‘बहारों फूल बरसाओ,
मेरा महबूब आया है’
१९६६ में आई फ़िल्म 'सूरज' के इस प्रतिष्ठित गीत को सुनकर ब्याह के बंधन में बंधने वाले युगलों को एक मीठी-सी अनुभूति होती है। जबसे यह गीत बना, तबसे आज तक बैंड-बाजे वाले भी हर शादी में इस गाने की धुन ज़रूर बजाते हैं। यह गीत एक और मायने में भी खास अहमियत रखता है, इस गीत के लिए इसके रचयिता को १९६६ में सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार मिला था। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं, लम्हों को ख़ूबसूरत लफ़्ज़ों का लिबास पहनाने वाले बेहतरीन शब्दकार, नग़मा निगार और फ़िल्मी दुनिया में 'किंग ऑफ रोमांस' कहे जाने वाले मक़बूल शायर हसरत जयपुरी की।
अब जब हसरत साहब के जन्मदिन को १०० वर्ष पूरे हो रहे हैं, उन्हें बहुत मुहब्बत और अक़ीदत के साथ याद करते हुए, आइए चलते हैं, उनके रचे सदाबहार, रूमानियत से लबरेज़ गीतों की रंग-बिरंगी दुनिया में।
‘ज़िंदगी इक सफ़र है सुहाना
यहाँ कल क्या हो..किसने जाना’
इस प्रेरणाप्रद गीत को, १९७१ में 'अंदाज़' फ़िल्म के लिए लिखने वाले हसरत जयपुरी भी अपने लड़कपन के दिनों में यह कहाँ जानते होंगे कि कच्ची उम्र से ही शेरो-शायरी की तरफ़ हुए रुझान को और अपने नाना से मिली शायरी की विरासत को वे अपनी लगन और ज़िंदगी में कुछ कर गुज़रने के जुनून से कामयाबी और शोहरत की बुलंदियों तक ले जाएँगे। लेकिन उन्होंने यह बखूबी कर दिखाया। उनके हाथों में विरासत महफ़ूज़ भी रही और खूब परवान भी चढ़ी। इस गाने ने भी १९७२ का फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार अपने नाम किया था।
१५ अप्रैल,१९२२ में हसरत साहब का जन्म, जयपुर में हुआ। उनके वालिद का नाम नाज़िम हुसैन और वालिदा का नाम फ़िरदौसी बेगम था। उनके वालिद साहब फ़ौजी थे। अपने वालिदैन से उन्हें इकबाल हुसैन नाम मिला। उनका बचपन जयपुर में ही बीता तथा शुरुआती तालीम भी जयपुर में अँग्रेज़ी माध्यम से हुई। उनके नाना फ़िदा हुसैन 'फ़िदा' उस दौर के नामवर शायर थे। अपने नाना से बाकायदा उन्होंने उर्दू और फ़ारसी की तालीम हासिल की। हसरत साहब को शायरी का शौक बचपन से ही लग गया था। नाना हुज़ूर ने भी अपने नवासे के शौक और हुनर को तराशने में कोई कसर नहीं रखी। सत्रह साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला शेर लिखा -
'किस अदा से वह जान लेते हैं
मरने वाले भी मान लेते हैं।'
१९३९ तक वे जयपुर में ही रहे। रामगंज के चार दरवाज़ा इलाके में स्थित फ़िरदौस मंज़िल में रहते हुए वे कविता और शेर-ओ-शायरी लिखते रहे। वे मुशायरों में भी शिरक़त करते रहे। आगे चलकर उन्होंने हिंदी और ब्रजभाषा का ज्ञान भी प्राप्त किया। यही कारण है कि उनके गीतों में उर्दू, हिंदी, फ़ारसी और ब्रजभाषा के शब्दों का मिलाजुला प्रयोग देखा जा सकता है।
‘झनक-झनक तोरी बाजे पायलिया
प्रीत के गीत सुनाए पायलिया’
राग दरबारी पर आधारित, 'मेरे हुज़ूर' फ़िल्म का यह गीत उन्होंने हिंदी और ब्रजभाषा में लिखा और जिसके लिए वे अंबेडकर अवार्ड से सम्मानित भी किए गए। यही वह वक़्त था जब उनकी शायरी में मोहब्बत का रंग भी आन मिला। जिसने उनकी शायरी के फ़न को एक अलग ही मयार पर पहुँचा दिया। दरअसल उन्हें अपने पड़ोस में रहने वाली लड़की राधा से प्यार हो गया था। जिसकी मुहब्बत में वे बेहद ख़ूबसूरत अंदाज़ में लफ़्ज़ों की पैरहन बुनने लगे-
‘तू झरोखे से जो झाँके तो मैं इतना पूछूँ
मेरे महबूब तुझे प्यार करूँ या न करूँ’
लेकिन उनका प्यार मुक्कमल नहीं हो सका। दोनों के बीच मज़हब की दीवार थी। हालांकि हसरत साहब लहरें रेट्रो को दिए एक साक्षात्कार में कहते हैं, "प्यार की कोई ज़ुबान नहीं, प्यार की कोई सीमा नहीं, प्यार का किसी मज़हब या जात-पात से कोई तआल्लुक नहीं होता, प्यार है तो है।" उन्होंने अपनी मुहब्बत को ख़ामोश मुहब्बत का नाम दिया, और उसे हमेशा अपनी प्रेरणा मान कर गीत, ग़ज़ल में जीते रहे। उन्होंने खुले दिल से स्वीकार किया कि "शेर-ओ-शायरी मैंने, मेरे नाना से हासिल की लेकिन इश्क का सबक मुझे राधा ने पढ़ाया।" राधा को लिखा प्रेम पत्र भले उस तक न पहुँच पाया हो लेकिन उस का मज़मून क्या खूब था।
‘मेहरबाँ लिखूँ, हसीना लिखूँ, या दिलरुबा लिखूँ
हैरान हूँ कि आप को इस ख़त में क्या लिखूँ
ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर,
कि तुम नाराज न होना’ (संगम)
अपने इसी शायरी के शौक के चलते एक मुशायरे में उनकी मुलाकात मौलाना हसरत मोहानी साहब से हुई। मौलाना साहब उनकी शायरी से बहुत मुतासिर हुए और उन्होंने ही इकबाल हुसैन को 'हसरत' तख़ल्लुस रखने की सलाह दी। हालांकि उनकी मां फ़िरदौसी बेगम को उनका शायरी करना जरा भी पसंद नहीं था। लेकिन हसरत साहब भी कहाँ शायरी से पीछे हटने वाले थे।
१९४० में रोज़गार की गरज, अपने पाँव पर खड़े होने की मंशा, माँ की दुआएँ, शायरी से इश्क़ और सीने में मुहब्बत की आँच लिए वे बंबई(मुंबई) आ गए।
‘चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल
इन समाजों के बनाए हुए बंधन से निकल, चल’
मुंबई आने के बाद उन के जीवन के असली सफ़र की शुरुआत हुई। क्योंकि तब उनके हाथ में ना पैसे थे और ना ही कोई उनकी जान पहचान। अक्सर बिना खाना खाए ही उन्हें फुटपाथ पर सोना पड़ता था। तभी किसी ने उन्हें बस कंडक्टर की नौकरी के बारे में बताया, और ऊपर वाले के करम से ११ रुपए महीने पर उन्हें वह नौकरी मिल भी गई। बस कंडक्टरी करते हुए उन्हें जो समय मिलता, उसमें वे अपने शेरों-शायरी के शौक को पूरा करते थे।
बस कंडक्टर के तौर पर बिताई अपनी ज़िंदगी के बारे में हसरत साहब कुबूल करते हैं कि
"ये इतनी खूबसूरत नौकरी थी कि मुझे दुनिया की सूरतों के जलवे उसमें मिला करते थे। एक आता था और एक जाता था। मैंने ख़ूबसूरत लड़कियों से कभी टिकट नहीं लिया। मैंने यही कहा- तुम्हें अल्लाह ने इतना ख़ूबसूरत बनाया है। तुम्हें धरती पर बुलाया है, मेरे देखने के लिए। मैं तुमसे क्या टिकट लूँगा। और वे मुझे सलाम करके चली जातीं। उनसे मुझे बहुत इंस्पिरेशन मिली। मैंने उनके ख़्यालों में उनकी यादों में बहुत सारी कविताएँ कही।"
उनकी यही प्रेरणा कभी हसीन गालों, कभी आँखों, कभी ज़ुल्फ़ों और कभी दिलकश अदाओं के रूप में उनकी कविताओं में ढलती रही और फिर आगे चलकर फ़िल्म के गीतों में उतर कर कामयाब हुई।
मुंबई में भी वे मुशायरों में जाया करते थे। कहते हैं न कि हीरे की पहचान, एक जौहरी को ही होती है, तो बस ऐसे ही एक मुशायरे में पृथ्वीराज कपूर ने उन्हें, उनकी कविता 'मज़दूर की लाश' पढ़ते सुन लिया था। उन्होंने ही राज कपूर को मशवरा दिया कि हसरत बहुत अच्छा गीत लिखते हैं और वे चाहें तो उन्हें आर० के० बैनर में शामिल कर सकते हैं। इसके बाद राज कपूर ने उन्हें 'रॉयल ओपेरा हाउस' की कैंटीन में मिलने के लिए बुलाया। उस मुलाकात की कहानी, हसरत साहब की जुबानी, जो उन्होंने शशि रंजन को दिए साक्षात्कार में सुनाई,
"राज साहब को मैंने अपने कई कलाम सुनाए, मैंने राधा के लिए लिखी कविता, “ये मेरा प्रेम-पत्र पढ़कर” भी सुनाया जिसे उन्होंने अपनी अगली फ़िल्म 'संगम' के लिए रख लिया और मुझसे बोले कि भाई तुम शायरी तो अच्छी कर लेते हो। ये जो दो नौजवान बैठे हैं, ये ही मेरी फ़िल्म 'बरसात' के संगीतकार शंकर और जयकिशन हैं, इनसे बात कर लो, धुन समझ लो और गीत लिखो। फिर शंकर जयकिशन ने मुझे लोकगीत पर आधारित धुन सुनवाई जिसके बोल थे,
अमुवा का पेड़ है, वही मुंडेर है।"
और इस तरह धुन पर बंध लिखने के साथ ही उनका फ़िल्म के गीतकार के तौर पर एक नए सफ़र का आग़ाज़ हुआ। फ़िल्म 'बरसात' के लिए उनका पहला गीत रिकॉर्ड हुआ,
‘जिया बेकरार है, छाई बहार है,
आजा मोरे बालमा तेरा इंतजार है।’
इस गीत को शंकर ने संगीत दिया था और इसी फ़िल्म का दूसरा गीत जो हसरत साहब का पहला युगल गीत बना,
'छोड़ गए बालम, मुझे हाय अकेला छोड़ गए', इसे जयकिशन ने सुरों में बाँधा था।
फ़िल्म बरसात की ज़बरदस्त सफलता के साथ ही राज कपूर और आर० के० बैनर में गीतकार शैलेंद्र भी शामिल हो गए। फिर एक टीम के रूप में चारों दोस्तों का ये कारवाँ, फ़िल्मी दुनिया में अपनी छाप छोड़ता, इस तरह आगे बढ़ता गया कि किसी ने भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उनकी टीम ने कई फ़िल्मों में एक साथ काम किया और हिट गाने दिए। चारों दोस्तों में गहरा राबता रहा। जयकिशन के म्यूज़िक रूम में सब मिलते थे। सुबह से लेकर देर रात तक काम करते थे। फ़िल्म की सिचुएशन पर गीत और संगीत पर खूब चर्चा होती। राज कपूर भी आ जाते थे। शोख, प्यार-मोहब्बत और चंचलता से भरे गीत, राज कपूर हसरत से ही लिखवाते थे। हँसी-ठहाकों के बीच ही कोई शानदार गीत और उसकी धुन बन जाती, जो फ़िल्म की कामयाबी की वजह होती। उनके बीच कभी झगड़े नहीं हुए। शैलेंद्र ने जब तीसरी कसम फ़िल्म बनाई तो गीत हसरत साहब से ही लिखवाए। वे चारों दोस्ती और टीम वर्क की अद्भुत मिसाल बने।
‘दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई,
काहे को दुनिया बनाई’
इस गीत में उन्होंने जो 'मन' को उकेरा है, वह अद्भुत है, कभी न भुलाया जाने वाला मर्म। १९४९ में बनी हसरत जयपुरी की जोड़ी ने राजकपूर के साथ वर्ष १९७१ तक शानदार और शोहरत भरा सफ़र तय किया। इसके बाद हसरत साहब ने राजकपूर के लिए वर्ष १९८५ में प्रदर्शित फ़िल्म 'राम तेरी गंगा मैली' के लिए एक गीत लिखा जो काफी लोकप्रिय हुआ।
‘सुन साहिबा सुन, प्यार की धुन
मैंने तुझे चुन लिया तू भी मुझे चुन’
अल्फ़ाज़ के जादूगर हसरत साहब के लिए फ़िल्मों का ये स्वर्णयुग भी कहा जा सकता है, क्योंकि यही वह दौर था जब उन्हें शीर्षक गीतों के लिए भी जाना गया। उन दिनों यह भी कहा जाता था कि हसरत साहब के लिखे शीर्षक गीत, फ़िल्म की सफलता में अहम भूमिका निभाते थे।
मगर इस दौरान वे शायरी से दूर होते गए। 'अबशार-ए-ग़ज़ल' नाम से उनका एक ही ग़ज़ल संग्रह है। हसरत साहब के लिखे तमाम गीतों में एक खास बात दिखाई देती है कि जिन गीतों को मुकेश ने आवाज़ दी, उन गीतों को सुनते हुए राज कपूर की छवि सामने आती है।
तुम रूठी रहो मैं मनाता रहूं (आस का पंछी)
जाने कहाँ गए वो दिन (मेरा नाम जोकर)।
वहीं दूसरी ओर, जिन गीतों को मुहम्मद रफ़ी ने गाया है। उन गीतों को सुनते हुए राजेंद्र कुमार और शम्मी कपूर की छवि आँखों में तैर जाती है।
शम्मी कपूर - दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर (ब्रह्मचारी) मेरी मुहब्बत जवाँ रहेगी (जानवर)
राजेंद्र कुमार - कौन है जो सपनों में आया (झुक गया आसमान) छलके तेरी आँखों से (आरज़ू)
उन के लिखे गीतों को जब लता मंगेशकर की आवाज़ का साथ मिलता तो राग-रागिनियाँ भी झूम उठती।
‘हम तेरे प्यार में सारा आलम खो बैठें हैं’ (दिल एक मंदिर)
‘रात का समाँ, झूमें चंद्रमा’ (जिद्दी)
‘पंछी बनूँ उड़ती फिरूँ मस्त गगन में’ (चोरी-चोरी)
‘सुनो छोटी सी गुड़िया की लंबी कहानी (सीमा)
सादे लफ़्ज़ों में गीत लिख कर आवाम के दिलों तक पहुँचने वाले हसरत साहब ने शास्त्रीय संगीत की धुनों पर भी गीत लिखे,
‘अजहूं न आए बालमाँ, सावन बीता जाए’
‘कहीं दाग न लग जाए’
नैन सो नैन नाहीं मिलाओ’
आर० के० बैनर के लिए गीत लिखते हुए आधी से ज्यादा उम्र गुज़ारने के बाद, आगे उन्होंने उस दौर के लगभग सभी संगीतकारों के साथ काम किया। शंकर जयकिशन, सज्जाद हुसैन से लेकर जतिन-ललित तक।
हसरत साहब ने अपने गीतों में शब्दों के साथ खूब प्रयोग भी किए। सायोनारा, इचक दाना बीचक दाना, जान-ए-जनाना, उफ़-युम्मा, रमईया वस्तावैया जैसे शब्दों को लेकर गीत लिखे और वे हिट भी हुए। रूमानी हो या दुखी, हर परिस्थिति पर मात्र दस मिनट में गीत लिख देने वाले हसरत साहब ने अपने ४० वर्ष के फ़िल्मी सफ़र में लगभग ३५० फ़िल्मों के लिए २००० से ज़्यादा गीत लिखे। और वे सभी हिट और सुपर हिट की श्रेणी में दर्ज हुए। उन्होंने १९५१ में एक फ़िल्म 'हलचल' की पटकथा भी लिखी थी। उन्हें वर्ल्ड यूनिवर्सिटी राउंड टेबुल से डॉक्टरेट अवार्ड से और उर्दू सम्मेलन से साहित्य के जोश मलीहाबादी अवार्ड से भी सम्मानित किया गया।
हसरत साहब ने १९५३ में अपनी माँ की पसंद की लड़की से निकाह किया। उनकी शरीक-ए-हयात का नाम बिलक़िस बेग़म था और वे हसरत साहब के लिए किसी मजबूत स्तंभ सी थीं। वे उनकी वित्तीय सलाहकार भी थीं। उन्होंने ज़मीन-जायदाद बनाने में धन लगाया। एक दौर ऐसा भी आया जब उन्हें कम गीत मिल रहे थे, तब प्रॉपर्टी से किराये के रूप में आ रहे धन ने उनकी आर्थिक स्थिति को संभाले रखा। हसरत साहब के दो बेटे और एक बेटी हैं। बेटों के नाम अख़्तर और आसिफ़ हैं और बेटी का नाम किश्वर है। अपने बड़े बेटे के जन्म पर, उसका प्यार सा चेहरा देखकर उन्होंने कहा, ‘तेरे प्यारी प्यारी सूरत को किसी की नज़र न लगे, चश्मेबद्दूर।’ जिसे फिर ससुराल फ़िल्म की एक परिस्थिति के लिए गीत में ढाला गया।
स्वादिष्ट खाना खाने के शौक़ीन, अपने भाई-बहन से स्नेह, अपनी बेग़म और तीनों बच्चों से बेइंतहा मुहब्बत करने वाले हसरत जयपुरी, अपनी माँ को बहुत प्यार और सम्मान देते थे। वे कहते थे, "अगर कुफ़्र का डर न होता तो मैं अपनी माँ को ख़ुदा कहता।"
अपने बचपन के दोस्तों को वे कभी नहीं भूले। जो भी मुंबई आता, वे सबसे बड़े प्रेम से मिलते। दोस्ती उन्होंने अपनी टीम के दोस्तों से भी खूब निभाई। जयकिशन और शैलेंद्र के गुज़र जाने के बाद वे बिल्कुल टूट गए थे। अपने गीतों के कद्रदानों और मुहब्बत करने वाले दोस्तों के लिए ही जैसे उन्होंने लिखा था,
‘एहसान मेरे दिल पे तुम्हारा है दोस्तों
ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तों’ (गबन)
इस गीत को वे जीते भी थे। उनके सीधे सादे व्यक्तित्व की तरह उनके लेखन का तरीक़ा भी बिल्कुल सादा था। उन्हें लेखन के लिए एकांत की ज़रूरत नहीं होती थी। वे अपने बच्चों के बीच बैठ कर भी गीत लिख लिया करते थे। पार्कर पेन और डायरी हमेशा साथ होती। अपने काम के प्रति समर्पित रहे। सिर्फ़ ख़ूबसूरत चेहरे ही उनकी प्रेरणा नहीं होते थे, छोटे बच्चे, पक्षी, दुःखी, कमजोर इंसान भी उन्हें कलम चलाने को प्रेरित करते थे। संवेदनशीलता उनमें कूट-कूट भरी थी।
नए संगीतकारों के द्वारा राग-रागिनियों की धुनें छोड़कर, वेस्टर्न म्यूज़िक अपना लिए जाने से थोड़ा नाराज़ रहा करते थे। वह दिन भी आया जब हसरत साहब की कलम तो खामोश हो गई, लेकिन उनके रचे गीतों के बोल उनके संगीतप्रेमियों के दिल की आवाज़ बने रहे। १७ सितंबर १९९९ को उन्होंने इस संसार को अलविदा कहा।
‘हाँ, तुम मुझे यूँ भुला ना पाओगे,
जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे
संग संग तुम भी गुनगुनाओगे’
फिल्मी गीतों से इतर, हसरत साहब के कुछ चुनिंदा अशआर :
कहीं वो आ के मिटा दें न इंतिज़ार का लुत्फ़
कहीं क़ुबूल न हो जाए इल्तिजा मेरी
जब प्यार नहीं है तो भुला क्यूँ नहीं देते
ख़त किस लिए रक्खे हैं जला क्यूँ नहीं देते
हम रातों को उठ उठ के जिन के लिए रोते हैं
वो ग़ैर की बाँहों में आराम से सोते हैं
ख़ुदा जाने किस किस की ये जान लेगी
वो क़ातिल अदा वो क़ज़ा महकी महकी
ये किस ने कहा है मिरी तक़दीर बना दे
आ अपने ही हाथों से मिटाने के लिए
हसरत जयपुरी : जीवन परिचय |
पूरा नाम | हसरत जयपुरी / इकबाल हुसैन |
जन्म | १५ अप्रैल १९२२, जयपुर, राजस्थान, भारत |
निधन | १७ सितंबर,१९९९, मुंबई, महाराष्ट्र, भारत |
पिता | नाज़िम हुसैन (फौजी) |
माता | फ़िरदोसी बेग़म |
पत्नी | बिलकिस बेग़म |
पुत्र | अख़्तर जयपुरी, आसिफ़ जयपुरी |
पुत्री | किश्वर जयपुरी |
शिक्षा | प्रारंभिक शिक्षा / हिंदी, उर्दू, फ़ारसी, ब्रज भाषा की तालीम |
व्यवसाय |
१९४० | मुंबई की बेस्ट सर्विस में बस-कंडक्टर |
१९४९ | फ़िल्म जगत में गीतकार |
मन व कर्म से | शायर, गीतकार (आजीवन) |
गीत-संसार |
ग़ज़ल संग्रह | अबशार-ए-ग़ज़ल |
१९५१ | फ़िल्म हलचल का पटकथा लेखन |
१९४९-१९९० | ३५० फ़िल्मों में २००० गीत - रुख से ज़रा नकाब उठा दो, मेरे हुज़ूर (मेरे हुज़ूर)
- देखा है तेरी आँखों में,प्यार ही प्यार बेशुमार (प्यार ही प्यार)
- हमको तो जान से प्यारी हैं तुम्हारी आँखें (नैना)
- तेरी ज़ुल्फ़ों से जुदाई तो नहीं मांगी थी (जब प्यार किसी से होता है)
- ए गुलबदन
- फूलों की महक, काँटों की चुभन (प्रोफ़ेसर)
- तुम कमसिन हो नादां हो (आई मिलन की बेला)
- हम तुम से मोहब्बत करके सनम (आवारा,१९९५ )
- इचक दाना बीचक दाना (श्री४२०,१९५५)
- आजा सनम मधुर चांदनी में हम (चोरी-चोरी, १९५६)
- बन के पंछी गाए प्यार का तराना (अनाड़ी, १९५९)
- ए सनम जिसने तुझे चाँद सी सूरत दी है (दीवाना, १९६७)
- चले जाना ज़रा ठहरो किसी का दम निकलता है (एराउंड द वर्ल्ड, १९६७)
- ओ मेहबूबा ओ मेहबूबा (संगम, १९६४)
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शीर्षक गीत | - दीवाना मुझको लोग कहें (दीवाना)
- दिल एक मंदिर है (दिल एक मंदिर)
- रात और दिन दीया जले (रात और दिन)
- इक घर बनाऊंगा तेरे घर के सामने (तेरे घर के सामने)
- ऐन इवनिंग इन पेरिस (ऐन इवनिंग इन पेरिस)
- गुमनाम है कोई बदनाम है कोई (गुमनाम)
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अंतिम गीत | २००४ की फ़िल्म हत्या में |
संगीत निर्देशक, जिनके साथ काम किया | - शंकर जयकिशन/ अनगिनत गीत
- आर सी बोराल / दर्दे दिल
- ख़ुर्शीद अनवर / नीलम परी
- वसंत देसाई / झनक झनक पायल बाजे
- ओ पी नैय्यर / ५ फ़िल्म
- मदन मोहन / ५ फ़िल्म
- सी रामचंद्र / अनारकली, रूठा न करो
- एस डी बर्मन / तेरे घर के सामने , ज़िद्दी
- आर डी बर्मन / भूत बंगला
- कल्याण जी / ५-७ फ़िल्म
- लक्ष्मीकांत प्यारे लाल/ आखिरी दांव
- दत्ता राम / ११ फ़िल्म
- राम लाल / सेहरा , गीत गाया पत्थरों ने
- व अन्य नए संगीतकार
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पुरस्कार |
- फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ गीतकार पुरस्कार – १९७२ ‘ज़िंदगी एक सफर है सुहाना’ (अंदाज़, १९७१ ) के लिए
- फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ गीतकार पुरस्कार – १९६६ ‘बहारों फूल बरसाओ’ (सूरज, १९६६) के लिए
- उर्दू सम्मेलन से जोश मलीहाबादी पुरस्कार
- डॉ० अंबेडकर पुरस्कार - ‘झनक झनक तोरी बाजे पयालिया’ मेरे हुज़ूर, (१९६८) एक ब्रजभाषा गीत के लिए
- वर्ल्ड यूनिवर्सिटी राउंड टेबल से डॉक्टरेट की उपाधि।
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- किश्वर जयपुरी जी से मिली जानकारियाँ
- कविताकोश
- यू-ट्यूब पर उपलब्ध साक्षात्कार
- यह लेख, हसरत साहब की बेटी किश्वर जयपुरी जी से मिली जानकारियों पर आधारित है। मैँ उनका आभार व्यक्त करती हूँ।
आभा खरे
बी० एस० सी० ( जीव विज्ञान)
गृहिणी
संप्रति : स्वतंत्र लेखन
हिंदी से प्यार है 😊
किताबें पढ़ने में मन रमता है
पिछले दो साल से 'कविता की पाठशाला' से जुड़ी हूँ।
khareabha05@gmail.Com
आभा जी, बहुत खूब मजा आ गया पढ़ कर।
ReplyDeleteवाह कमाल लिखा बहुत बधाई आपको।
ReplyDeleteआभा जी, हसरत जयपुरी के गानों ने कितनों के दिलों में ख़ूबसूरत हसरतें जगाईं, उनकी मुहब्बत को अल्फ़ाज़ दिए, धड़कनों को ज़ुबान दी; ऐसे हर दिल चहेता शायर को उनके शताब्दी वर्ष में आपका आलेख उम्दा खिराजे अक़ीदत है। आपने उनकी ज़िंदगी और शायरी का उम्दा खाका खींचा है। आपकी लेखन शैली जीवंत और बाँध कर रखने वाली है। बहुत बहुत बधाई और शुक्रिया।
ReplyDeleteहसरत जयपुरी पर रोचक और जानकारीपूर्ण आलेख पढ़कर मज़ा आ गया। आभा जी, महान शायर और गीतकार की दिलचस्प जीवनयात्रा को बख़ूबी समेटा है आपने। इसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteआदरणीया आभा जी इतनी खूबसूरती से प्रसिद्ध गीतकार और रचनाकार हसरत जयपुरी जी की जीवनी और संघर्ष भरी फिल्मी दुनियां की काहानी को लेकर विस्तृत वर्णन पढ़कर बहुत अच्छा लगा। उनकी कलम / रचना से जिंदगी के उतार-चढ़ाव और हकीकत से मुलाकात कराती थी। अपने नित्यंत शोधपरख और कुशल शब्दावली से लिखा गया यह आलेख इतना रोचक और जानकारीपूर्ण हैं कि एक सांस में पढ़कर ही दम लेने की इच्छा हुई। हसरत साहब के कुछ व्यक्तिगत पहलुओं पर प्रकाश डालकर आभा जी ने हमें उनके जीवन का आत्मसात कराया हैं। अतिसुन्दर लेख के लिए आपका आभार और अग्रिम सारे लेख के लिए हार्दिक अभिवादन।
ReplyDeleteभारतीय सिने जगत को अपने गीतों के माध्यम से रोशनी प्रदान करने वाले शायर/गीतकार हजरत जयपुरी साहब की जिंदगी की दास्तां और गीतों की मिठास को इस अनुपम लेख के माध्यम से आभा जी ने बखूबी अभिव्यक्त किया है। शुभकामनाएं और बधाई ......
ReplyDeleteआभा जी नमस्ते। आपको इस गीतमय लेख के लिये हार्दिक बधाई। आपने हसरत जयपुरी साहब पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। इस लेख में आपने जयपुरी साहब के जीवन और फिल्मी सफ़र को बखूबी लेख में समेटा। उनका हर एक गीत बेहतरीन है फिर भी आपने उनके चुनिंदा गीतों को पंक्तियों को लेख में सम्मिलित कर लेख को और सरस और रोचक बना दिया है। आपको इस उम्दा लेख के लिये हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसुन्दर आलेख
ReplyDeleteहसरत जयपुरी के सम्बन्ध में आपका आलेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा, बधाई !
ReplyDelete-आशा बर्मन, हिंदी राइटर्स गिल्ड,कैनेडा
आभा जी, इस रोचक आलेख के द्वारा आप मुझे अतीत की गलियों में ले गईं| यही गीत सुनते, गुनगुनाते और शादी ब्याह में ढोलक की थाप पर गाते गाते ही तो हम बड़े हुए हैं| लेख में शुरू से अंत तक ऐसा लगा जैसे कोई चलचित्र देख रही हूँ, जिसमें यह गीत हैं| आपकी भाषा ने ऐसे बाँध के रखा| बहुत ही सुन्दर आलेख| बधाई आपको|
ReplyDeleteवाह बहुत-से सुंदर गीतों और गजलों के साये में ढला खूबसूरत आलेख, आभा। हसरत जयपुरी जी आम जनता के गीतकार हैं और आज उनके जीवन के हर एक पहलू से आपने रोचक तरीके से रूबरु करवाया। बहुत बधाई!
ReplyDeleteकिसी के बारे में लिखने से ज्यादा अहम है कि उनके बारे में रोचक ढंग से लिखना 😊
ReplyDeleteबेहद सुंदर आलेख, आभा आपको बधाई 💐