उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ ज़िले के निजामाबाद क्षेत्र में सं० १९२२ के वैशाख माह की कृष्ण तृतीया को पंडित भोलानाथ उपाध्याय की गृहस्थी में बालक अयोध्या का जन्म हुआ। बालक को पिता की कार्यकुशलता और उदारता तथा माता की विद्वता और धर्म परायणता के संस्कार मिले। अयोध्या सिंह १४ वर्ष की अवस्था में मिडिल वर्नाक्यूलर में उत्तम प्रदर्शन करने के पारितोष में सरकार से तीन रुपया छात्रवृत्ति पाकर विशेष रूप से अँग्रेज़ी की शिक्षा के लिए क्वींस कॉलेज बनारस पहुँचे। बनारस में असंयमित आहार ने अस्वस्थता का ऐसा दंश दिया कि अब घर लौटने की विवशता ही शेष बची। अब घर का आँगन ही पाठशाला बन गया और यहीं पर इन्होंने अपनी आगे की शिक्षा प्राप्त की और संस्कृत, उर्दू, फ़ारसी व अंग्रेज़ी का अभ्यास किया।
वर्ष १८८२ में विवाह हुआ और दो साल बाद निजामाबाद के ही तहसील स्कूल में अध्यापक के पद पर अयोध्या सिंह की नियुक्ति हो गई। इसी दौरान इन्हें कचहरी से जुड़ा कामकाज भाने लगा। मातृभाषा प्रेमी बा० घनपतिलाल जी के अनुरोध से, जो उस समय आजमगढ़ के सदर कानूनगो थे, उन्होंने कानूनगोई की परीक्षा में बैठने का निश्चय किया। वर्ष १८८८ में उनकी कानूनगो के पद पर नियुक्ति हुई और तब से १ नवंबर १९२३ ई० को पेंशन लेने तक, समय-समय पर उन्होंने रजिस्ट्रार कानूनगो, नायब सदर कानूनगो और गिर्दावर कानूनगो आदि कई पद संभाले। अंत में उन्होंने पाँच साल तक सदर कानूनगो के पद पर सुयश प्राप्त किया। निर्लोभी प्रवृत्ति के ये सदाचारी सज्जन मार्च १९२४ से १९४१ तक हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर के पद पर अवैतनिक कार्य करते रहे।
अयोध्या सिंह के साहित्य के प्रति लगाव के प्रेरक रहे ताऊ ब्रह्मासिंह, स्वयं साहित्यप्रेमी थे। गृहक्षेत्र निजामाबाद में ही सिख संप्रदाय के अनुगामी और मातृभाषा के प्रसिद्ध कवि बाबा सुमेर सिंह साहिबजादे के पुस्तकालय में अयोध्या सिंह ने खूब पढ़ा और काव्य रचना की ललक मन में पल्लवित हुई। प्रारंभ में जब ब्रजभाषा के प्रचलित तथा परिमार्जित छंद, कवित्त और सवैयों से लिखना शुरू किया तब नाम के साथ उपनाम 'हरिऔध' भी जोड़ लिया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के प्रभाव से उन्होंने खड़ी बोली को भी अपनाया। इस कवि ने अपनी अथाह विद्वता को दर्शाते हुए ब्रजभाषा, उर्दू जनित हिंदी, सरल साहित्यिक हिंदी और तत्सममय हिंदी में समान अधिकार से कविता की। हरिऔध जी के इस महत्व प्रतिपादित करते हुए निराला कहते हैं, "इनकी यह एक सबसे बड़ी विशेषता है कि ये हिंदी के सार्वभौम कवि हैं। खड़ी बोली, उर्दू के मुहावरे, ब्रजभाषा, कठिन-सरल सब प्रकार की कविता की रचना कर सकते हैं।"
जब अयोध्या सिंह निजामाबाद के मिडिल स्कूल में अध्यापक थे, तब बाबू श्यामसुंदर दास की प्रेरणा से 'वेनिस का बाँका' नामक उर्दू उपन्यास को शुद्ध हिंदी में तैयार किया, जो कलकत्ते की आर्यावर्त प्रेस से छपा। इस कार्य की पं० प्रतापनारायण मिश्र की प्रशंसा और अन्य सामाजिक पत्रों द्वारा सराहे जाने से अयोध्या सिंह का सम्मान बढ़ गया। हरिऔध जी ने बाबू श्याम मनोहरदास के कहने पर ही 'रिपवान विंकल' का भी उर्दू से हिंदी में अनुवाद किया। इन्होंने काशी पत्रिका के कुछ अन्य निबंधों का भी हिंदी अनुवाद किया, जिनका संग्रह 'नीतिनिबंध' के नाम से छपा। 'विनोद वाटिका' के नाम से 'गुलज़ारे दबिस्ताँ' का और 'उपदेश कुसुम' के नाम से शेखसादी शीराजी के 'गुलिस्ताँ' के आठवें परिच्छेद का अनुवाद किया। इसी के साथ बांग्ला भाषा की कई पुस्तकों का भी अनुवाद किया।
वैसे तो हरिऔध जी का मानना था कि हिंदी का सरल स्वरूप ही इसे राष्ट्रीय भाषा बना सकता है, परन्तु प्रांतीय भाषा और संस्कृत गर्भित हिंदी के साम्य पर विचार करने पर उन्होंने पाया कि प्रांतीय भाषाओं में संस्कृत शब्दों की बहुलता होने से ऐसी ही हिंदी का प्रचार समस्त प्रांतों में हो सकता है। उन्होंने 'प्रियप्रवास' को जिस हिंदी में लिखा उसका कारण यही रहा होगा। कवि पं० लोचनप्रसाद पांडेय लिखते हैं, "अभी २६-२७ दिनों तक बाहर प्रवास में था, १०-१२ दिनों तक उड़ीसा के विद्या-रसिक महाराज का अतिथि था। वहाँ राजा साहब और उनके यहाँ के प्रसिद्ध साहित्य-सेवी गण, पुरी से आए हुए कई एक संस्कृत के धुरंधर पंडित, सबों ने प्रियप्रवास की कविता सुनकर आपकी लेखनी की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। विशेष-विशेष स्थान पर तो वे बहुत ही मुग्ध हुए। कुछ अंश जो संस्कृत कवितामय कहे जा सकते हैं, उन्हें खूब रुचे।"
अयोध्या सिंह हरिऔध ने करुण रस को पद्य प्रणाली का जनक और एक सत्य का अद्भुत विकास माना है। इसकी विशेषताओं और मर्मस्पर्शिता की ओर सदैव उनका चित्त आकर्षित रहा। परिणामस्वरूप उन्होंने खड़ी बोली के पहले महाकाव्य 'प्रियप्रवास' की रचना की। इस रचना के बाद वे वैदेही-वनवास प्रणयन करना चाह रहे थे, परंतु पूरे २४ वर्षों तक यह कार्य टलता रहा। कुछ विचारों ने कवि के मन को दूसरी ओर मोड़ दिया। उन दिनों आजमगढ़ में मुशायरों की धूम थी। वहाँ उर्दू प्रेमियों का जमावड़ा हुआ करता था। हिंदी भाषा की खिल्लियाँ उड़तीं। कहा जाता था कि हिंदी वालों को बोलचाल की फड़कती भाषा लिखना ही नहीं आता। इन्हीं बातों से तिलमिलाए हुए अयोध्या सिंह हरिऔध जी के सामने जब उन्हीं के एक मौलवी मित्र ने हिंदी को लेकर कुछ व्यंग्य कसे, तो वे कैसे सहन कर सकते थे? इसी का उत्तर देने हेतु 'बोलचाल की भाषा में हिंदी कविता' का विषय लेकर एक दिन हरिऔध जी बैठे हुए कुछ सोच रहे थे। लेकिन कहते हैं न, समुद्र में डुबकी तो बहुत लोग लगाते हैं, परंतु मोती सबके हाथ नहीं लगता। उन्हीं के शब्दों में:
"विचार कहता था, जो काम तुम करना चाहते हो, वह तुम्हारे मान का नहीं, बोलचाल की भाषा में कविता-पुस्तक लिख देना हँसी-खेल नहीं। उसी समय एक मक्खीचूस आ धमके, आपको कुछ चंदा लग गया था। आप उससे अपना पिंड छुड़ाना चाहते थे। आते ही बोले, "आप अपने रूई-सूत में कब तक उलझे रहेंगे, कुछ मेरी भी सुनिए।" मैंने कहा, "क्या सुनूँ ? आप बड़े आदमी हैं, आपको कौड़ियों को दाँत से न पकड़ना चाहिए।"
यह सुनते ही वे अपना दुखड़ा सुनाने लगे, नाक में दम कर दिया, मैं ऊब उठा और अचानक कह पड़ा,
"छोड़ देगा कौड़ियों का ही बना।
यह तुम्हारा कौड़ियालापन तुम्हें।"
वे बिगड़ खड़े हुए, बोले, "वाह साहब, मैं कौड़ियाला हूँ! कौड़ियाला तो साँप होता है, क्या मैं साँप हूँ! अच्छा साँप तो साँप ही सही, कौड़ियाला ही सही, साँप का यहाँ क्या काम! कौड़ियाले को अपने पास कौन रहने देगा! अच्छा लीजिए, मैं जाता हूँ, देखूँ तो कैसे मुझसे चंदा लिया जाता है, मैं एक कौड़ी न दूँगा।"
मैंने समझा-बुझा कर उनको सीधा किया। वे चले गए, परंतु मेरा काम बना गए, इस समय साँझ फूल रही थी, मैंने सोचा इस फूलती साँझ ने ही मुझे एक अछूता फूल दे दिया। मैंने पद्य को यों पूरा किया -
कौड़ियों को ही पकड़ते दाँत से
चाहिए ऐसा न जाना बन तुम्हें
छोड़ देगा कौड़ियों का ही बना।
यह तुम्हारा कौड़ियालापन तुम्हें।"
पद्य पूरा होने पर जी में आया, राह खुल गई, नमूना मिल गया, अब आगे बढ़ना चाहिए। यदि ऐसी ही भाषा हो और मुहावरे की चाशनी भी चढ़ती रहे, तो फिर क्या पूछना, आम के आम और गुठलियों के दाम।"
हरिऔध जी-जान से इस काम में लग गए। इस काम के लिए उन्होंने बाल से तलवे तक तमाम अंगों के बहुत से मुहावरे चुनकर चार साल तक उन पर काम किया। उन्हीं के अनुसार जिस ग्रंथ को सात-आठ सौ पद्यों में पूरा होना था, वह लगभग पैंतीस सौ पद्यों पर समाप्त हुआ। काव्यगत विशेषताओं को लेकर बोलचाल की भाषा में लिखे गए इस ग्रंथ का नाम 'बोलचाल' ही रखा गया। बोलचाल की ही भाषा में उन्होंने 'अधखिला फूल' की रचना की। भाषा को जिस कवि की अनुचरी कहा जा सकता है, उनके विचार में ठेठ शब्दों के प्रयोग से सुविधा तो होगी ही, हिंदी का विस्तार भी होगा। वे भाषा की गहन समीक्षा करते हुए इसकी प्रत्येक शैली की उपादेयता सिद्ध करते हैं। वे कहते हैं कि हिंदी तद्भव शब्दों से बनी होने के कारण सरल व सीधी है। तद्भव शब्द ही उसके जनक हैं और उनका आधिक्य स्वाभाविक है। ठेठ प्रांतीय शब्दों अथवा ग्राम्य शब्दों का प्रयोग उसमें अच्छा नहीं समझा जाता। परंतु वहीं वे काव्य में एक उपयुक्त शब्द के रूप में ठेठ बोलचाल के शब्दों का प्रयोग आपत्तिजनक नहीं मानते। वे कहते हैं कि मैंने हिंदी भाषा के आधुनिक रूप (खड़ी बोली) के प्रधान सिद्धांतों पर दृष्टि रखकर ही 'वैदेही वनवास' के पद्यों की रचना की है। 'वैदेही वनवास' की रचना के संदर्भ में कवि कहता है, "महाराज रामचंद्र मर्यादा पुरुषोत्तम, लोकोत्तर चरित और आदर्श नरेंद्र महिपाल हैं, श्रीमती जनक नंदिनी सती-शिरोमणि और लोक-पूज्या आर्यबाला हैं। इनका आदर्श, आर्य संस्कृति का सर्वस्व है, मानवता की महनीय विभूति है, और है स्वर्गीय संपत्ति संपन्न। इसलिए इस ग्रंथ में इसी रूप में इसका निरूपण हुआ है।"
सामयिक और स्थायी साहित्य की विवेचना करते हुए अयोध्या सिंह हरिऔध कहते हैं, "सामयिक साहित्य पावस ऋतु के उस जलद जाल के तुल्य है, जो समय पर घिरता है, जल प्रदान करता है, खेतों को सींचता है, सूखे जलाशयों को भरता है, और ऐसे ही दूसरे लोकोपकारी कार्यों को करके अंतर्हित हो जाता है। किंतु स्थायी साहित्य उस जल-वाष्प-समूह के समान है, जो सदैव वायु में सम्मिलित रहता है, पल-पल पर संसार-हित-कर कार्यों को करता है, जीवों के जीवनधारण, सुखसंपादन, स्वास्थ्यवर्धन का साधन और समय पर सामयिक जलदजाल के जड़ा देने का हेतु भी होता है"। जब कवि किसी एक विचार की उंगली पकड़कर राह से निकलता है, तो उसकी लोभी आँखे दूजी राहों पर भटकती हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह एक बालक की आँखें मेले में किसी दुकान पर रखे एक खिलौने से दूसरे खिलौने पर अनायास ही भटकती रहती हैं। यही दशा हरिऔध जी की अंगों के मुहावरों पर कविता लिखने के दौरान होती थी, और वे मन में स्फुरित अन्य भावों की कविता भी लिख लेते थे। 'चौखे-चौपदे' इसी प्रकार की कविताओं का संग्रह हैं जिसमें स्थायी साहित्य के भावों और विचारों की प्रतिध्वनि है। रोचक विषयों से सुसज्जित इस रचना को 'हरिऔधे हजारा' भी कहा गया।
काशी विश्वविद्यालय में विद्यार्थी समूह द्वारा ईश्वर तथा संसार संबंधी शास्त्रीय और पौराणिक विषयों पर हो रहे तर्क-वितर्कों ने उनके हृदय में एक नवीन विचार की पौध लगाई। इस विचार पर काम करते हुए उन्होंने 'पारिजात' की रचना की, जो आध्यात्मिक और आधिभौतिक विविध विषय विभूषित एक महाकाव्य है। राष्ट्र के इस लोक हितैषी कवि हरिऔध ने १८वीं और १९वीं सदी के विद्रोहों पर देश के शहीदों को समर्पित करते हुए एक इतिहास विषयक रचना 'भारत का मुक्ति संग्राम' लिखी।
रामवृक्ष बेनीपुरी के अनुसार जब-जब उन्हें हरिऔध जी के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, तब-तब उन्होंने इन्हें कविता के बीच ही बैठा पाया। काव्य-चर्चा के व्यसनी हरिऔध जी कविकर्म को कठिन मानते हैं, जहाँ पग-पग पर जटिलताओं का सामना करना पड़ता है। उनके अनुसार सुंदर और उपयुक्त शब्द योजना ही कविता को वास्तविक कविता बनाती है, जिसके लिए कवि को अधिक सावधान रहना पड़ता है। और एक उपयुक्त शब्द के लिए किस तरह कविता का प्रवाह घंटों रुक जाता है, इसे स्पष्ट करने हेतु वे एक फारसी शायर की बात दोहराते हैं,
बराय पाकिए लफ्ज़े शवे बरोज आरंद।
कि मुर्ग माहीओ बाशंद खुफता ऊ बेदार।।
-एक सुंदर शब्द को बैठाने की खोज में कवि उस रात को जागकर दिन में परिणत कर देता है, जिसमें पक्षी से मछली तक बेखबर पड़े सोते रहते है।
कवि कर्म की दुरूहता से सचेत करने वाले हरिऔध जी यह भी कहते हैं, "कठिन अवसरों और जटिल स्थलों पर ही तो सावधानी और कार्य दक्षता की आवश्यकता होती है। हीरा जी तोड़ परिश्रम करके ही खान से निकाला जाता है। और चोटी का पसीना एड़ी तक पहुँचा कर ही ऊसरों में भी सुस्वादु तोय पाया जा सकता है।"
एक दुबले-पतले शरीर में हृष्ट-पुष्ट आत्मा का विनोद विलास जब मार्मिकता की स्याही बनकर पन्नों पर उतरा, तो एक अलग ही आत्मकथात्मक चित्रण का प्राकट्य हुआ। इससे हरिऔध जी के साहित्यिक संसार में उनकी आत्मकथा 'इतिवृत्त' का नाम भी जुड़ गया। अभिनंदनीय निस्पृहता का यह आतिथेय, जिसने अतिथि सत्कार को निज व्यक्तित्व का ध्येय माना, १६ मार्च १९४७ को अपने ही गृह क्षेत्र निजामाबाद में इस संसार से स्वयं विदा ले कर चल दिया।
- प्रियप्रवास - हरिऔध
- वेनिस का बाँका - हरिऔध
- वैदेही वनवास - हरिऔध
- इतिवृत्त - हरिऔध
- बोलचाल - हरिऔध
लेखक परिचय
सृष्टि भार्गव
कुछ भाव बिखरते हैं शब्दों में
उन्हें समेट लूँ या छोड़ दूँ?
मैं भोर समेटूँ नयनों में
या इन किरणों को ओज दूँ?
हिंदी विद्यार्थी
बहुत ही प्रेरक व तात्विक-विवेचन के साथ आलेख के लिए सृष्टि की रचना को साधुवाद!
ReplyDeleteसृष्टि जी नमस्ते। आपको बहुत बहुत बधाई। आपने अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। हरिऔध जी कविताएँ हम सभी ने छोटी बड़ी कक्षाओं में पढ़ी हैं, और वो आज भी गुनगुना लेते हैं। वो मेरे पसंदीदा कवियों में सम्मिलित है जिनको पढ़कर आज भी मन आनन्दित हो उठता है। आपके इस लेख को पढ़कर भी आनन्द गया। आपने बहुत ही रोचक लेख लिखा है। आपको इस बढ़िया लेखन के लिये बधाई एवं शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteअयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' जी के काव्य और बोलचाल हिंदी पर बेहद प्रभावी लेख हेतु सृष्टि भार्गव जी, आपका हार्दिक अभिनंदन💐 उनकी हिंदी भाषा बहुत चर्चित कविता जो मुझे अत्यंत प्रिय है।
ReplyDeleteगुरु गोरख ने योग साधाकर जिसे जगाया।
औ कबीर ने जिसमें अनहद नाद सुनाया।
प्रेम रंग में रँगी भक्ति के रस में सानी।
जिस में है श्रीगुरु नानक की पावन बानी।
हैं जिस भाषा से ज्ञान मय आदि ग्रंथसाहब भरे।
क्या उचित नहीं है जो उसे निज सर आँखों पर धारे।4।
सृष्टि, अत्युत्तम लेख। बचपन में 'हरिऔध' जी की कविताएं पढ़ीं, खूब गुनगुनाईं, आनंद भी बहुत आया। लेकिन उसके बाद कुछ सिला यूँ रहा कि उनका न कुछ पढ़ा और न ही उन्हें कभी ठीक से जानने का मौक़ा मिला। आज के तुम्हारे सुगठित और प्रवाहमय लेख को पढ़कर कुछ रिक्तियाँ भर गईं, और वहीँ उनकी रचनाओं को बेहतर जानने की जिज्ञासा खड़ी हो गयी। सुन्दर और जानकारीपूर्ण लेख के लिए आभार और बधाई, बहुत-बहुत शुभकामनाओं के साथ।
ReplyDeleteवाह सृष्टि जी बहुत ही रोचक, सुगठित तथ्यपरक लेख लिखा है। आप द्वारा सरल और सहज शैली में लिखे गए इस लेख को पढ़ते हुए मन तो बचपन की गलियों में पहुँच ही गया...साथ ही, जहाँ एक ओर'हरिऔध' जी की सिर्फ कविताओं से परिचित थे वहीं अब उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को भी और करीब से जाना-समझा। बहुत बहुत बधाई आपको।
ReplyDeleteबहुत ही सार गर्भित आलेख
ReplyDeleteनवीन जानकारियों से भरा हुआ
🙏🙏