हमारे शहरों के पुराने हिस्से मूक रहकर भी अक्सर इतिहास बयाँ कर रहे होते हैं और कभी किसी शहर की किसी पुरानी सड़क पर चलते-चलते, अनायास ही कोई पुरानी इमारत आपको रुक कर उसे देखने-समझने के लिए आकर्षित कर लेती है। ऐसी ही एक इमारत भोपाल के पुराने शहर में एक बहुत ही मशहूर साहित्यकार की है। इस साहित्यकार ने भोपाल शहर के इतिहास को अपनी आँखों के सामने से न सिर्फ़ गुज़रते हुए देखा बल्कि उसे अपने वजूद में सिमटते हुए महसूस भी किया। पुराने भोपाल की एक बेनूर-सी सड़क के किनारे बनी उस इमारत में इस साहित्यकार ने इंसानी ज़िंदगी की उलझन और भटकाव को पन्नों पर दर्ज़ करते हुए अपनी उम्र के ६२ साल गुज़ारे थे। इस लेखक ने मुस्लिम-समुदाय की मनोदशा पर पड़े विभाजन के प्रभाव और आज़ाद हिंदुस्तान में मुसलमानों की ज़िंदगी में हो रहे बदलावों को अपनी रचनाओं में बारीकी से उतारा है।
इस नामचीन साहित्यकार से आज हम इस आलेख के ज़रिए रूबरू होंगे। मंज़ूर एहतेशाम हिंदी तथा उर्दू साहित्य एवं संस्कृति को समर्पित शख़्सियत का नाम है। आपका जन्म ३ अप्रैल, १९४८ में भोपाल के मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार में हुआ। घरवालों की इच्छा को मान कर इंजीनियर बनने को राज़ी हो तो गए, कॉलेज में दाख़िला भी ले लिया। परंतु दो वर्ष पश्चात लेखन की ललक ने इंजीनियरिंग छुड़वा दी, आजीविका के लिए एक मित्र की दवाई की दुकान पर काम करने लगे। ज़िंदगी के उथल-पुथल भरी होने के बावजूद लेखन का काम जारी रखा। बारह वर्ष की उम्र से ही लिखने की चाहत रखने वाले मंज़ूर जी का मानना था कि "हम सब अपने-अपने इतिहास में विराजते है, साँझे समय की अलग-अलग अनुभूतियों, हमारे प्यार, नफ़रत या लापरवाही सब के स्रोत कहीं न कहीं अतीत में हैं, जो कभी भी प्रत्यक्ष नहीं होता पर बहुत महत्त्वपूर्ण होता है, इसलिए बिना शोर मचाए अपने लेखन-कर्म का दायित्व समझकर इसे रेखांकित करना पड़ता है।"
मंज़ूर साहब गंगा-जमुनी तहज़ीब के लेखक थे। इन्होंने अपने उपन्यासों और कहानियों के माध्यम से मध्यमवर्गीय मुस्लिम समाज की स्थिति, उसमें व्याप्त अशिक्षा, धर्मांधता और सामाजिक रूढ़ियों को बड़ी आत्मीयता के साथ पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया है। कथाकार मंज़ूर जी भारतीय समाज के द्वंद्वात्मक यथार्थ को उल्लेखनीय शिल्प में अभिव्यक्त करने वाले साहित्यकार थे। उनकी रचनाएँ किसी चमत्कार के लिए व्यग्र नहीं दीखतीं बल्कि वे अनेक अंतर्विरोध और त्रासदियों के बावजूद बचे रह गए जीवन का आख्यान रचती हैं। इनके कहानी संग्रह 'तसबीह', 'तमाशा' तथा 'अन्य कहानियाँ' को संपूर्णता से पढ़ने पर यह स्पष्ट होता है कि मंज़ूर साहब अपनी संपूर्ण चिंता और चेतना के साथ मध्यवर्गीय मुस्लिम समाज की प्रमाणिकता को रेखांकित करते हैं।
साल १९७३ में पहली कहानी 'रमज़ान में मौत' छपी तो पहला उपन्यास साल १९७६ में 'कुछ दिन और' के नाम से प्रकाशित हुआ। लेखन में अपनी कलम का जादू चलाकर इतने माहिर हो गए थे कि परिचित यथार्थ के अनदेखे कोनों-मोड़ों को अपनी सहज रचनाशीलता से अद्भुत कहानी में बदल देते थे। अपनी मनुष्यता और उससे निकले निष्कर्षों का चित्र खींचते-खींचते 'दास्तान ए लापता', 'पहर ढलते' जैसे चर्चित उपन्यासों की लाजवाब तस्वीरों को उकेर दिया।
इर्द-गिर्द की घटनाओं को अपने शब्दों से सुंदर रचनाओं में गढ़ने वाले लेखक मंज़ूर जी ने उपन्यास 'सूखा बरगद' में भारतीय मुस्लिम-समाज की मुकम्मल तस्वीर को उतारा है, जो व्याप्त अंधविश्वास, सामाजिक तथा धार्मिक रूढ़ियों और विडंबनाओं का अद्भुत चित्रण है। यह उपन्यास अत्यंत संवेदनशील तथा अस्तित्व और उम्मीद से जुड़े मुद्दों के आधार पर परंपराओं पर सजग और सचेत सवाल उठाता है। 'सूखा बरगद' लिखने में चिंगारी का काम पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को फाँसी दिए जाने ने भी किया। वे इस संदर्भ में कहते हैं, "मेरी नज़र में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो एक सोशलिस्ट थे और उन्हें मैंने हमेशा एक नायक की तरह देखा। पाकिस्तानी तानाशाहों से मैं हमेशा नफ़रत करता रहा, पर भुट्टो की मौत ने तो जैसे सारी सीमाएँ ही तोड़ दीं। पहली बार मैं निजी तौर पर इस व्यावहारिक निर्णय पर पहुँचा हूँ कि मज़हब के नाम पर बने देश में इंसान की ज़िंदगी का यही दर्दनाक अंत है। मुझे लगा कि पाकिस्तान में इंसानों का भविष्य यही है। इसलिए 'सूखा बरगद' की पात्र रशीदा अंत तक पाकिस्तान नहीं जाती, बल्कि अपने लोगों के बीच हिंदुस्तान में रहना चाहती है।"
उनके उपन्यास 'बशारत मंज़िल' के संदर्भ में बात करें तो इसमें अगर आज़ादी से पहले की दिल्ली के गली-कूचों और संस्कृति के निशानात के बारे में पढ़ने को मिलता है, तो वहीं यह किताब सच, कल्पना और इतिहास का मिश्रण भी है; इसमें २० वीं सदी के पूर्वार्ध को कलमबद्ध किया गया है।
अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज के जीवन की मूलभूत समस्याओं को उजागर करने वाले मंज़ूर एहतेशाम का साहित्य की ओर रुझान घर में आने वाले उर्दू रिसालों को पढ़ने से हुआ। फिर स्कूल में चार्ल्स डिकेंस की किताबों 'ओलिवर ट्विस्ट' और 'डेविड कॉपरफ़ील्ड' से परिचय हुआ। पढ़ने में रुचि तो थी ही, पर साहित्य से असल परिचय एक दूर के रिश्तेदार नफ़ीस भाई ने कराया। जब वे छोटे थे, तब एक दफ़े नफीस भाई कराची से भोपाल आए थे और उन्होंने दस्तयेवस्की की 'ब्रदर्स कारमाज़व' पुस्तक उन्हें तोहफ़े में दी। बस वहीं से पढ़ने-लिखने का सिलसिला शुरू हो गया। इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान कॉलेज में एक पत्रिका निकाली थी। कुछ वर्ष पश्चात सत्येन (कुमार) से दोस्ती हो गई। उनके ज़रिए और भी कई लेखकों से उनका परिचय हुआ। उसी वक़्त उनकी पहली कहानी 'रमज़ान में मौत' प्रकाशित हुई थी।
मंज़ूर एहतेशाम ने अपने प्रसिद्ध उपन्यासों में भारत के सेक्युलर मुसलमानों के आत्मसंघर्ष का जीता जागता दस्तावेज़ प्रस्तुत किया है। आज़ादी के बाद के दशकों में आई राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक बदलाव की प्रवृत्ति के मुस्लिम-मध्यवर्ग के जीवन और सोच पर पड़े प्रभाव को मंज़ूर साहब ने अपने उपन्यासों के व्यापक संदर्भों के ज़रिए चिन्हित किया है। अपने उपन्यासों के माध्यम से एहतेशाम ने हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल दिया है, "सांप्रदायिक दंगे भारत की एक स्थायी समस्या बन चुके हैं। सांप्रदायिक हिंसा तभी रुक सकती है जब हम सामुदायिक सदभाव के प्रचार-प्रसार के साथ अपनी राजव्यवस्था को भी सक्षम और प्रभावी बनाऐगें।" मंज़ूर एहतेशाम द्वारा गढ़े पात्रों और कथानकों के माध्यम से मुस्लिम-समुदाय के जीवन, प्रगतिशील विचारधारा, सहिष्णुता की भावना, देश में मौजूद समस्याओं और उनसे संघर्ष, हिंदू-मुस्लिम एकता, दंगों के प्रति आम सोच, विभाजनकारी ताक़तों के मंसूबों आदि का एक सामान्य मुस्लिम परिवार पर पड़ने वाले प्रभाव का जीवंत साक्षात्कार होता है।
उनके उपन्यास पूरी दृढ़ता के साथ उन्हें 'राही मासूम रज़ा' और गुलशेर ख़ाँ 'शानी' सरीखे प्रसिद्ध उपन्यासकारों की श्रेणी में खड़ा करते हैं। धर्म, जातीयता, क्षेत्रीयता, भाषा और सांप्रदायिकता के जो प्रश्न स्वतंत्रता के बाद इस देश में पैदा हुए हैं, उनकी असहनीय आँच से पड़े छालों का दर्द उनके सृजन-संसार में महसूस किया जा सकता है। उनके उपन्यास में मध्यवर्गीय मुस्लिम समाज के आर्थिक और सांस्कृतिक संघर्ष का वर्णन ही नहीं अपितु संस्कृति की चिंता भी गहन रूप से प्रतिबिंबित होती हैं। आज़ादी के बाद मुस्लिम-समुदाय के प्रति सतत बदलते सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण के कारण इस समुदाय द्वारा सही गई आंतरिक पीड़ा और द्वंद्व का विश्लेषणात्मक ब्यौरा इनकी विभिन्न रचनाओं में पढ़ने को मिलता है।
मंज़ूर साहब शुरूआत से ही अँग्रेज़ी लेखकों से काफ़ी प्रभावित रहे थे, लेकिन लेखन के लिए उन्होंने हिंदी भाषा को ही चुना। भोपाल में उर्दू के लेखकों की एक लंबी फ़ेहरिस्त रही है, लेकिन मंज़ूर साहब ने अपना नाम केवल उससे ही नहीं जोड़ा। वे सांप्रदायिक सौहार्द, भाईचारे और मुहब्बत के प्रतीक थे और इस मुल्क की साझी-विरासत को बचाए रखना चाहते थे। वे मानते थे कि आम आदमी की भाषा में लिखकर ही 'आम-जन' तक पहुँचा जा सकता है। उन्हें समकालीन लेखकों में से ओरहान पामुक, कोएट्ज़ी और अरुंधती रॉय का लेखन ख़ासा पसंद था और वे उनसे प्रभावित भी थे। हिंदी साहित्य में कृष्णा सोबती और निर्मल वर्मा हमेशा उनके चहेते साहित्यकार रहे। उपन्यास 'दस्ताने लापता' को न्यूयॉर्क पत्रिका ने साल २००७ में अनूदित न हुई पुस्तकों की सूची में सर्वोपरि रखा था। शिकागो विश्वविद्यालय के हिंदी प्रोफ़ेसर जैसन ग्रूनबॉम ने उसके संदर्भ में लिखा था, "इस किताब की विषय-वस्तु सामाजिक यथार्थ पर आधारित है और एक बीमार मुस्लिम आदमी की कहानी के माध्यम से जिसकी बीमारी का निदान नहीं हो सका था, उसे पाठकों के सामने लाती है।" साल २०१८ में जैसन ग्रूनबॉम और प्रोफ़ेसर स्टार्क द्वारा 'दस्ताने लापता' का अनुवाद The Tale of the Missing Man के नाम से प्रकाश में आया। अँग्रेज़ी में किताब के आते ही वह बहुचर्चित हो गई और उसे The Global Humanities Translation Prize प्राप्त हुआ। इस अनुवाद के संदर्भ में ख़ुद मंज़ूर साहब ने कहा था , "इसने तो मेरा दिल मूल किताब से चुरा लिया है।" उपन्यास 'सूखा बरगद' का अँग्रेज़ी में अनुवाद कुलदीप सिंह ने किया है, किताब का शीर्षक A Dying Banyan है।
कथाकार मंज़ूर साहब को ३ अप्रैल २००३ को उनके जन्मदिन के अवसर पर ही राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने साहित्य के क्षेत्र में योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया था। इसके अलावा उन्हें भारतीय भाषा परिषद पुरस्कार, श्रीकांत शर्मा स्मृति सम्मान, वागीश्वरी अवार्ड तथा 'पहल' जैसे सम्मानों से नवाजा गया था। दिसंबर २०२० में उनकी पत्नी सरवर एहतेशाम का निधन हुआ। 'रमज़ान में मौत' नामक कहानी लिखने वाले मंज़ूर एहतेशाम २६ अप्रैल, २०२१ को रमज़ान के महीने में ही इस दुनिया से रुख़्सत हो गए। वे हमेशा अपने क़रीबियों से कहा करते थे, "बड़े शौक से सुन रहा है ज़माना, हम ही सो गए दास्ताँ कहते-कहते।" मंज़ूर साहब ने क़रीबन १० दिनों तक कोरोना महामारी से अस्पताल में जूझने के बाद इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कहा था।
भोपाल में जन्मे मंज़ूर साहब ख़ालिस भोपाली थे। उनका मिज़ाज सूफ़ियाना था। लबो-लहज़े में उर्दू नज़ाकत झलकती थी। पठानों जैसी क़द-काठी, आँखों पर गोल चश्मा, लफ़्ज़ों की अदायगी में मिठास, चेहरे पर हमेशा मुस्कराहट - यह उनकी शख़्सियत का एक पहलू था। वे जितने शांत स्वभाव के थे, लेखन उतना ही आतिशी था। वे सामाजिक सरोकार से रिश्ता रखते थे। आडंबर और ताम-झाम से दूर रहना उनकी फ़ितरत थी। अगर मजलूम, मासूम की हिमायत उनके लेखन का हिस्सा रही, तो रूढ़िवादी जड़ों पर प्रहार प्राथमिकता। वे साहित्य के दरबारों और गुटों से दूर रहकर अपने लेखन में यक़ीन करनेवाले अदीब थे। भोपाल में भारत टॉकीज़ चौराहे के कोने में उनकी रिहायश थी।
मंज़ूर एहतेशाम : जीवन परिचय |
जन्म | ३ अप्रैल, १९४८; भोपाल, मध्य प्रदेश, भारत |
निधन | २६ अप्रैल, २०२१; भोपाल |
पत्नी | सरवर एहतेशाम |
आजीविका | फ़र्नीचर और इंटीरियर डेकॉर |
कर्म-क्षेत्र | लेखन |
साहित्यिक भाषा | हिंदी |
कर्मभूमि | भोपाल, मध्य प्रदेश |
शिक्षा | स्नातक |
उपन्यास | कुछ दिन और सूखा बरगद रमज़ान में मौत दास्तान-ए-लापता बशारत मंजिल पहर ढलते मदरसा
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कहानी | |
नाटक | |
पुरस्कार व सम्मान |
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विशेषता | सहजता इनकी सहजात विशेषता थी |
संदर्भ
लेखक परिचय
सूर्यकांत सुतार 'सूर्या'
जन्म स्थान और शिक्षा मुंबई। साहित्य से बरसों से जुड़ा होने के साथ-साथ कई समाचार पत्रों, पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में लेख, कविता, ग़ज़ल, कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित हैं।
ईमेल : surya.4675@gmail.com
सूर्या जी, आपने मंज़ूर एहतेशाम जी के लेखन के विभिन्न मुद्दों के बारे में लिख कर उनकी विस्तृत और गहन सोच से सुन्दर परिचय कराया है। चीज़ों को बारीकी से देखना और फिर अपने विचारों की तेज़ कलम से उन्हें अफ़सानों में ढालने का क्या हुनर था मंज़ूर जी के पास! आपको इस लेखन के लिए बधाई और आभार
ReplyDeleteसूर्यकांत जी, हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध कलमकार मंज़ूर एहतेशाम के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालता आपका आलेख बहुत रोचक और जानकारीपूर्ण है। इस महत्त्वपूर्ण आलेख के लिए आपको बधाई और हिंदी की सेवा से जुड़े सभी कार्यों के लिए बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। मंज़ूर एहतेशाम बड़े आशावादी थे। एक शेर वे बार-बार कहते थे - रात जितनी संगीन होगी, सुबहा उतनी ही रंगीन होगी।
ReplyDeleteसूर्या जी नमस्कार। आपका मंज़ूर एहतेशाम जी पर लिखा लेख पढ़ा। पढ़कर बहुत अच्छा लगा। आपने उनके जीवन एवं लेखन पर विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराई। मंजूर जी का लेखन पाठक के मन से गहरा भवनात्मक रिश्ता बना देता है जो लंबे समय तक बना रहता है।आपको इस रोचक लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसूर्यकांत जी, कथाकार मंज़ूर एहतेशाम के व्यक्तित्व और कृतित्व को उल्लेखित करता आपका यह आलेख बहुत सुरुचिपूर्ण और जानकारियों से परिपूर्ण है। उनके रचना संसार को पढ़ कर आनंद आया। कितनी सच्ची और खरी बात कही उन्होंने कि 'आम आदमी की भाषा में लिखकर ही आम-जन तक पहुँचा जा सकता है।' इस सारगर्भित और सधे हुए आलेख के लिए आपको बहुत बहुत बधाई। 🙏
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