Monday, November 8, 2021

जॉन एलिया: एक पाकिस्तानी शायर जिसके दिल में हमेशा रहा हिन्दुस्तान




 वो शै जो सिर्फ हिन्दुस्तान की थी
वो पाकिस्तान लाई जा रही है

कहने को १४ साल की किशोर वय, मगर दिल में जो दर्द का सिलसिला शुरू हुआ, तो आख़िरी साँस तक न थमा। ऊपर लिखी पंक्तियाँ भाव के अनुसार विभाजन की टीस को बयाँ ज़रूर करती हैं, पर इन शब्दों से कई हज़ार गुना तकलीफ़ को उन्होंने आख़िरी दम तक जिया। और जब बात उनके परिचय की हो, तो इतना कहना ही काफ़ी है .. 

मैं जो हूँ, जॉन एलिया हूँ जनाब
इसका बेहद लिहाज़ कीजियेगा

 १४ दिसंबर १९३१ को उत्तर प्रदेश के अमरोहा में जन्मे जॉन ने भले ही ज़िन्दगी पाकिस्तान में बिताई हो, लेकिन अपने वतन हिन्दुस्तान से उनकी मोहब्बत में ता-उम्र फ़र्क नहीं पड़ा। यही वजह रही कि वे दुनिया के किसी भी मंच पर रहे हों, उनकी शायरी में अपने शहर की गलियों का ज़िक्र आ ही जाता था। यह अफ़सोसजनक है कि कमाल अमरोही से लेकर मीना कुमारी तक को हमेशा याद रखनेवाले शहर अमरोहा ने अपनी ही मिट्टी में पले-बढ़े जॉन को उस तरह याद नहीं रखा, जिसके वे हक़दार थे। अमरोहा के रहने वाले, एलिया साहब के क़रीबी, आदिल ज़फ़र अक्सर उनका ज़िक्र करते हुए एक अफ़सोस ज़रूर बाँटते हैं कि जिस जॉन ने अमरोहा को दुनिया भर में नया मुक़ाम दिया, उस जॉन का एक हिस्सा भी अमरोहावासी नहीं सँभाल पाए। जॉन को उनका अपना शहर उनकी बरसी पर भी याद नहीं करता, हालाँकि उनकी हवेली की देख-भाल करनेवाले निहाल अहमद और ख़ुद आदिल ज़फ़र उनकी यादों की धरोहर सँभाले हुए हैं।

 कोई नहीं यहाँ ख़ामोश, कोई पुकारता नहीं,

शहर में एक शोर है, और कोई पुकारता नहीं

 जॉन के वालिद सय्यद शफ़ीक़ हसन एलिया ख़ुद भी एक उम्दा शायर, विद्वान और ज्योतिष के जानकार थे। उनके व्यक्तित्व के इस पहलू ने जॉन को भी किताबों से इश्क़ करना सिखा दिया। जॉन की आरम्भिक शिक्षा अमरोहा के मदरसों में हुई, जहाँ उन्होंने अरबी, उर्दू और फ़ारसी सीखी। आगे चलकर इन विषयों में एम. ए. भी किया। इसके अलावा उनकी अँग्रेज़ी, फ्रांसीसी, पहलवी, इब्रानी (हिब्रू) और संस्कृत आदि कई भाषाओं पर भी मज़बूत पकड़ थी। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ी, उनका झुकाव कम्युनिज़्म की तरफ बढ़ता गया । सन १९४७ में विभाजन के दौरान उन्हें न चाहते हुए भी पाकिस्तान जाना पड़ा, लेकिन मन से वे कभी भी पाकिस्तान को अपना न सके, ता-उम्र अमरोहा और हिन्दुस्तान के लिए तड़पते रहे।

१९९३ का एक क़िस्सा उनके बारे में बहुत मशहूर है- जब जॉन अमरोहा में एक मुशायरे में शिरकत करने पहुँचे, तो मंच संचालक ने उनका परिचय पाकिस्तान से आए शायर के रूप में कराया। जॉन ख़ुद को रोक नहीं पाए और मंच पर ही फूट-फूटकर रोने लगे। उन्होंने एक साँस में अमरोहा के कई मोहल्लों के नाम गिना डाले और कहा- मैं अमरोहा के किसी भी मोहल्ले, गली, कूचे का हो सकता हूँ, लेकिन पाकिस्तान का नहीं।

 जमा हमने किया है ग़म दिल में

इसका अब सूद खाये जायेंगे

 जॉन अपने पाँच भाइयों में सबसे छोटे थे। मशहूर दार्शनिक सय्यद मो. तकी और पाकिस्तान के नामचीन पत्रकार रईस अमरोही उनके बड़े भाई थे। हिन्दुस्तान के प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक कमाल अमरोही उनके चचेरे भाई थे। बचपन से ही संवेदनशील जॉन अपनी मानसिक तकलीफ़ों से जूझते रहते थे। जॉन को काम में मशग़ूल कर के उनको अप्रवास की पीड़ा से निकालने के लिए रईस अमरोही ने उर्दू साहित्य पत्रिकाइंशातक निकाली। पत्रिका में जॉन संपादकीय लिखा करते थे। उसी ज़माने में जॉन ने इस्लाम से पूर्व मध्य पूर्व का राजनैतिक इतिहास सम्पादित किया, फ़लसफ़े पर अँग्रेज़ी, अरबी और फ़ारसी किताबों के अनुवाद  किये और लगभग ३५ किताबें सम्पादित कीं। वे उर्दू तरक़्क़ी बोर्ड, पाकिस्तान से भी जुड़े रहे, जहाँ उन्होंने एक वृहत उर्दू शब्द कोश की तैयारी में मुख्य भूमिका निभाई।

 जो गुज़ारी न जा सकी हम से

हमने वो ज़िन्दगी गुज़ारी है

 सरल लेकिन तीख़े तराशे हुए लहज़े में गहरी बातें लिखने वाले पत्रकार, विचारक, अनुवादक जॉन घोर अवसादों में डूबे रहने के बावजूद भी लगातार लिखते रहे। उनकी ग़ज़लों का पहला संग्रहशायद१९९१ में प्रकाशित हुआ, जब वे ६० वर्ष के थे। इस संग्रह को उर्दू साहित्य के बेहतरीन नमूनों में गिना जाता है। दूसरा संग्रहयानी२००३ में, ‘गुमान२००४ में, ‘लेकिन२००६ में औरगोया२००८ में प्रकाशित हुए। 

 बहुत नज़दीक आती जा रही हो

बिछड़ने का इरादा कर लिया क्या

 जिस ज़माने में जॉन एलियाइंशामें काम कर रहे थे, उन दिनों उनकी  मुलाकात मशहूर पत्रकार और लेखिका ज़ाहिदा हिना से हुई। दोनों ने १९७० में शादी कर ली, लेकिन तीनों बच्चों (दो बेटियाँ- फेनाना फरनाम, सोहिना एलिया और बेटा अली जरयुन) की पैदाइश के बाद दोनों के रिश्ते इतने तल्ख़ हो चुके थे कि ८० के दशक में उन्होंने तलाक़ ले लिया। ज़ाहिदा इंडो-पाक की सुप्रसिद्ध पत्रकार हैं तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आज भी सक्रियता से लिखती हैं ।

 जॉन का निजी जीवन हमेशा उलझनों में डूबा रहा । अपने मन मुताबिक़ चलने वाले जॉन हद दर्ज़े के ग़ैरज़िम्मेदार माने जाते थे। हमेशा अपने ख़्यालों में डूबे रहना, किसी  बात पर तुरंत रो देना, तम्बाकू के नशे में डूबे रहना, हमेशा एकांत पसंद करना, लम्बे बाल रखना, सामाजिक आयोजनों में भी अजीब कपड़े पहनना, गर्मियों में कंबल ओढ़कर निकलना, रात के वक़्त धूप का चश्मा लगाना या पैरों में खड़ाऊँ पहन कर दूर-दराज़ के लोगों से मिलने चले जाना वगैरह उनकी पहचान बन चुका था। हालाँकि ये सब अजीब बातें भी उनकी शायरी के वज़न को कम नहीं कर सकीं। वक़्त के साथ-साथ वे पाकिस्तानी मुशायरों का बड़ा नाम बन गए थे।

ये मुझे चैन क्यों नहीं पड़ता

एक ही शख़्स था क्या जहाँ में

 ज़ाहिदा से अलग होना वे मानसिक रूप से सह नहीं पाए। एकांतप्रिय तो वे पहले भी थे, लेकिन पत्नी से जुदा होने के बाद उन्होंने सिगरेट और शराब की भी अति कर दी, जिसके परिणाम स्वरूप उनके दोनों फेफड़े खराब हो गए। १८ नवंबर २००२ को वे दुनिया से रुख़सत हो गए।

 ख़ामोशी से अदा हो रही रस्म-ए-दूरी

कोई हंगामा बरपा क्यों करें हम

 ख़ुदरंग जॉन ने अपनी शायरी में हमेशा आम आदमी की आवाज़ को जगह दी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बोली उनके शेरों में ख़ूब नुमाया होती है। कहा जाता है गंगा-जमुनी कविता के बाद पाकिस्तानी सरकार ने उन्हें प्रतिबंधित कर दिया था। यहाँ तक कि कट्टरपंथियों ने उनके घर पर हमला कर दिया था ।

 मत पूछो कितना ग़मगीं हूँ गंगा जी और जमुना जी

ज़्यादा मैं तुमको याद नहीं हूँ गंगा जी और जमुना जी

 लेकिन इस तरह की हर तकलीफ़ और बात से परे अपने वतन के प्रति उनका लगाव और दर्द एक अलग ही श्रेणी का था। इसका एक उदाहरण अनगिनत बार लोगों की बातों में मिला है- पाकिस्तान जाने के बाद जब पहली बार जॉन उत्तर प्रदेश अमरोहा के स्टेशन पर उतरे तो बजाय लोगों से मिलने के वे प्लेटफार्म को चूमने लगे, ज़मीन की मिट्टी अपने शरीर पर लगाकर देर तक रोते रहे.. 

 ये कहकर उस गली ने सब्र किया

जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं

जॉन एलिया का दर्द आज उनके बिना भी जाने कितने लोगों की आवाज़ बन जाता है। कहा जाता है कि कोई चीज़ खोने पर उसकी क़ीमत बढ़ जाती है। आज जब जॉन इस दुनिया में नहीं हैं, उनके चाहने वालों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। ख़ास तौर पर जिस अपनेपन से युवा पीढ़ी ने उन्हें अपनाया है और सोशल प्लेटफार्म पर उन्हें विस्तार दिया है, वह क़ाबिलेग़ौर है। अपने आप को अजीब कहनेवाले और अपनी शायरी की अनमोल सौग़ात दुनिया को देनेवाले जॉन एलिया अपने दिल में हिन्दुस्तान लिए आज भी दुनिया के दिलो-दिमाग़ पर छाए हुए हैं। 

उनकी बिंदास, अटपटी, बेलौस शायरियाँ लोगों के दिलो-दिमाग़ में अपनी पुख़्ता जगह बना चुकी हैं -

 कौन इस घर की देख-भाल करे

रोज़ इक चीज़ टूट जाती है

मैं रहा उम्र भर जुदा ख़ुद से

याद मैं ख़ुद को उम्र भर आया

ख़ूब है इश्क़ का ये पहलू भी

मैं भी बर्बाद हो गया तू भी

आभार: आदिल ज़फ़रजी और सोशल प्लेटफ़ार्म

 

जॉन/जौन एलिया: जीवन परिचय

पूरा नाम

 सैय्यद हुसैन जॉन असग़र 

जन्म

१४ दिसंबर १९३१

अमरोहा, उत्तर प्रदेश, भारत 

मृत्यु 

०८ नवम्बर २००२

कराची, सिंध, पाकिस्तान 

व्यवसाय 

शायर, पत्रकार, अनुवादक, सम्पादक विचारक 

भाषा 

उर्दू

साहित्यिक रचनाएँ

काव्य संग्रह      

शायद, गोया, लेकिन, गुमान, यानी 

 

 लेखक परिचय


अर्चना उपाध्याय
डिज़ाइनर,डीसी (हैंडीक्राफ्ट), मिनिस्ट्री ऑफ टेक्सटाइल्स
डायरेक्टर, अंतरा सत्व फाउंडेशन
यूट्यूबर 'अंतरा द बुकशेल्फ़'

 


Sunday, November 7, 2021

"सौ जासूस मरते हैं तब एक कवि पैदा होता है" - चंद्रकांत देवताले



 "वह औरत

आकाश और पृथ्वी के बीच

कब से कपड़े पछीट रही है

पछीट रही है शताब्दियों से

धूप के तार पर सुखा रही है"

सहज शब्दों में नारीत्व का ऐसा वृहद चित्रण करने वाले चंद्रकांत देवताले जी, कोमल किन्तु पैनी दृष्टि वाले कवि थे! उनकी प्रज्ञा और चैतन्य ने उनको गहन अन्वेषक दृष्टि दी, परन्तु उनके सादे व्यक्तित्व ने कभी इसे आडम्बर की तरह नहीं ओढ़ा। समाज, परिवार और स्वयं को विलक्षण नज़र से परखने वाले चंद्रकांत जी, जीवन में बहुत सहज और उदारमना थे। छह दशक तक वे हिंदी कविता में सक्रिय रहे और अकविता आंदोलन के अग्रणी कवि रहे। उनकी पुस्तकों के शीर्षकों में उनका आक्रोश और विद्रोह साफ झलकता है।

देवताले कविताओं की सघन बुनावट और उसमें निहित सामाजिक दृष्टि के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने कहा था कि "सौ जासूस मरते हैं तब एक कवि पैदा होता है और एक कवि हज़ार आँखों से देखता है।" कवि की प्रतिबद्धता पर उन्होंने कहा, ”कवि की प्रतिबद्धता अनेकान्त होती है। जब जैसा क्षण होता है उसकी प्रतिबद्धता, उसकी पहचान वैसी ही होती है। सबसे बड़ी बात है मनुष्यता का सत्य! उसी सत्य और मानव गरिमा की रक्षा करने के लिए कवि को भाषा का उपयोग करना चाहिए।'' वे कहते थे कि जिस समाज में कविता के लिए जगह नहीं वह समाज मनुष्यता से वंचित होता जाता है। उनके काव्य और निजी जीवन में एक ईमानदार समानता थी। देवताले जी अनुभूति, अनुभव और संवेदनशीलता को काव्य का केंद्रीय तत्व मानते थे। वे बौद्धिकता को काव्य पर हावी नहीं होने देते थे। वह कहते थे कि साहित्य तो ग्रासरूट पाठकों के लिए होता है जो उनके अंदर संघर्ष करने की ताकत भरता है। शायद यही कारण है कि हर पीढ़ी का लेखक चंद्रकांत जी के प्रति आदर भाव रखता है और उनके पाठक उन्हें सर-आँखों पर बिठा के रखते हैं| 

 

उन्होंने दर्जन से ऊपर हिन्दी कविता-संग्रह लिखे और मराठी से संत तुकाराम के अभंगों और दिलीप चित्रे की कविताओं का हिंदी अनुवाद किया। उनके कविता संग्रह 'पत्थर फेंक रहा हूँ' के लिए २०१२ में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने पर बहुत से लोगों ने कहा कि उनको यह पुरस्कार बहुत पहले मिलना चाहिए था। परन्तु चंद्रकांत जी स्वयं अपने लेखन से पूरे संतुष्ट नहीं थे। आत्म-प्रशंसा करना उन्हें कतई पसंद नहीं था। उनकी बिटिया अनुप्रिया देवताले जी बताती हैं कि जब वह उनके सम्मान में कोई कार्यक्रम रखतीं या उन्हें महान कवि कहतीं तो वे असहज हो जाते। 


चंद्रकांत जी की जड़ें गाँव-कस्बों में थीं। उनकी पकड़ अपने चारों तरफ की ज़िन्दगी पर इतनी मज़बूत थी कि वे ग्रामीण, शहरी और साथ ही जनजाति पर पूरे अधिकार से लिखते। उनके मित्र विष्णु खरे कहते हैं कि देवताले कबीर की परंपरा के कवि थे। रघुवीर सहाय के बाद वह चंद्रकांत जी को हिंदी कविता की सबसे ठोस राजनीतिक कलम मानते हैं, जो कभी तटस्थ नहीं रही।


बचपन में टायफायड रिलैप्स होने से उनकी आवाज़ चली गई। आवाज़ लौटाने के लिए उन्होंने सिग्नल पर चढ़ कर कहानी, कविताएँ ज़ोर-ज़ोर से पढ़ीं। आवाज़ लौटी, और उन्हें सम्प्रेषण से प्रेम हो गया! आज़ादी के संग्राम और द्वितीय विश्व युद्ध के प्रभाव उनके ह्रदय पर गहरे अंकित हुए। शायद इसी कारण राजनीतिक संवेदना का स्वर उनकी कविताओं में सदा मुखर रहा! उन्होंने आज़ाद भारत की बेचैनियों को शिद्दत से अपनी कविताओं में जिया। वे लघु पत्रिकाओं में छपते और उनको साहित्य के जनतंत्रीकरण का जरिया मानते। उनका मानना था कि लोकप्रियता लेखन का मानक नहीं होना चाहिए। साहित्य या सृजनात्मक सोच की अनुभूति को वे दीर्घकालिक मानते जो मनुष्य को मनुष्य बनाने में सहयोग देगी। 

 

१९५२ में नर्मदा में तैरते-तैरते उन्होंने पहली पुख़्ता कविता लिखी। वे कबीर, निराला, रघुबीर सहाय, शमशेर और मुक्तिबोध से बहुत प्रभावित थे। वह मुक्तिबोध की तरह स्पष्ट विचार, तीखी दलील रखते। जब भी वह समाज की किसी व्यवस्था की आलोचना करते सबसे पहले खुद को तौलते। प्रेम विषय पर देवताले जी कहते कि हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या हम प्रेम में स्वयं को दे सकते हैं! माँ से चद्रकांत जी का रिश्ता अटूट रहा। माँ खाना बहुत अच्छा बनाती, तो चन्द्रकांत जी अच्छे देसी खाने के बहुत शौक़ीन रहे। उन्हें खाने-खिलाने का बड़ा शौक था। माँ की सादगी ने उन्हें एक ग्रामीण की तरह सरल और स्पष्टवादी बनाये रखा। चंद्रकांत जी का अधिकांश जीवन इंदौर - उज्जैन - रतलाम (मध्यप्रदेश) में गुज़रा, जहाँ वे पहले अपने माता-पिता, बाद में अपनी पत्नी और दो बेटियों के साथ रहते थे। उनकी पत्नी उनके सृजनात्मक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थीं। देवताले नितांत पारिवारिक व्यक्ति थे और पत्नी के निघन के बाद वह बहुत अकेलापन महसूस करते थे|


उनकी पुत्री, अनुप्रिया देवताले एक प्रसिद्ध वायलिन वादिका हैं। वह अपने अंदर की अनूठी सृजनामकता का श्रेय अपने पिता को देती हैं। अनुप्रिया देवताले जी मुझसे एक साक्षात्कार में कहती हैं कि वह अपने पिता जी की सृजनशीलता से हतप्रभ हो कह उठतीं कि "पापा आप तो सूर्यदेव जैसे हैं। आपकी सोच और पकड़ अद्भुत है!" चंद्रकांत जी बात टालते हुए हँस देते! वे अपने बच्चों से अक्सर कहते - "मीठा बोलो – संक्षेप में बोलो – जरुरी हो तो ही बोलो", ‘अप्प दीपो भव’- अर्थात अपना दीप स्वयं बनो। शायद यही उनकी रचनाधर्मिता का सार है। अपने परिवार, मित्र, युवा पाठकों के साथ-साथ वे पशु, पक्षी, परिंदों से भी प्रेम करते। उनकी किताबें लिखने-पढ़ने की अपनी अलग दुनिया थी – बिना कम्प्यूटर के – गहरी और जीवन्त! उज्जैन के घर में बड़े से बागीचे में पेड़-पौधों और पक्षियों के बीच बैठ कर चंद्रकांत जी पढ़ते-लिखते। उनके पास सदैव युवा कवियों की आवाजाही रहती, कई बार सम्मलेन के सत्र छोड़कर वह युवाओं से बातचीत में मग्न हो जाते। वे बार-बार बाज़ारवाद से सतर्क रहने को कहते! चंद्रकांत जी कहते थे – "बाज़ार जाता हूँ, खरीददार नहीं हूँ"। उन्हें संग्रह करने का बिलकुल शौक नहीं था| फेसबुक को 'थोबड़े की किताब' कह कर नकार देते। 

 

समाज के वंचित वर्ग और राजनीति पर मर्मस्पर्शी, आत्मावलोकन करने वाली कविताएँ लिखने वाले चंद्रकांत देवताले ने स्त्री पर भी पारिवारिक ऊष्मा से भरी विलक्षण कविताएँ लिखी हैं- चाहे प्रेमसिक्त काव्य हो, माँ पर कविता हो, या बेटी पर! उनका मानना था कि प्रकृति की तरह ही स्त्री इस सृष्टि की केंद्रीय सत्ता है। वह पृथ्वी का संगीत भी है, और नमक भी। व्यवस्था और पुरुष सत्ता ने उसी का सबसे अधिक शोषण किया है। १९७४ में चंद्रकांत जी ने "माँ जब खाना परोसती थी" कविता का पाठ किया तो उनकी अम्मा जी की आँखें आँसू से भर गईं। उनकी 'माँ पर नहीं लिख सकता कविता' माँ पर लिखी सबसे श्रेष्ठ कविताओं में गिनी जाती है:

 

“माँ ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिए

देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे

और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया

मैंने धरती पर कविता लिखी है

चंद्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूँगा 
माँ पर नहीं लिख सकता कविता!"

अपने समय के कवियों में वे रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, राजकमल चौधरी, केदारनाथ सिंह, ऋतुराज, जगूड़ी, कुमार विकल, विष्णु खरे, सौमित्र मोहन, भगवत रावत, और युवा कवि मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, अरुण कमल और विजय कुमार इत्यादि की कविताओं को पसंद करते! उनकी स्वयं की प्रिय कविताओं में 'उतर आओ मेरे लिए धरती पर', 'तो गाँव थूक नहीं सकता था मेरी हथेली पर' और 'बाई दरद ले' शामिल हैं। समकालीन कविता में उनकी १९८२ में छपी लम्बी रचना 'भूखंड तप रहा है' एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। देवताले कहते हैं, "'भूखंड' के त्रिभुवन का और मेरा गहरा रिश्ता है, पर त्रिभुवन सिर्फ़ चंद्रकांत नहीं!" कविताओं में व्यंग्य, संवेदना और आक्रोश की समन्वित शैली से लैस चंद्रकांत देवताले जी की कविताएँ समय की देहरी लांघ कर सदैव प्रासंगिक बनी रहेंगी। 



चंद्रकांत देवताले: जीवन परिचय


जन्म

७ नवम्बर १९३६, जौलखेड़ा, बैतूल, मध्य प्रदेश

निधन

१४ अगस्त २०१७, दिल्ली

कर्मभूमि

इंदौर – उज्जैन - रतलाम (मध्य प्रदेश में शिक्षण एवं प्रधानाचार्य पदभार)

शिक्षा एवं शोध

उच्च शिक्षा

उच्च शिक्षा- एम.ए. हिंदी, होलकर कॉलेज इंदौर,

मुक्तिबोध पर पी.एच.डी. सागर विश्वविद्यालय, १९८४ 

साहित्यिक रचनाएँ 

कविता संग्रह

हड्डियों में छिपा ज्वर (१९७३), दीवारों पर खून से (१९७५), 

लकड़बग्घा हँस रहा है (१९८०), रोशनी के मैदान की तरफ (१९८२),

भूखंड तप रहा है (१९८२), आग हर चीज़ में बताई गई थी (१९८७),

बदला बेहद महंगा सौदा (१९९५), पत्थर की बेंच (१९९६),

उसके सपने (१९९७), इतनी पत्थर रोशनी (२००२), 

उजाड़ में संग्रहालय (२००३), जहां थोड़ा सा सूर्योदय होगा (२००८)

पत्थर फेंक रहा हूँ (२०१०), खुद पर निगरानी का वक्त (२०१५),

‘पिसाटी का बुर्ज़’-दिलीप चित्रे की मराठी कविताओं का अनुवाद 

पुरस्कार व सम्मान

साहित्य अकादमी (२०१२), माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार (मध्य प्रदेश सरकार), मध्य प्रदेश सरकार का शिखर सम्मान, सृजन भारती सम्मान, कविता समय सम्मान, मुक्तिबोध फेलोशिप 


सन्दर्भ:


१. ‘चंद्रकांत देवताले - एक कवि को माँगनी होती है क्षमा कभी न कभी - कवि का गद्य' - निशिकांत ठाकर, कनुप्रिया देवताले, वाणी प्रकाशन 
२. ‘अपने को देखना चाहता हूँ’ - अनुप्रिया देवताले

३. https://www.amarujala.com/kavya/halchal/renowned-hindi-poet-chandrakant-devtale-dies-in-delhi?page=3

४. https://en.wikipedia.org/wiki/Chandrakant_Devtale

५. https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/97811

६. https://www.youtube.com/watch?v=5Ykv2fCYZgU

. https://www.youtube.com/watch?v=XBdJ9U5q_eE


                                                                  
लेखक परिचय

शार्दुला नोगजा सुपरिचित हिंदी कवयित्री हैं और हिंदी के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। पेशे से वे तेल एवं ऊर्जा सलाहकार  हैं और २००५ से सिंगापुर में कार्यरत हैं। उनकी संस्था ‘कविताई-सिंगापुर’, भारत और सिंगापुर के काव्य स्वरों को जोड़ती और मजबूत करती है। 

+6591793432 (M) ; shardula.nogaja@gmail.com



Saturday, November 6, 2021

छायावाद के प्रवर्तक : पं. मुकुटधर पाण्डेय



छायावाद के प्रवर्तक मुकुटधर पाण्डेय का जन्म ३० सितंबर,१८९५ को छत्तीसगढ़ के एक छोटे से गाँव बालपुर में हुआ। बचपन से ही उन्हें साहित्य में रुचि थी। उन्होंने सात वर्ष की अवस्था में पिता की मृत्यु पर एक मुक्तक लिखा था, जिसे रोते-रोते महानदी की धार में बहा दिया। उनका गाँव महानदी के किनारे सारंगढ़-रायगढ़ मार्ग पर स्थित है। उल्लेखनीय है कि इसी महानदी की बीच धार में कुररी पक्षियों के रोदन को सुनकर मुकुटधर जी की वाणी से छायावाद की प्रथम कविता फूट पड़ी थी-

  “बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात ।”  


इतनी सुन्दर कविता की रचना अकारण नहीं हुई। बालपुर और महानदी के आस-पास का वातावरण ही इतना रमणीय है कि सहज ही कोई कवि बन जाय। यहाँ घनी अमराइयों के बीच सूरज झाँकता हुआ-सा प्रतीत होता है। और सूर्यास्त ऐसा मानों ‘अलता’ लगाये कोई नई-नवेली दुल्हन धीरे-धीरे कदम बढ़ा रही हो। इधर अमराई और पलाश वृक्षों की कतारें, मानों स्वागत में खड़ी हों। इस रमणीय वातावरण में पलाश की टहनियों के ऊपर रक्तिम लाल पुष्प-गुच्छों को देखकर उनका बालमन आनंद-विभोर हो उठता था। इस अनुपम सौंदर्य की अभिव्यक्ति इन शब्दों में हुई -------


                              “किंसुक- कुसुम! देख शाखा पर फूला तुझे 

                               मेरा मन आज यह फूला न समाता है। 

                               अपनी अपार छटा हमसे छिपा कर,  

                               इतने दिवस भला तू कहाँ बिताता है?” 


मुकुटधर जी को कवि-ह्रदय मिला था। उन्होंने न केवल काव्य के माध्यम से नवीन चेतना का परिचय दिया, बल्कि ‘छायावाद’ का नामकरण करते हुए उसे पहली बार व्याख्यायित भी किया। छायावाद, जिसे आधुनिक हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण पड़ाव माना जाता है। उसमें कला, कल्पना और दर्शन का अद्भुत संयोजन रहा है।  


साहित्यिक दृष्टि से देखें तो छायावाद का भावोदय द्विवेदी-युग के उत्तरार्द्ध में ही हो गया था, किंतु इसका नामकरण सन १९२०  में श्री मुकुटधर पाण्डेय द्वारा किया गया। उन्होंने द्विवेदी-युग के भीतर नवीन दृष्टि और जिज्ञासा की प्रवृत्ति को साहित्य में स्थान देकर एक नए युग का सूत्रपात किया। उन्होंने काव्य में न केवल आत्मगत भावनाओं को स्थान दिया बल्कि नवीन कोटि की अभिव्यंजना-प्रणाली के साथ-साथ भावात्मकता तथा परोक्ष-सत्ता को भी स्थान दिया। ‘हितकारिणी’ के सन  १९२० के अंक में उन्होंने “छायावाद’ शब्द का पहली बार प्रयोग करते हुए उसके कुछ लक्षणों का भी उल्लेख किया है- 


                                      “भाषा क्या वह छायावाद 

                                      है न कहीं उसका अनुवाद ।” 


इसके बाद उन्होंने जबलपुर से निकलने वाली पत्रिका “श्रीशारदा” के १९२० के  चार अंकों में छायावाद संबंधी महत्वपूर्ण लेख लिखा-  ‘हिंदी में छायावाद’। इस लेख का ऐतिहासिक महत्व है। इसके पूर्व न तो किसी ने छायावाद का नामकरण किया था और न ही छायावाद संबंधी लक्षणों की ओर किसी ने संकेत किया था। छायावाद के संबंध में चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा- “हिंदी में यह बिल्कुल नया शब्द है। यह अंग्रेजी शब्द ‘मिस्टिसिज़्म’ के लिए आया है।” इसी लेख में उन्होंने छायावाद को परिभाषित करते हुए कहा- ”छायावाद एक ऐसी मायामय सूक्ष्म वस्तु है कि शब्दों के द्वारा उसका ठीक-ठीक वर्णन करना असंभव है, कि उसमें शब्द और अर्थ का सामंजस्य बहुत कम रहता है”। इस प्रकार उन्होंने इसमें भावगत और भाषागत सूक्ष्मता को लक्षित किया। सूक्ष्म भावलोक अथवा अनुभूति की अंत:प्रेरणा ही छायावाद का प्रधान लक्षण है।  फिर उन्होंने यह भी कहा कि “यथार्थ में छायावाद भाव-राज्य की वस्तु है। इसमें केवल संकेत से ही काम लिया जाता है। जिस प्रकार कोई समाधिस्थ योगी समाधि से जागने पर ब्रह्मानंद के सुख का वर्णन वचनों से नहीं कर सकता, उसी प्रकार कवि भी अपनी ह्रदयगत भावनाओं को स्पष्ट रूप से शब्दों में नहीं लिख सकता।”  


हम जानते हैं कि आधुनिक हिंदी साहित्य में स्वच्छंदतावाद का सर्वप्रथम आभास श्रीधर पाठक की रचनाओं में मिलता है। उनकी इस स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति का अनुकरण मुकुटधर पाण्डेय, बद्रीनारायण भट्ट, रूपनारायण पाण्डेय आदि ने किया। इस समय उनकी रचनाओं में स्वच्छंदता और संकेतात्मकता के साथ-साथ जीवन की गतिशीलता, भाव-व्यंजकता जैसी प्रवृत्तियां दिखाई देने लगी थीं। वस्तुत: नवीन चेतना से संपन्न ये नवोदित कवि द्विवेदी-युग की परिपाटी पर न चलकर खड़ीबोली काव्य को अधिक कोमल, सरस और  चित्रमयी  तथा अंतर्भाव-व्यंजक बनाने में प्रवृत्त हुए। इसी का परिणाम है कि मुकुटधर जी की रचनाओं में सौंदर्य-प्रियता, आध्यात्मिकता, कोमल भावानुभूति और जिज्ञासा की प्रवृत्ति विद्यमान है। ‘कुररी के प्रति’ उनकी एक प्रसिद्ध रचना है, जिसे छायावाद की पहली रचना कहा जाता है, उसमें जिज्ञासा की प्रवृत्ति देखिए- 


                     बता मुझे ऐ विहाग विदेशी अपने जी की बात,

                     पिछड़ा था तू कहाँ आ रहा जो कर इतनी रात।

                     शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप, 

                     बता कौन सी व्यथा तुझे है, है किसका परिताप?

 

इसी प्रकार उनकी रचनाओं में मानवतावाद के स्वर भी स्पष्ट दिखाई देते हैं। वास्तव में यह दृष्टि नैतिकता और सांस्कृतिक बोध की ही तलाश थी, जो सीधे सामाजिक जीवन और परिस्थितियों से संबद्ध थी। “विश्वबोध’ कविता में वे कहते हैं- 


                    खोज में हुआ वृथा हैरान  

                  यहाँ ही था तू हे भगवान ।

                    दीन हीन के अश्रु नीर में

                  पतितों की परिताप पीर में,

                        तेरा मिला प्रमाण।


कहा जा सकता है कि मुकुटधर जी ने छायावाद को एक नवीन दृष्टि दी और चेतना का नया मार्ग प्रशस्त किया। उनके काव्य में जितनी गंभीरता है उतनी ही सहजता और मधुरता भी है । उन्हीं के शब्दों में-  

  शीतल स्वच्छ नीर ले  सुंदर, 

बता कहाँ से आती है।  

इस जल्दी में महानदी  

तू कहाँ घूमने जाती है?


मुकुटधर जी के रचनाकार व्यक्तित्व का एक दूसरा पक्ष भी है- वह है उनके अनुवादक और कहानीकार रूप का। उन्होंने ‘ह्रदयदान’, ‘प्रायश्चित’ जैसी अनेक श्रेष्ठ सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर आधारित कहानियाँ लिखीं, वहीं ‘लच्छमा’, ‘शैलबाला’ नाम से उड़िया उपन्यासों का अनुवाद भी किया। उन्होंने कालिदास के ‘मेघदूत’ का छत्तीसगढ़ी में भी अनुवाद किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने समकालीन रचनाकारों- रवींद्रनाथ ठाकुर, महावीरप्रसाद द्विवेदी, जगन्नाथप्रसाद ‘भानु’, फकीरमोहन सेनापति, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, प्यारेलाल गुप्त आदि के बहुत ही भावपूर्ण संस्मरण भी लिखे हैं। 

 

मुकुटधर जी के व्यक्तित्व का एक तीसरा पक्ष भी है, वह है- अपने समय के रचनाकारों से बराबर संवाद बनाये रखना।  एक साक्षात्कार में यह पूछे जाने पर कि आप किन-किन रचनाकारों से प्रभावित थे? , तो उनका कहना था- “मैं ‘हरिऔध’ जी, राय देवीप्रसाद पूर्ण, मैथिलीशरण गुप्त जी से विशेष रूप से प्रभावित था। मुझ पर उड़िया और बंगला का भी प्रभाव पड़ा, जिनमें राधानाथ राय, माइकल मधुसूदन दत्त, डी.एल. राय और रवीन्द्र बाबू प्रमुख हैं”। जब उनसे यह पूछा गया कि आप तो द्विवेदी-युग में द्विवेदी जी के प्रभाव में लेखन प्रारंभ कर चुके थे, फिर द्विवेदी युगीन कविता आपको अप्रासंगिक क्यों जान पड़ी? तो उन्होंने कहा- “मैंने हिंदी काव्य-साहित्य की अभिवृद्धि की दृष्टि से एक नई काव्य-शैली की सिफारिश की थी, जो व्यंजना-प्रधान थी। नई अभिव्यंजना की तलाश में पाश्चात्य साहित्य का संपर्क ही प्रेरक रहा है, ऐसा मेरा मानना है।”  स्पष्ट है कि वे अंग्रेज़ी के रोमांटिक कवियों- वर्ड्सवर्थ, शैली, कीट्स आदि की रचना-धर्मिता से प्रभावित थे। 

       

इस प्रकार मुकुटधर पाण्डेय का रचनाकार-व्यक्तित्व एक व्यापक धरातल पर प्रतिष्ठित है। उन्होंने एक नवीन चेतना के रूप में छायावाद का नामकरण करते हुए उसे व्याख्यायित तो किया ही, खड़ीबोली हिंदी की समृद्धि एवं विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । १९२८ में कलकत्ता हिंदी साहित्य सम्मलेन के अधिवेशन में उन्होंने गाँधी जी और सुभाष बाबू के साथ मंच साझा करते हुए हिंदी के पक्ष में बात रखते हुए कहा था-  


              स्वतंत्रता, शिक्षा कला-कल-कूजिता,  

             धन्य चैतन्य की यह बंग भू।  

             रत्न कंचन के सुभग संयोग-सा,   

           आज हिंदी की बनी है रंग भू।                                    


इन महमाना का प्रभाव साहित्य के क्षेत्र में जितना शिखर पर था उनका रहन-सहन उतना ही सामान्य था। सामान्य जिंदगी जीते हुए ६ नव. १९८९को ९४ वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। मेरे लिए यह सौभाग्य की बात है कि मुझे उनका स्नेहिल-सान्निध्य मिला।  


मुकुटधर पांडेय : जीवन परिचय

जन्म

३० सितम्बर १८९५

निधन

६ नवंबर १९८९

जन्मभूमि

छत्तीसगढ़

साहित्यिक रचनाएँ


कहानी संग्रह

ह्रदयदान -  १९१८ 

अनुदित उपन्यास

  • शैलबाला - १९१६ 

  • लच्छमा - १९१७ 


गद्य - पद्य रचना

  • प्रार्थना - पंचक - १९०९

काव्य संकलन

  • पूजाफल - १९१६

संस्मरण - रेखाचित्र

  • स्मृतिपुंज - १९८३

अनुवाद

  • मेघदूत - १९८४ 


पूर्व प्रकाशित रचनाओं का संग्रह

  • विश्वबोध  - १९८४

पुरस्कार व सम्मान

  • रौप्य पदक                          वर्ष १९२१ 

  • स्वर्ण                                   वर्ष १९२५ 

  • साहित्य वाचस्पति                  वर्ष १९४० 

  • म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मान     वर्ष १९६५  

  • भारतेंदु साहित्य सम्मान          वर्ष १९७० 

  • पद्मश्री , भारत सरकार           वर्ष १९७६ 

  • डी. लिट. (मानद)                  वर्ष  १९७६ 

  • राष्ट्रीय स्तर पर अनेक साहित्यिक एवं सांस्कृतिक  संस्थानों द्वारा पुरस्कृत 


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लेखक परिचय

रामनारायण पटेल एक कवि, समीक्षक और कुशल वक्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं। आपके मार्गदर्शन में दर्जनों शोधार्थी एम.फिल./ पी एच. डी. की उपाधि प्राप्त कर चुके हैं| छायावाद, नवगीत, हाइकु संबंधी आपकी सात आलोचनात्मक पुस्तकें तथा छ: कविता संकलन का भी प्रकाशन हो चुका है।  आपको ‘साहित्य सारश्वत’, ‘साहित्य शिरोमणि’ जैसे कई प्रतिष्ठित सम्मान मिल चुके है|                


मोबाइल: 9968447824  

ईमेल : dr.rnpatel66@gmail.com


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कलेंडर जनवरी

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"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...