"सोना आग में तप कर ही कुंदन बनता है"
इस सूक्ति को शैलेश मटियानी जी ने चरितार्थ कर दिखाया। उन्होंने अपने जीवन के संघर्षों की तपन में अपने साहित्य को पकाया और हर बार एक नया कलेवर प्रस्तुत किया। वे अक्सर कहा करते थे, "बगैर सच्चे और खरे अनुभव के कोई बड़ी कहानी नहीं लिखी जा सकती है, लेखक के पास सच्चे और खरे अनुभवों का जितना बड़ा ख़ज़ाना होता है उसका कद उतना ही बड़ा बनता है। लेखक अपने कद से बड़ी कहानी कभी नहीं लिख सकता।" और सही मायने में वे इतने कद्दावर लेखक थे जिनकी बराबरी करना असंभव सा है। अपने ५१ वर्षों के साहित्यिक जीवन में उन्होंने ३० उपन्यासों, २८ कहानी संग्रहों, ९ लोककथा संग्रहों, १६ बाल कथा संग्रहों, एक एकांकी संग्रह व १३ निबंध संग्रहों का सृजन किया।
शैलेश मटियानी का जन्म उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा जनपद में स्थित बाड़ेछीना नामक गाँव में १४ अक्टूबर १९३१ को हुआ था। उनके पिताजी का नाम श्री बिशन सिंह मटियानी और माताजी का नाम श्रीमती लक्ष्मी देवी था। उनका मूल नाम रमेश सिंह मटियानी था। मात्र बारह वर्ष की उम्र में उनके माता-पिता का देहांत हो गया। तब शैलेश पाँचवीं कक्षा में पढ़ते थे। इसके बाद वे अपने चाचा के संरक्षण में रहे। आर्थिक कठिनाइयों के कारण उनकी पढ़ाई बीच में ही रुक गई। पाँच साल बाद १७ वर्ष की उम्र में उन्होंने फिर से पढ़ना शुरू किया और हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। जीविका की खोज में सन १९५१ में वह दिल्ली, इलाहाबाद, मुज्जफ़रनगर होते हुए मुंबई पहुँचे। मुंबई से फिर अल्मोड़ा और दिल्ली होते हुए एक बार फिर इलाहाबाद आ गए और कई वर्षों तक वहीं रहे, लेकिन १९९२ में छोटे पुत्र की हत्या के बाद उनकी मानसिक स्थिति बिगड़ गई और वे हल्द्वानी आ गए, जहाँ २४ अप्रैल २००१ को इस महान लेखक का निधन हो गया।
शिक्षा और व्यवसाय
शैलेश जी की औपचारिक शिक्षा हाईस्कूल तक गॉंव के एक सरकारी स्कूल में हुई। उनकी आजीविका लेखन से ही चलती रही। उनका साहित्य ही उनके जीवन का विस्तार है, जो कुछ भोगा वही शब्दों में ढाला। उनके पास लेखन के लिए इतना भी समय नहीं होता था कि वह अपने लेखन का सौंदर्यीकरण कर पाते, दस-बीस पृष्ठ लिखे नहीं कि दो पैसे की चाह में उन्हें छपवाने भेज दिया करते थे। अपनी किसी भी रचना को छापने की अनुमति देने से पूर्व वे पूछते थे, "पैसे कितने मिलेंगे, मिलेंगे भी या नहीं?" वे कहते थे, "मैं तो लेखक हूँ जिस चीज़ पर खर्च करूँगा, वहीं से कहानी निकालूँगा और पेट भरने के लिए चार पैसे जुटाऊँगा।" उन्होंने 'विकल्प' और 'जनपक्ष' नामक दो पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
व्यक्तित्व
शैलेश मटियानी कर्मठ, स्वनिर्मित और दृढ़संकल्प वाले व्यक्ति थे। ममता जी उनके बारे में लिखती हैं कि "प्लास्टिक की टोकरी में 'विकल्प' का सामान लेकर वे इलाहाबाद प्रेस में आते, उनके साथ अमर गोस्वामी भी होते। अमर को प्रेस का काम समझा कर वे विज्ञापन लेने शहर की ओर चले जाते, और जिस भी दुकान में जाते वहाँ से विज्ञापन लेकर ही आते, फिर वह विज्ञापन ५ रुपये का हो या ५०० रुपये का। वे बताते थे कि "मुंबई में जब मैंने नौकरी छोड़ी तो धर्मयुग के संपादकीय विभाग के नवीन मित्तल ने मुझसे पूछा, अब क्या करोगे?" मैंने कहा "खेती करूँगा।" उन्होंने कहा "मुंबई में इतनी ज़मीन कहाँ?" तो मैंने कहा, "कागज़ पर खेती करूँगा, और आज तक वही करता आ रहा हूँ।"
लेखन के शुरूआती दिनों में मिले तानों और व्यंग्य को उन्होंने अपना हथियार बनाया। एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया, "मेरे आसपास एक लड़का लिखता था उसकी रचनाएँ वहीं के स्थानीय अख़बार में छपती थी, जब मैंने उस अख़बार के संपादक से कहा कि, मैं भी लिखता हूँ तो संपादक ने अपने मित्रों से कहा, अरे! बिसनुवा जुवारी का लड़का और शेर सिंह कसाई का भतीजा लेखक बन रहा है।" बात मुझे चुभ गई और मैंने तय किया अब तो लेखक बन कर ही दिखाना है। मैंने उस लोकल अख़बार में कहानी भेजने के बजाय 'रंगमहल' पत्रिका में भेज दी। कुछ समय बाद मुझे एक पोस्टकार्ड मिला, जो मेरे नाम का बाहर से आने वाला पहला पत्र था। उसमें मेरी कहानी की स्वीकृति थी और लिखा था कि मैं हर महीने उनको दो कहानियाँ लिख कर भेजूँ। पहले तो मुझे यकीन नहीं हुआ फिर मेरी हालत ऐसी थी पानी भरने जाऊँ तो चुपके से पत्र पढ़ लिया, बाजार या जंगल जाऊँ, यहाँ तक की रात में नींद से उठकर टॉर्च की रोशनी से देखता था कहीं शब्द उड़ तो नहीं गए। आगे वे बताते हैं, "एक दिन मैं अपने चाचा की दुकान में बैठा कीमा कूट रहा था। इतने में दो तीन आदमी सड़क पर जा रहे थे। एक ने मेरी और इशारा करते हुए कहा, "देखो सरस्वती का कीमा कूटा जा रहा है" और ऐसा कह कर उसने सड़क किनारे थूक दिया। यह सुन कर मेरे हाथ वहीं रुक गए। मुझे इतना गुस्सा आया, मन किया कि चाकू उसकी छाती में घोंप दूँ। मैं नौवीं कक्षा में पढ़ता था और बहुत भावुक था। मैं उस रात दीवार से सर पटक पटक कर खूब रोया और भगवान से प्रार्थना की, मुझे कितने भी कष्ट देना लेकिन लेखक बना देना।"
शैलेश मटियानी जी के संघर्ष
संघर्षों से शैलेश जी का चोली दामन का साथ रहा, शायद इसी ने उनकी कलम को इतना सशक्त और पैना बनाया। पूरी ज़िंदगी आर्थिक, सामाजिक, मानसिक और जीवन के अंतिम दिनों में शारीरिक समस्या से जूझते रहे, लेकिन साहित्य का पहाड़ खड़ा कर गए। सन १९५१ में वे दिल्ली आए। यहाँ वह 'अमर कहानी' के संपादक आचार्य ओमप्रकाश गुप्ता के संपर्क में रहे। इसके बाद वे इलाहाबाद गए जहाँ प्रेस की कैंटीन में काम पर लगे, लेकिन पहले ही दिन कैंटीन में शैलेश से एक प्लेट टूटी तो मैनेजर ने उन्हें काम से निकाल दिया। दिन भर की थकान और भूख से बेहाल वह एक बरामदे में सो गए। रात में मकान मालिक ने उन्हें चोर समझ कर पुलिस को सौंप दिया। बाद में वे मुज़फ्फ़रनगर होते हुए दिल्ली और वहाँ से मुंबई चले गए। सन १९५६ में उनको बंबई के श्रीकृष्णपुरी हाउस में काम मिला, जहाँ उन्होंने साढ़े तीन साल तक कार्य किया और अपना लेखन जारी रखा। मुंबई में सर छुपाने कि जगह न होने के कारण उन्होंने कई रातें फुटपाथ पर गुजारीं। कई बार भोजन और सर छुपाने की चाह में जानबूझकर रात में वे पुलिस की गश्त के वक़्त टहलने लगते और पुलिस उन्हें पकड़ कर ले जाती। वहाँ भूख शांत होती, रहने को छत मिल जाती, साथ में जेल के काम के बदले भत्ता भी मिल जाता। संघर्ष के दिनों में कमाई के लिए उन्होंने अपना ख़ून भी बेचा। ख़ून बेचकर जो पैसे मिलते उसका कुछ हिस्सा उन्हें दलालों को देना पड़ता जो गरीब और अफीमचियों का खून बेचते थे। यहीं उनका मुंबई के अपराध जगत से परिचय हुआ और इसी अनुभव को आधार बनाकर उन्होंने 'बोरीवली से बोरीबंदर तक' प्रथम उपन्यास की रचना की। मुंबई में तमाम दुश्वारियों से परेशान होकर वे आत्महत्या करने रेल की पटरियों पर भी गए लेकिन एक बड़ा लेखक बनने की इच्छा ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। देवेंद्र मेवाड़ी ने मटियानी जी पर संस्मरण में लिखा है, "एक बार भूख की तीव्रता का अनुभव करते हुए उन्होंने मुंबई में समुद्र के किनारे फेंका हुआ एक डब्बा उठाया, तो उसके भीतर पॉलीथीन में बंधा हुआ कुछ मिला। उसे खोलकर देखा तो उसमें मनुष्य का मल था।"
किस्सों के धनी
शैलेश मटियानी अपनी दादी को याद करते हुए कहते हैं, "मेरे लेखक-जीवन की नींव में दादी के मुख से निकली लोक-कथाओं की ईंटें पड़ी हुई हैं। किस्सों को वह कहानी के रूप में कागज़ पर उतार देते थे। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कुछ किस्से मनु प्रकाश जी के साथ साझा किए। उन्होंने बताया कि एक बार मैंने घर में एक बिल्ली पाली, वह बिल्ली बहुत सारा दूध पी जाती थी। इस बात से पत्नी नाराज़ होती और कहती कि इस बिल्ली के लिए दूध कहाँ से लाऊँ? मैंने बिल्ली पर कहानी लिख दी और उससे बहुत पैसे कमाए। एक और उदहारण, माना मेरी जेब में कुछ पैसे हैं। मैंने सब्जी वाले से सब्जी खरीदी और मेरी जेब खाली हो गई। मैंने सब्जी वाले पर कहानी लिख दी और इसी के साथ जेब में चार पैसे आ गए।"
इलाहाबाद में सुमित्रनंदन पंत जी के साथ पहली मुलाकात के बारे में वे बताते हैं, "मैं पंत जी के घर पहुँचा, वे घर के बाहर ही बैठे थे मेज कुर्सी लगाकर। मेरी ओर उनकी पीठ थी। वे किसी अँग्रेज़ी किताब में खोए हुए थे। यहाँ चित्त में आशा मंडरा रही थी अगर पंत जी के यहाँ शरण मिल गई तो लेखक बनने की संभावना बढ़ जाएगी। कुछ देर बाद पंत जी ने मेरी और रुख किया तो मैंने प्रणाम करके शमशेर जी का पत्र थमा दिया और उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। उत्तर मात्र इतना मिला कि घरेलु नौकर रखने की कोई संभावना नहीं है और साथ ही यह भी बता दिया कि कुछ समय पहले एक पहाड़ी लड़के को काम पर रखा था, वह कुछ दिनों में चोरी कर के भाग गया। पंत जी के साथ पनपने की शृंखला यहीं समाप्त हो गई।"
अतिथि सत्कार
उनके घर के दरवाजे अतिथियों के लिए हमेशा खुले रहते थे। कैसा भी समय हो कोई भी मेहमान उनके घर से बिना चाय बिस्कुट और खाना खाए नहीं लौटता था। ममता जी लिखती हैं कि "कई बार ऐसा भी हुआ कोई मित्र सपरिवार उनके घर आ पँहुचा और वह दूसरे कमरे के दरवाज़े से रद्दियों और अख़बार का ढेर लेकर बाजार में बेचने चले गए और वापसी में चाय नाश्ते का सामान लेकर लौटे।" अक्सर दोस्तों को घर बुलाकर वे मीट और करेला बना कर खिलाया करते। करेले में वे गुड़ और टमाटर डालते, उनका मानना था गुड़ डालने से करेले का कसैलापन कम हो जाता है।
शैलेश मटियानी जी के साहित्यिक योगदान को सम्मान देते हुए उत्तराखंड सरकार, प्रदेश के २९ शिक्षकों को हर साल शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के लिए 'शैलेश मटियानी पुरस्कार' से सम्मानित करती है। मटियानी जी के सम्मान में मध्य प्रदेश सरकार भी 'शैलेश मटियानी स्मृति कथा पुरस्कार' प्रदान करती है। शैलेश जी का संपूर्ण जीवन संघर्षों में बीता लेकिन फिर भी उनका हिंदी प्रेम अनवरत बना रहा। उनका कृतित्व एवं व्यक्तित्व हिंदी प्रेमियों को प्रेरणा देता रहेगा।
शैलेश मटियानी : जीवन परिचय |
जन्म | १४ अक्तूबर १९३१ बाड़ेछीना, अल्मोड़ा, उत्तराखंड |
निधन | २४ अप्रैल २००१ |
पिता | बिशन सिंह मटियानी |
माता | लक्ष्मी देवी |
साहित्यिक रचनाएँ |
पत्र संकलन | लेखक और संवेदना |
बाल साहित्य | बिल्ली के बच्चे माँ की वापसी कालीपार की लोक कथाएँ हाथी चींटी की लड़ाई सुबह का सूरज
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निबंध संग्रह | मुख्य धारा का सवाल कागज की नाव राष्ट्रभाषा का सवाल यदा कदा लेखक की हैसियत से
| किसके राम कैसे राम जनता और साहित्य यथा प्रसंग राष्ट्रीयता की चुनौतियाँ
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कहानी संग्रह | | हत्यारे बर्फ की चट्टानें जंगल में मंगल महाभोज चील प्यास और पत्थर नाच जमूरे नाच
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उपन्यास | | उगते सूरज की किरण छोटे-छोटे पक्षी रामकली सर्पगन्धा आकाश कितना अनंत है उत्तरकाण्ड डेरेवाले बावन नदियों का संगम अर्द्ध कुम्भ की यात्रा मुठभेड़ नागवल्लरी माया सरोवर चंद औरतों का शहर बर्फ गिर चुकने के बाद
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पुरस्कार व सम्मान |
प्रथम उपन्यास 'बोरीवली से बोरीबंदर तक' उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का 'प्रेमचंद पुरस्कार' १९८३ में 'फणीश्वरनाथ रेणु' पुरस्कार उत्तर प्रदेश सरकार का 'संस्थागत सम्मान' देवरिया केडिया संस्थान द्वारा 'साधना सम्मान' १९९४ में कुमाऊँ विश्वविद्यालय द्वारा 'डीलिट' की मानद उपाधि १९९९ में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा 'लोहिया सम्मान' २००० में केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा 'राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार'
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संदर्भ
विकिपीडिया
मनु प्रकाश, कथा पुरुष शैलेश मटियानी, २००८
पहाड़ जिन पर टूटता ही रहा शैलेश मटियानी, कल परसों के बरसों, ममता काला, २०११
अनुजा कुमारी, शैलेश मटियानी : अर्धांगिनी और दाम्पत्य प्रेम, २०२०
लेखक परिचय
डॉ० नीरू भट्ट
मूलरूप से उत्तराखंड की निवासी है। इन्होंने पीएचडी (पशु पोषण) और इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा किया है। इन्होंने भारतीय पशु चिकत्सा अनुसंधान संस्थान, बरेली, ओमान फ्लौर मिल्स और सुल्तान क़ाबूस यूनिवर्सिटी, सल्तनत ऑफ़ ओमान में विभिन्न पदों पर काम किया है। वर्तमान में ये केनेडियन जर्नल ऑफ़ क्लीनिकल नुट्रिशन की मैनेजिंग एडिटर है। इनके बीस से ज्यादा रिसर्च और रिव्यु लेख विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय जर्नल में तथा सात पुस्तक अध्याय प्रकाशित हुए हैं। हाल में इनकी एक किताब "नेग्लेक्टेड वाइल्ड फ़्लोरा ऑफ़ उत्तराखंड'' प्रकाशित हुई है। इनकी हिंदी कविताओं और कहानियों के पॉंच साझा संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं।
आज के दिन की शुरुआत इस मार्मिक आलेख को पढ़ने के साथ हुई. शैलेश मटियानी जब अचानक मिले तो फिर उन्हें पढ़ने से अपने आप को रोक नहीं पाती थी.उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को समेटता यह सुंदर आलेख इस मंच की उपलब्धि है, हार्दिक बधाई लेखिका !
ReplyDeleteमाटी से गढ़ा रचनाकार मटियानी!
ReplyDeleteकभी पढ़ा- सुना था- " मेंहदी रंग लाती है, पिसने के बाद।" चरितार्थ पाया इस आलेख से।
नीरू जी शुभकामनाएं!
वाह, डॉ नीरू जी,आपने शैलेश मटियानी का घर दिखा दिया और उनकी संघर्ष गाथा सामने खोल दी। कितने अनुभव,कितने प्रसंग से रूबरू कर दिया। शैलेश जी की जीवन कहानी पर टीवी सीरियल अथवा फिल्म बनेगी इतना सामान आपने छोटे लेख में उतार दिया है। हार्दिक अभिनंदन 🙏💐
ReplyDeleteअरे बाबा, इतना संघर्ष! शैलेश जी के जीवन को देख कर लगता है कि, मुश्किल क्या है, हमने कभी जाना ही नहीं। प्रभु सबकी रक्षा करें। इतना स्पष्ट पेशेवर लेखक भी नहीं देखा जो सहजता से अपने लेखन को बिकने वाले माल की तरह देखे और उससे बनने वाले पैसे का इतना बेझिझक ज़िक्र करे। नीरू जी आपके आलेख ने बहुत जानकारी दी। और ख़ूबसूरती यह कि आपने जस-का-तस बयान कर दिया, बिना कोई लच्छा लगाए। इस कारण से प्रभाव सीधा और गहरा पड़ता है। आप यूँ ही लिखती रहें , ऐसी शुभकामना। 💐💐
ReplyDeleteडॉ. नीरू जी नमस्ते। आपका शैलेश मटियानी जी पर यह भावुक लेख बहुत अच्छा है। शैलेश जी ने जीवन के संघर्षों से लड़ते हुए कलम का थामे ही नहीं रखा बल्कि उसे अपनी विजय का हथियार बना दिया। आपने शैलेश जी के जीवन एवं साहित्य को बखूबी इस लेख में सँजोया है। आपको इस भावपूर्ण लेख के लिये हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteनीरू जी, नमस्ते। शैलेश मटियानी जी के संघर्षों और लेखन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को अपने में सँजोए आपका आलेख जीवंत है और एक चलचित्र की तरह पढ़ा गया। हमारे साहित्यकार संघर्षों से लड़ते रहे, बद से बद्तर हालात में रहे और हमारे जीवन को समृद्ध करने के लिए संपत्ति संचित करते गए, लिखते गए। नमन शैलेश मटियानी जैसे सभी साहित्यकारों को। आपको इस आलेख के लिए बधाई और आभार।
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