठभूमि पर सफ़दर ने जनम के लिए 'मशीन' नाटक लिखा जो जन नाट्य मंच के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। इसके अनेक शो हुए। इस नाटक के एक शो में दो लाख तक दर्शक इकट्ठा हुए।
प्रवासी मज़दूरों की समस्याओं पर नाटक "गाँव से शहर तक" तथा अलीगढ़ में हुए भयानक सांप्रदायिक दंगों को लेकर "हत्यारे" नाटक को भी दर्शकों ने बहुत पसंद किया। इसी मध्य सफ़दर ने प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की पत्रिका 'विदुरा' के संपादकीय पर काम करते रहे। इसके अलावा 'स्टूडेंट्स स्ट्रगल', 'टाइम्स ऑफ इंडिया', इकोनोमिक टाइम्स' आदि में सफ़दर के लेख बराबर छपते रहे। इसके पश्चात जनम ने कामकाजी महिलाओं की समस्याओं को लेकर हुए एक सम्मेलन में 'औरत' नुक्कड़ नाटक खेला जो काफी प्रसिद्ध हुआ, उसमें प्रयुक्त गीत की कुछ पँक्तियाँ देखें,
इसके पश्चात "जंग के खतरे" नाटक दर्शकों के समक्ष आया, जिसमें राष्ट्रपति रीगन का रोल खुद सफ़दर ने किया। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फ़िल्म "बर्निंग एम्बर्स" की पटकथा और गीत भी सफ़दर ने ही लिखे थे। उस फ़िल्म का एक गीत बहुत प्रसिद्ध है,
इसके पश्चात सफ़दर का नाटक 'समरथ को नहिं दोष गोंसाई' आया, जिसमें किसानों की खुली लूट और कालाबाज़ारी को प्रस्तुत किया गया। उसके गीत की कुछ पंक्तियाँ हैं,
सफ़दर का सीटू के साथ बहुत गहरा रिश्ता रहा और अधिकांश नाटक वह उसके लिए ही करते रहे। सफ़दर ने बच्चों के लिए भी गीत लिखे,
सफ़दर ने दूरदर्शन के लिए भी बहुत सारे वृत्त चित्र बनाए। इनका प्रौढ़ शिक्षा के लिए निर्मित टीवी सीरियल "खिलती कलियाँ" प्रौढ़ों की शिक्षा के लिए एक मिसाल माना जाता है। एक जनवरी, १९८९ को दिल्ली में मज़दूरों की वेतन वृद्धि के सवाल को लेकर प्रस्तुत किए जाने वाले नाटक "हल्ला बोल" की प्रस्तुति के दौरान सीटू के एक मजदूर कामरेड रामबहादुर का क़त्ल कर दिया गया। इसी हमले में सफ़दर के सर की हड्डी तीन जगह से टूट गई और उन्हें बहुत सी गंभीर अंदरूनी चोटें भी लगीं। ०२ जनवरी, १९८९ को महज़ ३९ वर्ष की उम्र में ही सफ़दर हाशमी इस दुनिया से रुखसत हो गए। सफ़दर की मृत्यु पर साहित्य जगत से लेकर आम आदमी तक बहुत गंभीर प्रतिक्रियाएं हुईं। देश और विदेशों की मीडिया और अख़बारों ने इस ख़बर को प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया। देश के सभी हिस्सों में इस हत्या के खिलाफ़ दुःख और रोष व्यक्त किया गया। सफ़दर की शव यात्रा में देश की जानी-मानी हस्तियों ने भाग लेकर अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि दी। दिल्ली में सफ़दर की याद में एक सड़क का नाम, 'सफ़दर हाशमी मार्ग' रखा गया है।
०४ जनवरी, १९८९ को सफ़दर की पत्नी ने गाजियाबाद में उसी घटनास्थल पर उनके अधूरे नाटक को पूरा किया। तबसे प्रतिवर्ष उसी जगह सफ़दर की याद में कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। भीष्म साहनी और हबीब तनवीर आदि के प्रयासों से 'सफ़दर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट' (सहमत) की स्थापना हुई, यह ट्रस्ट अनेक पुस्तकों की तरह ही "सहमत मुक्तिनाद" पत्रिका का प्रकाशन भी कर रहा है तथा देश में नुक्कड़ नाटकों के प्रसार हेतु प्रयासरत है। सफ़दर की मृत्यु के तुरंत बाद देश के विभिन्न स्थानों पर लगभग तीन सौ नाट्य ग्रुप बने और इन्होंने एक माह के अंदर चालीस हजार प्रस्तुतियाँ कीं। अब यह आंदोलन एक विशाल वटवृक्ष बन चुका है।
"दिल में जो डर का किला है तोड़ दो अंदर से तुम
एक ही धक्के में अपने आप ही ढह जाएगा
आओ मिलकर हम बढ़ें अधिकार अपने छीन लें
काफिला जो चल पड़ा है, अब न रोका जाएगा।"
इसके पश्चात "जंग के खतरे" नाटक दर्शकों के समक्ष आया, जिसमें राष्ट्रपति रीगन का रोल खुद सफ़दर ने किया। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फ़िल्म "बर्निंग एम्बर्स" की पटकथा और गीत भी सफ़दर ने ही लिखे थे। उस फ़िल्म का एक गीत बहुत प्रसिद्ध है,
आसमान पर गिद्ध धर्म के आज तलक मंडराते हैं
अंधे विश्वासों के साए अंधकार गहराते हैं
जिंदा राख़ बदन पर मलकर मठाधीश गुर्राते हैं
नारी को यों स्वाहा करके फूले नहीं समाते हैं।
इसके पश्चात सफ़दर का नाटक 'समरथ को नहिं दोष गोंसाई' आया, जिसमें किसानों की खुली लूट और कालाबाज़ारी को प्रस्तुत किया गया। उसके गीत की कुछ पंक्तियाँ हैं,
"गोदाम में जकड़ दिया साले ने मुझको जी
अब आया हूँ बाहर तो बस है यही तमन्ना
दौलत की इस जकड़ से मैं आज़ाद रहूँगा
मेहनत की मैं औलाद हूँ मेहनत की देन हूँ
मेहनतकशों की बस्ती में आबाद रहूँगा।"
सफ़दर का सीटू के साथ बहुत गहरा रिश्ता रहा और अधिकांश नाटक वह उसके लिए ही करते रहे। सफ़दर ने बच्चों के लिए भी गीत लिखे,
"किताबों में रॉकेट का राज है,
किताबों में साइंस की आवाज़ है
किताबों का कितना बड़ा संसार है,
किताबों में ज्ञान का भंडार है
किताबें कुछ कहना चाहती हैं,
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।"
सफ़दर ने दूरदर्शन के लिए भी बहुत सारे वृत्त चित्र बनाए। इनका प्रौढ़ शिक्षा के लिए निर्मित टीवी सीरियल "खिलती कलियाँ" प्रौढ़ों की शिक्षा के लिए एक मिसाल माना जाता है। एक जनवरी, १९८९ को दिल्ली में मज़दूरों की वेतन वृद्धि के सवाल को लेकर प्रस्तुत किए जाने वाले नाटक "हल्ला बोल" की प्रस्तुति के दौरान सीटू के एक मजदूर कामरेड रामबहादुर का क़त्ल कर दिया गया। इसी हमले में सफ़दर के सर की हड्डी तीन जगह से टूट गई और उन्हें बहुत सी गंभीर अंदरूनी चोटें भी लगीं। ०२ जनवरी, १९८९ को महज़ ३९ वर्ष की उम्र में ही सफ़दर हाशमी इस दुनिया से रुखसत हो गए। सफ़दर की मृत्यु पर साहित्य जगत से लेकर आम आदमी तक बहुत गंभीर प्रतिक्रियाएं हुईं। देश और विदेशों की मीडिया और अख़बारों ने इस ख़बर को प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया। देश के सभी हिस्सों में इस हत्या के खिलाफ़ दुःख और रोष व्यक्त किया गया। सफ़दर की शव यात्रा में देश की जानी-मानी हस्तियों ने भाग लेकर अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि दी। दिल्ली में सफ़दर की याद में एक सड़क का नाम, 'सफ़दर हाशमी मार्ग' रखा गया है।
०४ जनवरी, १९८९ को सफ़दर की पत्नी ने गाजियाबाद में उसी घटनास्थल पर उनके अधूरे नाटक को पूरा किया। तबसे प्रतिवर्ष उसी जगह सफ़दर की याद में कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। भीष्म साहनी और हबीब तनवीर आदि के प्रयासों से 'सफ़दर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट' (सहमत) की स्थापना हुई, यह ट्रस्ट अनेक पुस्तकों की तरह ही "सहमत मुक्तिनाद" पत्रिका का प्रकाशन भी कर रहा है तथा देश में नुक्कड़ नाटकों के प्रसार हेतु प्रयासरत है। सफ़दर की मृत्यु के तुरंत बाद देश के विभिन्न स्थानों पर लगभग तीन सौ नाट्य ग्रुप बने और इन्होंने एक माह के अंदर चालीस हजार प्रस्तुतियाँ कीं। अब यह आंदोलन एक विशाल वटवृक्ष बन चुका है।
अंत में ब्रेख़्त की पंक्तियों के साथ इस महामानव को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ,
"क्या अंधेरे में ज़ुल्मतों के गीत गाए जाऐंगे
हाँ अंधेरे में ही ज़ुल्मतों के गीत गाए जाऐंगे।"
लेखक परिचय
सुनील कुमार कटियार
जनवादी लेखक संघ की उत्तर-प्रदेश राज्यपरिषद के सदस्य, उत्तर प्रदेश सहकारी फेडरेशन से सेवा निवृत्त, जनवादी चिंतक, स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन।
शिक्षा - एम०ए० अर्थशास्त्र, जनपद फ़र्रुखाबाद में निवास।
मोबाइल नं० ७९०५२८२६४१, ९४५०९२३६१७
मेल आईडी - sunilkatiyar57@gmail.com
मेल आईडी - sunilkatiyar57@gmail.com
बहुत ही प्रेरक आलेख
ReplyDeleteसाधुवाद!
जीवन वृत्त को समेटता खूबसूरत आलेख।
ReplyDeleteसफ़दर हाशमी के रौशन और क्रन्तिकारी व्यक्तित्व की साफ़ झलक आलेख में प्रस्तुत उनकी कृतियों के अंशों से मिलती है। इतनी छोटी सी उम्र में कितना कुछ कर गया वह इंसान और कितना कुछ करने का जज़्बा रखता था! जिस आवाज़ के सवालों के जवाब न दे सको, उसे शांत कर दो- इस नुस्खे को अपनाने वाले भूल जाते हैं; ऐसी आवाज़ें शांत नहीं होती, बल्कि उनकी गूँज सब दिशाओं में फ़ैल जाती है। सुनील जी, आपकी लेखनी से मिला सफ़दर हाशमी का परिचय बहुत अच्छा लगा, इसके लिए आपको बधाई और शुक्रिया।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लेख सुनील जी। सफ़दर हाशमी जी की जिन पंक्तियों से लेख की शुरुआत हुई है, वे उनके प्रतिरोध की आवाज़ होने और एक जुझारू, क्रान्तिकारी होने का परिचय बख़ूबी दे रहीं है। आपके इस लेख के माध्यम से एक कथा के रूप में हमें हाशमी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को सिलसिलेवार जानने का अवसर मिला। बहुत बधाई आपको।
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