विद्या बिना मति गई,
मति बिना नीति गई,
नीति बिना गति गई,
गति बिना वित्त गया,
वित्त बिना शूद्र गए,
कितने अनर्थ एक अविद्या ने किए।
जीवन में शिक्षा के अभाव से पड़ने वाले प्रभाव को रेखांकित करती ये पंक्तियाँ महान विचारक और स्त्री शिक्षा के प्रबल समर्थक ज्योतिबा फुले ने 'शेतकऱ्यांचा आसूड' नामक अपनी पुस्तक में लिखी हैं। सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों का विरोध कर दलितों, शोषितों और स्त्रियों की समानता के अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले ज्योतिबा फुले समाज में ब्राह्मण वर्चस्व और पुरोहितवादी मानसिकता के प्रबल विरोधी थे। अपने समय से अग्रणी विचारधारा रखने वाले ज्योतिबा फुले ने न केवल वर्ण, जाति और वर्ग व्यवस्था में निहित शोषण की प्रक्रिया की आलोचना की है, बल्कि समधर्म को आदर्श की कसौटी मानते हुए एक ऐसे आदर्श परिवार की संकल्पना की है, जहाँ पिता बौद्ध, माँ ईसाई, बेटी मुसलमान और बेटा सत्यधर्मी हो।
ज्योतिबा फुले का जन्म ११ अप्रैल १८२७ को खानवाड़ी, पुणे, महाराष्ट्र में हुआ था। उनके पिता गोविंदराव फुले जीवन-यापन के लिए बाग़-बगीचों में माली का काम करते थे। पूना के आस-पास माली जाति के लोगों को फुले (फूल वाले) कहा जाता है। अभी ज्योतिबा एक वर्ष के भी नहीं हुए थे, कि उनकी माताजी चिमनाबाई का निधन हो गया। ज्योतिबा को माँ की ममता और दुलार मिला सगुनाबाई नामक एक दाई से, जिन्होंने पुत्रवत उनका लालन-पालन किया।
गोविंदराव ने अपने पुत्र की जन्म-जात प्रतिभा को देखकर उसे शिक्षार्जन हेतु भेजने का विचार किया। उस समय सवर्ण समाज की मानसिकता थी कि शिक्षा पाना सिर्फ ब्राह्मणों का अधिकार है, अछूतों का नहीं; और उनका विश्वास था, कि संपूर्ण ज्ञान सिर्फ संस्कृत भाषा की पुस्तकों में विद्यमान है। ऐसी सामाजिक परिस्थितियों में गोविंदराव ने अपने पुत्र ज्योतिबा को शिक्षा देने का आसाधारण कार्य किया। ज्योतिबा पढ़ने में काफी होशियार थे, उन्होंने जल्द ही मराठी लिखना-पढ़ना और बोलना सीख लिया। उन्हीं दिनों 'बंबई नेटिव एजुकेशन सोसाइटी' के संकेत पर सोसाइटी के विद्यालय से छोटी जाति के छात्रों को निकाल दिया गया। अब ज्योति फावड़ा और खुरपी लेकर खेतों में लग गए तथा फूलों के कार्य को आगे बढ़ाने लगे। मगर विद्यालय से अलग हो जाने पर भी ज्योतिबा का लगाव पुस्तकों से दूर न हो सका। ज्योतिबा दिन भर खेतों में काम करने के बाद रात में दिये की रोशनी में पुस्तकें पढ़ते थे। उनकी इस लगन को देखकर गोविंदराव ने १८४१ में पुनः मिशनरी स्कूल में ज्योतिबा को प्रवेश दिला दिया।
स्कॉटलैंड के मिशन द्वारा संचालित स्कूल में ज्योतिबा फुले ने अपनी शिक्षा ग्रहण की। बचपन से ही ज्योतिबा फुले वाशिंगटन और शिवाजी की जीवन गाथाएँ पढ़ते व उन्हें अपना आदर्श मानते थे। उनके मन में अपने देश को स्वतंत्र कराने के लिए निरंतर भाव जागृत रहता। ज्योतिबा ने अपनी पुस्तक 'गुलामगिरी' (स्लेवरी) में स्पष्ट लिखा है कि वे अपने देश से अँग्रेज़ी शासन को उखाड़ फेंकना चाहते थे। यही नहीं, ज्योतिबा अपने ब्राह्मण मित्र सदाशिव बल्लाल गोबंदे के साथ मिलकर अंधविश्वासों तथा मिथ्या कुरीतियों में फंसे लोगों को उनसे मुक्त होने के लिए प्रेरित करते रहते थे। मानवता को सर्वश्रेष्ठ धर्म मानने वाले ज्योतिबा के साथ एक ऐसी घटना घटित हुई जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। एक बार ज्योतिबा फुले अपने एक ब्राह्मण मित्र के विवाह में सम्मिलित हुए। बारात में प्रायः ब्राह्मण जाति के लोग थे। एक ब्राह्मण ने ज्योतिबा फुले जी को पहचान लिया और बहुत अपमानित किया। ज्योतिबा अपने इस अपमान से स्तंभित रह गए और बारात से वापस अपने घर आ गए। तब उनके पिता ने उन्हें वर्ण व्यवस्था के बारे में विस्तार से समझाया।
ज्योतिबा के पिता जी नहीं चाहते थे कि वे सामाजिक रीति-रिवाज़ों का उल्लंघन करके ब्राह्मणों का कोप-भाजन बनें; परंतु ज्योतिबा तो शिवाजी, वाशिंगटन तथा लूथर के आदर्शों को अपने जीवन का आधार मानते थे। ज्योतिबा जी ने अनुभव किया कि शूद्र-वर्ण में जन्म लेने का अर्थ है- अपमान और दासता। उन्होंने हिंदू धर्म में फैली ऊँच-नीच की अमानवीय भावना तथा रूढ़ियों एवं अंध-परंपराओं को समाप्त करने का संकल्प लिया; जबकि वह जानते थे, कि इसकी जड़ें काफी गहरी हैं।
ज्योतिबा यह समझ रहे थे कि देश व समाज की वास्तविक उन्नति तब तक नहीं हो सकती, जब तक देश का बच्चा-बच्चा जाति-पांति के बंधनों से मुक्त नहीं हो जाता; साथ ही नारियाँ समाज के प्रत्येक क्षेत्र में समान अधिकार नहीं पा लेतीं; अतः उन्होंने देश, समाज और संस्कृति को सामाजिक बुराइयों तथा अशिक्षा से मुक्त करने और एक स्वस्थ, सुंदर व सुदृढ़ समाज का निर्माण करने को अपने जीवन का ध्येय बना लिया। उन्होंने लिखा,
मातंग आर्यों में जाँचते ही खून एक,
एक ही आत्मा, जान दोनों में।
दोनों समान सब खाते-पीते,
इच्छा भी भोगते एक समान।
मातंग आर्य दोनों शोभा मानव की,
दोनों का आचरण एक जैसा।
पूछता हूँ यह हुए कैसे नीच
और आर्य क्यों उच्च?
ज्योतिबा समझ रहे थे कि अशिक्षा दलितों के विकास में सबसे बड़ी बाधक है। उन्होंने विभिन्न वैचारिक ग्रंथों और क्रांतियों का अध्ययन किया। वे थॉमस पाइन के विचारों से भी बहुत प्रभावित थे। उनके विचारों पर पाइन की प्रसिद्ध पुस्तक 'द राइट्स ऑफ़ मैन' का काफी असर पड़ा। उन्होंने अनुभव किया कि शिक्षा के अभाव में दलित मानसिक गुलामी के शिकार हो रहे हैं। यदि उनका विकास करना है, तो उन्हें अज्ञान के दलदल से निकालना ही होगा। यही बात उन्होंने महिलाओं की दयनीय स्थिति के विषय में भी अनुभव की। नारीवाद के जनक ज्योतिबा फुले ने निश्चय कर लिया कि वे अपना सारा जीवन दलितों और विधवाओं व महिला कल्याण के लिए काम करने में बिताऐंगे। स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले ने अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर १८४८ में पुणे के भिडेवाड़ा में देश का पहला कन्या विद्यालय प्रारंभ किया। जब लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली, तो उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढ़ाना शुरू कर दिया और उन्हें इतना योग्य बनाया कि वे स्कूल में बच्चों को पढ़ा सकें। इसके लिए उन्हें बहुत विरोध झेलने पड़े, यहाँ तक कि पत्नी सहित घर भी छोड़ना पड़ा, पर वे अपने निश्चय से नहीं डिगे। उन्हें अपने निश्चयपूर्ति तथा विचारों के क्रियान्वयन में अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले का बहुत सहयोग मिला। सावित्री जब बालिकाओं को पढ़ाने जातीं, तो उन्हें अनेक ताने, अपशब्द यहाँ तक कि गालियाँ भी सुननी पड़तीं। इतना ही नहीं, धर्म के ठेकेदार और स्त्री-शिक्षा के कट्टर विरोधी उन पर पत्थर और गोबर भी फेंकते; पर इन सब बातों से सावित्री का न तो मनोबल टूटा, न ही इरादों में कोई कमी आई। अपने पति ज्योतिबा के साथ सावित्रीबाई फुले ने भी हर कदम पर समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने, लड़कियों की शिक्षा-व्यवस्था को सुदृढ़ करने और पूर्वाग्रहों को दूर कर एक बेहतर सामाजिक आधारशिला के निर्माण की दिशा में सक्रियता दिखाई।
आज के समय में दांपत्य-जीवन में छोटी-छोटी बातों पर झगड़े और मन-मुटाव हो जाते हैं। साथ मिलकर चलना तो दूर की बात है, कई बार अहम ही रिश्तों के मध्य दीवार बन जाता है। लेकिन जब ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई को देखते हैं, तो विपरीत परिस्थितियों में भी अपने जीवन-साथी का साथ देने, एक-दूसरे के सपनों को अपना बना लेने और जीवन की डगर में आने वाली हर कठिनाई को एक होकर झेलने की ताक़त मिलती है।
ज्योतिबा फुले जहाँ बाल-विवाह के खिलाफ़ थे, वहीं वे विधवा-विवाह के समर्थक भी थे। महादेव गोविंद रानाडे की गिनती उस समय के बड़े समाज-सुधारकों में होती थी। छोटी उम्र में ही जब उनकी बहन विधवा हो गई, ज्योतिबा ने उन्हें उनकी बहन का पुनर्विवाह करवाने के लिए प्रेरित किया, मगर गोविंद रानाडे यह बात सुनते ही कुपित हो उठे। लेकिन इस घटना के कुछ समय पश्चात जब दुर्भाग्यवश गोविंद रानाडे की पत्नी का स्वर्गवास हो गया, तो उन्होंने मात्र तेरह वर्ष की बालिका के साथ अपना पुनर्विवाह रचा लिया। इस बात पर नाराज़ होकर ज्योतिबा फुले ने पत्र लिखकर उन्हें 'डींग हाँकने वाला झूठा समाज-सुधारक' कहकर संबोधित किया।
फुले दंपत्ति ने ठान ही लिया था कि वे अपने प्रयासों से समाज को एक नई दिशा प्रदान करेंगे, ब्राह्मणवादी सोच पर प्रहार करेंगे और दलितों को समानता के धरातल पर लाकर खड़ा करेंगे। उन्होंने विधवा आश्रम खोले, फ़्रांसिसी क्रांति से प्रभावित होकर समूचे भारत में 'आत्मसम्मान आंदोलन' शुरू किए। आगे चलकर उन्होंने २४ सितंबर १८७३ को सच्चाई की तलाश करने वाले 'सत्य शोधक समाज' का गठन किया था। इस समाज की स्थापना दलित समाज को जाति और धार्मिक परंपराओं से मुक्त कराने के लिए की गई थी; जहाँ जाति, धर्म, वर्ण आदि के भेद से परे एक आदर्श समाज की नींव डाली जा सके। पुरोहितों के महत्त्व को नकारते हुए ज्योतिबा मानते थे, कि भगवान और भक्त के बीच कोई मध्यस्थ नहीं है। उनका समाचार पत्र 'दीनबंधु' मज़दूरों, किसानों और दलितों की आवाज़ बना। संविधान निर्माता डॉ० भीमराव अंबेडकर ज्योतिबा फुले को अपना प्रेरणा स्रोत मानते थे। डॉ० अंबेडकर ने उनके लिए कहा था, "बाकी लोग परिवार सुधारक थे, पर ज्योतिबा फुले समाज सुधारक थे।"
महान विचारक, समाज सुधारक, लेखक और दार्शनिक ज्योतिबा फुले का मानना था कि समाज में बदलाव लाने की शुरुआत घर से ही होनी चाहिए। १८५८ में इनके पिता गोविंद राव की मृत्यु हो गई। ज्योतिबा फुले ने किसी भी प्रकार के ब्राह्मणवादी कर्मकांड को करने से इंकार कर दिया। तेरहवीं पर ब्राह्मण भोज करने की बजाय उन्होंने अपंग, विकलांग, शूद्र तबके के लोगों को बुलाकर उन्हें भरपेट भोजन करवाया और जाते हुए सबको एक-एक पुस्तक भेंट की। यह क्रांतिकारी व विवेकशील सोच ही ज्योतिबा फुले की वास्तविक पहचान बनी। वे कहते थे, "किसी भी व्यक्ति को सामाजिक समानता, राजनीतिक भागीदारी, धार्मिक-आर्थिक स्वतंत्रता और पढ़ने-लिखने से वंचित करना और उनका शारीरिक एवं मानसिक रूप से धर्म के आधार पर शोषण करना या शोषण को धर्म मानना क्रूरता और निर्दयता है।" उन्होंने लगातार यह विश्लेषण किया कि क्यों रूढ़िवादियों की समाज में इतनी मज़बूत पैठ है? अपने विश्लेषणात्मक अनुभव को ज्योतिबा ने 'गुलामगिरी' नामक पुस्तक में संजोया। पुणे विद्यापीठ के रिटायर्ड प्रोफेसर और लेखक डॉ० सदानंद मोरे ने इस पुस्तक को उनका 'मेग्नम ओपस' यानी 'महाग्रंथ' कहा है।
ज्योतिबा फुले बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे उच्च कोटि के लेखक भी थे। इनके द्वारा लिखी गई प्रमुख पुस्तकें हैं, गुलामगिरी, छत्रपति शिवाजी, अछूतों की कैफियत, शेतकऱ्यांचा आसूड (किसान का कोड़ा), तृतीय रत्न, राजा भोसला का पखड़ा, सार्वजनिक सत्य धर्म पुष्पक (द बुक ऑफ़ ट्रू फ़ेथ) इत्यादि। 'सत्य शोधक समाज' की स्थापना के बाद १८७३ में इनके सामाजिक कार्यों की सराहना देश भर में होने लगी। १८८३ में स्त्रियों को शिक्षा प्रदान कराने के महान कार्य के लिए तत्कालीन ब्रिटिश भारत सरकार द्वारा ज्योतिबा फुले को 'स्त्री शिक्षण के आद्यजनक' कहकर गौरवांवित किया गया। इनकी समाज-सेवा को देखते हुए मुंबई की एक विशाल सभा में ११ मई १८८८ को विट्ठलराव कृष्णाजी वंडेकर जी ने इन्हें महात्मा की उपाधि से सम्मानित किया।
१८८९ में शरीर के दाहिने भाग में लकवे के कारण ज्योतिबा फुले काम करने में असमर्थ हो गए, मगर उनमें दलितों के प्रति इतना समर्पण भाव था, कि उन्होंने अपने बाएँ हाथ से ही अपनी पुस्तक 'सार्वजनिक सत्य धर्म पुष्पक' (द बुक ऑफ़ ट्रू फ़ेथ) को पूर्ण किया। २८ नवंबर १८९० को भारतीय सामाजिक क्रांति के जनक कहलाए जाने वाले ज्योतिबा फुले ने देह त्याग दी और एक महान समाजसेवी इस दुनिया से विदा हो गया।
महात्मा ज्योतिबा फुले : जीवन परिचय |
पूरा नाम | ज्योतिराव गोविंदराव फुले |
जन्म | ११ अप्रैल १८२७, खानवाड़ी, पुणे, महाराष्ट्र |
निधन | २८ नवंबर १८९०, पुणे, महाराष्ट्र |
पिता | श्री गोविंदराव फुले |
माता | श्रीमती चिमणाबाई फुले |
पालन-पोषण | सगुनाबाई |
पत्नी | श्रीमती सावित्रीबाई फुले (१८४०) |
पुत्र | डॉ० यशवंत फुले (दत्तक) |
शिक्षा व कार्यक्षेत्र |
शिक्षा | ७वीं; स्कातिश मिशन हाईस्कूल, पुणे, महाराष्ट्र (१८४७) |
प्रेरणा-स्रोत | शिवाजी, वाशिंगटन तथा लूथर |
कर्म-क्षेत्र | स्त्री-शिक्षा के हिमायती, विचारक, समाज-सुधारक और दार्शनिक |
कर्म-भूमि | महाराष्ट्र |
साहित्यिक रचनाएँ |
नाटक- तृतीय रत्न (१८५५) छत्रपति राजा शिवाजी का पंवडा (१८६९) गुलामगिरी (१८७३) शेतकऱ्यांचा असुड (किसान का कोड़ा) (१८८३) अछूतों की कैफियत (१८८५) इशारा (१८८५) राजा भोसला का पखड़ा सार्वजनिक सत्यधर्म (द बुक ऑफ़ ट्रू फ़ेथ) (१८८९)
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सम्मान व उपाधि |
१८८३- स्त्री शिक्षण के आद्यजनक- तत्कालीन ब्रिटिश भारत सरकार द्वारा १८८८- महात्मा की उपाधि- विट्ठलराव कृष्णाजी वंडेकर जी द्वारा १९७७- भारतीय डाक तार विभाग द्वारा २५ पैसे मूल्य का डाक टिकिट
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संदर्भ
ज्योतिबा फुले - विकिपीडिया
ज्योतिराव फुले - दया अग्रवाल (अनुवाद)
महात्मा ज्योतिबा फुले - Webdunia
ज्योतिबा फुले - भारतकोश
Mahatma Jyotiba Phule : A Modern Indian Philosopher -Dr Deshraj Siraswal
Jyotiba Phule : Global Philosopher And Maker Of Modern India - Archana Malik Goure
सावित्रीबाई फुले - अमर उजाला
सावित्रीबाई फुले - विकिपीडिया
लेखक परिचय
विनीता काम्बीरी
संप्रति- प्रवक्ता (हिंदी), शिक्षा निदेशालय, दिल्ली प्रशासन
हिंदी प्रस्तोता- आकाशवाणी दिल्ली का एफ एम रेनबो चैनल
प्राप्त सम्मान (हिंदी शिक्षण के प्रति समर्पण पर)-
सहस्राब्दी हिंदी शिक्षक सम्मान- यूएन
नेशनल वुमन एक्सीलेंस अवार्ड- पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्रालय,
भारत सरकार
राज्य शिक्षक सम्मान- शिक्षा निदेशालय, दिल्ली सरकार
रुचि - मिनिएचर-पेंटिंग, कहानियाँ और कविताएँ लिखना
ई-मेल : vinitakambiri@gmail.com
विनीता जी नमस्ते। आपके इस लेख के माध्यम से ज्योतिबा फुले जी के बारे में विस्तार से जानने का अवसर मिला। आपने लेख में उनके सामाजिक एवं साहित्यिक योगदान को बखूबी समेटा।साथ ही उनके जीवन से जुड़ीं बहुत सारी घटनाओं को भी लेख के माध्यम से पटल पर रखा। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिये बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteसमाज में परिवर्तन लाना, कुरीतियों से लड़ना, शताब्दियों से बहती धारा को नई दिशा में मोड़ना , आसान काम नहीं है। ज्योतिबा ने यह काम तमाम मुश्किलों का सामना करते हुए किए और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्त्रोत बने। उनकी इस संघर्षमयी जीवन यात्रा का आपने सजीव एवं सहज- पठनीय वर्णन किया है , विनीता जी। पढ़ते हुए उन सब समाज सुधारकों की याद आ रही थी जिन्होंने इन क़ुरीतियों को समाप्त करने के यज्ञ में अपना पूरा जीवन अर्पित कर दिया। इस सुंदर आलेख के लिए आपको बधाई। 💐💐
ReplyDeleteवाह! विनीता जी श्रध्देय महात्मा फुले जी पर बहुत ही खूबसूरत ज्ञानप्रवाह आलेख लिखा है। भारत की प्रथम महिला शिक्षिका माता सावित्रीबाई और महात्मा फुले जी का जीवन बड़ी ही कठिनाइयों भरा था। उच्चवर्ग के सामाजिक लोगो के दबाव से अपमान का घूंट पीकर उसी समाज में छुआछूत को दूर करते हुए शिक्षा की ज्योत जलाते रहे।
ReplyDeleteएक दिन फुले दंपति अपने दिन का काम पूरा करके सो रहे थे। अचानक नींद टूटने पर मंद रोशनी में दो लोगों की छाया दिखी। ज्योतिबा फुले ने ज़ोर से पूछा कि तुम लोग कौन हो?
एक हत्यारे ने कहा, 'हम तुम्हें ख़त्म करने आए हैं', जबकि दूसरा हत्यारा चिल्लाया, 'हमें तुम्हें यमलोक भेजने के लिए भेजा गया है.'
यह सुनकर महात्मा फुले ने उनसे पूछा, "मैंने तुम्हारा क्या नुकसान किया है कि तुम मुझे मार रहे हो?" उन दोनों ने उत्तर दिया, "तुमने हमारा कोई नुकसान नहीं किया है लेकिन हमें तुम्हें मारने को भेजा गया है।"
महात्मा फुले ने उनसे कहा, मुझे मारने से क्या फ़ायदा होगा? "अगर हम तुम्हें मार देंगे, तो हमें एक-एक हज़ार रुपये मिलेंगे," उन्होंने कहा।
यह सुनकर महात्मा फुले ने कहा, "अरे वाह! मेरी मृत्यु से आपको लाभ होने वाला है, इसलिए मेरा सिर काट लो. यह मेरा सौभाग्य है कि जिन ग़रीब लोगों की मैं सेवा कर खुद को भाग्यशाली और धन्य मानता था, वे मेरे गले में चाकू चलाएं। चलो, मेरी जान सिर्फ़ दलितों के लिए है. और मेरी मौत ग़रीबों के हित में है।'' उनकी बातें सुनकर हत्या करने आए दोनों को होश आया और उन्होंने महात्मा फुले से माफ़ी मांगी और कहा "अब हम उन लोगों को मार डालेंगे जिन्हें आपको मारने के लिए भेजा था।"
इस पर महात्मा फुले ने उन्हें समझाया और यह सीख दी कि बदला नहीं लेना चाहिए। इस घटना के बाद दोनों महात्मा फुले के सहयोगी बन गए। उनमें से एक का नाम रोडे और दूसरे का नाम था पं. धोंडीराम नामदेव।
इस कहानी को पढ़ने के बाद कोई भी आसानी से समझ सकता है कि चार या पांच वाक्य बोलने से किसी का जीवन पर आया संकट कैसे दूर जा सकता है। लेकिन फुले की पूरी जीवनी पढ़कर पता चलता है कि ये चार-पांच वाक्य उनके पूरे जीवन का सार हैं।
उन्होंने न केवल उन वाक्यों को बोला बल्कि जीवन भर उन्हीं शब्दों को जिया है। महात्मा फुले ने न केवल शोषितों के लिए अपना जीवन लगा दिया, बल्कि उनके विचार आज भी समाज का मार्गदर्शन करते हैं।
अभिव्यंजक, सरलता और सहजता से लिखित इस आलेख के लिए आदरणीया विनीता जी का आभार।
विनीता जी, 'कोई भी परिवर्तन लाने के लिए पहले ख़ुद वह परिवर्तन बनो' को अक्षरशः सार्थक करने वाले ज्योतिबा फुले और उनकी धर्म-संगिनी सावित्रीबाई फुले से आपने बहुत अच्छा परिचय कराया है। ज्योतिबा फुले ने शिक्षा के सही अर्थों को समझकर हर अंधकार को हटाने के लिए उसे सर्वोत्तम अस्त्र समझा और आजीवन शिक्षा के माध्यम से तमाम कुरीतियों से लड़ते रहे, यथा-सामर्थ्य प्रकाश फैलाते रहे। कुछ समय पहले पुणे विश्वविद्यालय का नाम सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय कर दिया गया है, वहाँ उनकी भव्य मूर्ति भी लगाई गई है। आशा है कि यह मूर्ति अनायास ही ज्ञान-अर्जकों का ध्यान इस दम्पति द्वारा किए गए कार्यों की तरफ आकर्षित करती रहेगी, उन्हें प्रेरित करती रहेगी। आपको इस ज्ञानवर्धक लेख के लिए आभार और बधाई।
ReplyDeleteबहुत महत्वपूर्ण लेख,विनिता जी, महाराष्ट्र के प्रमुख समाज सुधारक जिन्होंने दलित, किसान और नारी हेतु ऐतिहासिक कार्य किया है। आज भी समाज उतना नहीं बदला है,जितना संघर्ष महात्मा फुले जी ने किया था। जाती धर्म से भी भयानक आर्थिक विषमता ने दीवार खड़ी की है। जिस समाज का प्रतिनिधित्व करके जिस शालीनता और निग्रह से उन्होंने संघर्ष किया है,उससे आज गरीब दलित,किसान,नारी का जीवन बदल गया है।
ReplyDeleteविनीता जी आपके द्वारा प्रस्तुत इस लेख के माध्यम से ज्योतिबा फुले के बारे विस्तार से जानने का अवसर मिला। आपने बहुत समग्रता और सहजता के साथ उनकी संघर्ष से भरी जीवन यात्रा, सामाजिक सरोकारों और साहित्यिक योगदान को कड़ी-दर-कड़ी समेटा है। आपको बहुत बहुत बधाई।
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