भारतीय स्वाधीनता संग्राम का मुख्य उद्घोष बनकर जो गूँजा; अँग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ़ भारतीय क्रांतिकारियों का पसंदीदा गीत बना; देशभर में हर क्रांतिकारी, बच्चे, युवा, वयस्क, महिलाओं की जुबाँ पर आज़ादी की लड़ाई का नारा बनकर गूँजा और आज भी भारत के करोड़ों युवा दिलों में जो अमर राष्ट्र भाव के साथ धड़कता है; उस राष्ट्र गीत, वंदे मातरम के रचयिता बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय को मुख्यतः इसी रचना के लिए जाना जाता है। परंतु बहुत से ऐसे लोग हैं, जो यह नहीं जानते कि वे भारत के महान उपन्यासकारों और कवियों में से एक थे। उन्होंने अपने आलेखों से जन-जन में राष्ट्रीयता की अलख जगाई। सरकारी नौकरी में होने के कारण किसी सार्वजनिक आंदोलन में प्रत्यक्षतः भाग नहीं ले सकने की विवशता उनका मन कचोटती थी और इस पीड़ा से उबरने के लिए उन्होंने साहित्य को माध्यम बनाया और स्वतंत्रता आंदोलन के लिए जागृति का संकल्प लिया।
पराधीन भारत में जब अँग्रेज़ी हुक्मरानों ने इंग्लैंड की महारानी के लिए 'गॉड! सेव द क्वीन' गीत को हर कार्यक्रम में गाना अनिवार्य कर दिया था, तब बंकिमचंद्र इससे अत्यंत आहत हुए और उन्होंने भारतभूमि को माता का दर्जा देते हुए १८७४ में 'वंदे मातरम' गीत की रचना की, जिसे बाद में १८८२ में आए उनके उपन्यास 'आनंदमठ' में भी शामिल किया गया। भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने २४ जनवरी १९५० को वंदे मातरम को राष्ट्रगीत का दर्जा दिया।
२७ जून १८३८ को बंगाल के २४ परगना ज़िले के कंठालपाड़ा गाँव में यादवचंद्र चट्टोपाध्याय और दुर्गा देवी के यहाँ जन्मे बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय आरंभ से ही मेधावी रहे और मिदनापुर में प्रारंभिक शिक्षा के बाद छह वर्ष हुगली के मोहसिन कॉलेज में अध्ययन किया। पठन व संस्कृत अध्ययन में रुचि से उनका संस्कृत ज्ञान सुदृढ़ हुआ, जो उनके लेखन की नींव बना।
१८५६ में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया। १८५७ में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के खिलाफ़ जब विद्रोह हुआ तो भी बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने अपनी पढ़ाई जारी रखी और १८५९ में स्नातक की परीक्षा दी। कलकत्ता के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने उसी वर्ष उन्हें डिप्टी कलेक्टर नियुक्त कर दिया। वे बत्तीस साल तक सरकारी सेवा में रहकर १८९१ में सेवानिवृत्त हुए। आंग्लीकरण के परिणामस्वरूप उनका नाम चट्टोपाध्याय से चैटर्जी हो गया, किंतु वे स्वयं सदैव राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत ही रहे।
मात्र ग्यारह वर्ष की आयु में उनका विवाह पाँच वर्षीय बालिका से हुआ और जब वह केवल बाईस वर्ष के थे तब उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई। कुछ समय बाद राजलक्ष्मी देवी से दूसरा विवाह हुआ, जिनसे उन्हें तीन पुत्रियाँ प्राप्त हुईं।
कविता से साहित्यिक जीवन आरंभ करते हुए बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने गद्य का रुख किया। उनकी आरंभिक रचनाएँ ईश्वर चंद्र गुप्ता के साप्ताहिक समाचार पत्र 'संवाद प्रभाकर' में प्रकाशित हुईं। बांग्ला भाषा में ये रचनाएँ खूब लोकप्रिय हुईं और उन्होंने इसका श्रेय माता-पिता के आशीर्वाद को दिया। बचपन से ही रामायण-महाभारत के संपर्क में रहना तथा नौकरी के दौरान अलग-अलग स्थानों पर नए-नए लोगों से मेलजोल ने भी उनकी लेखन क्षमता में वृद्धि की। उनकी पहली प्रकाशित कृति बांग्ला में न होकर अँग्रेज़ी में थी, जिसका नाम था 'राजमोहन्स वाइफ़'।
बंकिमचंद्र जी ने साहित्य जगत को ऐसी कालजयी कृतियाँ दी, जिनके लिए उन्हें सदैव याद किया जाता रहेगा। उनसे पहले जो भी उपन्यास लिखे गए, वे या तो वर्णनात्मक शैली में थे या उनकी विषयवस्तु पौराणिक कथाओं पर आधारित होती थी। बंकिम पहले ऐसे उपन्यासकार थे, जिनकी रचनाओं ने जनमानस को राष्ट्रीय नवजागरण का संदेश दिया। महत्वपूर्ण यह कि उन्होंने यह कार्य उस समय किया जब भारतवर्ष की जनता पराधीनता की बेड़ियों में स्वयं को असहाय महसूस कर रही थी। उन्होंने कुल १५ उपन्यास लिखे। इनमें से 'आनंदमठ', 'दुर्गेशनंदिनी', 'कपालकुंडला', 'मृणालिनी', 'चंद्रशेखर' तथा 'राजसिंह' आज भी लोकप्रिय हैं। 'दुर्गेशनंदिनी' बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित प्रथम बांग्ला उपन्यास था। सन १८६४ के मार्च मास में यह उपन्यास प्रकाशित हुआ। यह बंकिमचंद्र के २४ से २६ वर्ष तक के आयुकाल में लिखित उपन्यास है। इस उपन्यास के प्रकाशित होने के बाद बांग्ला कथासाहित्य की धारा एक नए युग में प्रवेश करती है। यह उपन्यास १६वीं शताब्दी के उड़ीसा को केंद्र में रखकर मुगलों और पठानों के आपसी संघर्ष की पृष्ठभूमि में रचित है। 'आनंदमठ', 'देवी चौधरानी' तथा 'सीताराम' जैसे उपन्यासों में उन्होंने तात्कालिक परिस्थितियों का चित्रण किया। वे एक सजग लेखक के रूप में समाज की अच्छाइयों तथा बुराइयों को अपनी कृतियों में उचित स्थान देते हैं। 'विषवृक्ष', 'इंदिरा', 'युगलांगुरीया', 'राधारानी', 'रजनी' और 'कृष्णकांत की वसीयत' में इसका प्रत्यक्ष उदाहरण देखने को मिलता है। सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास व देशभक्तों की कहानी 'आनंदमठ' ने भारत में नए प्राण फूंक दिए। ऐतिहासिक और सामाजिक तानेबाने से बुने हुए इस उपन्यास ने देश में राष्ट्रीयता की भावना जागृत करने में बहुत योगदान दिया। यह सन १७७३ में हुए स्वराज आंदोलन की कहानी है जब बंगाल में भयानक अकाल था, जनता अँग्रेज़ों के अत्याचारों से काँप रही थी और चारों ओर अंधकार पूर्ण वातावरण था। उन्होंने अप्रशिक्षित संन्यासी सैनिकों की कल्पना की और अत्यधिक अनुभवी ब्रिटिश सेना को हरा दिया; फिर भी अंत में, उन्होंने स्वीकार किया कि अँग्रेज़ों को हराया नहीं जा सकता। खंडों में प्रकाशित इस उपन्यास ने बंगाली भाषी लोगों की बुद्धि को उत्तेजित किया।
वस्तुतः बंकिमचंद्र बंगाल का सांस्कृतिक पुनरुद्धार करना चाहते थे और इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने १८७२ में मासिक पत्रिका 'बंगदर्शन' का भी प्रकाशन किया। 'बंगदर्शन' ने बंगाली पत्रिका का नया पर्व शुरू किया। रवींद्रनाथ ठाकुर जैसे लेखक 'बंगदर्शन' में लिखकर ही साहित्य के क्षेत्र में आए। वे बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय को अपना गुरु भी मानते थे। उनका कहना था कि, "बंकिम बंगला लेखकों के गुरु और बंगला पाठकों के मित्र हैं"।रवींद्रनाथ ने एक स्थान पर कहा है, "राममोहन ने बंग साहित्य को निमज्जन दशा से उन्नत किया, बंकिम ने उसके ऊपर प्रतिभा प्रवाहित करके स्तरबद्ध मूर्तिका अपसरित कर दी। बंकिम के कारण ही आज बंगभाषा मात्र प्रौढ़ ही नहीं, उर्वरा और शस्यश्यामला भी हो सकी है।"
बंकिम के रामकृष्ण परमहंस जी से बहुत मधुर संबंध थे। यद्यपि बंकिम उच्च शिक्षा और प्राच्य विचारों से प्रभावित थे व रामकृष्ण ने कभी औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी, फिर भी दोनों एक-दूसरे से प्रभावित रहे। एक बार बंकिम (बेंट ए लिटिल) के अर्थ पर खेलते हुए श्री रामकृष्ण परमहंस ने उनसे पूछा कि ऐसा क्या है, जिसने उन्हें झुका दिया। बंकिमचंद्र ने मज़ाक में जवाब दिया कि यह अँग्रेज़ के जूते की लात थी क्योंकि वह ब्रिटिश सरकार के जाने-माने आलोचक थे।
बंकिम हिंदू-मुसलमानों की एकता के प्रबल पक्षधर थे। बंगदर्शन में उन्होंने लिखा, "बंगाल की भलाई के लिए हिंदू-मुसलमानों में एकता अत्यंत आवश्यक है"।
उपन्यासों के अलावा बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने कृष्ण चरित्र, धर्मतत्व, देवतत्व की भी रचना की। साथ ही गीता पर विवेचन भी लिखा। भगवद्गीता पर चट्टोपाध्याय की टिप्पणी उनकी मृत्यु के आठ साल बाद प्रकाशित हुई थी। अध्याय ४ के १९वें श्लोक तक उनकी टिप्पणियों को शामिल किया गया था। सांख्य दर्शन पर एक लंबे निबंध में, उनका तर्क है कि भारत में धार्मिक विश्वासों के भारी हिस्से का केंद्र दार्शनिक आधार है। बंगदर्शन के पहले अंक में उन्होंने कहा कि "जब तक हम अपनी भावना को, अपने विचारों को मातृभाषा में व्यक्त नहीं करेंगे तब तक हमारी उन्नति नहीं हो सकती।" उनका अधिकांश लेखन बंगाली में हुआ, किंतु उसमें भारतीय संस्कृति का आधार है। अपने लेखन में उन्होंने सामाजिक सुधार भी सुझाए हैं। तत्कालीन समाज अँग्रेज़ और अँग्रेज़ियत के प्रति आकर्षित था। ऐसे लोगों को लक्ष्य कर उन्होंने कहा कि लोग अपनी भाषा से ही प्रगति कर सकते हैं। अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए प्रत्येक भाषा का प्रयोग करना चाहिए। पर प्रगति के लिए केवल एक मार्ग है, अपनी भाषा। बंकिम विशेष रूप से बंगाल की १४वीं और १५वीं शताब्दी के ऐतिहासिक गौड़ीय वैष्णव सांस्कृतिक उत्थान से प्रभावित रहे। देश के महान लेखकों में बंकिमचंद्र का नाम पहली श्रेणी में रहेगा।
जो भारतीयों को स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देने वाला था; लोग जिसके लेखन से राष्ट्रीयता का अर्थ समझ सके; ८ अप्रैल १८९४ को ५९ वर्ष की अवस्था में भारत का यह महान सपूत इस नश्वर संसार को अलविदा कह गया। भारत सरकार ने १९६९ में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के सम्मान में बीस पैसे का डाक टिकट भी जारी किया।
संदर्भ
लेखक परिचय
भावना सक्सैना
२८ वर्ष से शिक्षण, अनुवाद और लेखन से जुड़ी हैं। चार पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें एक पुस्तक सूरीनाम में हिंदुस्तानी दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम है। एक कहानी संग्रह 'नीली तितली' व एक हाइकु संग्रह 'काँच-सा मन' है। हाल ही में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से सरनामी हिंदी-हिंदी का विश्व फलक प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन भी किया है व अनेक संस्थाओं से सम्मानित हैं। नवंबर २००८ से जून २०१२ तक भारत के राजदूतावास, पारामारिबो, सूरीनाम में अताशे पद पर रहकर हिंदी का प्रचार-प्रसार किया। संप्रति, भारत सरकार के राजभाषा विभाग में कार्यरत हैं।
वंदे मातरम् बोल बोल कर बड़े हुए लेकिन सही अर्थ समझ में तभी आया जब आनंद मठ पढ़ी। आनंद मठ बहुत प्रभावशाली पुस्तक है। अक्सर लोग इस कहानी को केवल राष्ट्रभक्ति से जोड़ते हैं मगर मैं मानता हूँ कि यह मानवीय चरित्र निर्माण के लिए अनोखी कहानी है। विभिन्न गृहस्थ जीवन जीने वालों को स्वामी जी द्वारा सन्यासी संगठन में सुगठित करना एवं उनका दृढ़ प्रतिज्ञ अनुशासन का पालन करना अद्भुत प्रयोग जान पड़ता है , बहुत प्रेरक है। बंकिम चंद्र उन लेखकों में से नहीं हैं जो आदर्श स्थापित करते हुए मानवीय कमज़ोरियों के यथार्थ से कन्नी काट जाएँ। वह इस यथार्थ का खुली आँखों से सामना करते हैं। एक दृढ़ प्रतिज्ञ सन्यासी का अपने पथ से विचलित होना, कामना पर फिसल जाना, और फिर प्रायश्चित में सर्वस्व त्याग कर देना , पाठक को हिला देता है और मन-वचन-कर्म की एकबद्धता के लिए प्रेरित करता है। आश्रम का पूरा वातावरण बहुत सुंदर ढंग से चित्रित किया गया है। वन्दे मातरम गीत को पढ़ते हुए पूरे शरीर में सिहरन का अहसास होता है। पूरा गीत पहली बार आनंद मठ में ही पढ़ा था।बहुत सुंदर रचना। आनंद मठ फ़िल्म भी बहुत सुंदर बनी थी। यूट्यूब पर देखी जा सकती है। बंगला साहित्य में रवीन्द्रनाथ ठाकुर, शरत चंद्र चट्टोपाध्याय, बंकिम चंद्र, शंकर, आदि लेखकों की अनेक रचनाएँ श्रेष्ठ साहित्य रत्न हैं। आनंद मठ ऐसा ही एक रत्न है जो पाठक कभी भूल नहीं सकता।
ReplyDeleteभावना जी ने बंकिम चंद्र जी के जीवन एवं कृतित्व पर सुंदर आलेख दिया है। बधाई। 💐💐
भावना जी, वंदे मातरम जैसा नारा देकर पराधीनता के नैराश्य भरे जीवन में जागृति का मन्त्र फूँकने वाले और आजीवन पराधीनता के खिलाफ लेखनी के माध्यम से मुहिम चलाने वाले बंकिम बाबू पर आपका लेख अत्युत्तम है। बंकिम चंद्र जी ने अपने समाज के समस्त पहलुओं को बख़ूबी समझकर और उन्हें ध्यान में रखकर ही स्वतंत्रता की राह पर बढ़ने के सुझाव दिए। आपका आलेख पढ़कर इन्हें पढ़ने की लालसा उठी है, शायद शुरुआत आनंद मठ से करुँगी। आपको इस सधे हुए जानकारीपूर्ण लेख के लिए बधाई और आभार।
ReplyDelete१८९६ में कलकत्ता अधिवेशन में गाया हुआ *वंदे मातरम* भारत का राष्ट्रीय गीत बंकिम चंद्र बाबू की लेखनी का वरदान है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के काल मे क्रांतिकारियों के लिए यह गीत प्रेरणास्रोत बन गया था। बंकिम दा का साहित्य इतना प्रभावकारी है कि जनमानस को राष्ट्रीय नवजागरण का संदेश पहुचाने में सबसे ज्यादा मददगार साबित हुआ है। आदरणीया भावना जी आपके द्वारा लिखा गया बंकिमचंद्र जी का आलेख उनके उपन्यासों, कहानियों, ऐतिहासिक और सूचनात्मक लेखों, धार्मिक प्रवचनों और समीक्षाओं के ज्ञान से भरा पड़ा है। सुंदर और रोचक आलेख के लिए आपका बहुत बहूत आभार। 👌👌👏👏💐
ReplyDeleteभावना जी नमस्ते। आपका आज का लेख निश्चित ही विशेष है। आपने स्वाधीनता के आंदोलन के एक शीर्ष साहित्यकार श्री बंकिमचंद्र जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। उनके साहित्यिक योगदान इतना विस्तृत है कि उसे एक लेख में समेटना कठिन है जो आपने बखूबी किया है। इस ओज से भरे जानकारी पूर्ण लेख के लिये आपको बहुत बहुत बधाई।
ReplyDelete