Saturday, April 9, 2022

राष्ट्र के लिए एक राष्ट्रभाषा के हिमायती : राहुल सांकृत्यायन

 

विनयपिटक के महावग्ग के 'धम्मकक्कप्पवत्तनसुत्त' में भगवान बुद्ध का प्रथम उपदेश है,
"चरथभिक्खवे चारिकं बहुजन हिताय बहुजन सुखाय लोकानुकंपाय अत्थाय हिताय सुखाय देवमनुस्सानं।"
अर्थात भिक्खुओं, बहुजन सुख के लिए, बहुजन हित के लिए, लोगों को सुख पहुँचाने के लिए निरंतर भ्रमण करते रहो।

यह विधि निर्दिष्ट कोई पूर्व संयोग ही रहा होगा कि यायावरी के इस सूत्र को राहुल सांकृत्यायन के जीवन का लक्ष्य बनना था, तभी तो ग्यारह वर्ष की आयु में दर्ज़ा तीन की उर्दू की किताब में 'नवाजिंदा-बाजिंदा' का पढ़ा हुआ एक शेर उनके जीवन के दिशा-निर्देशन का सबसे उत्प्रेरक सूत्र बन गया; और जिस प्रकार बुद्ध ने सत्य की खोज में गृह-त्याग किया, ठीक उसी प्रकार राहुल की ज्ञान-पिपासा ने उनके लिए गृह-त्याग एवं यायावरी का मार्ग प्रशस्त किया।

सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल, ज़िंदगानी फिर कहाँ?
ज़िंदगानी गर रही तो, नौजवानी फिर कहाँ?

बौद्ध धर्म के महाज्ञाता, महान दर्शन-वेत्ता, विश्व-पर्यटक, घुमक्कड़ शास्त्र के प्रणेता राहुल सांकृत्यायन का जन्म उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ ज़िले के पंदहा गाँव में ९ अप्रैल १८९३ को हुआ था। वे इतिहासविद, पुरातत्ववेत्ता और त्रिपिटकाचार्य होने के साथ-साथ एशियाई नव-जागरण के प्रवर्तक भी माने जाते हैं। बाल्यकाल में उनका नाम केदारनाथ पांडेय था। उनके पिता का नाम गोवर्धन पांडेय तथा माता का नाम कुलवंती था। गोवर्धन पांडेय कनैला निवासी थे, जिनके चार पुत्रों और एक पुत्री में राहुल ज्येष्ठ पुत्र थे। बचपन में ही इनकी माता का देहांत हो जाने के कारण इनका पालन-पोषण इनके नाना श्री रामशरण पाठक और नानी ने किया था। केदार के जीवन की भावी रूपरेखा तैयार करने व उनके हृदय में यात्रा-प्रेम अंकुरित होने की पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं उनके फ़ौजी नाना के मुख से सुनी कहानियाँ, शिकार के अद्भुत वृत्तांत, पर्वतों और वन-प्रांतों के सुरम्य प्राकृतिक वर्णनों का भी महती योगदान रहा।

राहुल जी की औपचारिक शिक्षा केवल मिडिल स्कूल तक ही हुई थी। इनकी जीवन यात्रा इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि ज्ञानार्जन के लिए कोई भी परंपरागत ज्ञात साधन उतना सहायक नहीं है, जितना जीवन को सार्थक और सतत गतिशील रूप से जीना, आत्मिक चेष्टा एवं दुर्दम्य जिजीविषा। इसी उत्कट ज्ञान-पिपासा का प्रतिफल था कि वे ३६ से अधिक भाषाओं के जानकार थे और उन्होंने १५० के क़रीब ग्रंथों की रचना की। उनकी अद्भुत तर्कशक्ति, विश्लेषण की निपुणता और अनुपम ज्ञान भंडार से प्रभावित होकर काशी के पंडितों ने उन्हें महापंडित की उपाधि से विभूषित किया। संस्कृत और पाली का गहरा ज्ञान तथा प्रवीणता के लिए श्रीलंका के बौद्ध संघ ने उन्हें त्रिपिटकाचार्य की उपाधि से विभूषित किया। 

राहुल जी ने काशी में चक्रपाणि ब्रह्मचारी के सान्निध्य में संस्कृत अध्ययन शुरू किया। यहीं परसा-मठ के महंत लक्ष्मणदास के उत्तराधिकारी बन वे वैष्णव साधु राम उदारदास कहलाने लगे। सनातनी ब्राह्मण होने के बावजूद वे धार्मिक आडंबरों के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने न्याय, मीमांसा एवं विशिष्टाद्वैतवादी रामानुजीय वेदांत का भी अध्ययन किया; तत्पश्चात आर्य समाज के प्रति उनका रुझान हुआ। जब अयोध्या के कालीमंदिर में बलि प्रथा के विरोध में उन्होंने सक्रिय भाग लिया। उसके बाद श्रीलंका यात्रा और अध्यापन के दौरान उन्होंने बौद्ध धर्म में दीक्षा ली और राम उदारदास से राहुल हो गए। 'सांकृत्य' गोत्र के चलते पूरा नाम राहुल सांकृत्यायन विख्यात हुआ। ग्यारह वर्ष की बाल्यावस्था में संतोष नामक कन्या से साथ हुए विवाह को नकारते हुए उन के हृदय में विरोध की जो चिंगारी सुलगी, वह ज्ञानार्जन की ललक बन कर उनके यायावरी जीवन की पृष्ठभूमि बन गई।

राहुल सांकृत्यायन सदा घुमक्कड़ रहे। १९२९ से उनकी विदेश यात्राओं का सिलसिला शुरू हुआ, तो फिर इसका अंत उनके जीवन के साथ ही हुआ। ज्ञानार्जन के उद्देश्य से प्रेरित उनकी इन यात्राओं में श्रीलंका, तिब्बत, जापान और रूस की यात्राएँ विशेष उल्लेखनीय हैं। राहुल जी ने तिब्बत की चार यात्राएँ की, वहाँ लंबे समय तक रहे और भारत की उस विरासत का उद्धार किया, जो हमारे लिए अज्ञात, अलभ्य और विस्मृत हो चुकी थी। उन्होंने महान दार्शनिक 'धम्मकीर्ति' द्वारा छठी शताब्दी में रचित 'प्रमाणवार्तिक' ग्रंथ खोज निकाला। मूल रूप से संस्कृत लिपि में नष्ट हो चुका, तिब्बती भाषा में मौजूद इस बहुमूल्य ग्रंथ को पाने के लिए रूस के श्चेर्बात्सकी और इटली के तूची नामक विद्वानों की दृष्टि भी तिब्बत पर लगी थी; पर वे असफल हो रहे थे। इस ग्रंथ के लिए राहुल जी की बेचैनी इस हद तक थी कि जिस मंगोलियन स्कॉलर महिला लेने रोब्सकाया 'लोला' से उन्होंने रूस में विवाह किया था; विवाह के मात्र तेईस दिन बाद उसे छोड़ कर चले गए थे। राहुल जी ने न केवल तिब्बती सीखी, अपितु तिब्बती-हिंदी शब्दकोश भी बनाया। 'प्रमाणवार्तिक' के रचनाकार धम्मकीर्ति के विषय में राहुल जी ने 'वोल्गा से गंगा' में लिखा है, "अंधकार में एक व्यक्ति अंगारे फेंक रहा है और उसका नाम है धर्मकीर्ति।" इतना ही नहीं, वह 'वज्रडाक तंत्र' और 'कंजूर' भी ले आए, जो संस्कृत में ताड़ पत्रों पर हस्तलिखित थी। इन पांडुलिपियों में 'शतसाहस्त्रिका प्रज्ञा पारमिता', 'सुवर्ण प्रभाष' ग्रंथ भी शामिल थे; जो तिब्बती लिपि और संस्कृत भाषा में हैं। उन्होंने १५६ ग्रंथों के ४०००० श्लोकों को पुस्तक रूप दिया। जिन ग्रंथों को लाना संभव नहीं था उनके करीब एक लाख अस्सी हजार फोटो खींच कर उस दौर में भारत ले आए, जब फोटोग्राफी एक कठिन और दुरूह प्रक्रिया थी। उनके द्वारा खोजे गए 'सरहपा' लिखित 'दोहाकोश' ने सिद्ध कर दिया कि हिंदी का प्रारंभिक काल दसवीं-ग्यारहवीं नहीं अपितु आठवीं शताब्दी था। पचास लुप्त हो चुके ग्रंथों को खोज निकालना राहुल जी की महान खोज थी। यह राहुल जी का अदम्य साहस ही था कि अत्यंत दुर्गम रास्तों से बाईस खच्चरों पर लाद कर यह सारा साहित्य, दो सौ दुर्लभ पेंटिंग तथा अन्य शोध सामग्री वह भारत ले आए, इससे शोध एवं अध्ययन के नए क्षितिज खुले। भारत में बौद्ध अध्ययन का प्रथम केंद्र 'हिमालय अध्ययन केंद्र' की स्थापना  राहुल जी ने ही लद्दाख में की थी। साथ ही उनकी प्रेरणा से शुरू हुए 'बुद्ध अध्ययन केंद्र' व 'तिब्बती भाषा केंद्र' आज भारत से लेकर विश्व भर में स्थापित हैं। 

सन १९२१ में राहुल जी के सक्रिय राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई। वे ओजस्वी वक्ता थे। ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ लिखने और भाषण देने के लिए उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया। १९२१-२५ के बीच वे बक्सर और हज़ारीबाग़ जेलों में रहे। वे बिहार सोशलिस्ट पार्टी के सचिव रहे तथा १९३७ में अंग्रेज़ी शासन के मातहत बिहार में कांग्रेसी मंत्रिमंडल बना, तो राहुल ज़मींदारी के विरुद्ध किसान आंदोलन में शामिल हो गए। उनका मानना था कि अँग्रेज़ों की शह पर पल रहे सामंतवाद और पूँजीवाद के गठजोड़ को तोड़े बिना किसानों की दशा नहीं सुधरेगी। 'अमवारी सत्याग्रह' के दौरान वह सिर पर चोट लगने से बुरी तरह घायल भी हुए। विशिष्ट बात यह कि जेलों में भी उनकी रचनाधर्मिता में कमी नहीं आई। कुरान का संस्कृत में अनुवाद, 'दर्शन-दिग्दर्शन एवं तुम्हारी क्षय' इत्यादि कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकें जेल में ही लिखी गई। अन्य राजनीतिक मुद्दों के अलावा उन्होंने बोधगया के महाबोधि मंदिर को बौद्धों को सौंपने पर भी ज़ोर दिया। वे अपने जीवन-मूल्यों के इतने पक्के थे कि किसान आंदोलन के समय उस समय के शीर्ष नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती द्वारा प्रकाशित पत्र 'हुंकार' के संपादक बनाए गए पर, अँग्रेज़ों द्वारा दिया गया गुंडों से लड़िए नामक विवादित विज्ञापन छापने पर ज़ोर दिए जाने पर उन्होंने पत्र के संपादन से स्वयं को अलग कर लिया। देश की पहली रंगीन पत्रिका 'गंगा' के संपादन के लिए वह सुल्तानपुर भी रहे। इसी दौरान भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें पीएचडी की मानद डिग्री दी गई; जो कि बक़ौल उनकी पत्नी कमला, उनके घर की दीवार पर टँगी रहती थी। 

राहुल जी ने विपुल साहित्य का लेखन किया, जिनमें दर्शन, राजनीति, जीवनी, निबंध, यात्रा-वृत्तांत, इतिहास, कहानी, उपन्यास आदि बहु-विषयों एवं विधाओं में लिखा।  यात्रा-वृत्तांत के संबंध में राहुल जी को भारतीय यात्रा साहित्य का पितामह कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। सबसे चर्चित यात्रा की पुस्तक 'घुमक्कड़ शास्त्र' विशेष उल्लेखनीय है, जिसके सबसे चर्चित लेख 'अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा' में राहुल जी लिखते हैं, "कोलंबस और वास्को द गामा घुमक्कड़ी ही थे, जिन्होंने पश्चिम देशों के आगे बढ़ने का रास्ता खोला। अमेरिका अधिकतर निर्जन-सा पड़ा था। एशिया के कूप-मंडूकों को घुमक्कड़ धर्म की महिमा भूल गई, इसीलिए अमेरिका पर अपना झंडा नहीं गाड़ा। दो शताब्दियों तक आस्ट्रेलिया खाली पड़ा था। चीन और भारत को सभ्यता का बड़ा गर्व था, लेकिन इनको इतनी अकल नहीं आई कि वहाँ जाकर अपना झंडा गाड़ आते।"

राहुल जी ने हर विषय पर कलम चलाई। मज़हब के नाम पर भेद-भाव के कट्टर विरोधी राहुल 'तुम्हारे धर्म की क्षय' में लिखते हैं, "हिंदू और मुसलमान फरक रखने के कारण क्या उनकी अलग जाति हो सकती है?" आगे लिखते हैं, "एक चीनी चाहे बौद्ध हो या मुसलमान, ईसाई हो या कन्फूसी, लेकिन उसकी जाति चीनी रहती है; एक जापानी चाहे बौद्ध हो या शिन्तो धर्मी, लेकिन उसकी जाति जापानी रहती है; तो हम हिंदियों के मजहब को टुकड़े-टुकड़े में बाँटने को क्यों तैयार हैं।"

कथा-साहित्य में उनका कहानी संग्रह 'सतमी के बच्चे' और 'वोल्गा से गंगा' बेहद चर्चित रही। 'सतमी के बच्चे' कहानी मात्र कहानी नहीं है, राहुल जी का संस्मरण ही है। इस कहानी की पहली ही पंक्ति है, "सतमी अहीरिन पन्दहा में सबसे गरीब थी।" पन्दहा वही गाँव है, जहाँ उनका बचपन बीता। यहाँ जीवन का वह कटु यथार्थ रूप दिखा कि कैसे गरीबी और अभाव के एक-एक कर चारों पुत्र जाड़े और अभाव की बलि चढ़ जाते हैं।

राहुल जी का दूसरा कहानी संग्रह 'वोल्गा से गंगा' भी बेहद चर्चित रहा। वोल्गा से गंगा मात्र कहानी नहीं है, बल्कि ये कहानियाँ ८००० वर्षों तक फैले मानव-जीवन के विकास का इतिहास प्रस्तुत करती हैं। इसकी भूमिका में राहुल जी लिखते हैं, "मनुष्य आज जहाँ है, वहाँ प्रारंभ में ही नहीं पहुँच गया था। इसके लिए उसे बड़े–बड़े संघर्षों से गुज़रना पड़ा।" मनुष्य के दीर्घ संघर्ष और सृजन की कहानी है, 'वोल्गा से गंगा'।

कार्ल मार्क्स की तरह राहुल जी इतिहास लिखने के बजाय इतिहास बदलने पर बल देते थे। राहुल जी ने भोजपुरी में भी कई नाटक लिखे जिनमें 'मेहरारुन की दुर्दशा' और 'नइकी दुनिया' उल्लेखनीय है। वह 'मेहरारुन की दुर्दशा' में लिखते हैं, बेहद तीखे व विद्रोह के स्वर में,
पूत के जनमवा में नाच आ सोहर होला,
बेटि के जनम परे सोग रे पुरुखुवा।

राहुल जी नारी स्वतंत्रता व उसके अधिकार को लेकर भी मुखर रहे हैं। उनकी चर्चित पुस्तक 'भागो नहीं दुनिया को बदलो' में 'औरत' शीर्षक से एक पूरा अध्याय है। वह लिखते हैं, "मरद औरत को गुलाम बनाकर अपने घर में लाता है और इसको कहते हैं ब्याह।"

१९४७ से ही राहुल के भीतर मधुमेह के लक्षण दिखाई देने लगे थे। १९४९ में राहुल के जीवन में टाइपिस्ट के रूप में कमला जी आई और बाद में वे उनकी सहधर्मिणी हो गई। १९५० में कमला जी से उन्होंने विवाह कर लिया व मसूरी में स्थायी रूप से रहने लगे। यहीं उनकी दो संतानें हुईं; एक बेटा, एक बेटी। १९६१ में राहुल जी के भीतर स्मृति-भ्रंशता के लक्षण दिखाई देने लगे थे। भारत व सोवियत संघ में चिकित्सा के पश्चात भी उनके स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ। लोला और पुत्र इगोर भी उन्हें देखने आए थे, किंतु वे उन्हें पहचान न सके। अंततः राहुल जी को भारत लाया गया और १४ अप्रैल १९६३ को यह महापंडित दार्जिलिंग में सदा-सदा के लिए निद्रा की गोद में समा गए।

बौद्ध-धर्म पर राहुल सांकृत्यायन का शोध युगांतकारी मना जाता है। घुमक्कड़ी उनके लिए वृत्ति नहीं वरन धर्म था। आधुनिक हिंदी साहित्य में राहुल सांकृत्यायन एक यात्राकार, इतिहासविद, तत्त्वान्वेषी, युग परिवर्तनकार, साहित्यकार के रूप में सदा प्रतिष्ठित रहेंगे।

महापंडित राहुल सांकृत्यायन : जीवन परिचय

जन्म

९ अप्रैल १८९३, गाँव - पंदहा, ज़िला - आजमगढ़, उत्तरप्रदेश

निधन

१४ अप्रैल १९६३, दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल)

मूल नाम

श्री केदारनाथ पांडेय

अन्य नाम

राम उदारदास, दामोदर स्वामी, त्रिपिटकाचार्य, महापंडित

माता

श्रीमती कुलवंती

पिता

श्री गोवर्धन पांडेय

नाना

श्री रामशरण पाठक

विवाह

  • श्रीमती संतोष (१९०४)

  • श्रीमती येलेना रोब्सकाया लोला (१९३८), लेनिनग्राद

  • श्रीमती कमला सांकृत्यायन (१९५०), नैनीताल

संतान

  • श्री इगोर राहुलोविच (पुत्र) 

  • श्रीमती जया पडहाक (पुत्री)

धार्मिक गुरु

श्री भदत आनंद कौशल्यानंद

शिक्षा व कार्य-क्षेत्र

शिक्षा

रानी की सराय मदरसा व निजामाबाद (१९०७)

कर्म-भूमि

बिहार

कार्य-क्षेत्र

साहित्य, दर्शन, धर्म, यात्रा, राजनीति

साहित्यिक रचनाएँ

कहानियाँ

  • सतमी के बच्चे - १९३५

  • वोल्गा से गंगा - १९४४

  • बहुरंगी मधुपुरी - १९५३

  • कनैला की कथा - १९५५-५६

उपन्यास

  • बाईसवीं सदी - १९२३

  • जीने के लिए - १९४०

  • सिंह सेनापति - १९४४

  • जय यौधेय - १९४४

  • सप्त सिंधु

  • भागो नहीं

  • मधुर स्वप्न - १९४९

  • राजस्थान रनिवास - १९५३

  • विस्मृत यात्री - १९५४

  • दिवोदास - १९६०

  • दुनिया को बदलो - १९४४

यात्रा वृत्तांत

  • मेरी लद्दाख यात्रा - १९२६

  • मेरी तिब्बत यात्रा - १९३४

  • घुमक्कड़ शास्त्र - १९४९

  • मेरी यूरोप यात्रा - १९३२

  • यात्रा के पन्नें - १९३४-३६

  • एशिया के दुर्लभ भू-खंडों में - १९५६

  • तिब्बत में सवा वर्ष - १९३९

  • रूस में पच्चीस मास - १९४४-४७

जीवनियाँ

  • नए भारत के नए नेता - १९४२

  • बचपन की स्मृतियाँ - १९५३

  • अतीत से वर्तमान - १९५३

  • स्तालिन - १९५४

  • लेनिन - १९५४

  • कार्ल मार्क्स - १९५४

  • माओ-त्से-तुंग - १९५४

  • सरदार पृथ्वी सिंह - १९५५

  • घुमक्कड़ स्वामी - १९५६

  • मेरे असहयोग के साथी - १९५६

  • जिनका मैं कृतज्ञ - १९५६

  • वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली - १९५६

  • महामानव बुद्ध - १९५६

  • सिंहल घुमक्कड़ जयवर्धन - १९६०

  • कप्तान लाल - १९६१

  • सिंहल के वीर पुरुष - १९६१

आत्मकथा

  • मेरी जीवन-यात्रा - १९४४

धर्म-दर्शन

  • बुद्ध-चर्य्या

  • महाबोधि सभा

  • सारनाथ - १९३०

  • धम्मपद - १९३३

  • मज्झिम निकाय - १९३३

  • दर्शन दिग्दर्शन

  • किताब महल

  • इलाहाबाद १९४२

  • वैज्ञानिक भौतिकवाद - १९४२

  • बौद्ध दर्शन - १९४२

साहित्य और इतिहास

  • विश्व की रूपरेखा - १९२३

  • तिब्बत में बौद्ध धर्म - १९३५

  • पुरातत्त्व निबंधावलि - १९३६

  • बौद्ध संस्कृति - १९४९

  • साहित्य निबंधावली - १९४९

  • आदि हिंदी की कहानियाँ - १९५०

  • दक्खिनी हिंदी काव्यधारा - १९५२

  • सरल दोहा कोश - १९५४

  • मध्य एशिया का इतिहास - १९५२

  • ऋग्वैदिक आर्य - १९५६

  • भारत में अँग्रेज़ी राज्य के संस्थापक - १९५७

  • तुलसी रामायण संक्षेप - १९५७

कोश ग्रंथ

  • शासन शब्दकोश - १९४८

  • राष्ट्रभाषा कोश - १९५१

  • तिब्बती-हिंदी कोश

विज्ञान 

  • विश्व की रूप-रेखाएँ

काव्य

  • हिंदी काव्य-धारा (अपभ्रंश) - १९४४, किताब महल, इलाहाबाद

देश-दर्शन

  • सोवियत मध्य एशिया - १९४७

  • किन्नर देश - १९४८

  • दार्जिलिंग परिचय - १९५०

  • कुमाऊँ - १९५१

  • गढ़वाल - १९५२

  • नेपाल - १९५३

  • हिमालय प्रदेश - १९५४

  • जौनसागर देहरादून - १९५५

  • आजमगढ़ पुरातत्त्व - १९५५

नाटक

  • तीन नाटक - १९४४

  • पाँच नाटक - १९४४ (दोनों भोजपुरी)

अनुवाद

  • शैतान की आँख - १९२३

  • विस्मृति के गर्भ से - १९२३

  • जादू का मुल्क - १९२३

  • सोने की ढाल - १९३८

  • दाखुन्दा - १९४७

  • जो दास थे - १९४७

  • अनाथ - १९४८

  • अदीना - १९५१

  • सूदख़ोर की मौत - १९५१

  • शादी - १९५२

संपादन

  • हिंदी का लोकसाहित्य, नागरीप्रचारणी सभा, काशी सं० २०१७ वि०

सम्मान व पुरस्कार

  • १९५८ - साहित्य अकादमी पुरस्कार

  • १९६३ - पद्मभूषण अलंकरण

  • महापंडित उपाधि - काशी के पंडितों द्वारा

  • पीएचडी की मानद डिग्री - भागलपुर विश्वविद्यालय

  • १९९३ - भारतीय डाक तार विभाग द्वारा १ रु० मूल्य का डाक टिकट जारी 


संदर्भ 

लेखक परिचय

लतिका बत्रा

लेखक व कवयित्री
शिक्षा - एम० ए० , एम० फिल० , बौद्ध विद्या अध्ययन
उपन्यास - तिलांजलि, दर्द के इंद्र धनु - तीन कवयित्रियों का साझा काव्य-संग्रह
आत्मकथात्मक उपन्यास - पुकारा है ज़िंदगी को कई बार, डियर कैंसर
साँझा लघुकथा संग्रह, लघुकथा का वृहद संसार
गृहशोभा, सरिता, गृहलक्ष्मी जैसी पत्रिकाओं में कुकरी कॉलम
रुचि - व्यंजन विशेषज्ञ (फूड स्टाईलिस्ट)
ई-मेल - latikabatra१९@gmail.com
मोबाईल- ८४४७५७४९४७

6 comments:

  1. लतिका जी, राहुल जी के रोचक जीवन का बहुत रोचक वर्णन किया है आापने। इतनी सारी जानकारी के लिये धन्यवाद। उनकी लिखी हुई पुस्तकों की सूची से तो लगता है कि, या तो वह यात्रा में होते थे या लिख रहे होते थे।जिस प्रकार घूम-घूम का दुनिया में विचरते रहे , उसी तरह घूम-घूम कर अलग अलग मतों/सम्प्रदायों में देखते रहे कौन सा विचार क्या कहता है। दुर्लभ बौद्ध ग्रंथों की खोज और उन्हें खच्चरों पर लाद कर भारत लाना बड़ा प्रभावित करता है। कुल मिलाकर बड़ी रंग- बिरंगी तस्वीर बनाई उन्होंने जीवन की। आपने उस तस्वीर की बड़ी अच्छी प्रस्तुति की।बधाई। 💐

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  2. वाह लतिका जी, बहुत सार्थक, सुंदर और ज्ञानवर्धक कहानी के रूप में आपने राहुल सांकृत्यायन के जीवन और उनके विपुल रचना संसार पर लिखा है। आलेख इतना प्रवाहमय था कि एक साँस में पढ़ा गया। पाठक को बाँधकर रखने वाले आलेख के लिए आपको बधाई और शुभकामनाएँ।

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  3. सार्थक लेख राहुल सांकृत्यायन पर पढ़ने का सौभाग्य मिला । इस तिथिवार साहित्यकार में नित ऐसे साहित्यकारों से हम रूबरू हो रहे हैं साथ ही इस श्रृंखला के अंतर्गत हम उन साहित्यकारों को अपनी कलम से हम तक पहुंचाने वाले‌लेखको से भी हो रहा ‌‌‌‌ है जो गहन अध्ययन कर अपना शत प्रतिशत दे रहे हैं । बधाई हो लतिका जी ।

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  4. लतिका जी नमस्ते। आपने महान साहित्यकार महापण्डित राहुल सांकृत्यायन पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। उनका साहित्य जितनी बार पढ़ा और समझा जाये वो कम ही है। आपके इस लेख के माध्यम से एक बार पुनः उनको पढ़ने का अवसर मिला। आपने उनकी साहित्य और जीवन यात्रा को अच्छी तरह से लेख में पिरोया है। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिये हार्दिक बधाई।

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  5. लतिका जी, आभार इतने अच्छे आलेख के लिए।

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  6. लतिका जी, आपने पूरी तरह से रम कर इस आलेख को लिखा है। राहुल सांस्कृत्यान ने अपने जीवन में जो कर दिखाया उसे एक संक्षिप्त आलेख में पिरोने में आपकी लेखनी सफल रही है। आपके आलेख को पढ़कर विस्मय होता है कि क्या इतना कुछ एक जीवन में कर पाना संभव है और गर्व भी होता है कि ऐसे महान साहित्यकारों और कर्मवीरों की हम पर छत्रछाया रही है। आपने बहुत ही सधे तरीके से राहुल जी के कृतित्व और व्यक्तित्व को हम तक पहुँचाया है। इस अद्भुत लेखन के लिए आपको बधाई और शुक्रिया।

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