बाल साहित्य को रूढ़िवादी परंपरागत ढाँचे से बाहर निकाल कर उसे बदलते परिवेश के अनुरूप एक नया दृष्टिकोण देने वाले साहसी, उत्साही, आशावादी एवं प्रयोगधर्मी लेखक के रूप में डॉ० हरिकृष्ण देवसरे को युगों-युगों तक याद किया जाएगा। डॉ० देवसरे ने बाल साहित्य को एक पूर्णतः नवीन दिशा और मार्ग दिया। उन्होंने अपने समय में इस सर्वमान्य मिथक को तोड़ कर कि बाल साहित्य का अर्थ मात्र राजा-रानी, भूत-प्रेत और परी-कथाएँ होता है, स्वयं वैज्ञानिक और तार्किक आधार पर साहित्य सृजन करना प्रारंभ किया और इस प्रकार साहित्य के लगभग एक उपेक्षित क्षेत्र को नया आयाम देकर उसमें आपार संभावनाओं को जीवित कर दिया। उस समय, जब साहित्यकार इस क्षेत्र को दोयम दर्जे का क्षेत्र समझा करते थे और इस क्षेत्र में पदार्पण करने से भी कतराते थे, डॉ० देवसरे ने सभी पूर्वाग्रहों, चिंताओं और आशंकाओं को दरकिनार करते हुए, अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को प्रमुखता देते हुए इस चुनौतीपूर्ण कार्य को अपने हाथ में लिया और इस क्षेत्र को भविष्य के लिए अत्यंत आकर्षक तथा महत्त्वपूर्ण बना दिया। इतना आत्मविश्वास और लक्ष्य के प्रति दृढ़ प्रतिबद्धता विरले ही लोगों में होती है, जो अपने स्थापित प्रतिष्ठित कैरियर को तिलांजलि देकर एक ऐसे विषय को अपनी साधना का केंद्र बनाएँ, जो तमाम अनिश्चितताओं और चुनौतियों से परिपूर्ण हो। उस पर तुर्रा यह कि आपके तमाम शुभचिंतक और आत्मीय इससे इतर राय रखते हों और आपको कदम-कदम पर आलोचनाएँ और हतोत्साहन ही अपने साथ खड़े मिलते हों। किंतु डॉ० देवसरे ने न सिर्फ़ यह बीड़ा उठाया बल्कि अपनी ईमानदार लगन और अभूतपूर्व संघर्ष के माध्यम से अपने अभीष्ट को प्राप्त करने में पूर्णतः सफल हुए। उनके प्रयासों का ही नतीजा है कि वर्तमान में न सिर्फ़ बच्चों के लिए उत्कृष्ट बाल साहित्य उपलब्ध है, बल्कि अनेक प्रतिष्ठित बाल साहित्यकार भी हैं, जो लगातार अनुपम और उच्चस्तरीय बाल साहित्य का सृजन कर रहे हैं।
जीवन परिचय
मध्यप्रदेश का पन्ना और समीपवर्ती ज़िले हीरे और पन्ने की खदानों के लिए प्रसिद्ध हैं। डॉ० हरिकृष्ण देवसरे नामक साहित्य के इस हीरे का जन्म भी ९ मार्च १९३८ को पन्ना के सीमावर्ती ज़िले सतना के एक छोटे से शहर नागौद में हुआ था। इनके पिता श्री इक़बाल बहादुर देवसरे साहित्यकार थे। वे मुंशी प्रेमचंद के साहित्यिक सखा थे। इक़बाल बहादुर पेशे से शिक्षक थे। बालक हरि को साहित्य सृजन के बीज पिता से विरासत में तो मिले ही थे, इसके अलावा उनके व्यक्तित्व के निर्माण में बड़ा योगदान उनके दादाजी द्वारा सुनाई गईं अनगिनत कहानियों का भी रहा।
देवसरे जी भारत में बाल साहित्य में पीएचडी करने वाले पहले व्यक्ति थे। इन्होंने पीएचडी के बाद १९६० से आकाशवाणी में अपनी सेवाएँ देनी आरंभ कीं और वर्ष १९८४ तक लगभग २४ वर्षों तक आकाशवाणी के विभिन्न कार्यक्रमों का लेखन प्रसारण तथा विभिन्न महत्त्वपूर्ण पदों पर रहते हुए कार्यक्रम संयोजन का कार्य करते रहे। उन्होंने 'विज्ञान प्रसार' में मानद फ़ेलो और विशेष सलाहकार के तौर पर भी कार्य किया। किंतु वर्ष १९८४ में आपने इन कार्यों से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर उस महत्त्वपूर्ण कार्य को करने का निर्णय लिया, जो उन्हें सदा से ही उद्वेलित करता रहा था और संभवतः जिस महत्त्वपूर्ण कार्य को वे अपने जीवन का मिशन मानते थे। उन्होंने १९८४ में टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह की बच्चों की पाक्षिक बाल-पत्रिका 'पराग' का संपादन अपने हाथ में लिया और १९९१ तक सफलतापूर्वक इस कार्य को करते रहे। इस अल्प अवधि के दौरान ही उन्होंने बाल साहित्य के क्षेत्र में कई नूतन प्रयोग किए। उन्होंने बच्चों के लिए मौलिक लेखन को प्राथमिकता और प्रोत्साहन दिया। बाल एकांकी, एकल एकांकी और विज्ञान कहानियों जैसे नए प्रयोग किए। किशोरों हेतु यह पत्रिका उनके बौद्धिक विकास और चेतना जागृति के लिए मील का पत्थर साबित हुई। पराग में 'पराग गोष्ठी' नाम से एक स्तंभ आता था, जिसमें किसी एक विषय पर बच्चे अपने विचार रखते थे। इसी प्रकार 'पुस्तक चर्चा', 'पराग टाइम्स', 'जासूसी धारावाहिक' इत्यादि कई ऐसे नियमित स्तंभ पराग में प्रकाशित किए जाते थे, जिनमें बच्चों के बौद्धिक विकास के लिए अत्यंत उपयोगी सामग्री उपलब्ध होती थी। 'बड़ों से साक्षात्कार' भी एक अभूतपूर्व प्रयोग था, जिसमें बच्चे विभिन्न क्षेत्रों की महान विभूतियों का साक्षात्कार करते थे, उनके अनुभवों से लाभान्वित होते थे और अपनी बालसुलभ जिज्ञासाओं का समाधान उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं के संबंध में किए गए प्रश्नों के उत्तरों के माध्यम से करते थे। वह प्रयोग बड़ा लोकप्रिय हुआ था। मुझे एक घटना याद आती है। उन्होंने १९८४ में पराग में 'कहानी बनाओ' नाम से एक प्रतियोगिता प्रारंभ की थी, जिसमें कहानी का एक अंश प्रकाशित किया जाता था और बच्चों को उसके आधार पर पूरी कहानी लिखनी होती थी। मैंने भी अपने छोटे भाई के साथ मिलकर एक कहानी लिखकर उस प्रतियोगिता में भाग लिया था। हमारी कहानी प्रतियोगिता में विजेता कहानी घोषित की गई थी। पराग के उस अंक की कॉम्प्लीमेंट्री कॉपी आज तक हमारे पास सुरक्षित रखी है, पुरस्कार राशि भी कई दिनों तक सहेज कर रखी थी। देवसरे जी इस प्रकार की छोटी-छोटी प्रतियोगिताओं और खेलों के माध्यम से किशोरों में साहित्यिक रुचि और सृजनशीलता का बीजारोपण करने का प्रयास किया करते थे। मैं और मेरा भाई उसके जीवंत उदाहरण हैं, ऋणी और कृतज्ञ भी।
साहित्य साधना और उपलब्धियाँ
डॉ० देवसरे पचास वर्षों से अधिक समय तक साहित्य साधना में रत रहे और निरंतर अमूल्य साहित्य का सृजन करते रहे। 'तुलसी के गीतिकाव्य', 'अगर ठान लीजिए', 'ख़ाली हाथ', 'कक्षा में शिक्षा मनोविज्ञान', 'अथ नदी कथा', 'पर्वत गाथा’ इत्यादि उनके कुछ उल्लेखनीय कार्यों में सम्मिलित हैं। वर्ष १९६८ में प्रकाशित उनके शोध ग्रंथ 'हिंदी बालसाहित्य : एक अध्ययन' तथा बालसाहित्य समीक्षा पर उनके द्वारा रचित एक प्रामाणिक ग्रंथ 'बाल साहित्य : रचना और समीक्षा' आज भी शोधार्थियों द्वारा संदर्भ ग्रंथ के रूप में प्रयोग किए जाते हैं।
इसके अतिरिक्त बालसाहित्य पर समीक्षा ग्रंथ 'बालसाहित्य : मेरा चिंतन', हिंदी में एण्डरसन की संपूर्ण कहानियों का पहला संग्रह 'हंस एण्डरसन की कहानियाँ ' (दो भाग), हिंदी में ग्रिम की संपूर्ण कहानियों का पहला संग्रह 'ग्रिम बंधुओं की कहानियाँ' (दो भाग), विभिन्न भारतीय भाषाओं की प्रतिनिधि बाल कहानियों का संकलन 'भारतीय बाल कहानियाँ ', विभिन्न भारतीय भाषाओं के बाल साहित्य का विशद समीक्षात्मक परिचय 'भारतीय बाल साहित्य' इत्यादि उनके महत्त्वपूर्ण कार्यों में सम्मिलित हैं। अंतर्राष्ट्रीय बाल वर्ष (१९७९) में डॉ० देवसरे ने हिंदी बाल साहित्य को 'बच्चों की सौ कविताएँ', 'बच्चों के सौ नाटक', 'बच्चों की सौ कहानियाँ' नामक उत्कृष्ट ग्रंथ दिए। इन पुस्तकों में उन्होंने वर्ष १९०० से आरंभ करते हुए लगभग ७९ वर्ष की बाल साहित्य यात्रा का आकलन प्रस्तुत किया है। उन्होंने तीन सौ से अधिक बाल पुस्तकों का लेखन किया है।
देवसरे जी ने बच्चों के लिए टी० वी० धारावाहिकों का लेखन भी किया, जिनमें आज़ादी की कहानी, सौ बात की एक बात, छुट्टी का स्कूल, कैसे बना मुहावरा, कैसे बनी कहानी, छोटी सी बात, देखा-परखा सच, हमारे राष्ट्रीय चिह्न इत्यादि उल्लेखनीय हैं। बच्चों के लिए उन्होंने दो टेली फिल्में - 'अंतरिक्ष का यात्री' और 'हीरा' लिखीं। रेडियो के लिए अनेक धारावाहिक रचे, जिनमें से 'विज्ञान विधि', 'स्वतंत्रता संग्राम की अमर गाथा', 'महानाटक', 'ज़ाफ़रान के फूल', 'भव भय हरम्', 'नया सवेरा' अत्यंत लोकप्रिय हुए। उन्होंने दूरदर्शन के लिए भी कुछ धारावाहिकों का लेखन किया था, जिनमें प्रमुख रूप से 'ख़ाली हाथ', 'दरार' व 'प्रहरी' बहुचर्चित हुए।
देवेंद्र कुमार के साथ एक साक्षात्कार में उनके द्वारा यह पूछे जाने पर कि, - आप बाल साहित्यकारों में शीर्ष बिंदु पर हैं, क्या आप बाल साहित्य की वर्तमान स्थिति से संतुष्ट हैं? डॉ० हरिकृष्ण देवसरे ने कहा - "इस प्रश्न का एक सरल उत्तर 'हाँ ' या 'नहीं' में नहीं दिया जा सकता। बाल साहित्य की समग्रता को एक चौखटे में बाँधकर नहीं देखा जा सकता। मैं कहना चाहूँगा, संतुष्ट हूँ भी और नहीं भी। संतुष्ट होना क्या किसी कर्म की अंतिम स्थिति मानी जानी चाहिए? यदि नहीं, तो फिर इस प्रश्न के अनेक कोण हैं और हर कोण के अनेक उत्तर हो सकते हैं।"
इसी साक्षात्कार में बाल साहित्य के प्रचार प्रसार बढ़ाए जाने के उपायों के बारे में चर्चा करते हुए वे कहते हैं - "इसकी शुरूआत हर उस घर से हो जहाँ बच्चे मौज़ूद हैं। सबसे पहले तो बाल पुस्तकों की उपस्थिति घर में दर्ज होनी चाहिए। घर के बजट में बच्चों की पुस्तकों के लिए एक राशि रखी जानी चाहिए। जन्मदिन के अवसर पर भेंट स्वरूप श्रेष्ठ पुस्तकें दी जा सकती हैं। गिफ्ट शॉप्स में एक कोना बाल पुस्तकों का रह सकता है। स्कूली पुस्तकालयों की बंद अलमारियों के ताले खोल दिए जाने चाहिए। इसके अतिरिक्त बाल साहित्य के प्रोत्साहन व प्रचार प्रसार के लिए और भी कई तरीके अपनाए जा सकते हैं।"
इन दो उत्तरों के माध्यम से डॉ० देवसरे की बाल साहित्य के संबंध में जीजिविषा और कार्य योजना को समझा जा सकता है। दिनांक १४ नवंबर २०१३ को, उस दिन जब देश में बाल दिवस मनाया जाता है, बाल साहित्य के इस संत ने संसार से अलविदा ली। देवसरे जी द्वारा शुरू किए गए कार्यों को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से उनके परिजनों, मित्रों और समर्थकों के प्रयास से 'हरिकृष्ण देवसरे बाल साहित्य न्यास' पुरस्कार आरंभ किया गया। साल २०१४ से हर वर्ष देश के शीर्ष बाल साहित्यकारों को उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए यह पुरस्कार दिया जा रहा है। देवसरे जी अपनी कार्य योजनाओं को साकार करने के लिए हमारे बीच नहीं हैं, किंतु उनकी परिकल्पनाओं को मूर्त रूप दिया जाना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
डॉ० हरिकृष्ण देवसरे : जीवन परिचय |
जन्म | ९ मार्च, १९३८, नागौद, मध्य प्रदेश |
निधन | १४ नवंबर, २०१३ |
पिता | श्री इक़बाल बहादुर देवसरे |
पत्नी | श्रीमती विभा देवसरे |
संतान | शशांक देवसरे, क्षिप्रा (देवसरे) भारती और शशिन देवसरे |
व्यवसाय | लेखक, संपादक |
भाषा | हिंदी |
कर्मभूमि | भारत |
शिक्षा एवं शोध |
स्नातकोत्तर (हिंदी) सागर विश्वविद्यालय, सागर (म० प्र०) पी० एच० डी० हिंदी भाषा में बालसाहित्य विषय पर जबलपुर विश्वविद्यालय से
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साहित्यिक रचनाएँ |
डाकू का बेटा सोहराब-रुस्तम आल्हा-ऊदल महात्मा गाँधी भगत सिंह मील के पहले पत्थर प्रथम दीपस्तम्भ दूसरे ग्रहों के गुप्तचर
| उड़ती तश्तरियाँ आओ चंदा के देश चलें स्वान यात्रा लावेनी घना जंगल डॉट कॉम खेल बच्चे का गिरना स्काई लैब का मंगल ग्रह में राजू
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पुरस्कार और सम्मान |
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संदर्भ
लेखक परिचय
अमित खरे
पद - संयुक्त संचालक
विभाग - मध्य प्रदेश विद्युत नियामक आयोग, भोपाल (म० प्र०)
शिक्षा - विद्युत अभियांत्रिकी में स्नातकोत्तर उपाधि।
प्रकाशन - विभिन्न ई-पत्रिकाओं एवं समाचारपत्रों में रचनाएँ प्रकाशित। विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में विजेता। विगत दो वर्षों से 'कविता की पाठशाला' व्हाट्सएप्प समूह की सक्रिय सदस्यता।
मोबाईल - 9406902151, ई-मेल - amit190767 @yahoo.co in
वाह, मैंने भी पराग खूब पढ़ी है। बहुत बढ़िया आलेख के लिए धन्यवाद।
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ReplyDeleteअमित जी, बाल साहित्यकार ड़ॉ हरिकृष्ण देवसरे जी पर आपका सारगर्भित आलेख पढ़कर मजा आया। दरअसल बच्चों के लिए अच्छा साहित्य रचना, जो उनमें जिज्ञासा जगाये रखे, मुश्किल ही नहीं, चुनौती भरा काम है। देवसरे जी ने मानवीय मूल्यों और वैज्ञानिक सोच के साथ बच्चों को जागरुक करने वाला साहित्य रचा। देवस्वरूप देवसरे की साधना को नमन! आपको बधाई और भावी लेखन के लिए शुभकामनाएँ।
अमित जी, आपके आलेख से बचपन की कितनी यादें ताज़ा हो गयीं, एक पराग को पढ़ने के लिए चार के बीच होड़। हरिकृष्ण देवसरे के व्यक्तित्व और बाल साहित्य के प्रति उनके जज़्बे को जानकर अभिभूत हूँ; जीवन का लक्ष्य साधा और सतत उस राह पर चलते रहे, बच्चों के सर्वांगीण विकास में लगे रहे और साहित्य सृजन के प्रति बच्चों को प्रेरित करते रहे, आप और आपके भाई उसके उम्दा नमूने हैं। इस अनुपम लेखन और परिचय के लिए आपका आभार और बधाई।
ReplyDeleteबढ़िया लिखा है, अमित जी। आपकी मेहनत साफ़ झलकती है। बधाई। पराग मेरी भी प्रिय पत्रिका हुआ करती थी। चित्र- शीर्षक प्रतियोगिता में एक बार प्रथम पुरस्कार मिला था ; १५ रुपए का मनी ऑर्डर भी मिला था डाकिये के माध्यम से। 😊 डॉक्टर देवसरे जी का बाल साहित्य पर किया गया काम प्रभावित भी करता है और प्रेरक भी है। आप और हम जो खेल खेल में हिंदी का प्रयास कर रहे हैं , इसमें उनसे सीखने को बहुत कुछ है। ईश्वर हमें भी बच्चों को सिखाने के लिए ऐसे ही बल-बुद्धि-सामर्थ्य दें । 🙏💐
ReplyDeleteअमित जी नमस्कार। डॉ. हरिकृष्ण देवसरे जी पर आपका यह लेख बहुत अच्छा बना है। हम सभी ने डॉ. देवसरे को थोड़ा बहुत जरूर पढ़ा है। आपके इस लेख के माध्यम से उनके विस्तृत सृजन को जानने का एक और अवसर मिला। आपको इस उत्तम लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteडॉ. देवसरे पर यह आलेख पढ़कर मज़ा आ गया। बचपन की ओर जाने का अवसर मिल गया, पुरानी बाल पत्रिकाएं जैसे- पराग,चाचा चौधरी आदि की सुनहरी यादें आ गईं। इस रोचक व जानदार लेख के लिए हार्दिक बधाई अमित जी।
ReplyDeleteअमित जी बहुत बढ़िया और रोचक लेख लिखा है आपने। पढ़कर मन आनंदित हुआ। एक ओर जहाँ इस लेख को पढ़ते हुए बाल-साहित्य के स्वर्णिम हस्ताक्षर डॉ हरिकृष्ण देवसरे के जीवनवृत्तांत और रचनाकर्म को करीब से जानने का अवसर मिला...वहीं दूसरी ओर पराग पत्रिका का नाम पढ़ते ही मन बचपन की गलियों में पहुँच गया। इस सुंदर लेख के लिए आपके बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteबाल साहित्य के प्रति डॉ.हरिकृष्ण देवसरे का समर्पण व जिजीविषा वास्तव में हम सभी के लिए प्रेरणा स्रोत है। बचपन में पराग तो हमने बहुत बार पढ़ी किंतु लेखक के बारे आज विस्तार से जाना है । साधुवाद अमित जी और बहुत-बहुत बधाई इस सुंदर लेख के लिए।
ReplyDeleteआदरणीय अमित जी
ReplyDeleteबहुत ही सारगर्भित आलेख लिखा है आपने। पराग प्रतिका के रचनाकार के बारे में आज पता चला कि इतने दिनों से जो बचपन में अपने सोसायटी की लायब्रेरी में पुस्तक पढ़ा करते थे वह आदरणीय डॉ देवसरे जी द्वारा रचित होती थी। बहुत रोचकपूर्ण और ज्ञानवर्धक लेख है। 300 से अधिक पुस्तकों को प्रकाशित कर बालपाठक मन पर राज कर रहे देवसरे जी को नमन आपके लेख के लिए आभार और शुभकामनाएं।
अमित जी, आदरणीय डॉ देवसरे पर शोधपरख और ज्ञानवर्धक आलेख के लिये बधाइयाँ। बच्चों को साहित्य की ओर आर्कषित करने का श्रेय इन्हें जाता है। प्रेरक व्यक्तित्व को समर्पित बढ़िया आलेख के लिए आभार और शुभकामनाएं। आपके उत्तम लेख ने मेरा परिचय डॉ देवसरे से करवा दिया, धन्यवाद।
ReplyDeleteबात १९८४ की है; गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू ही हुईं थी । पराग में ‘कहानी बनाओ’ प्रतियोगिता और उसका का prompt पढ़ कर बड़ा रोचक लगा । यही कोई तीन चार वाक्य थे जिन्हें कहानी में कहीं ना कहीं होना आवश्यक था । मैंने झट से एक कॉपी में वो वाक्य लिख लिए । कहने को तो कहानी लिखनी शुरू कर दी पर पता नहीं था कहानी है क्या । बड़े भाई अमित तब अपनी एंजिनीरिंग की प्रवेश परीक्षाओ की तैयारी में व्यस्त थे । कॉपी लेकर उनके पास गया और उन्हें प्रतियोगिता के बारे में पराग में जो छपा था दिखाया ।
ReplyDelete“तो तुमने कहानी लिखी”? दादा ने पूछा।
“हाँ! लिखनी शुरू कर दी है” मैंने झट से कॉपी दिखाई ।
दादा को हंसी आ गयी - “पर इसमें तुमने क्या लिखा है?”
“यही की मेरी कहानी भी इसी prompt से ही शुरू होती है” यह कह कर में आपने कमरे में सोने चला गया ।
सुबह उठा तो देखा की कहानी लगभग तैयार हो गयी थी । दादा ने कहानी का शीर्षक छोड़ कर कहानी पूरी लिख दी थी । कहानी में चरित्रों के नाम पर उन्होंने मेरी सलाह ली और मुझे कहा इसे भेज दो । हमारे हमउम्र चाचा उन दिनो टाइपिंग का कोर्स कर रहे थे । मैंने कॉपी उन्हें देदी और वो उसकी दो प्रतियाँ टाइप करके ले आये । बाक़ी लिफ़ाफ़े में डालने का काम मैंने किया और इस तरह कहानी का अंत हुआ। (लेखक के नाम की जगह अपना लिख दिया था - आख़िर कहानी की शुरुआत और अंत दोनों मैंने ही तो किये थे) ।
मगर ठहरें। कहानी अभी बाक़ी थी । तीन महीने बाद पराग के अंक में हमें प्रथम पुरस्कार मिला था । कहानी का अंत श्री देवसरे जी के सम्पादन से बहुत सुंदर हो गया था । आज उनका लेख देख मुझे बड़ा गर्व होता है की वो कहानी जो आज भी हम आपने संग्रहालय में संजोय हुये है उस पर कभी श्री हरी कृष्ण देवसरे की कलम भी चली थी ।
डॉ. देवसरे जी की जयंती पर उनको नमन । बड़े भाई श्री अमित को शानदार आलेख के लिए बधाई ।