Wednesday, April 6, 2022

बुलंद हो के भी आदमी अभी ख़्वाहिशों का ग़ुलाम है : जिगर मुरादाबादी

 

ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे 

इक आग का दरिया है और डूब के जाना है


प्यार-मोहब्बत का ज़िक्र हो और यह शेर होंठों पे न आए, ऐसा शायद ही मुमकिन है। इश्क़ को हमेशा अल्फ़ाज़ की दरकार होती है और अगर यह एहसास जिगर मुरादाबादी की कलम से निकलें हों तो अंदाज़े-बयाँ और भी पुर-असर हो जाता है। नाम में अपने शहर का तख़ल्लुस लगाने वाले जिगर के मुरादाबाद को पीतल नगरी के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ के पीतल के कारीगर पूरी दुनिया में अपने हुनर का लोहा मनवा चुके हैं। मुरादाबाद के ग़ज़लकारों ने भी अपनी चमकती उपस्थिति विश्व पटल पर दर्ज़ की है। उर्दू साहित्य की तमाम विधाओं में ग़ज़ल सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है और हिंदुस्तान की साँझी साहित्यिक परंपरा का उम्दा नमूना है। गंगा-जमुनी तहज़ीब में लिपटे इस साहित्यिक सफ़की शुरुआत मुरादाबाद में सत्रहवीं शताब्दी में हुई और इसके राहगीरों में हज़रत शाह बुलाकी से लेकर जिगर मुरादाबादी तक के नाम हैं, जिन्होंने इसकी पहचान को और पुख़्ता किया है। हालाँकि इस शहर में मोमिन ख़ान 'मोमिन', 'दाग़ देहलवी' और 'ग़ालिब' के भी कई शागिर्द रहते थे, पर किसी को भी वह शोहरत हासिल न हो सकी जो जिगर को मिली। वैसे तो दिल्ली के नज़दीक होने से खड़ी भाषा का प्रभाव मुरादाबाद की बोली में साफ़ झलकता है, लेकिन जब यह शहर बसाया गया था, तब वहाँ की सरकारी भाषा फ़ारसी थी। उस दौर के लेखन में भी इसकी झलक मिलती है। सत्रहवीं शताब्दी में ही ग़ज़लकार नवलराय वफ़ा का पहला दीवान छपा था, उसमें फ़ारसी के अल्फ़ाज़ ज़्यादा मिलते हैं। बीसवीं शताब्दी में मुरादाबाद में ग़ज़ल का विकास बहुत तेज़ी से हुआ; उसकी वजह थी मौलिकता और हक़ीक़त को लिखने वाले जिगर जैसे शायर का यहाँ होना। 

मुरादाबाद के लालबाग़ में सैयद अली नज़र के घर ६ अप्रैल सन १८९० को अली सिकंदर का जन्म हुआ। अली से जिगर मुरादाबादी बनने तक का उनका सफ़र विरासत में मिले लेखन से होकर गुज़रा था। उनके पुरखे मौलवी मुहम्मद समीअ बादशाह शाहजहाँ के शिक्षक थे, किंतु किन्हीं कारणों से बादशाह उनसे उखड़ गए, जिसके चलते उनके पूर्वज दिल्ली छोड़कर मुरादाबाद में आकर बस गए। जिगर के परदादा हाफ़िज़ मुहम्मद, दादा हाफ़िज़ मुहम्मद नूर 'नूर', पिता सय्यद अली नज़र, चचा अली ज़फर भी शायरी का शौक़ रखते थे।

अपने दादाजी का लिखा एक पसंदीदा शेर जिगर अक्सर दोहराया करते थे -

लुत्फ़-ए-जाना रफ़्ता-रफ़्ता आफ़त-ए-जान हो गया 

अब्र-ए-रहमत इस तरह बरसा कि तूफ़ान हो गया। 

जिगर की आरंभिक शिक्षा घर पर हुई। मुरादाबाद के मशहूर शायर मुईन-उद-दीन 'नुज़हत' से उन्होंने फ़ारसी सीखी। वालिद के इंतिक़ाल के बाद वे अपने पुलिस इंस्पेक्टर चाचा के साथ पहले बांदा फिर लखनऊ आ गए और क्रिश्चियन कॉलेज में एडमिशन लिया। नौवीं तक अँग्रेज़ी शिक्षा पाने के बाद जिगर पढ़ाई छोड़कर वापस मुरादाबाद  आ गए, लेकिन आगे फिर कभी पढ़ना नहीं चाहा। चाचा की मौत के बाद एक बार फिर दिशाहीन जिगर अपना शहर छोड़कर आगरा जाकर रहने लगे। अपना ख़र्चा चलाने के लिए काफ़ी समय तक उन्होंने चश्मा बेचने की एक कंपनी में काम किया। अकेलापन उन्हें नशे की चपेट में ले चुका था। बाद में उन्होंने वहीदन नाम की लड़की से पहले प्यार और फिर शादी कर ली और वापस  मुरादाबाद में आकर बस गए, लेकिन थोड़े ही दिनों में उनके बीच तनाव इतना बढ़ा कि वह घर छोड़ कर गोंडा (उप्र) चले गए। सफ़र, शायरी और शराब जिगर की ज़िंदगी बन चुके थे, और मन का बिखरापन लफ़्ज़ों में उतरने लगा था। 

गुलशन परस्त हूँ मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़ 

काँटों से भी निबाह किए जा रहा हूँ मैं 

गोंडा में उनकी मुलाकात असग़र गोंडवी से हुई। उनके संपर्क में आने के बाद जिगर के शेरों में परिपक्वता आने लगी। तेरह साल की उम्र से ही लेखन की शुरुआत करने वाले जिगर के पहले गुरु उनके पिता थे, फिर चंदा मुंशी हयात, बख़ुश रसा, मुंशी अमीरुल्ला तस्लीम, रसा रामपुरी और दाग़ देहलवी से उन्होंने बहुत कुछ सीखा। असग़र गोंडवी ने उन्हें बख़ूबी समझा और ख़ूब तराशा। वह जिगर की ज़िंदगी में एक स्थिरता चाहते थे, इसलिए अपनी साली नसीम से उनका निकाह भी करा दिया। लेकिन बंध कर रहना कभी जिगर का स्वभाव रहा ही नहीं। वे जितना ही नसीम का ख़याल रखते थे उतना ही अपनी आदतों से परेशान भी करते थे। ऐसी ही विपरीत स्थितियों में उन्होंने फिर शहर छोड़ना चुना। इस बार वे मैनपुरी (उप्र) निकल पड़े। जहाँ शीरज़न नाम की गायिका के साथ जिगर के अच्छे ताल्लुक़ात बन गए। वह उनकी गज़लें गाया करती थीं। अपनी साली के साथ जिगर के बेतरतीब व्यवहार को देखते हुए असग़र ने उनकी रज़ामंदी लेकर नसीम से खुद निकाह कर लिया। लेकिन असग़र गोंडवी की मौत के बाद जिगर वापस नसीम के साथ रहना चाहते थे। नसीम ने उनसे हमेशा के लिए शराब छोड़ने की शर्त रखी, जो उन्होंने न सिर्फ़ मानी बल्कि ताउम्र निभाई। हालाँकि नशे की हालत में भी जिगर बेहद संजीदा और सभ्य रहा करते थे, पर दुबारा उन्होंने शराब को हाथ नहीं लगाया। शराब छोड़ने के बाद उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता गया।  

पहले शराब ज़ीस्त थी अब ज़ीस्त है शराब 

कोई पिला रहा है पिए जा रहा हूँ मैं

जिगर कुर्ते, क़मीज़ के साथ चूड़ीदार और शेरवानी पहनना पसंद करते थे। फ़र वाली ऊँची-सी टोपी और टोपी से झाँकते लंबे बाल उनकी पहचान हुआ करते थे। जिगर को कभी फ़ीते वाले जूते पसंद नहीं आए। चेन वाले जूते उन्हें पहनने-उतारने में सुविधाजनक लगते थे। काले या बादामी रंग के जूते, कपड़ों पर पान की पीक के धब्बे, जेबों में पान और सिगरेट के डिब्बे तथा चेहरे पर मंद मुस्कान। उनका हुलिया इतना अनोखा था कि कोई भी उन्हें आसानी से पहचान लेता था। धारदार और दिल में उतर जाने वाली शायरी के कारण उनकी लोकप्रियता इस क़दर बढ़ी कि युवा शायर उनके अंदाज़ को ख़ुद के लहज़े में उतारने का जतन किया करते थे। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास में जिगर दूसरे शायर थे, जिन्हें मानद डीलिट की उपाधि मिली थी। पहले थे - मुहम्मद इक़बाल।

जिगर बहुत आदर्शवादी और नर्मदिल इंसान थे। उनकी नैतिकता से जुड़े कई क़िस्से मशहूर हैं। वह ख़ुद तकलीफ़ सह लेते थे, लेकिन किसी दूसरे को नहीं होने देते थे। यही वजह थी कि ज़िंदगी से जुड़ी उनकी शायरी में अगर एक तरफ़ हुस्न-ओ-इश्क़ और शराब थे, तो दूसरी तरफ़ सूफ़ी एहसास, सियासत और इंसानियत का ज़िक्र भी ख़ूब है। अपनी ज़िंदगी में लंबे वक़्त तक उन्होंने हुस्न और इश्क़ को एक ही पाले में रखा, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें प्रेम का शाश्वत और सात्विक रूप समझ आने लगा था और अंतिम समय तक उन्होंने नसीम से मोहब्बत निभाई। 

इश्क़-ए-ला-महदूद जब तक रहनुमा होता नहीं 

ज़िंदगी से ज़िंदगी का हक़ अदा होता नहीं 

जिगर ने ग़ज़लों के अलावा हम्द (ईशवंदना), नात (पैगंबर का वर्णन) और नज़्में भी कही हैं। ये उनके कुल्लियत (समस्त काव्य संग्रह) में 'लम आते तूर' के नाम से शामिल हैं, लेकिन इनकी संख्या ग़ज़लों से कम है। जिगर ने उर्दू के अलावा फ़ारसी में भी शायरी लिखी है, जो उनके संग्रह 'वादा-ए-शिराज़' में शामिल है। 

उनकी सूफ़ी ग़ज़ल 'ये है मय-कदा' को साबरी ब्रदर्स ,अज़ीज़ मियाँ ,मुन्नी बेगम और अताउल्लाह ख़ान ऐसाखलेवी जैसे कई सूफ़ी गायकों ने रम के गाया है और सुनने वालों ने झूम-झूमकर लुत्फ़ उठाया है। वैसे तो यह ग़ज़ल एक संजीदा ग़ज़ल है, जो ज़िंदगी के फ़लसफ़े को एक अनोखे अंदाज़ में बयाँ करती है, पर अगर अल्फ़ाज़ का जादू सिर चढ़कर बोले, तो पढ़ने-सुनने वाला उसके जादुई आग़ोश में आ ही जाता है।  

ये है मय-कदा यहाँ रिंद हैं यहाँ सबका साक़ी इमाम है 

ये हरम नहीं है ऐ शैख़ जी यहाँ पारसाई हराम है 

जो ज़रा सी पी के बहक गया उसे मय-कदे से निकाल दो 

यहाँ तंग-नज़र का गुज़र नहीं यहाँ अहल-ए-ज़र्फ़ का काम है… 

इसी काएनात में ऐ 'जिगर' कोई इंक़लाब उठेगा फिर 

कि बुलंद हो के भी आदमी अभी ख़्वाहिशों का ग़ुलाम है 

जिगर के कलाम के तीन संग्रह उनके जीवन में प्रकाशित हुए और उन्होंने फ़ौरन ही लोगों के दिलों में अपनी जगह बना ली।  

दाग़े-जिगर - यह जिगर का पहला संग्रह है, जो सन १९२२ में मिर्ज़ा अहसान अहमद एडवोकेट (आजमगढ़) ने प्रकाशित किया था। जिसमें सन १९०३ से सन १९२१ तक के कलाम शामिल हैं।

शोला-ए-तूर - यह जिगर का दूसरा संग्रह है, जो सन १९३२ में अलीगढ़ से प्रकाशित हुआ था जिसे दुबारा जिगर की पसंद के मुताबिक़ सन १९३४ में भोपाल हाउस लखनऊ से प्रकाशित किया गया। 

आतिशे-गुल - यह जिगर का तीसरा संग्रह है, जो पहली बार सन १९५४ में पाकिस्तान से छपा था, फिर सन १९५८ में नए संशोधन के साथ लखनऊ में छपा और जिगर को साहित्य अकादमी की तरफ से ५००० रुपये का इनाम और सम्मान मिला। 

यादे-जिगर - उनके इंतिक़ाल के बाद जिगर के सबसे पहले शोधकर्ता डॉ० मो० इस्लाम ने 'यादे-जिगर' के नाम से छपवाया।  

बहुत कम लोगों को पता होगा कि पेशे से हकीम, असरारुल हसन ख़ान उर्फ़ मजरूह सुल्तानपुरी लोगों की नब्ज़  देखकर दवाई दिया करते थे। लेकिन उन्हें शेरो-शायरी का इतना शौक़ था कि मेडिकल प्रैक्टिस को छोड़कर उन्होंने अपनी मनपसंद जगह मुशायरों को बना लिया था। इसी दौरान उनकी मुलाक़ात जिगर मुरादाबादी से हुई और उन्हें अपने गुरु का दर्जा देते हुए वे उनके सान्निध्य से जुड़ गए। सन १९४५ में उनकी शायरी सुनकर मशहूर निर्माता ए० आर० कारदार ने उन्हें अपनी फ़िल्म के लिए लिखने को कहा, न तो उस दौर में इतना खुलापन था न ही मजरूह ने इसकी हामी भारी। जिगर मुरादाबादी को भी फ़िल्मों में लिखने की बार-बार पेशकश मिली थी और हर बार उन्होंने नकार दिया था। लेकिन कुछ सोच कर उन्होंने मजरूह को समझाया कि पारिवारिक ख़र्चे के लिए इस काम को करने में कोई बुराई नहीं है। फिर क्या था देश को प्रसिद्ध गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी मिला और उसका नाम किसी के लिए भी अपरिचित नहीं रह गया। 

उनका जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें, 

मेरा पैग़ाम मुहब्बत है, जहाँ तक पहुंचे 

सियासी उतार-चढ़ावों से परे अपने हिंदुस्तान को बेपनाह मुहब्बत करने वाले जिगर को कई रियासतों के प्रमुख अपने दरबार से संबद्ध करना चाहते थे, लेकिन उन्होंने ये पेशकशें कभी स्वीकार नहीं कीं। पाकिस्तान से कई बार बुलाए जाने के बाद भी उन्होंने अपने देश को नहीं छोड़ा। वे हमेशा कहते थे कि जहाँ पैदा हुआ हूँ, वहीं मरूँगा। 

यह सुनता हूँ कि प्यासी है बहुत ख़ाक़-ए-वतन साक़ी 

ख़ुदा हाफ़िज़ चला मैं बाँध कर दार-ओ-रसन साक़ी


जिगर की आख़िरी ख़्वाहिश थी कि उन्हें भी उसी क़ब्रिस्तान की मिट्टी नसीब हो, जो उनके अपनों को हुई थी।  लेकिन उनके अजीब बर्ताव और शराब की लत से पैदा हुई परिवार वालों की नाराज़गी उनके दूर चले जाने से भी ख़त्म नहीं हुई थी; जिसकी वजह से उन्होंने गोंडा में रहने का मन बना लिया था। बताया जाता है कि दिल के दो दौरों को झेलने के बाद उन्हें अपनी मौत नज़दीक होने का गुमान हो गया था और वे परिचितों को अपनी चीज़ें बतौर यादगार देने लगे थे। अंतिम दिनों में उनका झुकाव आध्यात्म की तरफ हो गया था, लेकिन वे मज़हबी कट्टरता को सख़्त नापसंद करते रहे। सत्तर वर्ष की उम्र में ९ सितंबर सन १९६० को गोंडा में उन्होंने आख़िरी साँस ली। वहाँ उनके नाम पर 'दि जिगर मेमोरियल इंटर कॉलेज' है और एक आवासीय कॉलोनी का नाम 'जिगर गंज' रखा गया है। उनकी मज़ार गोंडा के तोपखाना मोहल्ले में है। मुरादाबाद में भी उनके नाम से कई कार्यक्रमों और ट्रस्ट का संचालन होता है। 'जिगर एक्सप्रेस' प्रस्तावित रेल का इंतज़ार उनका शहर कर रहा है। 

उनके ये मिसरे उनकी शख़्सियत हूबहू बयाँ करते हैं -

हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं 

हमसे ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं। 

आइए चलते-चलते उनके कुछ और अशआर से होकर गुज़रें; मुलाहज़ा फरमाएँ -  

मुहब्बत ही अपना मज़हब है लेकिन,

तरीक़ा-ए-मुहब्बत जुदा चाहता हूँ 

न जाने मुहब्बत है क्या चीज़ 

बड़ी ही मुहब्बत से हम देखते है 


न गरज़ किसी से न वास्ता, मुझे काम अपने ही काम से 

तेरे ज़िक्र से, तेरी फ़िक्र से, तेरी याद से, तेरे नाम से


आए ज़ुबाँ पे राज़े मोहब्बत मुहाल है

तुमसे मुझे अज़ीज़ तुम्हारा ख्याल है


मेरा कमाले शेर बस इतना है ऐ 'जिगर'

वो मुझ पे छा गए मै ज़माने पे छा गया


जिगर मुरादाबादी (अली सिकंदर) : जीवन परिचय

जन्म

६ अप्रैल १८९०, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश  

निधन

९ सितंबर १९६०, गोंडा, उत्तर प्रदेश 

पिता 

मौलाना अली 'नज़र'

पत्नियाँ 

वहीदन, शीरज़न, नसीम 

कर्मभूमि

मुरादाबाद, गोंडा, बाँदा  

कार्यक्षेत्र 

शायरी लेखन  

साहित्यिक रचनाएँ

शायरी संग्रह

उर्दू 

  • दाग़े-जिगर, १९२२

  • शोला-ए-तूर १९३२

  • आतिशे-गुल, १९५४

फ़ारसी

  • वादा-ए-शिराज़

सम्मान

  • साहित्य अकादमी पुरस्कार

  • आतिशे-गुल


संदर्भ

  • 'मुरादाबाद में ग़ज़ल का सफ़र' डॉ० मो० आसिफ हुसैन 

  • विशेष आभार - डॉ० मनोज रस्तोगी, मुरादाबाद 

लेखक परिचय

अर्चना उपाध्याय 

डायरेक्टर 'अंतरा सत्व फाउंडेशन'
वस्त्र मंत्रालय में डिज़ाइनर 
बुकट्यूबर 

23 comments:

  1. बहुत अच्छा लगा पढ़कर !

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  2. बहुत सुन्दर
    - बीजेन्द्र जैमिनी

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    1. हार्दिक आभार बिजेंद्र जी |

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  3. अर्चना जी, आपने जिगर मुरादाबादी की शख़्सियत और शायरी को कहानीनुमा तरीक़े से पेशकर के आलेख को अत्यंत दिलचस्प बना दिया है; उनके विस्तृत सृजन-संसार के चुनिंदे नमूने प्रस्तुत करके उनकी मक़बूलियत का परिचय दिया है। आपको इस आलेख के लिए बधाई और बहुत शुक्रिया।

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    1. बहुत - बहुत आभार प्रगति जी | आपके सधे संपादन में ये और निखर गया | शुक्रिया आपको |

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  4. बहुत अच्छा आलेख जिगर पर। बहुत अच्छा लगा।

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    1. बहुत - बहुत आभार प्रज्ञा जी |

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  5. ऐसा वाक्य तो पहली बार ही पढ़ा : “ शराब छोड़ने के बाद उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता गया।” कमाल है। 😊 अर्चना जी, आपने जिगर को बहुत रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है।बिना बनावट के, जो था , सो बयाँ किया। बधाई। जिगर के अश्आर तो फिर जिगर के अश्आर हैं। सीधे जिगर से मुख़ातिब होते हैं। 💐💐

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    1. धन्यवाद हरप्रीत जी, वाकई ये वाक्य अनूठा है। 😊
      उनके जानने वाले बताते हैं कि शराब उन्होंने जीवन की पहली प्राथमिकता जैसी बना रखी थी। जबकि नशे के बाद वो और भी शांत और मृदुल हो जाते थे फिर भी रिश्तों में तनाव का सबसे बड़ा कारण यही रहा।
      और नशा छोड़ने के बाद उन्होंने पान- सिगरेट का भी भरपूर सहारा लिया लेकिन गिरती तबियत से डॉक्टर ने उन्हें वापस पीने के लिए कहा पर वो माने नही। क्योंकि शराब छोड़ने के बाद एक बार किसी जगह पी लेने के बाद घण्टो कमरे में बन्द रोते रहने का उनका वाकया भी बहुत लोग बताते हैं।
      जब कोई उन्हें टोकता था तो उनका जवाब होता था कि मेरा खुदा मुझे शराब पिलाता है ।
      और जब पैसे नही रहते थे तो वो दोस्तों से कहते कि जिगर तुमसे पैसे मांग रहा है।
      उनके नशे से जुड़े अनेकों किस्से हैं।😊
      एक बार फिर धन्यवाद आपका

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  6. शानदार लेखन शैली । बेहतरीन प्रस्तुति । बहुत बहुत बधाई आपको ।
    डॉ मनोज रस्तोगी
    8,जीलाल स्ट्रीट
    मुरादाबाद 244001
    उत्तर प्रदेश, भारत
    मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
    Sahityikmoradabad.blogspot.com

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    1. आपका हार्दिक आभार मनोज जी,आपकी दी गई जानकारियों के बिना यह अधूरा था |

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  7. अर्चना जी नमस्ते। आपने जिगर मुरादाबादी जी पर बहुत रोचक लेख लिखा। वो उर्दु अदब के एक बेहतरीन एवं चर्चित कलमकार थे। उनके कलाम को तो पढ़ा है पर आपने इस लेख में उनके बारे में कई नई बातें सम्मिलित कर लेख को रोचक एवं जानकारी भरा बना दिया। आपको इस उम्दा लेख की लिये बहुत बहुत बधाई।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद दीपक जी, आपकी टिप्पणी सदैव उत्साह बढ़ाती है। आप सभी का लेख नियमित न सिर्फ पढ़ते हैं ,सभी को प्रेरित करते हैं।🙏

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  8. बहुत ख़ूबसूरत आलेख है ॥

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    1. धन्यवाद अनूप दा |

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  9. जिगर मुरादाबादी की शायरी और उनके जीवन के बारे में अच्छी जानकारी मिली।हार्दिक बधाई, अर्चना जी। हर कलाकार, शायर,लेखक की नियति कुछ अलग होती है। जिसे हम पढ़ते है,उसकी निजी जीवन की झलक अलग होती है। हमेशा सफलता नहीं बल्कि असफलता ने कला जीवन समृद्ध हुआ है।

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    1. कितनी गहरी लाइन कही आपने विजय जी, हमेशा सफलता नही बल्कि असफलता से भी कला जीवन समृद्ध हुआ है। सच , तकलीफों ने तो हमेशा लेखन में वजन बढ़ाया है।
      बेहद आभार आपका🙏

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  10. अर्चना,
    जिगर मुरादाबादी हमारे समय के सब से अज़ीम शायरों में से थे और एक अनूठे व्यक्तित्व के स्वामी थे । तुम्हारा यह आलेख उन्हें बहुत ख़ूबसूरती से समेटता है । 👍

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    1. जी अनूप दा। मेरा वर्तमान शहर मुरादाबाद उनकी तमाम यादें समेटे हुए है । आपको आलेख पसन्द आया दिल से आभार🙏

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  11. 'जिगर मुरादाबादी' साहब की शायरी में जो बात मुझे अच्छी लगती है (और जिसकी तरफ़ तुमने भी इशारा किया) वो है 'खड़ी बोली का प्रभाव' और सादगी। यही कारण है कि मेरे जैसे 'उर्दू अधिक न जानने वालों' की ज़बान पर भी उनके अशआर मिल जाएँगे । यही बात उनके शागिर्द 'मजरूह सुलतानपुरी' साहब में भी लगती है। मैं उनका भी ज़बरदस्त 'फ़ैन' हूँ।
    मुझे जो शायर अच्छे लगते हैं, उन के पसंदीदा अशआर मैं अपनी डायरी में लिख लिया करता हूँ। उस डायरी में एक पन्ना 'जिगर मुरादाबादी' के नाम भी हैं --
    उस में सो वो अशआर (जो तुमने नहीं दिए हैं) बाँट रहा हूँ -
    ---
    जो तूफ़ानों में पलते जा रहे हैं
    वही दुनिया बदलते जा रहे हैं
    --
    अपना ज़माना आप बनाते हैं अहल-ए-दिल
    हम वो नहीं कि जिन को ज़माना बना गया
    --
    तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
    हाँ मुझी को ख़राब होना था
    --
    तिरे जमाल की तस्वीर खींच दूँ लेकिन
    ज़बाँ में आँख नहीं आँख में ज़बान नहीं
    --
    इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा
    आदमी काम का नहीं होता
    --
    यूँ ज़िंदगी गुज़ार रहा हूँ तिरे बग़ैर
    जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूँ मैं
    --
    दोनों हाथों से लूटती है हमें
    कितनी ज़ालिम है तेरी अंगड़ाई
    --
    इब्तिदा वो थी कि जीना था मोहब्बत में मुहाल
    इंतिहा ये है कि अब मरना भी मुश्किल हो गया
    --
    हमीं जब न होंगे तो क्या रंग-ए-महफ़िल
    किसे देख कर आप शरमाइएगा
    --
    ले के ख़त उन का किया ज़ब्त बहुत कुछ लेकिन
    थरथराते हुए हाथों ने भरम खोल दिया
    --
    उस ने अपना बना के छोड़ दिया
    क्या असीरी है क्या रिहाई है
    --

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  12. आज जिगर जी का साहित्यिक परिचय पढ़ा और वे ही मजरुह सुलतानपुरी है आज मालूम चला बहुत बढ़िया लिखा है अर्चना जी । साधुवाद आपको बड़े ही गहन अध्ययन के बाद लिखा यह आलेख में अर्चना जी आपकी परिपक्वता दिखाई दे रही है ।

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  13. उम्दा लेख।
    डॉ आसिफ़ हुसैन साहब की जिस किताब का आप ने संदर्भ में ज़िक्र किया, वो मुरादाबाद के साहित्यिक इतिहास को समझने के लिए बड़ी अहम किताब है।

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