मैं अपनी राह खुद ढूँढ लूँगी,
राह न मिली तो बना लूँगी,
मुझे राह बनानी आती है।
डोगरी और हिंदी की प्रसिद्ध कवयित्री पद्मा सचदेव ने इन शब्दों को केवल कहा ही नहीं बल्कि जिया भी और अपनी राहें स्वयं निर्मित कर साहित्य के आकाश की ऊँचाइयों को छुआ। पहाड़ों की हरीतिमा, झरनों-पोखरों की रुनझुन, कश्मीर के चिनारों के रंगों और जम्मू के मंदिरों की घंटियों के पावन सुर को अपने काव्य में शब्दों से चित्रित करने वाली पद्मा जी का जन्म भारत के उत्तर में, पहाड़ों की गोद में बसी जम्मू नगरी के एक एतिहासिक गाँव 'पुरमंडल' में १७ अप्रैल, वर्ष १९४० में हुआ। 'उत्तरबहनी' नदी के शीतल किनारे पर स्थित इस गाँव में बसे राजपुरोहितों के परिवार में जन्म लेने वाली कन्या पद्मा ने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से न केवल अपनी माँ बोली डोगरी को समृद्ध किया अपितु लगभग हर विधा में साहित्य रच कर हिंदी जगत में अपना विशिष्ट स्थान बनाया।
भाषा और संस्कृति के प्रति प्रेम और समर्पण का भाव इन्हें अपने विद्वान पिता से बाल्यकाल में ही विरासत के रूप में मिला था। इनके पिता पंडित देवराज बढ़ू जम्मू कॉलेज में प्रोफेसर के रूप में नियुक्त थे। वर्ष १९४७ में भारत के विभाजन की त्रासदी ने इस हँसते-खेलते परिवार पर घातक प्रहार किया। पंडित देवराज जी एक आतंकी हमले में अपनी जान गँवा बैठे। उस समय पद्मा जी केवल सात वर्ष की थीं। ह्रदय को अंदर तक भेदने वाली इस त्रासदी की पीड़ा को जीवन पर्यंत सहती हुईं पद्मा जी अक्सर कहती थीं, "बँटवारे की यह पहली गाज हमारे घर पर पड़ी। सतरंगी पींगें झूलने वाली सात बरस की अबोध लड़की पल में सत्तर बरस की हो गई। मेरे जीवन को रौशनी देने वाली मीनार ने कहीं दूर गहरे समंदर की सतह में समाधि ले ली।" यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस हादसे के गहरे आघात ने बालिका पद्मा सचदेव को लेखिका पद्मा सचदेव बनने के लिए दशा और दिशा प्रदान की।
पद्मा पहली संतान होने के कारण अपने पिता की बहुत लाड़ली थीं। उन्हें छह बरस की अल्प आयु में ही संस्कृत के बहुत से श्लोक कंठस्थ थे। परिवार में धार्मिक वातावरण होने के कारण डोगरी-हिंदी के अनेक भजन उन्होंने अपनी माँ से सीख लिए थे। पुरमंडल गाँव में बहती देवक नदी का स्थानीय नाम था, 'उत्तरबैनी', यानी उत्तर की ओर बहने वाली नदी। जिस प्रकार कई स्थानों पर भूमिगत होकर, पथरीली पहाड़ियों में बहती हुई 'उत्तरबैनी' नदी ने अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त किया, ठीक उसी प्रकार अद्भुत आत्मबल का संबल लेकर अपने संघर्षमय जीवन की कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए साहित्य जगत में पद्मा जी ने अपना विशिष्ट स्थान बनाया।
आइए, इस डोगरी-हिंदी की प्रख्यात लेखिका की जीवन यात्रा के पथ पर कुछ पल साथ-साथ चलें -
वर्ष १९४७ में देश का विभाजन, पिता की अकाल मृत्यु और जम्मू नगरी का गौरवशाली राजपाट सदा के लिए समाप्त हो जाने जैसी दुखद घटनाओं के कारण भविष्य के सुनहरे सपने देखते हुए यौवन की दहलीज पर पाँव रखने वाली सुकोमल लड़की के मन में न जाने क्या उथल-पुथल हुई कि उसकी लेखनी ने अकस्मात केवल १४-१५ वर्ष की आयु में अपनी पहली कविता - 'ए राजे दियाँ मंडियाँ तुन्दियाँ न' की रचना कर दी। उनकी यह कविता सामंती व्यवस्था पर तीखा प्रहार थी, जिसमें एक औसत गरीब डोगरी महिला की दुर्दशा को चित्रित किया गया था। जम्मू नगरी में होने वाली एक भव्य काव्य गोष्ठी में उन्होंने बड़े स्वाभिमान और आत्मविश्वास के साथ सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों के प्रति गहन आक्रोश के स्वर के साथ इस कविता का पाठ किया। कविता डोगरी में थी। प्रस्तुत है उस लंबी कविता के हिंदी में अनूदित कुछ अंश -
मैं घर से बेघर हो चुकी हूँ
मेरी आँखों की ज्योति छिन चुकी है
मेरे बगीचे से जो मेरा पौधा उखाड़कर ले गए
मेरे पौधे को बौर भी पड़ा नहीं था
जिन्होंने काँपती टहनियाँ काट लीं
वे हँसुली, वे दरातियाँ क्या आपकी हैं
ये राजा के महल आपके हैं?
इस पहली ही कविता से आप महसूस करते हैं कि उनकी संवेदनाओं के केंद्र में शोषित, वंचित, आम आदमी का दुख-दर्द और पीड़ा थी। इस कविता से पद्मा जी को डोगरी की पहली आधुनिक कवयित्री होने का गौरव प्राप्त हुआ। इस गौरव को प्राप्त करने के लिए भी उन्हें कई विपरीत परिस्थितियों के साथ जूझना पड़ा। उन्होंने अपनी आत्मकथा 'बूँद बावड़ी' में लिखा है,
"मुझे वह वक़्त याद है, जब १९५५ में एक स्थानीय समाचार पत्र में मुझे अपनी कविता अपने भाई के नाम से छपवानी पड़ी थी। हमारे समाज में तब लड़कियों के लिए खुले तौर पर ऐसे काम लगभग निषिद्ध ही थे। आज, जब मैं अपने पुराने समय के बारे में सोचती हूँ, लगता है मलंग हुए बग़ैर किसी स्त्री का लेखन चला ही नहीं। चाहे ब्रज की 'मीरा' हो, मराठी की 'बहनाबाई' हो, कश्मीरी की 'ललेश्वरी' हों, उर्दू की 'हब्बा ख़ातून' हों या एक हद तक डोगरी की 'पद्मा सचदेव'- अलग-अलग समय में रहते हुए भी सबकी संघर्ष भरी कहानियों में कुछ ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है।"
शायद अपने इसी जीवन संघर्ष की अनुभूति को कविता में बुनती हुई पद्मा जी कहती हैं,
टूट जाते हैं कभी मेरे किनारे मुझमें
डूब जाता है कभी मुझमें समंदर मेरा
इनकी कविता में संघर्ष की तपती लू के साथ लोक संस्कृति की सौंधी खुशबू से भीगी ठंडी बयार भी समाहित है। जम्मू की संस्कृति में लोकगीतों का विशेष महत्त्व है। पद्मा जी इन्हीं डोगरी/पहाड़ी लोकगीतों को अपने लेखन का प्रेरणास्रोत मानती थीं। उनके मन में सदैव उन अज्ञात लोकगीतकारों के प्रति सम्मान रहता, जिनके नाम गीतों में नहीं रहते। लोकगीतों की सादगी और कोमलता के विषय में वह कहती थीं, "कितने महान होंगे वे लोग, जिन्हें अपने लिए नाम की चिंता नहीं।"
पद्मा जी न केवल कविता लिखती थीं, अपनी कविता का सस्वर पाठ भी करती थीं। जब वह कविता पाठ करती थीं तो लगता था जैसे कोई योगी इकतारा बजाकर अपनी धुन में गा रहा हो। लोकगीतों से प्रभावित होकर लिखे इनके गीत इनके प्रथम काव्य संग्रह 'मेरी कविता मेरे गीत' में प्रकाशित हुए। इस काव्य संग्रह पर इनको १९७१ का 'साहित्य अकादमी' पुरस्कार मिला। उस समय वह केवल ३१ वर्ष की थीं और सबसे कम आयु में पुरस्कार ग्रहण करने वाली प्रथम महिला साहित्यकार थीं। हिंदी साहित्य के मूर्धन्य लेखक रामधारी सिंह दिनकर जी ने इस काव्य संग्रह की भूमिका में लिखा था,
"डोगरी की सहज कवयित्री पद्मा सचदेव की कविता सुनकर मुझे लगा, मैं अपनी कलम फेंक दूँ, वही अच्छा है। क्योंकि जो बात पद्मा कहती है, वही असली कविता है। हममें से हर कवि उस कविता से दूर, बहुत दूर हो गया है।"
पद्मा जी ने गद्य साहित्य में भी भरपूर लिखा लेकिन कविता उनकी प्रिय विधा थी। अपनी रचना प्रक्रिया के विषय में वह कहती थीं, "मेरे लिए कविता, किसी व्यक्ति का सत्व है......कविता मन से आती है.. उसका आगाज़ सुबह से ही हो जाता है कि वो आएगी…आने वाली है… और जब आती है तो शरीर एकदम हल्का हो जाता है। चाल धरती से ऊपर हो जाती है.. चलते-चलते समुद्र लाँघ जाओ..धरा को चूम लो और गगन में पड़े हिंडोले पर झूलो…क्या अनुभूति है!!"
ललाट पर बड़ी सी लाल बिंदी, कानों में डोगरी झुमके और सर पर पारंपरिक पल्लू रखने वाली पद्मा जी अपनी बेबाक़ हँसी से सबका मन मोह लेती थीं। वह कभी किसी बाह्य आदर्श में विश्वास नहीं रखती थीं। भाव, अनुभाव, सुख-दुख, आशा निराशा, प्यार-नफ़रत सभी को उन्होंने अंतर्भूत किया और फिर अपनी लेखनी के द्वारा अपनी कृतियों में चित्रित किया। उन्होंने अपनी रचनाओं में कहीं अन्याय सहती आई भारतीय स्त्री को अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए किए गए संघर्ष को गहरे विश्वास और गरिमा के साथ अभिव्यक्त किया और कहीं कमज़ोर वर्ग के पात्र, जो उनसे जुड़े रहे, उन पर संस्मरणात्मक कथाएँ भी लिखीं। साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता से सम्मानित पद्मश्री पद्मा सचदेव के परिचय में, साहित्य अकादमी ने लिखा, "उनका साहित्य भारतीय नारीत्व के सुख और दुख, मनोदशा और दुर्भाग्य को दर्शाता है। भले ही वह महिलाओं पर हो रहे सामाजिक अन्याय के प्रति जागरुक हैं, लेकिन उनके नारी चरित्र हर समय अपनी गरिमा बनाए रखते हैं।"
अपने लेखन क्षेत्र में पद्मा जी ने कई प्रयोग किए। अपने काव्य संग्रह 'शब्द मिलावा' में उन्होंने अपनी हर कविता के साथ एक 'गद्यांश' भी दिया है, जिसमें उस कविता की रचना प्रक्रिया का संकेत है। इस दिशा में यह काव्य संग्रह अपने में अनूठा और प्रयोगधर्मी है। इसके अतिरिक्त, उन्होंने डोगरी से हिंदी, हिंदी से डोगरी, अँग्रेज़ी से हिंदी और अँग्रेज़ी से डोगरी में अनुवाद कार्य किया है। आपकी कहानियों को टेली-धारावाहिकों तथा लघु फिल्मों में रूपांतरित किया गया। लेखन के साथ-साथ पद्मा जी ने कुछ बरस जम्मू रेडियो और फिर दिल्ली में डोगरी समाचार विभाग में भी काम किया। इसी दौरान उनकी शादी 'सिंह बंधु' नाम से प्रचलित सांगीतिक जोड़ी के गायक सुरिंदर सिंह से हुई।
कविता में अपने भावों-अनुभावों को शब्दरूप देने वाली पद्मा सचदेव का गद्य लेखन की ओर रुझान मात्र एक संयोग ही था। अपने बंबई प्रवास में वह धर्मयुग के संपादक विशिष्ट साहित्यकार धर्मवीर भारती जी से अपनी डोगरी माँ बोली के साहित्यिक महत्व के विषय में अपने विचार रखने के लिए गई। उन दिनों डोगरी भाषा में लिखे साहित्य की देश में अधिक पहचान नहीं थी। जिस बेबाकी और दृढ़ विश्वास से उन्होंने उनके सामने अपनी बात रखी, भारती जी ने कहा, "यह सब मुझे लिखकर दे दो" पद्मा जी ने कुछ झिझक के साथ यह स्वीकार किया कि वह गद्य बहुत कम लिखती हैं। एक कुशल पारखी की दृष्टि रखने वाले भारती जी ने उनसे कहा, "जैसा बोल रही हो, ठीक वैसा ही लिख दो, बस और कुछ नहीं।" उनका वह पहला लेख धर्मयुग में छपा और तबसे गद्य लेखन के क्षेत्र में उनकी लेखनी को नया आकाश मिल गया। उसके बाद तो उन्होंने कविता के साथ साथ कई कहानियाँ, उपन्यास, साक्षात्कार, संस्मरण और यात्रा वृत्तांत लिखकर हिंदी साहित्य को निरंतर समृद्ध किया।
अपने मुंबई प्रवास के समय ही उन्होंने डोगरी/हिंदी के लेखक वेदराही जी की फिल्म 'प्रेम-पर्वत' फ़िल्म और 'आंखन देखी' के लिए गीत-रचना की। पद्मा जी अपने बहुत से साक्षात्कारों में हँसते हुए यह बताती हैं कि इन बातों का पता जब दिनकर जी को चला तो उन्होंने बड़े अधिकार-बोध से उन्हें डाँटा, "अच्छी-भली कवयित्री हो। जूता गाँठने का काम क्यों कर रही हो?" तबसे वह सिलसिला वहीं थम गया।
अपनी मातृभाषा डोगरी को जन-जन तक पहुँचाने के अभियान में पद्मा जी ने बहुत से द्वार खटखटाए। स्वर कोकिला लता मंगेशकर जी से इनकी गहरी दोस्ती थी। इनके कहने पर लता जी ने न केवल डोगरी भाषा सीखी बल्कि डोगरी गीतों को स्वर भी दिया। इन गीतों से लता जी ने अपनी आवाज़ का ऐसा जादू बिखेरा कि हर कोई इन गानों का दीवाना बन गया।
अपनी मातृभूमि जम्मू की पृष्ठभूमि पर लिखा उनका उपन्यास 'जम्मू जो कभी शहर था' बहुत लोकप्रिय हुआ। यह उपन्यास उन्होंने पहले डोगरी में 'इक ही सुग्गी’ नाम से लिखा और बाद में हिंदी में अनूदित किया। इस उपन्यास की कथा के केंद्र सुग्गी नाइन है जो इस शहर के हर सुख-दुःख, उतार चढ़ाव को जीती और भोगती है। सुग्गी वास्तव में उस समय के जम्मू शहर के महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है। इन शब्दों को लिखते हुए मुझे रोमांच का अनुभव हो रहा है क्योंकि जब पद्मा जी यह उपन्यास लिख रही थीं तो मुझसे भी सुग्गी के जीवन से जुड़ी यादों के विषय में चर्चा हुई थी। मेरा और पद्मा जी का बचपन उसी शहर के, उसी मोहल्ले में बीता है जहाँ सुग्गी का घर था। हम दोनों ने ही अपने-अपने बचपन की सुधियों की पोटली में सुग्गी नाइन को ढूँढ लिया था। मेरा सौभाग्य रहा है कि मेरे प्रथम काव्य संग्रह 'पहली किरन' के लोकार्पण समारोह में पधारकर पद्मा जी ने मुझे आशीर्वाद दिया। साहित्य के क्षेत्र में अनगिनत सम्मानों, पुरस्कारों से अलंकृत पद्मा जी को हर जम्मूवासी स्नेह से 'बोबो' (डोगरी में बड़ी बहन को 'बोबो' कहा जाता है) कहकर संबोधित करता था। आधुनिक डोगरी कविता की जननी, जम्मू की बेटी पद्मा बोबो को समस्त जम्मूवासियों और साहित्य प्रेमियों की ओर से शत शत प्रणाम।
संदर्भ
- डोगरी संस्था जम्मू
- भाषा और संस्कृति अकादमी जम्मू
- विभिन्न चैनलों द्वारा प्रसारित साक्षात्कार
- परिवार और मित्रों के साथ बातचीत तथा लेखक का निजी अनुभव।
लेखक परिचय
शशि पाधा
शिक्षा : हिंदी, संस्कृत में स्नाकोत्तर, बी० एड०
प्रकाशित साहित्य : पाँच काव्य संग्रह और दो संस्मरण संग्रह। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आलेख, रचनाएँ प्रकाशित।
प्रकाशित साहित्य : पाँच काव्य संग्रह और दो संस्मरण संग्रह। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आलेख, रचनाएँ प्रकाशित।
महर्षि दधीचि पुरस्कार एवं केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा पुरस्कृत।
लगभग २५ वर्ष तक भारत और यूएसए में अध्यापन कार्य, विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में रचनाएँ सम्मिलित। संप्रति - साहित्य साधना में संलग्न।
पद्मा सचदेव जी से एक बार मुझे भी मिलने का सुअवसर मिला है, उनके घर पर... मुझे वे पूरी तरह से घरेलू महिला लगीं जो संस्कारों की पोटली और अपनी मातृभाषा की विरासत को पूरे सम्मान के साथ सहेज कर उत्कृष्ट साहित्य का सृजन करते करते उस साहित्य रूपी हिमालय के उस उत्तुंग शिखर पर पहुँची जहाँ विरले पहुँच पाते हैं... शशि पाधा जी से भी मेरा परिचय तो फोन पर ही है लेकिन उनके लेख, कविताएँ, हाइकु आदि मैं पढ़ता रहा हूँ.. उनके इस लेख से यह भी रहस्य खुला कि दोनों (पद्मा जी एवं शशि पाधा जी) के बचपन की पगडंडियाँ एक ही रही हैं... शायद इसीलिए इस लेख में कुछ खास तरह की सुगंध है.... कुछ खास तरह की मिठास है... अपनी मातृभाषा के लिए... अपनी बोली के लिए जो लोग सम्मान रखते हैं, अपनी बोली को कभी भूलते नहीं... अपनी बोली में साहित्य सृजन करते हैं... वे दुर्लभ तो होते हैं; लेकिन उन्हीं में से कोई पद्मा सचदेव बन पाता है..... शशि पाधा जी को अनेकशः बधाइयाँ ... वे ऐसे व्यक्तित्त्वों पर कुछ और भी लिखें.
ReplyDelete-डा० जगदीश व्योम
आदरणीया शशि जी बहुत ही सुखद प्रवाह करता हुआ डोगरी भाषा और हिंदी साहित्य की प्रसिद्ध कवियित्री श्रध्येया पद्मा सचदेव पर यह लेख लिखा गया है। उनके जीवन के बहुत ही करीबी पहलुओं से अवगत करा कर भाषा और संस्कृति के प्रति समर्पण का खूबसूरत बोध कराता लेख।त्रासदी के जीवन से उभरकर एक सशक्त कलमकार तक की कहानी ने उनके बारे में और पढ़ने और जानने को आतुर कर दिया है। पुनः आपका धन्यवाद और आपकी लेखनी से रचित आदरणीया पद्मा जी के आलेख के लिए बहुत बहुत आभार। इसी तरह कुछ विशेष ख्यातिप्राप्त साहित्यकारों के आलेख रचने के लिए अग्रिम शुभकामनाएं।
ReplyDeleteशशि जी, पद्मा सचदेवा जी के खूबसूरत व्यक्तित्व और उनके भावों-अनुभावों की सुदृढ़ राह का आपने बहुत अच्छा परिचय दिया है। आपको इस लेख के लिए बधाई और तहे दिल से आभार।
ReplyDeleteशशि जी नमस्ते। आपका पद्मश्री पद्मा सचदेव जी पर यह लेख बहुत अच्छा है। मुझे भी 'भारतीय कविता बिम्ब 2014' में आदरणीया पद्मा जी के सानिध्य में काव्य पाठ करने का अवसर मिला। इस सत्र में मुझे पहली बार उनसे मिलने का अवसर मिला था और उनका स्नेह और आशीर्वाद हमेशा के लिये मिला। वो जितनी महान साहित्यकार थी उतनी ही महान इंसान भी थी। आपने उनके जीवन और साहित्य से इस लेख के माध्यम से बखूबी हम सब तक पहुँचाया है। आपको इस भाव संपन्न एवं जानकारी भरे लेख के लिये बहुत बहुत बधाई एवं साधुवाद।
ReplyDeleteसुप्रभात, शशि जी। आपने पद्मा जी की जीवन कथा और साहित्य रचना को बहुत सहज और सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है। आपका पद्मा जी से व्यक्तिगत संपर्क रहा, इस कारण से लेख में मौलिकता और प्रवाह सरल रूप में दिखते हैं। आपको इस सुंदर आलेख के लिए बधाई।
ReplyDeleteपद्मा जी की यात्रा बड़ी प्रेरक है। यदि हम निश्चय कर लें तो तय किए हुए मार्ग पर कितनी भी कठिनाई आए, हम लक्ष्य तक पहुँच ही जाते हैं। बस निश्चय दृढ़ होना चाहिये और प्रयास अनवरत होते रहें । 💐💐
आदरणीय शशि जी पद्मा सचदेव जी पर बहुत आत्मीयता से भरा लेख लिखा है आपने। पद्मा जी की जीवन यात्रा के बारे में लिखते हुए आप स्मृतियों की डोर थामें, उनके साथ चलती रहीं। जिसने इस लेख के प्रवाह और रोचकता को बनाये रखा और हम सबको भी जोड़े रखा। पद्मा सचदेव जी से, उनके रचना संसार से, डोगरी से परिचित कराने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। आपको बधाई।
ReplyDeleteइस प्रतिष्ठित समूह में मुझे अपनी प्रिय पद्मा बोबो के विषय में लिखने का अवसर मिला, यह मेरा सौभाग्य ही है| आप सब ने आलेख की सराहना की, आप का बहुत बहुत आभार| डोगरी भाषा के लिए पद्मा जी ने जो किया उसके लिए जम्मू उनका सदा आभारी रहेगा| जम्मू के लोग कहते हैं," पद्मा हमारी आवाज़ बन कर दिल्ली में बसी थी|" अभी अभी जम्मू महिला कॉलेज का नाम --पद्मश्री पद्मा सचदेव महिला कॉलेज' रखा गया है| बहुत सी यादें जुड़ी हैं उनके साथ| एक बार फिर से धन्यवाद|
ReplyDeleteआपका लेखन अद्भुत है ,बार बार पढ़ने को दिल करताहै
ReplyDelete“मलंग हुए बग़ैर किसी स्त्री का लेखन चला ही नहीं है”
आप अपने वरद हस्त मुझ पर रखदे
मैं भी कुछ लिख पाऊँ
ज्योति माथुर