Monday, April 18, 2022

मुनीर नियाज़ी : शोहरत और मक़बूलियत से घिरा तनहा और बेज़ार शायर

 

शायर जब अपनी क़लम उठाता है और अपने ख़यालात काग़ज़ पर उतारता है तो पाठकों के सामने एक तस्वीर सी पेश करता है। उस तस्वीर को देखने वाले अपनी समझ, तसव्वुर और परिवेश के अनुसार एक ही तस्वीर से मुख़्तलिफ़ रंग और छटाएँ पा जाते हैं। आमतौर पर हर रचनाकार का उपमाओं और रूपकों को इस्तेमाल करके मुहावरे गढ़ने का अपना तरीक़ा होता है; उसकी तासीर, उसकी बारीकियाँ शायरों को अलग-अलग दर्जों में तक़सीम करती हैं। मुनीर नियाज़ी ने अपनी ग़ज़लों में आम ज़िंदगी के परिवेश से उठाई चीज़ों की ऐसी उपमाएँ पेश की हैं, कि वे हैरत और मस्ती की मिलीजुली कैफ़ियत पेश करती हैं। मुनीर नियाज़ी का शुमार उर्दू और पंजाबी के अहमतरीन शायरों में होता है। उनकी रचनाओं में खोए हुए अतीत और रिश्तों की अवहेलना का दुःख झलकता है।

मदद करनी हो उस की यार कि ढाढ़स बँधाना हो
बहुत देरीना रस्तों पर किसी से मिलने जाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं
किसी को मौत से पहले किसी ग़म से बचाना हो
हक़ीक़त और थी कुछ उस को जा के बताना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं
 
मुनीर नियाज़ी की शायरी के बारे में डॉ० मुहम्मद इफ़्तिख़ार शफ़ी अपने एक मज़मून में लिखते हैं, "मुनीर नियाज़ी बीसवीं सदी की उर्दू शायरी की अहमतरीन आवाज़ हैं। उन का शेरी लब--लहज़ा अपनी इनफ़रादियत (अनोखेपन) के साथ हमेशा उन्हें नुमाया मक़ाम अता (उल्लेखनीय स्थान प्रदान) करेगा।"
 
मुनीर नियाज़ी होशियारपुर के क़स्बा ख़ानपुर में एक पश्तून घराने में पैदा हुए। जब मुनीर एक साल के थे, उनके वालिद का इंतिक़ाल हो गया और आगे की उनकी परवरिश माँ और चाचाओं ने की। पढ़ने-लिखने में दिलचस्पी रखने वाली माँ ने उनमें साहित्य के बीज बोए। लड़कपन से जो भी चीज़ उन्हें हैरत में डालती थी, उसे वे शेरी शक्ल देने की कोशिश करते थे और वहीं से इस शायर ने तख़्लीक़ी (सृजनात्मक) सफ़र की राह पकड़ी। शुरुआती तालीम इन्होंने साहीवाल से प्राप्त की। मैट्रिक करने के फ़ौरन बाद इन्होंने कुछ दिन रॉयल-नेवी में नौकरी की, लेकिन मिज़ाज अनुशासन के ख़िलाफ़ होने के कारण जल्दी ही वह नौकरी छोड़ दी। उन्हीं दिनों फ़ुर्सत के पलों में बंबई के समुद्र-किनारों पर बैठ मुनीर ने रिसाला 'अदबी दुनिया' में मंटो के अफ़साने और मीराजी की नज़्में भरपूर पढ़ीं, जिसने उनके साहित्यिक बीजों को ख़ूब सींचा। लाहौर के दयाल सिंह कॉलेज से बी०ए० किया और उस ज़माने में कुछ अँग्रेज़ी नज़्में भी लिखीं। पढ़ाई पूरी होते ही मुल्क का विभाजन हो गया और उनका परिवार पाकिस्तान जा कर बस गया। वहाँ पहुँचकर इन्होंने कई रिसालों और अख़बारों के लिए लिखा, लेकिन हर जगह से बेज़ारी और निराशा ही हाथ लगी। साल १९४९ में साहीवाल से इन्होंने एक रिसाला 'सात रंग' शुरू किया था, पर वह भी कामयाब न रहा। मुनीर नियाज़ी ने रेडियो और टेलीविज़न के लिए भी नज़्में और नग़्में लिखे। उसी दौर में इनकी कई नज़्मों को ग़ुलाम अली जैसे मशहूर गायकों ने गाया और धीरे-धीरे मुनीर लोकप्रिय होते चले गए। मुनीर नियाज़ी जब लाहौर आए तो उनसे फ़िल्मी गाने लिखने की पेशकश होने लगी और ६० के दशक में ये पाकिस्तान के एक लोकप्रिय नग़्मा-निगार हो गए। 'शहीद' फ़िल्म के उनके गाने 'उस बेवफ़ा का शहर है और हम हैं दोस्तों' की धूम तब से अब तक मची हुई है। उनके लिखे सभी नग़में उस दौर के मशहूर गायकों ने गाए और बहुत मक़बूल हुए।
साल १९६० में उन्होंने प्रकाशन गृह 'अल मिसाल' क़ायम किया था। शुरुआती दौर में लोगों ने उन्हें अक्सर वाजिब मेहनताना नहीं दिया, लेकिन वे अपने सभी लेखकों को बराबर पूरी रॉयल्टी देते थे। एक बार उनकी बेगम ने कहा मुनीर तुम्हें तो पैसे नहीं मिलते थे। मुनीर ने पंजाबी में जवाब दिया, "उस वक़्त तराज़ू औरों के हाथ में था, अब मेरे हाथ में है और मैं डंडी नहीं मार सकता।"
 
पाकिस्तान की बड़ी उपन्यासकार और पटकथा लेखिका बानो क़ुदसिया ने मुनीर साहब की शायरी की परतों को समझा और कहा, "मैं मुनीर नियाज़ी को सिर्फ एक बड़ा शायर तसव्वुर नहीं करती, वो पूरा 'स्कूल ऑफ़ थॉट' है, जहाँ हयूलें (आकृतियाँ), परछाइयाँ, दीवारें, उनके सामने आते-जाते मौसम, और उनमें सरसराने वाली हवाएँ, खुले दरीचे, बंद दरवाज़े, उदास गलियाँ, गलियों में मुंतज़िर निगाहें, इतना बहुत कुछ मुनीर नियाज़ी की शायरी में बोलता, गूँजता और चुप साध लेता है कि इंसान उनकी शायरी में गुम हो कर रह जाता है।  मुनीर की शायरी हैरत की शायरी है, पढ़ने वाला ऊँघ ही नहीं सकता।"  
 
अदबी दुनिया में मुनीर नियाज़ी की शायरी की हमेशा चहल-पहल रही। उन्हें भी इस बात का पूरा गुमान था कि उनकी शायरी में जो रंग और मनाज़िर (दृश्य-समूह) उभर कर आते हैं, वैसे औरों के यहाँ नहीं मिलते।
 
रफ़्ता-रफ़्ता उन के बारे में जाने क्यों यह राय आम हो गई कि वे अपने सिवाय किसी और को उम्दा शायर नहीं मानते। डॉ० सदर बुख़ारी ने इस ग़लतफ़हमी का खंडन किया। मुनीर नियाज़ी रिसाला 'नुसरत' के लिए फरवरी १९६१ से अप्रैल १९६४ तक समय-समय पर 'मनोचहर' के क़लमी नाम से अदबी कॉलम लिखते थे। ये कॉलम गद्य-लेखन में उनकी सर्वप्रियता स्थापित करते हैं। उनके इन कॉलमों को डॉ० सदर बुख़ारी ने 'बाब गुज़री सोहबतों का' के उन्वान से साल २०१४ में पुस्तक रूप में संपादित किया। अपने इन कॉलमों में उन्होंने अपने समकालीन शायरों की शायरी को बतौर उम्दा शायरी पेश किया है। यह बात उनकी ज़हनी कुशादगी (खुलेपन) और बड़ी सलाहियत की दलील है और उनपर लगाए जाने वाले ख़ुद-पसंदगी के आरोपों का खंडन करती है।
 
किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते
सवाल सारे ग़लत थे जवाब क्या देते
 
परवीन शाकिर के साथ एक इंटरव्यू में वे ख़ुद-पसंदगी के बारे में कहते हैं कि जब कोई तुम्हारी बात को अख़्तियार न देता हो और सब तुम्हारे नाम पर कीचड़ उछालने पर लगे हों, तो आत्मकेंद्रित होने और आत्म-सम्मान को बनाए रखने के सिवा कोई रास्ता नहीं रह जाता।
 
मुनीर की शायरी के बारे में पाकिस्तान के विख्यात लेखक असग़र नदीम सईद एक रोचक बात बताते हैं - मीडिया-कर्मी और राजनीतिज्ञ दोनों ही मार्शल-लॉ के दौरान अपनी-अपनी बात रखने के लिए नियाज़ी की शायरी का सहारा लेते आए हैं। यह तथ्य उनके शब्द-सामर्थ्य का परिचायक है।
 
बने बनाए रास्तों पर चलना उन्हें मंज़ूर न था, उन्होंने शायरी में सोच और इज़हार के अपने अलग साँचे बनाए। आधुनिक इंसान के रूहानी ख़ौफ़ और बुराइयों की बेचैनी के इज़हार के लिए चुड़ैल और चील जैसी उपमाओं का इस्तेमाल भी किया।
 
इक चील इक मुम्टी पर बैठी है धूप में
गलियाँ उजड़ गईं हैं मगर पासबाँ तो है
 
हिंदुस्तान की परवरिश का कमाल रहा हो या अपनी शर्तों पर शायरी करने का, मुनीर नियाज़ी ने शायरी में हिंदी शब्दों का ख़ूब इस्तेमाल किया है, उनकी एक नज़्म का उन्वान 'अभिमान' है और उसका एक नमूना-
 
मेरी तरह कोई अपने लहू से होली खेल के देखे
काले कठिन पहाड़ दुखों के सर पर झेल के देखे
उनकी एक और नज़्म से-
किस को ढूँढ़ने घर से निकली
लो फिर साँवली रजनी ने तारों भरा आँचल लहराया
 
गोपीचंद नारंग ने अपनी किताब 'सानिहा-ए-कर्बला बतौर शेरी इस्तिआरा : उर्दू शायरी का एक तख़्लीक़ी रुझान' में लिखा है, "... आम मनाज़िर मुनीर नियाज़ी के यहाँ आम नहीं रहते। उन का शेरी वजदान (अंतर्-दृष्टि) हर चीज़ को एक तिलस्माती रंग में देखता है, और गाँव-क़स्बात, गली-कूचे, दर-ओ-दीवार, इमारतें, छतें, सब एक ऐसे करा (दिशा) से करा तक फैले हुए कुल्ली वजूद का हिस्सा मालूम होते हैं जो एक पुर-असरार (रहस्यमयी) कैफ़ियत (आनंद) में डूबा हुआ है। मुनीर नियाज़ी के शेरी वजदान के इस पसमंज़र में देखने पर मालूम होता है कि हमारे मौज़ूं का मरकज़ी (केंद्रीय) इस्तिआरा (रूपक अलंकार) उनके यहाँ एक नई तख़्लीक़ी ताज़गी और कैफ़ियत के साथ उजागर होता है।"
 
फैलती है शाम देखो डूबता है दिन अजब
आसमाँ पर रंग देखो हो गया कैसा ग़ज़ब
खेत हैं और उनमें इक रूपोश से दुश्मन का शक़
सरसराहट साँप की, गंदुम की वहशीगर महक
 
मुनीर नियाज़ी की शायरी में कर्बला की ख़ूनी घटना के छींटे अक्सर मिल जाते हैं जो उनकी शायरी में दुखमयी निराशा का रंग घोलते हैं। मुनीर नियाज़ी ने अपने मजमूए 'दुश्मनों के दरमियान शाम' को 'इमाम हुसैन औलिया इस्लाम' को समर्पित किया है। मुनीर का यह शेर एक पूरी नज़्म की हैसियत रखता है,

ख़्वाब--जमाल--इश्क़ की ताबीर है हुसैन
शाम--मलाल--इश्क़ की तस्वीर है हुसैन

'माहे मुनीर' में यह शेर, 'शहीद कर्बला के नाम' से बतौर नज़्म दिया गया है।
 
ऐसी एक-शेरी नज़्में मुनीर नियाज़ी के यहाँ अक्सर पाई जाती हैं। उनकी नस्री-नज़्मों (गद्य-काव्य) को भी बहुत मक़बूलियत मिली है।
 
आँखों देखे दो पलायनों का मुनीर नियाज़ी पर गहरा असर पड़ा था। उन घटनाओं की अनुभूति और उनसे उत्पन्न संवेदनाएँ उनकी शायरी में साफ़ नज़र आती हैं। पहला पलायन हुआ था देश के बँटवारे के बाद और दूसरा तब, जब बेहतरी की ज़िंदगी की तलाश में पिछली सदी की छठी और सातवीं दहाइयों में लोगों ने बड़ी तादाद में पश्चिमी मुल्कों का रुख़ किया। इन दोनों में एक बुनियादी फ़र्क़ है, पहला मूलतः इतिहास की एक असहनीय करवट के कारण हुआ और दूसरा ऐशो-आराम की ज़िंदगी तथा बड़ी दौलत कमाने के इरादे से हुआ,
 
इक आसेब-ज़र (भूत-प्रेत) उन मकानों में है
मकीं उस जगह के सफ़र पर गए
 
उनका यह शेर दूसरे पलायन के मंज़र-नामे को पेश करता है। यानी अब मकान आलीशान हो गए हैं, ताहम मकान अपने मकीनों से ख़ाली हैं। मकान की यही वीरानी दरअसल आसेब-ज़र है। दूसरा मिस्रा साफ़ कहता है कि रिहायशी अभी लौटे नहीं हैं और ज़िंदगी के किन्हीं मसलों में मसरूफ़ हैं। यह आसेब एक ग़ैर-इंसानी और दास्तानी फ़िज़ा बनाता है, इस फ़िज़ा में वीरानी और ख़ौफ़ का तसव्वुर होता है।
 
भौतिक सुखों के पीछे भागते और इंसानियत से दूर जाते लोगों के कारण मौजूदा बस्तियों, मकानों और मकानों के ज़रूरी सामानों को उनकी संवेदना प्राचीन खंडहरों के समान वीरान और दहशतनाक पाती है।
 
रात थक उजड़े मकान पे जाके इक आवाज़ दी
गूँज उठे बाम दर मेरी सदा के सामने
 
इस शेर में अगर रात, उजड़े मकान और बाम-ओ-दर एक दृश्यमान आकृति उकेरते हैं, तो आवाज़ पाठकों के मन में एक ध्वनि उठाती है। उजड़े मकान में शायर की आवाज़ की गूँज इन सब तस्वीरों को गतिमान कर देती है, और वह सूरते-हाल जो पूर्णतः जड़ लग रही थी, चलायमान हो जाती है। यह मुनीर नियाज़ी का चंद अल्फ़ाज़ में फ़िज़ा बाँधने का हुनर है।
 
उन्हें बदलते इंसानी जज़्बातों, रीति-रिवाज़ों और तकनीक की दौड़ में गुम होते शिष्टाचार से हमेशा परेशानी रही और वे तरक़्क़ी की इस राह के खिलाफ रहे। उन्होंने अपनी शायरी के ज़रिए समाज और शहरी ज़िंदगी के संघर्ष को पेश किया।
 
'मुनीर' इस मुल्क पर आसेब का साया है या क्या है
कि हरकत तेज़ तर है और सफ़र आहिस्ता-आहिस्ता
 
जुर्म आदम ने किया और नस्ल--आदम को सज़ा
काटता हूँ ज़िन्दगी भर मैंने जो बोया नहीं
 
उनकी शायरी में निराशा, दुःख, अवसाद की परतों के नीचे मुहब्बत और ज़िंदगी से उनकी वाबस्तगी छिपी होती है।
 
आया वो बाम पर तो कुछ ऐसा लगा 'मुनीर'
जैसे फ़लक से रंग का बाज़ार खुल गया
 
ताउम्र उनको एक अकेलेपन का एहसास रहा और उसे उन्होंने जिस कमाल के साथ अल्फ़ाज़ से सजाया, वो शायद उनके सिवा कोई और नहीं कर सकता था, इसकी बानगी इस शेर में देखें,
 
लाखों शक्लों के मेले में तनहा रहना मेरा काम
भेस बदलकर देखते रहना तेज़ हवाओं का कोहराम
 
सुहैल सफ़दर ने मुनीर नियाज़ी की शायरी के चुनिंदा अँग्रेज़ी तर्जुमों का संकलन और संपादन करके उसे किताब के रूप में साल १९९६ में प्रकाशित करवाया। मुनीर नियाज़ी की ८६ वीं जयंती के मौक़े पर पंजाब इंस्टिट्यूट ऑफ़ लैंग्वेज, आर्ट एंड कल्चर (PILAC) ने 'मुनीर नियाज़ी की बातें, यादें' नाम से एक किताब का  लोकार्पण किया।  इस किताब में मुनीर नियाज़ी के साक्षात्कार और उन पर कुछ अदीबों के लेख हैं। इस मौक़े पर उनकी पत्नी बेगम नाहिद मुनीर नियाज़ी ने कहा कि उनके शौहर जैसा शायर सदी में बड़ी मुश्किल से एक पैदा होता है। उन्हें उन पर बहुत फ़ख़्र है। इस कार्यक्रम में मौजूद सभी हस्तियों ने मुनीर नियाज़ी की शायरी की प्रासंगिकता और अनोखेपन पर चर्चा की।  
 
उर्दू के मारूफ़ अदीब अशफ़ाक़ अहमद ने मुनीर नियाज़ी पर एक मज़मून में लिखा है, "मुनीर नियाज़ी का एक-एक शेर, एक-एक मिसरा, एक-एक लफ़्ज़ आहिस्ता-आहिस्ता ज़हन के परदे से टकराते हैं और उस की लहरों की गूँज से क़ुव्वते समाअत (श्रवण शक्ति) मुतासिर हुए बग़ैर नहीं रह सकती।"
 
बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में अपनी शायरी से सफ़र, शहर, हवा, शाम, जंगल, मकान, चाँद, सूरज, पानी, शजर, आईना, साँप  वगैरह के ज़रिए ज़िंदगी की समझ के नए पन्ने खोलने वाला यह अज़ीम शायर २६ दिसंबर २००६ को इस दुनिया से दूसरी को मुंतक़िल कर गया, पर वह मौजूदा और आने वाली नस्लों के लिए शायरी का नया शिल्प और नए आयाम छोड़ गया, जिसके लिए शायरी से जुड़े सभी लोग उनके सदा आभारी रहेंगे। लेकिन वे अपने अंतिम समय तक अपने अति-संवेदनशील स्वभाव के कारण जीवन से खिन्न-से रहे। उनके देहांत के बाद वहाँ की सरकार ने लाहौर की एक सड़क को उनका नाम देना का वादा किया था, जो अभी तक पूरा नहीं हुआ है।
 
चाहता हूँ मैं 'मुनीर' इस उम्र के अंजाम पर
एक ऐसी ज़िंदगी जो इस तरह मुश्किल हो  

मुनीर नियाज़ी (मुहम्मद मुनीर ख़ान) : जीवन परिचय

जन्म 

१९ अप्रैल, १९२८, क़स्बा ख़ानपुर,  होशियारपुर, अविभाजित भारत 

निधन

२६ दिसंबर, २००६, लाहौर, पकिस्तान

पिता 

मुहम्मद फ़तेह ख़ान

माँ 

रशीदा बीबी 

पत्नी 

पहली पत्नी सुग़रा ख़ानम की सड़क हादसे में मृत्यु के बाद १९८५ में बेगम नाहिद मुनीर नियाज़ी से दूसरी शादी 

कर्मभूमि

साहीवाल, लाहौर; पाकिस्तान 

कार्यक्षेत्र 

शायर, ड्रामा, सफ़रनामा और कॉलम निगार 

साहित्यिक रचनाएँ


उर्दू काव्य-संग्रह

  • तेज़ हवा और तनहा फूल, १९५९

  • जंगल में धनक, १९६३

  • दुश्मनों के दरमियान शाम, १९६८ 

  • माहे मुनीर, १९७४

  • छह रंगीन दरवाज़े, १९७९

  • आगाज़े ज़मिस्तान में दोबारा, १९८१

  • साइते सियार, १९८३

  • पहली बात ही आख़िरी थी, १९८४

  • कुल्लियाते मुनीर, १९८७

  • एक दुआ जो मैं भूल गया था, १९९१

  • ग़ज़लियाते मुनीर नियाज़ी, १९९३

  • सफ़ेद दिन की हवा, १९९४

  • स्याह शब का समंदर, १९९४

  • एक तसल्सुल, २००४

उर्दू गद्य (कॉलम) संग्रह 

  • बाब गुज़रे सोहबतों के, २०१४

  • कुल्लियाते नस्रे मुनीर नियाज़ी २०१७ 

पंजाबी काव्य-संग्रह  

  • सफ़र दी रात (नज़्में)

  • चार चुप चीज़ां (नज़्में)

  • रस्ता दसन वाले तार (ग़ज़लें)

  • कुल कलाम (पंजाबी कुल्लियात)    

मुंतखिब कलाम 

  • उस बेवफ़ा का शहर (मुंतख़िब ग़ज़लें, १९८६)

  • महब्बत अब नहीं होगी (मुंतख़िब नज़्में, १९९१)

शायरी के चुनिंदा अँग्रेज़ी तर्जुमें

  • संपादन सुहैल सफ़दर, १९९६ 

साक्षात्कार और संस्मरण  

  • मुनीर नियाज़ी की बातें, यादें,  पंजाब इंस्टिट्यूट ऑफ़ लैंग्वेज, आर्ट एंड कल्चर (PILAC), २०१४ 

उनकी एक मशहूर पंजाबी नज़्म 

कुज उंज वि राहां औखेला सन 

कुज गल विच ग़म दा तौक़ वी सी 

कुज शहर दे लोग वी ज़ालिम सन 

कुज मैंनूँ मरन दा शौक़ वी सी 

पुरस्कार व सम्मान

  • सितारा-ए-हुस्न कारकर्दगी एजाज़ (The Pride of Performance award) १९९२ (उच्चतम साहित्यिक पुरस्कार) 

  • सितारा-ए-इम्तियाज़ एजाज़ २००५ 

  • कमाल फ़न एवार्ड (अकादमी अदबियात पाकिस्तान)

संदर्भ


लेखक परिचय


प्रगति टिपणीस

पिछले तीन दशकों से मास्को, रूस में रह रही हैं। इन्होंने अभियांत्रिकी में  शिक्षा प्राप्त की है। ये रूसी भाषा से हिंदी और अंग्रेज़ी में अनुवाद करती हैं। आजकल  एक पाँच सदस्यीय दल के साथ हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर काम कर रही हैं। हिंदी से प्यार करती हैं और मास्को में यथा संभव हिंदी के प्रचार-प्रसार का काम करती हैं।  

13 comments:

  1. मुनीर नियाज़ी पर इस अनूठे लेख के लिए आपके प्रति कृतज्ञता आपने शायर को शब्दों में जिस तरह साकार किया है वह मन को आंदोलित कर देता है, छोटे छोटे टुकड़े एक बेहतरीन इंसान के रूप में शायर की मुक्कमल तस्वीर बनाते हैं
    शुक्रिया आदाब !

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    1. आपकी शाबाशी बहुत अच्छी लगी, कोशिश थी, कामयाब हुई।

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  2. प्रगति, तुमने बहुत सहजता से मुनीर नियाजी और उनकी शायरी पर प्रकाश डाला है। जैसे लोग मुनीर नियाजी की शायरी पढ़ते समय उसमें गुम हो जाते हैं, वैसे ही मैं भी इस रोचक आलेख को पढ़ते समय इसमें खो गई थी। अति सराहनीय और उत्तम आलेख। तुम्हें इसके लिए बधाई! मुझे उनकी लिखी और मेहदी हसन द्वारा गाई ग़ज़ल - कैसे-कैसे लोग हमारे जी को जलाने आ जाते हैं…. याद आ रही है।

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    1. बहुत शुक्रिया, सरोज। हमें यूँ ही एक से दूसरे क़दम की ओर साथ-साथ बढ़ना है।

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  3. बेहतरीन अभिव्यक्ति मुनीर नियाज़ी जी के संदर्भ में उम्दा जानकारी पढ़ने को मिली शत शत नमन आपको ।

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    1. बहुत शुक्रिया, भावना जी। आपको भी नमन।

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  4. साधुवाद प्रगति जी, बहुत सुंदर लेख। एक बार फिर आपकी लेखनी नेने मेरे पाठक मन को समृद्ध किया। अक्सर हम पसंदीदा रचनाकार को पढ़ते हुए उनकी रचनाओं तक ही सीमित रह जाते हैं। लेकिन इस परियोजना के अंतर्गत आये लेखों के द्वारा हम उनके जीवन और साहियिक यात्रा को भी जान पाते हैं। प्रस्तुत लेख में आपने भी मुनीर नियाज़ी के बारे में महत्वपूर्ण और विस्तृत जानकारियाँ उपलब्ध करायी हैं। सुन्दर शब्द चयन और शैली में सधा हुआ लेख। बहुत बहुत बधाई व धन्यवाद।

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    1. आभा, बहुत-बहुत शुक्रिया। तुम्हारे शब्दों से बेहतर लिखने की प्रेरणा मिलती है।

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  5. बहुत खूब प्रगति जी। आपकी सधी हुई कलम से रूपाकार हुए
    मुनीर नियाज़ी के संवेदनशील व्यक्तित्व और दिल को छू लेने वाली शायरी जिनमें कायल हो गई। बधाई।

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    1. हृदय तल से आभार, प्रज्ञा जी। आप जैसों का स्नेह बना रहे, हम कोशिश जारी रखेंगे।

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  6. प्रगति जी नमस्ते। आपका लिखा आज का मुनीर नियाज़ी जी पर लिखा ये आलेख बेहद उम्दा है। आपका हर आलेख उम्दा ही होता है और पाठक को अपनी ओर आकर्षित करता है। आपका हिंदी और उर्दु का गहन अध्ययन आपके आलेखों में उभर कर आता है। मुनीर नियाज़ी साहब मेरे भी पसंदीदा शायरों में से हैं। आपने अपने लेख में उनके जीवन एवं पंजाबी- उर्दु अदब के सफर को बखूबी समेटा है। आपको इस बेहतरीन लेख के लिये हार्दिक बधाई।

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    1. दीपक जी, इतने उदार शब्दों के लिए आपका आभार। एक कोशिश रहती है और उसमें आनंद भी आता है कि साहित्यकार को अधिकाधिक जानकर लिखा जाए; ऐसी टिप्पणियों से वह सार्थक हो जाती है।

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  7. प्रगति जी, आपने मुनीर नियाज़ी की शायरी पर बेहतरीन आलेख दिया है। बधाई। 💐💐

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आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...