Friday, April 29, 2022

मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यूँ डर रखूँ? : डॉ० कुँअर बेचैन

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"जितनी दूर नयन से सपना
जितनी दूर अधर से हँसना
बिछुए जितनी दूर कुँवारे पाँव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से।"
 
फ़िल्म 'कोख़' के गीत की ये पंक्तियाँ लिखने वाले क़लम की दुनिया के अनमोल सितारे डॉ कुँअर बेचैन की क़लम की तहरीर और उनकी शख़्सियत से परिचित कराती हैं। सोच का एक आलम हो मानो, सजग रचनाकार हिंदी गीत व ग़ज़ल को समकालीन जामा पहनाते हुए आम-आदमी के दिल की बात सलीके से कह जाने के हुनर का दूसरा नाम है, डॉ० कुँअर बहादुर सक्सेना।
 
तुम्हारे जिस्म जब जब धूप में काले पड़े होंगे
हमारी भी ग़ज़ल के पाँव में छाले पड़े होंगे
 
ग़ज़ल की पंक्तियों में मानो उन्होंने अपने संघर्ष का चित्र उकेरा हो। हिंदी ग़ज़लों के माध्यम से उन्होंने आम-आदमी के जीवन संघर्ष के बिंबों को सजीव किया है। चित्रकारिता और संगीतात्मकता को ग़ज़ल व गीत के अल्फ़ाज़ में  पिरोकर नई पहचान देने वाले डॉ० कुँअर बेचैन का जन्म उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में हुआ था।  बचपन में ही माता-पिता का साया उठ गया था और संघर्ष की तपती ज़मीन पर तन्हा और लगातार जद्दो-जहद ने उनके अंदर के इंसान को दर्द-मंद इंसान के रूप में पाला-पोसा। उन्होंने जो भोगा, उसी को कलम के जरिए काग़ज़ पर नक्श कर इतिहास रचते गए।
 
डॉ० कुँअर बेचैन की कहानी, उन्हीं की जुबानी 

"१ जुलाई १९४२ को मुरादाबाद के पास उमरी नाम का गाँव है, वहाँ मेरा जन्म हुआ था। मेरे पिता वहाँ पटवारी थे और हमारे खान-दान में पटवारी रहते चले जा रहे थे। अच्छा खानदान था... खूब संपन्न लोग थे हम। जब मैं दो महीने का था, तभी मेरे पिताजी का देहांत हो गया। पिता के देहांत के पाँच महीने बाद मैं माँ के पास लेटा हुआ था, हमारे घर में डकैती पड़ गई। डकैतों ने मुझ पर चाकू रख दिया और माँ से बोला कि कहाँ-कहाँ पैसा गड़ा है, दे दो; नहीं तो हम इसको मार देंगे। मेरी माँ ने कहा, इसे छोड़ दो, मैं बता देती हूँ। लगभग २७ कलश सोने-चाँदी के ज़ेवरात से भरे हुए ज़मीन में  गड़े थे, जिन्हें वे खोद कर ले गए। इस घटना से माँ डर गईं। मेरी बड़ी बहिन को लेकर माँ अपनी माँ के गाँव आ गई और अपना गाँव छोड़ दिया। तब मैं डेढ़ वर्ष तक अपनी नानी व उसके बाद अपने मौसा-मौसी के पास  रहा। जब मैं दो वर्ष का था, उनके साथ मुरादाबाद आ गया। मेरा पालन-पोषण उन्होंने सात महीने किया। उसके बाद मेरी बड़ी बहिन की शादी कर दी गई। बहिन की विदाई के समय मैं दरवाज़े पर  खड़ा था, तो कोई चोर मुझे उठाकर भाग गया। बाराती चोरों से छुड़ा कर लाए। उसके बाद दो वर्ष तक के लिए बहिन-बहनोई के साथ मुरादाबाद चला गया। जब मैं सात वर्ष का था, तब माँ  का और जब नौ वर्ष का तो मेरी बहिन का भी देहांत हो गया। मैं और जीजाजी घर में अब अकेले रह गए।
बहिन के देहांत के बाद घर की सारी ज़िम्मेदारी मुझ पर आ गई। हम कच्चे घर में रहते थे। घर में बिजली नहीं थी। मैं स्ट्रीटलाइट की रोशनी में पढ़ता था। जीजाजी खाना बनाना नहीं जानते थे। हम दोनों ने सबसे पहले खिचड़ी बनाना सीखा। बाजरी की रोटी तवा उल्टा करके चूल्हे पर बनाते थे। उस रोटी के टुकड़े-टुकड़े होते तो भी मैं खाता था। वह ऐसा दिन था जिसकी रोटी की महक बहुत भारी रही।"

बाजरे की रोटी का ज़िक्र माँ और बहिन से जोड़ कर उन्होंने लिखा,
 
तेरी हर बात चल कर यूँ भी मेरे जी से आती है
कि जैसे याद की खुश्बू किसी हिचकी से आती है।
 
कहाँ से और आएगी अकी़दत की वो सच्चाई
जो जूठे बेर वाली सरफिरी शबरी से आती है।
 
हजारों खुशबुएँ दुनियाँ में हैं पर उससे छोटी हैं
किसी भूखे को जो सिकती हुई रोटी से आती है।
 
अपने संघर्ष की कहानी को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, "मैं अपने दर्द को व्यक्त करने के लिए गाने लगा। जब मैं नवीं कक्षा का छात्र था, तब कक्षा अध्यापक ने जो खुद भी कविता लिखते थे, प्रोत्साहित किया और तुलसीदास पर कविता लिखने के लिए कहा। मैं लिख नहीं पाया। उन्होंने मेरा कवि-रूप पहचान लिया था, इसलिए उन्होंने वापस बोला कल तुलसी-जयंती में तुझे सब बच्चों के सामने कविता बोलना है। सैकड़ों छात्रों के सामने मैंने कविता सुनाई; जिसे सुनकर बहुत वाह-वाही हुई, तब से मेरी कविता की यात्रा का प्रारंभ हुई।"

अपनी तंगहाली को बताते हुए कहते हैं, "स्कूल के दिनों में मेरे पास दो जोड़ी कपड़े थे। एक बार बरसात होने से गंदे कपड़े नहीं धोए थे, तो गंदे कपड़े पहन कर ही स्कूल चला गया। मेरे टीचर ने देखा और मुझे क्लास से बाहर निकाल दिया। उसी कक्षा में मेरा मित्र था, उसने मेरी आप-बीती सर को सुना कर कहा कि बहुत गलत किया आपने उसके साथ। सर ने उसी समय कक्षा छोड़ी और मेरे पास आए। मेरे पैरों में पड़कर माफ़ी मांगी। कृष्ण कुमारजी नाम था उनका। फिर वे अपने घर ले गए और मुझे खाना खिलाया। वे लिखने के लिए प्रेरित करते रहे। सन १९५९ में सोलह वर्ष की आयु में सुरेंद्र मिश्र और हिंदी प्रभाग के अध्यक्ष गंगाधर राय ने मुझे कविता, ग़ज़ल और गीत लिखने के लिए बहुत  प्रोत्साहित किया। वे अपने साथ कवि सम्मेलनों और मुशायरों में मुझे ले जाते थे।"

इतनी दर्द भरी ज़िंदगी के सफ़र में भी बेचैन जी आशावादी बने रहे और ग़ज़ल-गीतों के जरिए आशा का संचार लोगों के दिलों में करते रहे,
हो के मायूस न यू शाम से ढलते रहिये
ज़िंदगी भोर है सूरज से निकलते रहिये
 
एक ही ठाँव पे ठहरेंगे तो थक जायेंगे
धीरे-धीरे ही सही राह पे चलते रहिये
 
सन १९६५ से २००२ तक एम एम एच कॉलेज, गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश के हिंदी विभाग में अपनी सेवाएँ देते हुए व कवि सम्मेलनों और मुशायरों में अपनी शिरकत से लोगों के दिलों में जगह बनाते रहे। उनके गीत और ग़ज़लों की महक सिर्फ़ देश में ही नहीं; सात समंदर पार भी महकी। रूस, सिंगापुर, दुबई, हॉलैंड, फ्रांस, जर्मनी और पाकिस्तान की यात्राएँ की। जहाँ उनके गीतों और ग़ज़लों को बहुत सराहा गया और कई सम्मानों से नवाज़ा गया। 
 
डॉ० कुँअर बेचैन की साहित्य साधना

९ गीत संग्रह, १५ ग़ज़ल संग्रह, २ कविता संग्रह, दोहा संग्रह, हाइकु संग्रह, उपन्यास, महाकाव्य, सैद्धांतिक पुस्तक, नवगीत, बाल-गीत, यात्रा वृतांत उनकी कुल १५० पुस्तकें एक अलग ही दुनिया में ले जाती हैं। 
 
कुँअर बेचैन के हाइकु -
जल चढ़ाया
तो सूर्य ने लौटाए 
घने बादल।
 
तटों के पास
नौकाएं तो हैं, किन्तु
पाँव कहाँ हैं?
 
ज़मीन पर
बच्चों ने लिखा 'घर'
रहे बेघर।
 
रहता मौन
तो ऐ झरने तुझे 
देखता कौन?
 
चिड़िया उड़ी
किन्तु मैं पिजरे में
वहीं का वहीं!
 
प्रतिनिधि बाल-गीत (कानाबाती कुर्र) -
अरी चिरइया नींद की
हो जा जल्दी फुर्र! 
कानाबाती कुर्र! 
छोड़ अपने आराम को 
सूरज निकला काम को
देकर सबको रोशनी
घर लौटेगा शाम को।
तू भी जल्दी छोड़ दे
खर्राटों की खुर्र!
कानाबाती कुर्र !
जगीं शहर की मंडियाँ 
गाँवों की पगडंडियाँ
खेतों ने भी दिखलाई
हरी फसल की झंडियाँ।
चली सड़क पर मोटरें 
घर-घर-घर-घर घुर्र! 
कानाबाती कुर्र!
 
अनेक महाविद्यालयों और विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में इनकी कविताएँ बेहतरीन मार्गदर्शक रही। इनके द्वारा लिखी पुस्तकों पर २० से ज्यादा रिसर्च स्कॉलरों ने विभिन्न विश्वविद्यालयों से पी०एच०डी० की डिग्री हासिल की। डॉ० कुँअर बेचैन को उनकी साहित्य-सेवाओं के लिए देश की नामी साहित्य संस्थाओं, कई अकादमियों आदि ने सम्मानित किया। उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार और महामहिम राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी व डॉ० शंकर दयाल शर्मा जी द्वारा भी सम्मानित किया गया। 
 
इनके गीत टीवी सीरियलों के अलावा फ़िल्मों में भी सुनने को मिले। आकाशवाणी और टीवी सीरियलों में उनके द्वारा लिखे  गीत काफी लोकप्रिय हुए। फ़िल्म 'कोख' में रवींद्र जैन के संगीत और हेमलता जी के स्वर में गाया गीत लोगों में बहुत मशहूर हुआ।
 
जितनी दूर नयन से सपना
जितनी दूर अधर से हँसना
 
नेत्र विशेषज्ञ, कवि और फ़िल्म-निर्माता निखिल कौशिक ने फ़िल्म 'भविष्य, दी फ्यूचर' में डॉ कुँअर बेचैन के गीत को लिया। "नदी बोली समंदर से, मैं तेरे पास आई हूँ" और "बदरी बाबुल के अंगना जइयो" जो फ़िल्म 'टशन' में भी लिया था, लेकिन उनके नाम का कहीं भी ज़िक्र नहीं किया था। 

कौशिक ने उनसे पूछा, "मैं प्रायः सोचता और पूछता हूँ आप अपने आप से केवल मुस्कराते क्यों हैआपको कभी क्रोध क्यों नही आता?"
तब डॉ० बेचैन उनको बताते है कि "वे किसी आलोचना को भी मान का अधिकारी मानते है।"
बेचैन कहा करते  थे, "सिकती रोटी की महक मेरा संघर्ष था, जितना दुख सिखाता है, उतना कोई नहीं, दुख ही मेरा गुरु है।"
 
उन्होंने पत्नी का ज़िक्र करते हुए बताया कि शादी के बाद पत्नी मेरी गुरु रही। ग़ज़ल की तमीज़ के बिना उन्होंने पत्नी के लिए पहली बार ग़ज़ल-नुमा एक रचना लिखी थी,
मेरे पास तू नहीं तो मेरे पास तेरा ग़म है
तेरी याद संग है मेरे, क्या मेरे लिए ये कम है?
 
सन १९६३-६४ में रामधारी सिंह 'दिनकर' ने एक कवि सम्मेलन में उनके गीत की प्रतिक्रिया में बेचैन की पीठ प्यार से थपथपाई। डॉ० अशोक चक्रधर ने कहा, "डॉ० कुँअर बेचैन ने कितनी किताबें लिखी, उनमें से कितने ग़ज़ल संकलन हैं, कितनी अतुकांत कविताओं की किताबें हैं, कितने ही गीत, कितने उपन्यास  हैं, कहानियाँ हैं ये तो सब जानते हैं, लेकिन कुँअर बेचैन का व्यक्तित्व क्या है? उसे कितने लोगों ने पढ़ा है? लेकिन उनको पढ़ना आसान नहीं। वे समंदर से गहरे इंसान हैं, पेड़ से ऊँचे व्यक्तित्व हैं।" राज कौशिक (पत्रकार) कहते हैं, "मेरा सौभाग्य कि मैं उनका स्टूडेंट रहा। शायरी में छह-सात साल में पहली भैरवी डॉ० कुँअर ने बताई।"

डॉ० बेचैन के लिए कौशिक ने लिखा,
 "न तुम हो चांद न सूरज न दीप या जुगनू
 फिर आस-पास तुम्हारे ये रोशनी क्यूँ है?"
 
प्रगीत कुँअर (पुत्र) ने पिता के लिए अपने उद्गार व्यक्त किए, "डॉ० कुँअर बेचैन जी को पिता के रूप में पाना अपने आप में वरदान से ज्यादा कुछ नहीं। जहाँ तक उनकी रचनाओं का सवाल है उनकी रचनाएँ इतनी मौलिक हैं, उन्हें किसी भी परिवेश में आप नाप-तौल सकते हैं और वे लोगों को प्रेरणा देती हैं।"
 
हमारे देश के गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए बेचैन के विचार है, "मनुष्यता सबसे बड़ी चीज है। मुझे तो तमाम शायरों के साथ वसीम बरेलवी साहब का बहुत-बहुत प्यार मिला।"
 
हिंदू-मुस्लिम एकता पर उन्होंने लिखा, 
भले ही हममें तुममें कुछ ये रूप रंग का भेद हो
है खुशबुओं में फ़र्क क्या गुलाब हम, गुलाब तुम
कुछ तुम बदल के देखो, कुछ हम बदल के देखें
जैसे भी हो  दिलों का मौसम बदल के देखें
लगता है ये बदल ही आएगी कान अपने,
खुशियाँ बदल के देखी अब गम बदल के देखें
 
साहित्य-साधना में लीन डॉ० बेचैन आज की पीढी़ के साथ-साथ आने वाली पीढ़ी के लिए बेहतरीन उदाहरण हैं, कि संघर्ष से शख़्सियतें सदा निखरती हैं। नए कवियों और लेखकों को संदेश देते हुए कहा, "नए लेखकों से मैं यहीं कहना चाहता हूँ, जिस भी विधा में वो लिख रहे- कहानी लिखे तो कहानी की, कविता लिखे तो कविता की। कविता में कई विधाएँ हैं ...गीत है, ग़ज़ल है ...अलग अलग विधाएँ हैं ...उन विधाओं की पूरी जानकारी हासिल करें। ...जल्दबाजी नहीं करें। कला का कोई शॉर्टकट नहीं है। कला में तपस्या करनी पड़ती है। इंतजार करता पड़ता है।"
 
तुम भी भरी बहार से आगे निकल गये
तुम मेरे इंतज़ार से आगे निकल गये
पीछे तुम्हारे वो तो बड़ी दूर तक गयी
तुम ही मेरी पुकार से आगे निकल गये।
 
डॉ० कुँअर का अंतिम सफ़र 

डॉ० कुमार विश्वास ने डॉ० कुँअर बेचैन के लिए ट्वीट कर वेंटिलेटर की माँग की थी। डॉ० कुमार विश्वास के ट्वीट के बाद गौतम नगर के सांसद डॉ० महेश शर्मा ने मदद के लिए हाथ बढ़ाया। कैलाश अस्पताल में शिफ्ट कराने की बात की थी।

डॉ० कुमार विश्वास, "रात को १२ बजे तक प्रयास करता रहा, सुबह से प्रत्येक परिचित डॉक्टर को कॉल कर चुका हूँ। हिंदी के वरिष्ठ गीतकार गुरु-प्रवर डॉ० कुँअर बेचैन कॉस्मोस हॉस्पिटल, आनंद विहार, दिल्ली में कोविड उपचार में है। ऑक्सीजन लेवल सत्तर तक पहुँच गया, तुरंत वेंटिलेटर की आवश्यकता है। कहीं कोई बेड नहीं मिल रहा।" उसके बाद उनके लिए जीवन और मौत के बीच संघर्ष चलता रहा। तब भी वे आशा से और खुशी से भरे हुए थे। 

गुरुवार, २९ अप्रैल २०२१ को काव्य-साहित्य का एक और सूरज कोरोना के चलते अस्त हो गया। बकौल डॉ० विश्वास, "कोरोना ने मेरे मन का कोना मार दिया।" ऐसे अप्रतिम गीतकार, ग़ज़लगो, बेहतरीन काव्य-पाठ के नायक कुँअर बेचैन जिस महामारी के दौर में गए, वह पूरे देश को श्मशान बनाए दे रही थी। बीमारी के हर दिन, हर सुबह-शाम उनसे संपर्क व संवाद में रहने वाले बेटे प्रगीत कुँअर इतनी दूर (विदेश में) थे, कि इस महामारी में उसे आने तक की इजाज़त नहीं मिली। बेटे को लक्ष्य कर डॉ० कुँअर जी ने कभी एक बेहतरीन गीत लिखा था, 
 
पुत्र! तुम उज्ज्वल, भविष्यत फल,
हम तुम्हारे आज हैं, लेकिन-
तुम हमारे आज के शुभ कल,
पुत्र, तुम उज्ज्वल भविष्यत फल।
 
तुम हमारे मौन स्वर की भी
मधुमयी, मधु छंदमय भाषा
तुम हमारी हृदय-डाली के
फूल की मुस्कान, परिभाषा
 
झील हम, तो तुम नवल उत्पल,
पुत्र, तुम उज्ज्वल भविष्यत फल।
 
तुम हमारे प्यार का सपना
तुम बढ़े तो क़द बढ़ा अपना
छाँव यदि मिलती रही तुमको
तो हमें अच्छा लगा तपना
हर समस्या का सरल-सा हल,
पुत्र, तुम उज्ज्वल भविष्यत फल।
 
कैसी विषाद वेला रही, कि वही पुत्र उनके पार्थिव देह की अंतिम विदाई तक में भी शामिल नहीं हो सका। इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है? किंतु कहा गया है, "कालो न यातः वयमेव यातः।" समय नहीं, हमी हैं जो बीत रहे हैं। कविवर अशोक चक्रधर और कुमार विश्वास उनकी रोज़ खोज-खबर ले रहे थे। उन्हें आशा थी कि गीतों का यह राजकुंवर जल्दी ही उठ कर अपनी कुटिया में पधारेगा। महफिलें फिर उनके गीतों से गूंजेंगी। कविवर अशोक चक्रधर से उनके पुत्र प्रगीत कुँअर का सतत संवाद था। फोन पर ही उनका हाल-चाल, कुशल-क्षेम लेते रहते थे। शिक्षाविद डॉ० महेश शर्मा ने उनके इलाज में कोई कोर-कसर न छोड़ी, किंतु गुरुवार का दिन जैसे उनकी मृत्यु के लिए मुकर्रर था, जब उन्हें उनके ही शब्दों में- "बिस्तर समेट कर तैयार रहना था।" डॉ० कुँअर जी ७९ साल का भरा-पूरा जीवन जी कर इहलोक से विदा हो चुके हैं; किंतु उनके गीत उनकी ग़ज़लों की अनुगूंज कभी भी मंद नहीं पड़ने वाली। सोशल मीडिया व कवि सम्मेलनों के इतने वीडियो उनके मौजूद हैं कि कोई भी उन्हें सुनकर शुद्ध गीतों, कविताओं, ग़ज़लों व काव्‍यपाठ का आनंद ले सकता है। कवि इसी तरह सदियों के समय के कैनवस पर सदैव उपस्थित रहता है। वे भी हिंदी-जगत की स्मृतियों में हमेशा जीवित रहेंगे।

गीतों व ग़ज़लों दोनों में उनके काफिये-रदीफ़ चुस्त-दुरुस्त होते रहे। ग़ज़लों का व्याकरण उनका इतना सटीक था, कि लोग तुकांतों की खोज के लिए उनकी ग़ज़लों को आज भी पढ़ा करते हैं, और आगे भी पढ़ते रहेंगे। आम-आदमी अक्सर मृत्यु से घबराता है, पर कवियों में ही यह साहस है कि वे न केवल मृत्यु का सामना करते हैं; बल्कि मृत्यु पर लिखते भी सर्वाधिक हैं। यों तो वे मूलतः आशावादी कवि रहे हैं, फिर भी देखिए मृत्यु को भी वे किस दिलेरी से स्वीकार करते हुए लिखते हैं,
मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यू डर रखूं,
ज़िंदगी आ तेरे क़दमों पर मैं अपना सर रखूं
 
जिसमें माँ और बाप की सेवा का शुभ संकल्प हो
चाहता हूं मैं भी काँधे पर वही काँवर रखूं,
 
कौन जाने कब बुलावा आए और जाना पड़े
सोचता हूं हर घड़ी तय्यार अब बिस्तर रखूं।
 
काव्य-कवियों में शोक की लहर फैल गई। उनके निधन पर उनकी समकालीन गीतकार डॉ० मधु चतुर्वेदी ने दुख प्रकट किया है। उन्होंने कहा कि "कुँअर जी का जाना बहुत दुखद है। हिंदी गीतों की वाचिक परंपरा के हस्ताक्षर के जाने से आए अवकाश को भरा नहीं जा सकता। लंदन के हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में दो भारतीय गीतकारों का सम्मान हुआ था। मेरा सौभाग्य है कि वह मैं और कुँअर जी थे। उनके साथ अनेक कार्यक्रम और यात्राएँ की, जो अब यादों में हैं।"

गीत और ग़ज़ल का सितारा आज के ही दिन एक वर्ष पूर्व पंचतत्व में भले ही विलीन हो गया हो लेकिन ग़ज़ल और गीत का अध्याय उनको पढ़े बिना पूरा नहीं हो सकता। ऐसी शख़्सियत को नमन...! जो ज़मीन से उठकर साहित्य के आकाश की ऊँचाईयों का कोना-कोना छान आए और समंदर-सी गहराई अपने व्यक्तित्व में समेट कर अपनी कलम की पैनी धार से कागज़ के पन्नों पर उकेर दी।

डॉ० कुँअर बेचैन : जीवन परिचय

मूल नाम

डॉ० कुँअर बहादुर सक्सेना

उपनाम

बेचैन

जन्म

०१ जुलाई १९४२, ग्राम - उमरी, ज़िला - मुरादाबादउत्तर प्रदेश, भारत

निधन

२९ अप्रैल २०२१, कैलाश अस्पताल, नोएडा

पिता

श्री नारायण दास सक्सेना

माता

श्रीमती गंगा देवी

पत्नी

श्रीमती संतोष कुँअर

संतान

  • पुत्र - प्रगीत कुँअर

  • पुत्री - वंदना कुँअर

शिक्षा

  • एम०कॉम०

  • एम०ए० (हिंदी)

  • पी०एच०डी०

साहित्यिक रचनाएँ

गीत-संग्रह

  • पिन बहुत सारे (१९७२)

  • भीतर साँकल - बाहर साँकल (१९७८

  • उर्वशी हो तुम (१९८७)

  • झुलसो मत मोरपंख (१९९०)

  • एक दीप चौमुखी (१९९७)

  • नदी पसीने की (२००५)

  • दिन दिवंगत हुए (२००५

ग़ज़ल-संग्रह

  • शामियाने काँच के (१९८३)

  • महावर इंतज़ारों का (१९८३)

  • रस्सियाँ पानी की (१९८७)

  • पत्थर की बाँसुरी (१९९०)

  • दीवारों पर दस्तक (१९९१)

  • नाव बनता हुआ काग़ज़ (१९९१)

  • आग पर कंदील (१९९३)

  • आँधियों में पेड़ (१९९७)

  • आठ सुरों की बाँसुरी (१९९७)

  • आँगन की अलगनी (१९९७)

  • तो सुबह हो (२०००)

  • कोई आवाज़ देता है (२००५)

कविता-संग्रह

  • नदी तुम रुक क्यों गई (१९९७)

  • शब्द : एक लालटेन (१९९७)

हाइकु-संग्रह

  • डॉ० कुँअर बेचैन के हाइकु

बाल-गीत

  • कानाबाती कुर्र

महाकाव्य

  • प्रतीक पांचाली

पुरस्कार व सम्मान

  • साहित्य भूषण सम्मान (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान), २००४

  • परिवार सम्मान (परिवार संस्था मुंबई), २००४

  • गीत गौरव

  • गीत पुरुष

  • भारत श्री

  • राष्ट्रीय आत्मा पुरस्कार

  • कबीर सम्मान

  • हिंदी गौरव सम्मान

  • द्वितीय संवेदना सम्मान (सोच एवम वैद्यराज आरोग्य फाउंडेशन, नई दिल्ली), २०१३

  • प्रो० राम स्वरूप सिंदूर सम्मान (सिंदूर मेमोरियल अकादमी), २०१४

  • विपुलम सम्मान (विपुलम फाउंडेशन, लखनऊ), २०१८

संदर्भ

  • http://KavitaKosh.org.- कुँअर बेचैन - कविता कोश

  • कुँअर बेचैन का समस्त लेखन - रेख़्ता 

  • कुँअर बेचैन की संपूर्ण रचनाएँ - Hindwi

  • साहित्य का सूरज अस्त - Amar Ujala Kavya

  • प्रयाण - कुँअर बेचैन - Aaj Tak

  • Shakhsiyat with Dr. Kunwar bechain- YOUTube- Samvad Tv

  • Twitter - @ Dr. Kumar Vishwas १५ अप्रैल २०२१


लेखक परिचय

मीनाक्षी कुमावत 'मीरा'
शिक्षा- एम.ए., बी.एड., नेट (हिंदी साहित्य) ; संप्रति- अध्यापन
कृतियाँ- गुरु आराधनावली (भजन-संग्रह), १५ सांझा संकलन 
KKP कविता की पाठशाला में लेखन कार्य में सक्रिय साझेदारी
संपर्क +९१ ६३५०५१८५१५
ईमेल fragranceofm.meera@gmail.com

28 comments:

  1. वाह, बहुत ख़ूब लिखा

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया दी..आपके उत्साहवर्धन के लिए

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  2. संग्रणीय ,अभिनंदनीय

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  3. बहुत ही बखूबी से . I सरलता से ... आपने लेखक के पूरे जीवन की यात्रा को समेटा है इस लेख में | बहुत बहुत बधाई
    - उमेश मौर्य

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    1. बहुत आभार सर, आपके उत्साहवर्धन के लिए

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  4. गहन अध्ययन, उत्तम संकलन

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  5. मीनाक्षी जी, आपने डॉ कुंवर बेचैन के जीवन एवं कृतित्व पर सुंदर आलेख दिया है। बधाई।
    उन्हें जीवंत काव्य पाठ करते हुए सुना और आनंद लिया। वह बहुत गहरी बात को बड़ी सरलता से कह जाते थे। आप सबके लिये कुछ नगीने प्रस्तुत कर रहा हूँ :

    धरती को मेरी ज़ात से
    कुछ तो नमी मिली
    फूटा है मेरे पाँव का
    छाला तो क्या हुआ

    दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना
    जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना

    नज़र है मगर वह नज़र क्या कि जिसने
    खुद अपनी नज़र का नजारा न देखा

    मेरी कोशिश है कि मैं उससे कुछ ऐसे बोलूँ
    लफ़्ज़ निकले ना कोई
    बात अधूरी ना रहे 💐💐💐

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    1. बहुत उम्दा। आपको बहुत बहुत आभार सर मनोबल बढ़ाने के लिए।

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  6. आदरणीय मिनाक्षी "मिरा" जी, डॉ कुंवर बेचैन जी के जीवन यात्रा की चित्रण को बहुत ही सुंदर और रोचक ढंग से शब्दों में दर्शाया जो हमारे लिए एक रोमांचक अनुभव रहा। ढ़ेर सारी हार्दिक अभिनन्दन,आभार और प्यार ❤️ 💐

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    1. प्रणाम सर, बहुत खुशी हुई । बहुत बहुत शुक्रिया सर स्नेह और आशीर्वाद के लिए।

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  7. मेरे पसंदीदा शायर एवं रचनाकार रहे है श्रध्देय कुंवर जी। आदरणीया मीनाक्षी जी ने बहुत ही सुंदर ज्ञानप्रवाह युक्त आलेख लिखा है। आपने डॉ बेचैन जी के कुछ गीत और शायरी का सूक्ष्मता से अभिव्यंजन किया है। पढ़कर बहुत अच्छा लगा।
    आपका खूब खूब आभार और हार्दिक शुभकामनाएं।

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    1. नमस्कार सर, बहुत बहुत आभार आपने इतनी बारीकी से आलेख देखा। आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए अनुग्रहित हूँ।

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  8. बढ़िया आलेख मीनाक्षी, कुंवर जी के कृतित्व और व्यक्तित्व का बेजोड़ संगम बहुत संवेदनशील तरह से प्रस्तुत किया है आपने। आपको बधाई और शुभकामनाएँ।

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया उत्साह वर्धन के लिए।

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    2. प्रणाम दी, बहुत आभार ..आपके स्नेह और उत्साह वर्धन के लिए

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  9. मीनाक्षी जी नमस्ते। डॉ कुँवर बेचैन जी को कई बार सुनने, मिलने का अवसर मिला। वो उच्चकोटि के साहित्यकार थे। उनके गीत एवं ग़ज़लें, सुनने वाले को यकीनन प्रभावित करती हैं। आपने उनके साहित्यिक सफर एवं जीवन संघर्ष को बखूबी इस लेख में पिरोया है। आपको इस रोचक लेख के लिये हार्दिक बधाई।

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    1. बहुत आभार सर आपके उत्साह वर्धन के लिए

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  10. वाह ! मीनाक्षी जी अत्युत्तम आलेख। डॉ कुंवर बेचैन जी को जितना पढ़ा, सुना, गुना, वह सब आपके द्वारा रचित इस इस जानकारीपूर्ण लेख के सामने बूँद भर ही कहा जायेगा। आपने बहुत समग्रता के साथ उनके संघर्षमय जीवन और रचना संसार को कड़ी-दर-कड़ी रेखांकित करते हुए, हमसे परिचित कराया है। इस सुंदर और सुरुचियर्न लेख के लिए आपके बहुत बहुत बधाई।

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    1. आपका स्नेह हमेशा मार्गदर्शन करता रहा। हार्दिक आभार दी।

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  11. मीनाक्षी, गीतों और ग़ज़लों को बेहद सहजता से कहने वाले और उनमें ज़िंदगी के रंगों को उँडेलने वाले हर दिल अज़ीज़ कुँवर बेचैन पर आपका आलेख बहुत अच्छा है। आगे भी उत्तम लेखन करने के लिए शुभकामनाएँ और इस आलेख के लिए बधाई और आभार।

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया मेम.. आपका स्नेह मिलता रहे। प्रणाम

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  12. सहज शब्दों में सरलता की प्रतिमूर्ति महामानव को आपने वैश्विक फलक तक स्वर दिया। वो जहाँ भी होंगे उन्हें आपकी साहित्यिक विदुषीता से परम् अर्थ मिलेगा. आपका लेखन कालजयी बन पड़ा है हिन्दी साहित्य के चितेरे और गीतों के कुंअर के लिए.. प्रभूत आत्मीय बधाई

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  13. बहुत सुंदर रचना आपके द्वारा की गई

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कलेंडर जनवरी

Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat
            1वह आदमी उतर गया हृदय में मनुष्य की तरह - विनोद कुमार शुक्ल
2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
23हिंदी साहित्य के गौरव स्तंभ : पं० लोचन प्रसाद पांडेय 24हिंदी के देवव्रत - आचार्य चंद्रबलि पांडेय 25काल चिंतन के चिंतक - राजेंद्र अवस्थी 26डाकू से कविवर बनने की अद्भुत गाथा : आदिकवि वाल्मीकि 27कमलेश्वर : हिंदी  साहित्य के दमकते सितारे  28डॉ० विद्यानिवास मिश्र-एक साहित्यिक युग पुरुष 29ममता कालिया : एक साँस में लिखने की आदत!
30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...