हिंदी साहित्य की काव्य-धारा विविध कालखंडों में समृद्ध होती रही है। आधुनिक काल में काव्य की विविध प्रवृत्तियाँ जैसे छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता सामने आती हैं। प्रगतिवादी हिंदी कविता में केदारनाथ अग्रवाल का उल्लेखनीय योगदान है। केदारनाथ अग्रवाल का कवि-जीवन छायावाद में आरंभ हुआ, किंतु बदलते युग और परिवेश ने उन्हें विशुद्ध प्रगतिवादी बना दिया। श्री अग्रवाल ने मार्क्सवादी-दर्शन को जीवन का आधार मानकर जन-साधारण के जीवन की गहरी व व्यापक संवेदना को अपनी कविताओं में अभिव्यक्ति दी है। उनकी जनवादी लेखनी पूर्णरूपेण भारत की सोंधी मिट्टी की देन है। केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में भारत की धरती की सुगंध और आस्था का स्वर मिलता है। उनकी कविताएँ युगानुरूप हैं, और उन्होंने अपनी सृजन-प्रतिभा से इस युक्ति को सत्य साबित किया है कि "भावोच्छलन की अनुभूति शब्द-आधार पाकर काव्य-सृष्टि होती है और सहृदय कवि का साहित्य-सृजन ही उसकी पहचान बन जाती है।" केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं की भावाभिव्यक्ति में भारतीय समाज की मानसिकता तथा उसकी परिस्थितियों से त्रस्त जन-सामान्य के जीवन को तलाशा जा सकता है। अतः यह कहना उपयुक्त होगा कि केदारनाथ अग्रवाल की कविताएँ सामाजिक-जीवन की विसंगतियों, आर्थिक विषमताओं तथा संघर्ष करते जन-सामान्य का दस्तावेज हैं, और कवि जन-सामान्य के साथ पूर्ण सहानुभूति आत्मीयता के साथ संपृक्त होकर उन्हें प्रगतिशील बनाता है; साथ ही साथ उन्हें उनके अधिकारों के लिए झकझोरता है, प्रोत्साहित करता है, ललकारता है। कवि के ये व्यापार उसकी मानवतावादी दृष्टि के परिचायक हैं।
प्रगतिशील हिंदी कवियों में केदारनाथ अग्रवाल युग-जीवन से गहरे सरोकार के कवि हैं। प्रगतिशील धारा और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में आस्था रखने के बावजूद भी अन्य प्रगतिवादियों से भिन्न हैं; तभी तो वे स्वीकार करते हैं, "मेरी प्रगतिशीलता औरों की प्रगतिशीलता से भिन्न रही, क्योंकि मैं पार्टीवाद को नहीं मानता।" उनकी धारणा इस तथ्य की पोषक है कि जन-संवेदना और जन-समस्या को रचना के अबाध प्रवाह में बहा देने में रचनाकार की ईमानदारी और प्रगतिशीलता प्रकट होती है। लेखक तो सच्ची आज़ादी के साथ स्वच्छंद सृजन के पक्षधर हैं, ताकि वह सत्य का बखान कर व्यवस्था के अतिचार का विरोध कर सके। केदारनाथ अग्रवाल के 'फूल नहीं, रंग बोलते हैं' संग्रह की एक कविता का अंश उपर्युक्त बात की पुष्टि करता है,
राजशाही गुंबद की छाया में लेखक को पालो नहीं,
लेखक को हुक्म या हिदायत से बांधो नहीं,
लेखक को सच्ची बात कहने से रोको नहीं,
बल्कि उसे, सच्ची आज़ादी दो
ताकि वह वही लिखे जो कि उसे लिखना है,
शक्ति और साहस से वही कहे जो कि उसे कहना है,
ताकि वह मजूर की, किसान की हिमायत करे,
केदारनाथ अग्रवाल लेखक की पूर्ण स्वतंत्रता का पुरज़ोर स्वागत करते हैं, क्योंकि वे जनवाद पर विश्वास करते हैं; इसीलिए उन्होंने अपनी कविताओं में जन का पक्ष लिया है। वे सदैव जन-सामान्य के दु:ख-दर्द का बखान करके, उनके यथार्थ को उघाड़कर समाज को नई दिशा देने का प्रयास करते हैं। इसी प्रयास में उनकी कविताओं में ग्रामीण परिवेश, गाँव के किसान-श्रमिक, मेहनतकश जनता-मज़दूर के देह-चित्र बार-बार भिन्न-भिन्न रूपों में शामिल हो जाते हैं। केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में प्रकृति के अनेक रूप देखने को मिलते हैं। 'गेहूँ', 'चंद्रगहना से लौटती बेर', 'बसंती हवा', 'सावन का दृश्य' कविताओं में प्रकृति-चित्रण के साथ-साथ जन-जीवन और प्रकृति से यथार्थ को चित्रित किया गया है। 'गेहूँ' का चित्रण करते हुए वे लिखते हैं,
आर-पार चौडे़ खेत में
चारों ओर दिशाएँ घेरे
लाखों की अगणित संख्या में
ऊँचा गेहूँ डटा खड़ा है।
ताकत से मुट्ठी बांधे है
नोकीले भाले ताने है।
हिम्मत वाली लाल फौज सा,
मर मिटने को झूम रहा है।
हंसिया से आहत होता है,
तन की, मन की बलि देता है;
पौरुष का परिचय देता है,
सतत घोर संकट सहता है;
अंतिम बलिदानों से अपने,
सबल किसानों को करता है।
इन पंक्तियों में कवि का मानना है कि आर-पार चौड़े खेतों में लाखों की संख्या में गेहूँ की फसलें ऐसी प्रतीत होती हैं, मानो देश की आराजकता और भयावह त्रासद स्थितियों के विरोध में लाखों की संख्या में मुट्ठी बाँधे जन-समूह अपने हाथों में भालों को लेकर लाल-फौज की तरह मर-मिटने के लिए झूम रही है; और अपने अंतिम बलिदानों से गरीब कृषक समुदाय को शक्तिशाली बना रही है। गेहूँ का मानवीकरण करते हुए जन-चेतना की हिम्मत, साहस और क्रांतिकारिता का परिचय दिया है। प्रकृति के साथ केदारनाथ अग्रवाल का रागात्मक संबंध है। प्रकृति के बहुरंगी चित्र खींचते समय वे अत्यंत भावाकुल और तन्मय हो जाते हैं। प्रकृति के प्रति उनका काव्य-व्यवहार उन रचनाकारों के समक्ष एक चुनौती है, जो प्रकृति को बौद्धिक दृष्टि से देखते हैं। केदारनाथ अग्रवाल के रोम-रोम में प्रकृति धड़कती है, प्रकृति से जुडे़ जिस विषय को भी वे अपनी लेखनी में आबद्ध करते हैं, उसके साथ उसका गहरा लगाव झलकता है। प्रकृति के साम्य और सर्जनात्मक रूप को देखकर वे पुलकित हो उठते हैं,
हम न रहेंगे-
तब भी तो यह खेत रहेंगे;
उन खेतों पर घन घहराते
शेष रहेंगे;
जीवन देते,
प्यास बुझाते,
माटी को मद-मस्त बनाते,
श्याम बदरिया के
लहराते केश रहेंगे।
खेत अर्थात कृषि का बादल अर्थात पानी के साथ अन्योन्याश्रित संबंध है। बादल जल द्वारा सृष्टि में जीवन का सृजन करता है। दूसरे शब्दों में प्रकृति यहाँ सौंदर्य का अक्षय स्रोत है, वहीं जीवन और सृजन का भी। बादल की सार्थकता भी उसके ज़मीन पर उतरने में ही है। उसकी लोक-कल्याणकारी वृत्ति कवि केदारनाथ को आकर्षित करती है। प्रकृति का सामान्य क्रिया-व्यापार भी केदारनाथ की लेखनी से अछूता नहीं रहा। प्रकृति के सामान्य क्रिया-व्यापार को कवि ने सजीव ढ़ंग से चित्रात्मक शैली में अभिव्यक्त किया है, और इन चित्रों में पाठक अपने आपको उस परिस्थिति से रू-ब-रू पाता है,
चुप खड़ा है बगुला डुबाए टाँग जल में,
देखते ही मीन चंचल
ध्यान निद्रा त्यागता है,
चट दबाकर चोंक में
नीचे गले में डालता है!
केदारनाथ अग्रवाल प्रकृति में ही समस्त जीवन के दुःखों-सुखों को सन्निहित मानते हैं। कवि का मानना है कि यह प्रकृति ही है जो विभिन्न रूपों कभी उत्सवों, कभी हवाओं के रूप में हमें जीवन-दान देती है। यही भाव केदारनाथ की निम्न काव्य-पंक्तियों में रूपाकार हुए हैं,
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ!
वही हॉं, वही जो युगों से गगन को
बिना कष्ट-श्रम के सम्हाले हुए हूँ;
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।
वही हॉं, वही जो सभी प्राणियों को
पिला प्रेम-आस जिलाए हुए हूँ,
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।
कवि ने चना, अलसी, सरसों आदि फसलों के माध्यम से प्रकृति की सुषमा का सजीव एवं मूर्त चित्रण किया है। डॉ० विश्वनाथ त्रिपाठी के शब्दों में "केदारनाथ अग्रवाल का सौंदर्य-बोध दर्पण, दूब, ओस, धूप, गुलाब, बसंती हवा के साथ पत्थर, लोहा, चट्टान को समाविष्ट करता है। केदार के यहाँ श्रम के प्रतीक हथौड़ा, हल, हंसिया, कुदाल प्रायः आते हैं।" कवि श्रम को प्रमुखता देते हैं। इसी से उनकी कविताओं में हथौड़ा के ऊपर भी कई कविताएँ लिखी गई हैं। हथौड़ा कहीं न कहीं किसी आकृति को तैयार करने में सहायक सिद्ध है, इस दृष्टि से उनकी 'मार हथौड़ा कर कर चोट' कविता बहुत ही मर्मस्पर्शी है,
मार हथौड़ा,
कर कर चोट
लाल हुए काले लोहे को
जैसा चाहे वैसा मोड़।
मार हथौड़ा
कर कर चोट
लोहू और पसीने से ही
बंधन की दीवारें तोड़।
कवि श्रम के पक्षधर हैं। वे श्रम के महत्व को बार-बार दर्शाते हैं। श्रम मनुष्य को उसकी पहचान देता है। कवि ने अपने अनुभवों को कविता में सूक्ष्म अभिव्यक्ति से आप्लावित कर नए जीवन-मूल्य दिए हैं। कवि ने अपनी कविताओं में लोहे को अनेक रूपों में प्रदर्शित किया है। उनकी कविता में कभी हथौड़ा, कभी हथौड़े वाला, कभी लोहा तो कभी लोहे से बनी गोली के प्रयोग अनूठे बन पड़े हैं। कवि ने एक वीरांगना के विराट व्यक्तित्व को 'मैंने उसको जब-जब देखा' कविता में इस प्रकार चित्रित किया है,
मैंने उसको
जब-जब देखा,
लोहा देखा,
लोहा जैसा-
तपते देखा-
गलते देखा-
ढलते देखा,
मैंने उसको
गोली जैसा
चलते देखा!
कवि केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में विभिन्न मानव-मूल्यों की सृष्टि हुई है। वे मानवीय-मूल्यों के प्रति पूर्णतः सजग हैं। उनकी रचनाएँ मानवीय-संवेदनाओं से पूर्णतः सम्पृक्त हैं। कवि अपनी कविताओं में साधारण मनुष्य, किसान के अधिकारों की पुरज़ोर वकालत करता है। किसान के जीवन पर आधारित 'यह धरती है उस किसान की' कविता अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। किसान के क्रिया-कलापों का अत्यंत सरल शब्दों में एक सजीव चित्र प्रस्तुत कर दिया है,
यह धरती है उस किसान की
जो बैलों के कंधो पर
बरसात घाम में,
जुआ भाग्य का रख देता है,
खून चाटती हुई वायु में,
पैनी कुसी खेत के भीतर,
दूर कलेजे तक के जाकर,
जोत डालता है मिट्टी को,
पांस डाल कर,
और बीज फिर बो देता है
नए वर्ष में नई फसल के।
ढेर अन्न का लग जाता है।
यह धरती है उस किसान की।
नहीं कृष्ण की,
नहीं राम की ...
केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में प्रकृति का विस्तृत चित्रण चित्रात्मक रूप में देखने-पढ़ने को मिलता है, जो हिंदी कविताओं में अन्यत्र दुर्लभ है।
केदारनाथ की कविता में किसान समुदाय का यथार्थ चित्रण मिलता है। छोटे किसानों, शोषितों और मज़दूरों के प्रति कवि की सहानुभूति है, और उनकी सामाजिक स्थिति को पूर्ण-रूपेण आत्मसात किए नजर आते हैं; तभी तो वे कहते हैं,
आदमी का बेटा
गरमी की धूप में भॉंजता है फडुआ,
हड्डी को, देह को तोड़ता है,
खूब गहराई से धरती को खोदता है।
काँखता है, हाँफता है, मिट्टी को ढोता है
गंदी आबादी के नाले को पाटता है।
केदारनाथ अग्रवाल समकालीन समाज में कृषक-जीवन की दुरूहता को भली-भांति जानते हैं, और कविता में उसका चित्रण करते हैं। समाज में उत्तराधिकार की प्रथा अनंतकाल से चली आ रही है, और इस प्रथा से वही आनंद पाता है जो समृद्ध था, है और यह प्रथा उसे आगे भी समृद्ध रहने का वरदान देती है; लेकिन इस प्रथा में किसान-जीवन की क्या स्थिति होती है? उसे कवि ने शब्दों में कुछ इस तरह अभिव्यक्त किया है,
जब बाप मरा तब यह पाया,
भूखे किसान के बेटे ने
घर का मलवा, टूटी खटिया,
कुछ हाथ भूमि-वह भी परती।
द्वारे का पर्वत घूरे का,
बनिया के रुपयों का कर्जा
जो नहीं चुकाने पर चुकता।
बस यही नहीं, जो भूख मिली
सौगुनी बाप से अधिक मिली।
यह हश्र किसान के बेटे का हुआ, यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया का प्रमाण है। केदारनाथ अग्रवाल के काव्य का महत्त्वपूर्ण पक्ष शोषित-वर्ग के जीवन की दीनता एवं कटुता का यथार्थ चित्रण है। कविताओं के भावों को जानकर ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा, जिसका हृदय द्रवित न हो। वे समाज में वर्ग-वैषम्य की गहराई को भली-भाँति समझते हैं, तभी तो 'पूँजीपति और श्रमजीवी' कविता में दोनों वर्गो के जीवन की विषमता का उद्घाटन करते हुए लिखते हैं,
पूँजीपति अपने बेटे को, बेहद काला दिल देता है,
गद्दी पर बैठे रहने को, भारी-भरकम तन देता है,
सिरहाने रखकर सोने को, दिन में पैसा ठग लेने को,
रोकड़-खाते सब देता है, गरदन काट कलम देता है,
जाने कितना-कितना अवगुन, पूँजीपति सुत को देता है,
वह अपने को और जगत को, बेटे को धोखा देता है।
श्रमजीवी अपने बेटे को पर उपकारी दिल देता है,
मेहनत करने को जीने को, हाथों में हल, लोहे का घन,
पांवों में हाथी की चाले; अविजित छाती, ऊँचे कंधे,
हर आफ़त से लड़ जाने को, गति देता है, बल देता है।
जब तक जीता है-रहता है, उत्पादन की मति देता है।
मरने को वह मर जाता है, लेकिन जीवन दे जाता है,
श्रमजीवी अपने बेटे को, गोठिल हंसिया दे जाता है।
केदारनाथ अग्रवाल ने उक्त उदाहरण में वह सब बयाँ कर दिया है जिसकी तरफ़ अन्य कवियों की दृष्टि नहीं गई है। इस वैषम्य-जीवन में भी कवि किसान या श्रमजीवी को नए रास्ते बनाने के लिए हॅंसिया मिलने की बात स्वीकारता है, और हँसिया के बल पर क्रांति का संदेश देता है। केदारनाथ अग्रवाल स्वीकारते हैं कि संसार में प्रगति के जितने भी निशान मौजूद हैं, वे सिर्फ़ और सिर्फ़ श्रमजीवी द्वारा तैयार किए हैं,
घाट, धर्मशालें, अदालतें,
विद्यालय, वेश्यालय सारे,
होटल, दफ्तर, बूचड़खाने,
मंदिर, मस्जिद, हाट, सिनेमा,
श्रमजीवी की उस हड्डी से
टिके हुए हैं- जिस हड्डी को
सभ्य आदमी के समाज ने
टेढ़ी करके मोड़ दिया है!!
सच्चाई तो यह है कि केदारनाथ अग्रवाल अपनी कविताओं में गॉंव एवं नगर, कृषक एवं मज़दूर का भेद महत्त्वपूर्ण नहीं मानते; क्योंकि वे अपनी आत्मीय-संवेदना से गॉंव एवं नगर, कृषक एवं मज़दूर की कठिन जीवन-यात्रा की पूरी संलग्नता से पड़ताल करते हैं। उनका गहन सामाजिक-बोध इन दोनों झंझावातों से मिलकर ही तैयार होता है।
केदारनाथ अग्रवाल अपनी कविताओं के माध्यम से सिद्ध करते हैं कि जिस प्रकार गाँव-जीवन की धुरी किसान होता है, ठीक उसी प्रकार मज़दूर नागरिक-जीवन का आधार होता है। वास्तव में विकास का हर पत्थर मज़दूर की हड्डियों से ही आकार लेकर सामने आता है। सर्वहारा अर्थात किसान और श्रमजीवी की दयनीय दशा के लिए जहाँ एक ओर वह स्वयं ज़िम्मेदार है, वहीं सबसे अधिक सामाजिक व्यवस्था का दोष है; जिसमें साहू-सरकार, पूँजीपति, महाजन-पुरोहित आदि सब उसके पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं। केदारनाथ अग्रवाल इन सभी के चरित्र में निहित अकर्मण्यता और अवसरवादिता से परिचित हैं, तभी तो 'डांगर' कविता में कहते हैं,
ये कामचोर
आरामतलब
मोटे तोंदियल भारी भरकम
हट्टे-कट्टे सब डांगर ऊंघा करते हैं;
हम चौबीस घंटे हंफते हैं।
लगभग समाज के पाखंडी लोग भी दूसरों का खून चूसने में पीछे नहीं रहते, जिसकी चित्राभिव्यक्ति 'चित्रकूट के यात्री' कविता में हुई है,
दिनभर अधरम करने वाले
परनारी को ठगने वाले
परसंपत्ति को हरने वाले
भीषण हत्या करने वाले
धर्म लूटने के अधिकारी।
केदारनाथ अग्रवाल का उद्देश्य समाज में न्याय और कल्याणकारी प्रगतिशीलता को लाना है। इसके लिए उनकी रचनाशीलता मनुष्य के पौरुष को ललकारती है, और उसे आपदाओं से घबराने की बजाए आपदाओं को परास्त करने के लिए उत्प्रेरित करती है,
पत्थर के सिर पर दे मारो अपना लोहा
वह पत्थर जो राह रोक कर पड़ा हुआ है,
जो न टूटने के घमंड में अड़ा हुआ है, . . .
इस प्रकार हम पाते हैं कि केदारनाथ अग्रवाल का काव्य-वैभव मानवीय सरोकारों की पैरवी करता है। समाज से प्राप्त अनुभव की गूंज कवि की लेखनी से सहज रूप में अभिव्यक्त हुई है।
लेखक परिचय
डॉ० दीपक पाण्डेय
द्वितीय सचिव (हिन्दी एवं संस्कृति) भारतीय उच्चायोग 2015-2019
भारत से बाहर लिखे जा रहे हिंदी-साहित्य में आपकी विशेष रुचि है। इसी क्रम में आपकी 10 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। लेखन के साथ-साथ आप राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों/ सेमीनारों में निरंतर प्रतिभाग करते रहते हैं।
संपर्क: ईमेल- dkp४१०@gmail.com
भाष-८९२९४०८९९९
डॉ. दीपक पांडेय जी नमस्कार। आपने केदारनाथ अग्रवाल जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। केदारनाथ अग्रवाल जी कविताएँ पढ़ने का जब अवसर मिला तो उन्होंने बहुत प्रभावित किया। आपने इस लेख में भी उनकी बहुत सारी उत्कृष्ट कविताओं को स्थान दिया जिनसे लेख और रोचक बन गया। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिये बहुत बहुत बधाई।
ReplyDelete● केदार नाथ अग्रवाल ( बाबूजी)पर शोधपरक लेख के लिए भाई दीपक पाण्डेय जी को बहुत-बहुत बधाई
ReplyDeleteदीपक जी, आपने केदारनाथ अग्रवाल जी पर क्या उम्दा लेख लिखा है! यह एक साँस में पढ़ा गया और लगा कि काश और होता पढ़ने को। मैंने केदारनाथ जी को लगभग न के बराबर पढ़ा है, लेकिन आप द्वारा उद्धृत कविताओं को देखकर लगा जैसे कि उनसे परिचित हूँ। यह शायद आमजन के जीवन की झलक स्पष्ट चित्रों में उतारने की उनकी कला का कमाल है। आपकी लेखनी ने उनके साथ पूरा न्याय किया है। आपको इस संग्रहणीय लेख के लिए बहुत-बहुत आभार और बधाई। शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteदीपक जी, इस सुंदर आलेख के लिये आपको बधाई। आपके लेख की ख़ूबसूरती यह होती है कि आप केवल ऊपर ऊपर से साहित्यकार के जीवन एवं कृतित्व का लेख जोखा नहीं दे देते। आप गहराई में साहित्यकार के कृतित्व का मूल यंत्र तलाश करते हैं और उससे पाठकों को परिचित कराते हैं। आपसे यह भी पता चला कि केदारनाथ जी उपनाम के लिए बालेंदु लिखते थे। अब वह और भी प्रिय हो गए क्योंकि बालेंदु जी से तो हमारा जुड़ाव है ही।
ReplyDeleteकोई कितना भी प्रगतिवादी, यथार्थवादी लेखक / कवि हो, कितना भी मौलिक अधिकारों के लिए मर मिटने वाला हो, प्रकृति के पास आते ही उसका सौंदर्यबोध जाग जाता है। मुझे केदातनाथ जी की जो कविता अत्यंत प्रिय है, बड़ी मीठी और भली लगती है, वह उद्धृत कर रहा हूँ। जिन्होंने नहीं पढ़ी वह भी , और जिन्होंने पढ़ी हुई है वह भी, आनंदित होंगे!
केदारनाथ अग्रवालजी पर केन्द्रित यह आलेख महत्वपूर्ण और शोधपरक है जिसमें उनका संवेदनशील कवि ह्रदय समाज , प्रकृति , जनचेतना के प्रति सजग है। बहुउपयोगी आलेख हेतु साधुवाद!आ
ReplyDelete