Wednesday, April 13, 2022

बाबू गुलाब राय: हिन्दी समीक्षा के युग पुरुष

 

प्रत्येक युग में कोई कोई प्रतिभाशाली लेखक अवश्य होता है, जो पाठक को अपनी निष्पक्षीय आलोचना द्वारा कृति पर पड़े सघन कोहरे से पथभ्रष्ट होने से बचाता है।  प्रत्‍येक रचना में उसके रचियता का कोई कोई ध्येय अवश्य निहित होता है इस संबंध में पाठक, लेखक और आलोचक के दृष्टकोण भिन्न-भिन्न हो सकते हैं आलोचक अपनी आलोचना  एवं भाषिक समीक्षा द्वारा लेखक को एक प्रकार से पुन: संस्कार करता है आलोचक अपने आलोच्य विषय से पहले घनिष्ठता प्राप्त करता है, उसके अंदर बैठकर उसे देखता है, उसके उपरांत उसका मूल्य निर्धारित करता है जहां भावनाओं का उदगम होता है वहीं आलोचनाओं का जन्म होता है ऐसी सृष्टि की प्रक्रिया का ही नाम साहित्य है और उसकी प्रतिक्रिया के मूल में जो भावना निहित है वही आलोचना होता है अत: समालोचक केवल किसी कवि का हाल ही नहीं बताती वरना साधारण पाठक समाज में औचित्य ओर कृति की उपादेयता को  बढ़ाती है समालोचक का कर्त्तव्य है कि वह ग्रंथों के ठीक-ठीक गुण-दोष बताकर ऐसे मनुष्यों की रुचियों की भी उचित उन्नति करें  

समीक्षक रचना को एक व्यापक -परिदृश्य में देखने के लिए एक ऐसी समन्वित दृष्टि विकसित करता है जो साहित्य के मात्र बाहरी संरचनात्मक स्‍वरूप  के दर्पणीय अक्स को ही नहीं, अपितु उसके भीतरी ''एक्सरे'' को उभारती है इसी  दर्शन को निभाते हुए बाबू गुलाब राय ने हिंदी साहित्‍य की समालोचना के क्षेत्र में  महत्‍वपूर्ण योगदान दिया है। 

बाबू गुलाब राय का जन्म १७ जनवरी १८८८ तद्नुसार माघ कृष्ण चतुर्थी संवत १९४४ इटावा में हुआ था इनके पिता श्री भवानी प्रसाद धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे इनकी माता भी कृष्ण की उपासिका थी आपकी प्रारंभिक शिक्षा मैनपुरी में हुई तत्पश्चात उच्च शिक्षा ग्रहण करने हेतु आगरा गए १९१३ में सेंट जॉन्स कॉलेज, आगरा से एम. . करने के पश्चात छतरपुर राज्य के महाराजा सर विश्वनाथ सिंह के नीजि सचिव, दार्शनिक सलाहाकार, दीवान एवं मुख्य न्यायाधीश के रूप  में लगभग १८ वर्षों तक कार्य किया वहाँ से अवकाशग्रहण करने के पश्चात् आपने जैन आवासीय विद्यालय के वार्डन बने पुन: १९३४ में आप सेंट जॉन्स कॉलेज आगरा में हिन्दी के अवैतनिक प्रोफेसर नियुक्त किए गए तब से बाबू गुलाब राय साहित्य के क्षेत्र में ऐसे प्रकाश पुंज हुए जिसके दिव्य आलोक से हिन्दी जगत दैदीप्यमान होता रहा उनकी साहित्य साधना उनके विराट व्यक्तित्व की साकार अभिव्यक्ति है उन्होंने अपने रचना संसार द्वारा जीवन के भोगे हुए अनुभव को बड़े ही सहजता से व्यक्त किया है उनकी रचनाएंढ़कर जहाँ सदृश्य पाठक आत्मविभोर हो जाता है, वहीं उनसे मार्गदर्शन भी ग्रहण करता है उन्हें साहित्य में श्रेष्ठ समीक्षक, अप्रतिम निबंधकार, दार्शनिक अध्यापक और उत्‍कृष्‍ट एवं सुयोग्य संपादक बताया गया है । सामाजिक उन्‍नयन के परिप्रेक्ष्‍य में  बाबूजी साहित्य समग्रता का संदेशवाहक हैं और यही विशेषता उन्हें अन्य साहित्यकारों से विशिष्ट बनाता है १९३५ से उन्होंने ''साहित्य संदेश'' नामक पत्रिका का संपादन किया इस पत्रिका के माध्यम से बाबूजी ने हिन्दी विषय के उच्च कक्षाओं के विद्यार्थियों, प्राध्यापक एवं शोधार्थियों का मार्गदर्शन किया। उन्होंने हिन्दी साहित्य में निबंध, आलोचना, दर्शन एवं अन्य विविध आयामों पर अनवरत लेखनी चलाकर हिन्दी वांड्मय को लगभग ५० ग्रंथे दिए। बाबू गुलाबराय ने तो वैसे तमाम विषयों पर अपनी लेखनी चलाई लेकिन आम आदमी की जिन्दगी से जुड़े विषयों पर लिखे गए अनेकों लेखों को आज भी काफी पसंद किया जाता है समीक्षा, विश्लेषण करने के बावजूद निबंधों को कभी बोझिल नहीं होने दिए उनके निबंधों में हास्य- व्‍यंग्‍य  की झलक भी पाठकों को काफी भाती है 'मेरे निबंध', 'मेरे मानसिक उपादान' और 'ढलुआ क्लब' उनके लोकप्रिय निबंध संग्रह है 'फिर निराश क्यों' उनकी एक ऐसी रचना है जिनमें अनेक विषयों पर छोटे-छोटे किन्तु बड़े प्रभावकारी निबंध संकलित किए गए हैं उन्होंने लिखा है कि सौन्दर्य का अस्तित्व भी कुरूपता पर निर्भर है। सुंदर पदार्थ अपनी सुंदरता पर चाहे जितना गुमान कर ले किन्तु असुंदर  पदार्थों के होने की स्थिति में ही सुंदर कहलाता है उनकी रचनाओं में लोकोक्तियों एवं मुहावरों का बड़ा ही रोचक प्रयोग हुआ है, जैसे  - ''सब लोग नेता नहीं हो सकते क्योंकि यदि सब नेता बन जाएं तो नउओं के बारात में ठाकुर ही ठाकुर; चिलम भरने कौन जाए की समस्या उपस्थित हो जाएगी '' 

हिन्दी के प्रति समर्पन भावना 

बाबूजी में हिन्दी के प्रति विशेष लगाव था शायद इसलिए उन्होंने दर्शनशास्त्र आदि का का प्रणयन हिन्दी में ही किया बाबूजी तथा उनके सदृश्य अन्य सरस्वती साधकों ने अनवरत एवं अथक साधना करके हिन्दी को उच्च एवं सम्‍मानीय  स्थान दिलाया भाषा के साथ-साथ उनकी कृतियों में हमें मानवतावादी स्वर भी सुनाई देता है उनके साहित्य में यथार्थ एवं सत्यानुभूतियों के ही मोहक चित्रण हुए हैं 

रचनाएं एवं दार्शनिकता 

जीवनपर्यन्त साहित्य साधना में जुटे रहनेवाले इस महान साहित्यकार ने १९१३ में 'शांति धर्म' तथा 'मैत्री धर्म' नामक कृतियों से संसार में पदार्पण किया और मृत्यु से एक वर्ष पूर्व अर्थात १९६२ में 'जीवन रश्मियां' 'निबंधमाला' एवं सांस्कृतिक जीवन नामक कृतियां  लिखकर ही विराम किया। लगभग ५० वर्ष की सुदीर्घ अवधि में उन्होंने पचास से अधिक कृतियों की रचना की आपने हिन्दी साहित्य के अलावा कर्त्‍तव्‍य शास्त्र (१९१५), तर्कशास्त्र (१९१६), पाश्चात्‍य दर्शन का इतिहास (१९१८), बौध्दधर्मा (१९३०),  विज्ञान वार्ता (१९३६), विज्ञान विनोद (१९३७) पर भी अपनी लेखनी चलाकर सरस्वती के अक्षय भंडार को समृध्द किया साहित्यिक कृतियों में आपने नवरस (१९५३), हिन्दी नाट्य विमर्श (१९३८), हिन्दी साहित्य का सुबोध इतिहास (१९९०) सिद्धांत और अध्ययन (१९३८) काव्य के रूप (१९४६), हिन्दी काव्य विमर्श और हिन्दी गद्य आलोचञ, कुसुमांजलि (१९४८), रहस्यवाद और हिन्दी कविता (१९५३) आदि का सृजन किया 

भाषा-शैली

रचना दृष्टि से गुलाबराय जी दो प्रकार की रचनाएं की है --

1. साहित्यिक

2. दार्शनिक

बाबू गुलाबराय की रचनात्मक भाषा शुद्ध तथा परिष्कृत खड़ी बोली है इनमें विचारात्मक निबंधों की भाषा क्लिष्ट एवं परिष्कृत हैं जिसमें  संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रधानता है लेकिन भावनात्मक निबंधों की भाषा सरल है इसमें हिन्दी के प्रचलित शब्दों की प्रधानता है कहावतों एवं मुहावरों को भी अपनाया गया है संक्षेप में गुलाबराय जी की भाषा आडम्बर शून्य, गंभीर एवं प्रवाहपूर्ण है

हास्य एवं विनोदपूर्ण शैली

बाबू गुलाबराय जी के निबंधों की नीरसता दूर करने के लिए गंभीर विषयों के वर्णन में हास्य एवं व्यंग्‍य  का भी पुट दिया है उन्होंने स्वयं लिखा है -- "अब मैं प्राय: गंभीर विषयों में भी हास्य का समावेश करने लगा हूँ।" इसके लिए अपनी रचना में वे या तो मुहावरों का सहारा लेते थे या श्लेष था इस प्रकार इनकी शैली में भावों और विचारों का सुंदर समन्‍वय है। इस तरह इनके भावों  की अभिव्‍यक्ति में वाक्य छोटे-छोटे हैं और और कहीं कहीं उर्दु शब्‍द का भी प्रयोग हुआ है। हिन्‍दी निबंध और आलोचना की पुनर्व्‍याख्‍या के क्षेत्र में बाबूजी का योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं अद्वितीय है  

साहित्यकारों के विचार

बाबूजी का मन गांधीवादी नैतिकता से बहुत प्रभावित था नन्द दुलारे वाजपेयी लिखते हैं - "बाबूजी सदभाव के अनुयायी थे। किसी भी स्रोत से अच्छे बिन्दुओं को स्वीकारना बाबूजी का एक अनूठा गुण था

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त - "पहली ही भेंट में उनके प्रति मेरे मन में आदरभाव उत्पन्न हुआ था, वह निरंतर बढ़ता ही गया उनमें दार्शनिकता की गंभीरता था। उनमें हास्य-विनोद पर्याप्‍त मात्रा में था परंतु यह बड़ी बात थी कि औरों पर नहीं अपने ऊपर हँस  लेते थे"

महादेवी वर्मा जी उनके बारे में लिखा है -"आदरणीय भाई गुलाबराय जी हिन्दी के उन साधक पुत्रों में से थे जिनके जीवन और साहित्य में कोई अंतर नहीं रहा। तप उनका संबल और सत्य स्वभाव बन गया था। उन जैसे निष्ठावान, सरल और जागरूक साहित्यकार विरले ही मिलेंगे उन्होंने अपने जीवन की सारी अग्नि परिक्षाएं हंसते-हंसते पार की थी। उनका साहित्य सदैव नई पीढ़ी के लिए प्रेरक बना रहेगा।

डा. नामवर सिंह ने लिखा है - "बाबू गुलाबराय उन आलोचकों में से थे जिनसे कोई भी अप्रसन्न नहीं था इस कारण उन्हें अज्ञातशत्रु की संज्ञा दी जा सकती है। वे हिन्दी के पहले पीढ़ी के आचार्य थे।"

गोपाल शंकर व्यास ने बाबूजी के विषय में कहा है - "व समय के सारथी थे अपने रथ पर बैठाकर उन्होंने मुझ जैसे अनेक नवयुवकों को अपनी मंजिल तक पहुँचाने में सहायता की। वे स्वंय समय के साथ चले तथा लोगों को भी समय के साथ चलने की प्रेरणा दी।"  

अत: हम कह सकते है कि बाबू गुलाबराय हिन्दी के बहुत श्रेष्ठ समीक्षक, समालोचक, योग्य संपादक एवं अप्रतिम निबंधकार थे 

  बाबू गुलाबराय : जीवन परिचय

जन्म

१७ जनवरी, १८८८

जन्मस्थान

इटावा, उत्तर प्रदेश

निधन

१३ अप्रैल १९६३

पिता का नाम

भवानी प्रसाद

कर्मभूमी

छतरपुर एवं आगरा

साहित्यिक कृतियां

आलोचनात्मक रचनाएं

  • नवरस

  • हिन्दी साहित्य का सुबोध इतिहास

  • हिन्दी नाट्य विमर्श

  • आलोचना कुसुमांजिल

  • काव्य के रुप, सिध्दांत और अध्ययन

दर्शन संबंधी

  • कर्तव्यशास्त्र

  • तर्कशास्त्र

  • बौध्द धर्म

  • पाश्चात दर्शनों का इतिहास

  • भारतीय संस्कृति की रुपरेखा

निबंध संग्रह

  • प्रकार प्रभाकर

  • जीवन पशु

  • ढलुआ क्लब

  • मेरी असफलताएं

  • मानसिक उपादान

बाल साहित्य

  • विज्ञान वार्ता

  • बाल प्रबोध

संपादन ग्रंथ 

  • सत्‍य हरिश्‍चन्‍द्र

  • भाषा भूषण

  • कांदबरी

  • कथासार 

सम्‍मान व पुरस्‍कार

  • आगरा विश्‍वविदयालय से मानद डी.लिट. की उपाधि

  • २२ जून, २००२ को बाबू गुलाब राय पर डाक टिकट जारी  


संदर्भ

  • बाबू गुलाब राय, हिन्‍दी साहित्‍य का सुबोध इतिहास
  • मिश्र बंधु, आधुनिक हिन्दी  साहित्‍य का इतिहास - डा.सुर्यनारायण रणसुभे 
  • संजय राय - गुलाब राय जी के पौत्र, आगरा

लेखक परिचय

प्रताप दास

मुख्य तकनीकी अधिकारी (राजभाषा)

भा.कृ.अनु..-केन्द्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान, वरसोवा, मुंबई  - 400061 (समतुल्य विश्वविद्यालय) विगत 26 वर्षों से राजभाषाकर्मी के रुप  में कार्यरत । ''जलचरी'' पत्रिका  के संपादक, लेखन कार्य में अभिरुचि

9 comments:

  1. Very nice with well documented , Brilliant effort. keep writing and motivating us.

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  2. लेखक की लेखन-शैली व शब्द चयन
    लेख के प्रवाह को रुचिकर रक्खा है।
    लेख का प्रवाह इतना कल-कल है कि
    लेख्य व्यक्तित्व जीवन्त दीखते हैं।
    लेखक श्रीमान दास जी से आग्रह कि वो
    अपनी लेखनी की धार बनाये रखें और हम
    जैसे साहित्य प्रेमी की साहित्य पठन की
    क्षुधा को तृप्त करते रहें।

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    Replies
    1. आपकी सकारात्क समीक्षा हेतु आभार एवं धन्यवाद🙏

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  3. प्रताप जी नमस्कार। हिंदी के प्रमुख आलोचक, समीक्षक बाबू गुलाब राय जी पर आपने बहुत अच्छा लेख लिखा। उनके कुछ निबंध पढ़ने का अवसर मिला था। आपके लेख को पढ़ने के बाद उनके विस्तृत रचना संसार को पढ़ने की उत्सुकता हो रही है। आपको इस महत्वपूर्ण एवं जानकारी भरे लेख के लिये हार्दिक बधाई।

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  4. आभार एवं धन्यवाद सर🙏🙏

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  5. आदरणीय प्रताप जी आपने हिंदी भाषा और साहित्य को समृद्ध बनाने में विशेष योगदान देनेवाले काव्यशास्त्रकार, आलोचक,ललित और गंभीर निबंधकार श्रध्देय बाबू गुलाबराय जी पर बहुत ही विस्तृत आलेख गढ़ा है। आपके लेख से साहित्य के इतने बड़े मौलिक निबंधकार के व्यक्तित्व और कृतित्व की जानकारी प्राप्त हुई है। अतिउत्कृष्ट और सफल आलेख रचना के लिए आपका धन्यवाद और अग्रिम आलेखों के लेखन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं।

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  6. उत्कृष्ट लेख। बाबू गुलाबराय के व्यक्तित्व और कृतित्व पर महत्वपूर्ण जानकारियाँ उपलब्ध कराता एक समृद्ध और सारगर्भित लेख। बहुत बहुत बधाई प्रताप जी।

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  7. प्रताप जी, बाबू गुलाबराय के कृतित्व को आपने विभिन्न पहलुओं से दिखाया, उनके बहुआयामी व्यक्तित्व की सुन्दर तस्वीर उकेरी, कुल मिलकर एक उत्तम लेख प्रस्तुत किया। आपको इसके लिए बहुत-बहुत बधाई और आभार।

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