Tuesday, February 1, 2022

केशवदास : एक सहृदय कवि-आचार्य


केशव रीतिकाल और भक्तिकाल के संधि-स्थल पर खड़े रचनाकार हैं। केशव दोनों कालों के बीच समन्वय का सूत्र रचते हैं। हिंदी साहित्य के ऐसे आचार्य कवि जिन्हें आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘कठिन काव्य का प्रेत’ कहा और उनके साहित्य में कवि-हृदय भाव की कमी को रेखांकित किया। आचार्य शुक्ल की इस बात पर ऐसी मोहर लगी कि आगे के आलोचकों ने उन्हें हृदयहीन और कठिन कविता के प्रणेता के रूप में ही स्वीकार कर लिया। केशव की कविता अलंकारवादी कही जाती है। उन्होंने अपने आचार्य रूप में अलंकार शास्त्र को आधार के रूप में इस्तेमाल किया,  यह बात उनकी कृति ‘रामचन्द्रिका’ के आधार पर कही गई। केशव की कविताई में कितनी भी पंडिताई हो, पर उनकी कविता में गहराई के अनेक नमूने भी मिलते हैं, जिससे पता चलता है कि उनकी कविता में कवि-हृदय भाव मौजूद है।

केशव ओरछा के रहने वाले थे। ओरछा की एक जगत् प्रसिद्ध कथा है कि वहाँ की महारानी रामभक्त थीं और महाराज कृष्ण भक्त! महारानी अपने साथ प्रभु राम की बाल मूर्ति लेकर आईं और यह तय हुआ कि मूर्ति को महाराज के बनवाए भव्य मंदिर में स्थापित किया जाएगा। महारानी ने शुभ मुहूर्त तक के लिए मूर्ति राजमहल में रख दी। जब मूर्ति को वहाँ से मंदिर ले जाने का समय आया तो मूर्ति वहाँ से हिली ही नहीं! आज भी रामलला की मूर्ति राजमहल में ही स्थापित है। आज भी रामलला को ही ओरछा का राजा माना जाता है और उन्हें 'गार्ड ऑफ ऑनर' दिया जाता है। केशव का मन भी इन रामलला के सौंदर्य वर्णन में बहुत रमा है, भले ही उनकी रामचन्द्रिका को कठिन कहा जाए! केशव राम के सौंदर्य वर्णन में इतने डूबे हैं कि उनकी ‘रामचन्द्रिका’ में बहुत से अन्य पात्रों की उपेक्षा हो गई है! राजमहल के पिछवाड़े में रहते केशव अपने राजा-राम के वर्णन में डूबे रहे हैं—

को बरनै रघुनाथ छवि, केसव बुद्धि अपार! 
जाकी किरपा सोभिजति, सोभा सब संसार!

केशव की भावना में बैठे राजा राम कितने भव्य और वैभवशाली हैं, यह उनकी कविताई में हर जगह दिखाई देता है। सीता और राम के सौंदर्य को देखने दुनिया भर के राजा-महाराजा आए हैं –

सीता के स्वयंवर को रूप अवलोकिबे को, 
भूपन को रूप धरि विश्वरूप आए हैं।

केशव की कविताई को अक्सर तुलसीदास की तुलना में देखा गया, किन्तु सूरदास को सूर्य के समान, तुलसीदास जी को चन्द्रमा कहकर उन्हें उपेक्षित कर दिया गया। परन्तु केशव की कविताई के भीतर झाँक कर देखें तो केशव आचार्य-कवि हैं और तुलसी स्वान्तःसुखाय कविता रच रहे हैं। दोनों की तुलना क्यों? तुलसी जन-मन के कवि हैं तो केशव राज- दरबार के आचार्य कवि! केशव की कविता में वे भाव तो नहीं जो तुलसी बाबा में हैं पर केशव की कविता में अपना ओज और अपनी चमक भी मौजूद है। अंगद और रावण के संवाद किसी के भीतर भी ओज और शक्ति जगाने में समर्थ हैं-

‘रे कपि कौन तु अच्छ को घातक? ‘दूत बली रघुनंदन जू को।’
‘को रघुनंदन रे?’ ‘त्रिसिरा खरदूषन दूषन भूषन भू को।।’
‘सागर कैसे तरो?’ ‘जैसे गोपद’ ‘काज कहा?’ ‘सिय चोरहि देखौं।’
‘कैसे बँधायो?’ ‘जो सुंदरि तेरी दुई दृग सोवत, पातक लेखौं’।।

संवाद शैली में अंगद जब रावण को चुनौती देते हैं तो रावण भी हैरान रह जाता है। केशव का मन राम के भावों में तो रमा ही है, उनकी दूसरी विशेषता है—हिंदी भाषा का चयन! केशव का परिवार संस्कृत भाषा का विशेषज्ञ माना गया है। संस्कृत के विद्वान काशीनाथ मिश्र ओरछा महाराज के अत्यंत प्रिय थे और इन्हीं के पुत्र थे- केशवदास। केशवदास स्वयं भी पहले महाराज वीरदेव सिंह और बाद में महाराज इन्द्रजीत सिंह के दरबार में रचनाकार और आचार्य थे। ओरछा के राजा नरेश के छोटे भाई इन्द्रजीत सिंह केशवदास जी को अपने दरबारी कवि होने के साथ ही उनको अपना मंत्री और गुरु मानते थे। ओरछा के महाराज इन्द्रजीत सिंह द्वारा केशवदास जी को 21 गाँव भेंट स्वरूप दिए गए थे। संस्कृत के प्रकांड पंडितों के ऐसे परिवार में नौकर चाकर भी संस्कृत में बात करते थे। ऐसे परिवार से निकलकर ‘भाखा’(भाषा) में साहित्य रचना करना कितने बड़े विद्रोह और युग परिवर्तन की बात रही होगी! केशव खुद को ‘जड़मति’ कहते हैं पर फिर भी भाषा में ही साहित्य रचना को चुनते हैं-

भाषा बोल न जानहिं जिनके कुल के दास!
 तिन भाषा कविता करि, जड़मति केशवदास!

कितना विद्रोही रहा होगा रचनाकार, जिसने भाषा में कविता करने का मार्ग चुना! संस्कृत में बनी-बनाई प्रतिष्ठा छोड़कर केशव इस मार्ग पर आए और हिंदी में संस्कृत की काव्यशास्त्रीय मान्यताएँ लेकर आए। रीतिकाल के आचार्यों का यह योगदान भी कम नहीं कि वे संस्कृत की काव्यशास्त्रीय मान्यताओं को हिंदी जाननेवालों के लिए लेकर आए।

केशव के पास रीतिकाल का शृंगार भरा मन था और आचार्य की पदवी भी। फिर भी बेचारे उम्र के दबाव से तो गुजरे ही! एक बार वे कुँए के पास से गुजर रहे थे, पानी पीने के लिए पूछा तो नवयुवतियों ने केशव को बाबा कहकर पुकारा! केशव ने बड़े ही प्रहसनात्मक अंदाज़ में इस प्रसंग का वर्णन किया। इससे पता चलता है कि केशव कम हंसोड़ व्यक्ति नहीं थे -

केशव केसनि असि करी, बैरिहु अस न कराहिं| 
चन्द्रबदन मृगलोचनी बाबा कहि-कहि जाहिं।
सफेद बालों की बुराई करती यह पंक्ति केशव के रसिक चरित्र को दिखाती है।

केशव को केवल रीतिकालीन आचार्य और शृंगारी कवि कहकर उनके काव्य को सीमित कर दिया गया पर केशव की रचना ‘विज्ञान गीता’ पढ़ने पर भक्तिकाव्य की चेतना दिखाई देती है। केशव देह-देह में अंतर मानने का विरोध करते हैं और कहते हैं कि तीर्थयात्रा का क्या लाभ अगर देह को अविनाशी मानने वाले भी देह-देह में अंतर करते हैं-

तीरथवासी यही सब जानै, देह ते देह को भिन्न बखानै! 
देह को मानत हो अविनाशी, पातकी होत क्यों देह विनाशी!

केशव संत कवियों की भांति ही शरीर को गंगा में बहाना व्यर्थ मानते हैं अगर मनुष्य की समानता पर विश्वास न हो। केशव की कविता में जीवन के सूत्र भी हैं और जीवन को चलाने की दिशा भी! केशव बाबा तुलसी की तरह भक्त कवि नहीं हैं -उनका रास्ता प्रेम का है भक्ति का नहीं! वह रीतिकाल के ऐसे समय में जब स्त्री को दरबार की शोभा के रूप में चित्रित किया जाता रहा, वे घरनी और घर का महत्त्व बताते हैं। साथ ही घर छोड़कर वन जाने को भी अनुचित बताते हैं। उनके अनुसार गृहस्थ जीवन सबसे श्रेयस्कारी जीवन है। इस दृष्टि को घोर शृंगार के काल में स्थापित करना एक बड़े कवि के लिए ही संभव रहा होगा, वह भी तब जब आचार्य कहे जाने वाले कवियों से लेकर रीतिकाल के विशिष्ट कवियों ने भी इस बात को महत्त्व नहीं दिया-

घरनी बिन घर जो रहे, छाडै धर्म अधर्म, 
वनिता तजि जो जाई वन, वन के नि:फल कर्म

केशव की कविता में भावों की गहराई है और शिल्प की चित्रात्मकता भी! कहा जाता है कि बीरबल ने केशव की कविता से प्रसन्न होकर उन्हें 6 लाख मुहरें दी थीं। सम्राट अकबर ने भी केशव के कहने पर महाराज इन्द्रजीत पर लगाया जुर्माना माफ़ कर दिया था। कुछ तो ख़ास होगा, उनकी कविता में जिससे प्रभावित होकर अकबर और बीरबल जैसे कद्रदान उनके काव्य वैशिष्ट्य को स्वीकार करते हैं।

मुहावरों- कहावतों से लेकर शब्द-शक्तियों, अलंकारों की छटा उनके काव्य में मौजूद है। उन्होंने राय प्रवीण को सिखाने के लिए ‘कवि-शिक्षा’ नामक ग्रंथ लिखा। राय प्रवीण इनकी शिष्या भी थीं और महाराज की प्रेमिका भी! केशव की कविताई पर राय प्रवीण नाचतीं और महाराज प्रसन्न होते! आज भी ओरछा में राय प्रवीण का महल है जिसे देखने पर्यटक जाते हैं। किन्तु, राजा-राम के महल के पिछवाड़े बना केशव का घर अब यादों से धूमिल हो रहा है। पर्यटक उसे नहीं ढूँढते, गाइड उस ओर संकेत नहीं करता! केशव की कविताई समय के पथ में भुला दी गई, फिर भी इतिहास कहीं न कहीं ‘उडगन’ की चमक के रूप में ही सही, उन्हें जगह तो देता है-

सूर सूर तुलसी ससी, उडगन केशवदास, 
अब के कवि खद्योत सम, जहं- तहं करत प्रकास!

साहित्य प्रेमी जब ओरछा जाएँ तो रामलला और गृहस्थ जीवन के इस प्रेमी-आचार्य के भाषा के प्रति समर्पण को महसूस कर सकें तो यही हमारा परंपरा के प्रति कृतज्ञ समर्पण होगा!

 

केशवदास : जीवन परिचय

जन्म

१५५५ ईस्वी

जन्मभूमि

ओरछा, मध्यप्रदेश

मृत्यु 

१६१७ ईस्वी 

पिता

काशीनाथ मिश्र

आश्रयदाता

नरेश वीर देव सिंह

इंद्रजीत सिंह

साहित्यिक रचनाएँ

रतन-बावनी  रसिक प्रिया                 शिख-नखरामचंद्रिका 

कवि प्रिया             छंद-माला                    वीरदेव सिंह चरित

विज्ञान माला          जहाँगीर जस चंद्रिका

सम्मान

  • आचार्यत्व - अलंकारवादी आचार्य


संदर्भ

*'प्रेत' शब्द की एक रोचक कहानी है कि केशव और उनकी मंडली ने ओरछा में मिले सुख को परलोक में भोगने के उद्देश्य से एक प्रेत यज्ञ कराया जिससे सभी को प्रेत कहा जाने लगा। कठिन काव्य के प्रेत में काव्य की कठिनाई के संकेत के लिए 'प्रेत' शब्द को चुना गया है।

लेखक परिचय

प्रो० हर्षबाला शर्मा


प्रोफेसर, हिंदी विभाग,

इन्द्रप्रस्थ कॉलेज,

दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

24 comments:

  1. उपयोगी लेख।मेरा नंबर9425034312

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    1. बहुत बहुत आभार ब्रज जी

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  2. बहुत ही रोचक और जानकारी से भरा आलेख

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  3. हर्ष जी का बहुत ही प्रेरक आलेख पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। इस आलेख को पढ़ते मेरा मन विद्यार्थी-जीवन में गोते लगाने लगा व मेरे आचार्यो के श्री-मुख से नि:सृत वाणी-सा आभास हुआ। वहीं आलेख पढ़ते-पढ़ते मन ओरछा भ्रमण पर जमी गर्द को धीरे-धीरे हटाने का सफल प्रयास पटचित्र की तरह करता रहा।
    क्या? खूब आलेख है, अनन्त शुभकामनाएं स्वीकार करने का कष्ट करें।

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    1. इतनी विस्तृत और प्रोत्साहन से भरी टिप्पणी के लिए आभार अरविंद जी

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  4. वाह! धारा प्रवाह आलेख
    अत्यंत रोचक जानकारी से भरपूर लेख
    👌👌🙏🙏

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  5. इतना प्रोत्साहन देने के लिए सभी सुधीजनों का ह्दय से आभार। केशव की कविताई में ही वो बात है, मेरा तो सिर्फ उनकी कविताई के प्रति समर्पण है। दिल से आभार
    हर्ष बाला शर्मा

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  6. वाह, बहुत ही रोचक जानकारियां

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  7. बहुत रोचकता भरा आलेख है, आचार्य केशवदासजी के जीवन पर सुंदर व भावात्मक तरीके से प्रकाश डाला गया है। हार्दिक बधाई हर्षबाला जी।

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  8. जयंती जी, रश्मि जी दिल से शुक्रिया

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  9. कठिन काव्य के प्रेत पुकार कर लांछित किए गए कवि केशव का इतना सुंदर सार्थक आकलन !
    गहन विषय प्रवेश, मार्मिक अभिव्यक्ति !
    खूब बधाई और शुभकामनाएं

    लिखो और बेहतर बातों के लिए रहो !

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  10. रीतिकाल के प्रमुख कवि केशवदास जी के जीवन एवं साहित्य का परिचय कराता यह महत्वपूर्ण लेख है। इस रोचक एवं ज्ञानवर्धक लेख के लिए डॉ. हर्षबाला जी को हार्दिक बधाई।

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  11. सुंदर लेख,हार्दिक बधाई, 💐

    भाषा बोल न जानहिं जिनके कुल के दास!
    तिन भाषा कविता करि, जड़मति केशवदास!

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  12. अनूप जी की यह परियोजना बहुत सार्थक है और प्रतिदिन किसी न किसी साहित्यकार पर लेख प्रकाशित होने से इन्हे पढ़ने और लेखकों के सम्बंध में अतिरिक्त जानकारी के लिए इस तरह के लेख प्रेरित करते हैं। इसी बहाने कुछ खोजकर पढ़ने का बहाना भी मिल जाता है। जिन पर लेख लिखे जा रहे हैं उनमें अधिकतर महत्वपूर्ण नाम हैं। कुछ नाम ऐसे भी हैं जिनके स्थान पर कुछ और महत्वपूर्ण तथा अज्ञात से बने रहे रचनाकारों को लिया जा सकता है।
    लेखों को प्रस्तुत करने में लेखक बहुत परिश्रम कर रहे हैं, लेखकों से एक अपेक्षा यह है कि लेख को और अधिक प्रामाणिक बनाने की कोशिश करें सम्बंधित लेखक के विषय में प्रामाणिक तथ्य खोजें.... गूगल पर उपलब्ध सामग्री से लेख अच्छा नहीं बन पाता है. कुछ ऐसे तथ्य खोज निकालें जो अछूते हों, नये हों और प्रामाणिक भी हों तभी लेख की सार्थकता होगी.
    केशवदास पर डा० हर्षबाला जी का लेख अच्छा है, डा० हर्षबाला जी ने केशव द्वारा "प्रेत यज्ञ" की बात लिखी है जो कुछ नयापन लिए हुए है और यह इस लेख की एक विशेषता है।
    केशव के विषय में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने "हिंदी साहित्य का इतिहास" में केशव को कठिन काव्य का प्रेत कहा है तथा यह भी कहा है कि केशव को कवि हृदय नहीं मिला था.... वे लिखते हैं-
    "केशव को कविहृदय नहीं मिला था। उनमें वह सहृदयता और भावुकता न थी जो एक कवि में होनी चाहिए। ........ रामायण की कथा का केशव के हृदय पर कोई विशेष प्रभाव रहा हो, यह बात नहीं पाई जाती....... उस कथा के भीतर जो मार्मिक स्थल हैं, उनकी ओर केशव का ध्यान बहुत कम गया है..." (हिअदी साहित्य का इतिहास, पृ० 144-145)
    अनेक बार यह भी कह दिया जाता है कि आचार्य शुक्ल ने केशव के साथ अन्याय किया है..... लेकिन केशव के ग्रंथों का अवगाहन करने से आचार्य शुक्ल की बात को झुठलाने की कहीं गुंजाइश नहीं रह जाती है... केशव के काव्य की कुछ विशेषताएँ हैं तो कुछ कमियाँ भी हैं। यही आचार्य शुक्ल ने भी लिखा है।
    कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं-
    प्रसंग है वन में सीता के वियोग में राम दुःखी हैं... उन्होंने अपने को एकांतवासी सा बना लिया है.... केशव जी इसका चित्रण करते हुए कहते हैं....
    केशव जी विभिन्न उदाहरणों के साथ उल्लू का भी उदाहरण राम के लिए दे डालते हैं-

    "दीरघ दरीन बसैं 'केसोदास' कैसरी ज्यों, केसरी कों देखि बनकरी ज्यों कँपत हैं
    बासर की संपति उलूक ज्यों न चितवत, चकवा ज्यों चंद चित चौगुनो चँपत हैं
    केका सुनि ब्याल ज्यों बिलात जात घनस्याम, घनन की घोरन जवासों ज्यों तपत हैं
    भौंर ज्यों भँवत बन जोगी ज्यों जगत रैनि, साकत ज्यों नाम राम तेरोई जपत हैं."
    ऐसे चित्रण ही उनके सहृदय कवि होने पर प्रश्नचिह्न लगाने को विवश करते हैं।

    एक और प्रसंग जिसमें केशव पंचवटी का चित्रण करते हैं.... पंचवटी की सुन्दरता का चित्रण... दुर्मिल सवैया का सौन्दर्य तो देखते बनता है, चमत्कार जैसा भाव भी पढ़ते समय उत्पन्न हो उठता है परन्तु पंचवटी की सुन्दरता का कोई बिम्ब नहीं बन पाता सिर्फ शब्दों का चमत्कार अवश्य सुनाई पढ़ता है....
    देखें उनका यह दुर्मिल सवैया-
    "सब जाति फटी दुख की दुपटी कपटी न रहै जहँ एक घटी
    निघटी रुचि मीचु घटी हूँ घटी जगजीव जतीन की छूटी तटी
    अघ ओघ की बेरी कटी बिकटी निकटी प्रकटी गुरुज्ञान-गटी
    चहुँ ओरनि नाचति मुक्तिनटी गुन धूरजटी वन पंचवटी."

    केशवदास के संवाद अनूठे हैं.... यहाँ उनकी भाषा दृश्य के अनुकूल भी है और अद्भुत तरह की वाकशैली देखी जा सकती है।
    रावण और हनुमान का संवाद का यह उदाहरण देखा जा सकता है-

    हनुमान-रावण-संवाद
    रे कपि कौन तू ? अक्ष को घातक दूत बली रघुनंदन जू को.
    को रघुनन्दन रे? त्रिसिरा-खर-दूषन-दूषन भूषन भू को.
    सागर कैसे तरयो ? जस गोपद, काज कहा? सियचोरहिं देखो.
    कैसे बँधाय? जु सुन्दरि तेरी छुई दृग सोवत पातक लेखो.

    कुल मिलाकर केशव अपने समय के महत्वपूर्ण कवि हैं लेकिन अधिक पांडित्य प्रदर्शन और अलंकारों के प्रयोग तथा चमत्कार उत्पन्न करने जैसी दरबारी प्रव॓त्ति के कारण उनकी कविता को लोक में वह स्थान नहीं मिल पाया जो अन्य कुछ रामभक्त कवियों को मिला।
    कुछ दिन पहले एक कार्यक्रम में एक विदुषी रामचन्द्रिका पर बोलते हुए कह रही थीं कि रामचन्द्रिका केशवदास जी ने केवल एक रात में लिखी है.... इस तरह की अप्रमाणिक और अतार्किक बातों से बचना चाहिए....
    एक बार पुनः डा० हर्षबाला जी को इस लेख के लिए हार्दिक आभार, और उस टीम का जितना आभार माना जाय कम ही होगा जो प्रतिदिन इन लेखों को व्यवस्थित करके समूह में पोस्ट कर रहे हैं। ऐसे छोटे-छोटे प्रयास ही इतिहास बना करते हैं.... आप सभी का आभार.
    -डा० जगदीश व्योम

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    1. नमस्ते व्योम जी, आपकी टिप्पणी हमेशा अच्छा मार्गदर्शन करती है। लेखक कोशिश तो पूरी करते हैं कि अपने आलेखों में साहित्यकार से जुड़ी अछूती या आलोचनात्मक विशेषताओं को जोड़ें, परन्तु विदेश से लिख रहे लोगों के लिए सामग्री का मुख्य साधन इंटरनेट ही रह जाता है। हम फिर भी यथासंभव प्रयास करते हैं कुछ रोचक जानकारी ले कर आने की। आपके सुझावों के अनुसार काम में बेहतरी लाने की और कोशिश करुँगी। आपका बहुत बहुत आभार।

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  13. हर्षबाला जी ,
    आपका बहुत रोचक लेख पढ़ा। कोई भी कथन यदि रोचक हो, सरस हो , नई जानकारी देता हो ,जिज्ञासा को बढ़ाता हो, तो पाठक का मन उसमें लग जाता है। मुझे तो केशवदास जी की रचनाओं को पढ़ने- जानने में रुचि जगा दी है आपके आलेख ने।
    इस सुंदर आलेख के लिए आपको बधाई एवं निरंतर लिखने के लिए शुभकामनाएँ । 💐💐

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  14. *रीतिकाल के प्रवर्तक* आचार्य केशवदास जी अलंकारवादी साहित्यकार थे। आपकी रचनाओँ में ब्रजभाषा के साथ-साथ संस्कृतनिष्ठ हिंदी भाषा शैली का भी प्रयोग देखा जाता है। आपकी संवाद योजना में मुख्यता पात्रनुकूलता, संक्षिप्तता तथा सरल भाषा की स्वाभिवकता दिखाई पड़ती है। *रामचंद्रिका* में एक सर्ग में अनेक छंदों का प्रयोग किए जाने की वजह से इसकी प्रस्तुति बड़ी ही क्लिष्ट हो गयी थी जिससे इन्हें *कठिन काव्य का प्रेत* भी कहा जाता है। आदरणीया प्रो. हर्षबाला शर्मा जी का शोधपरख आलेख आचार्य केशवदास जी की काव्यधारा और उनके अलंकारों के विधान को अभिव्यंजक रूप से प्रदर्शित कर रहा है। सरल और साफ सुथरे लेख के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद और हार्दिक शुभकामनाएं।

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  15. हर्षबाला जी, आपने केशवदास जी के साहित्य और उन पर की गईं साहित्यिक आलोचनाओं के बीच सार्थक संतुलन रखकर एक उत्तम लेख प्रस्तुत किया है। मेरे लिए आपका आलेख और उन पर आईं आज की टिप्पणियाँ, ख़ास तौर पर जगदीश व्योम जी की, ज्ञानवर्धक रहीं। आपको इस आलेख के लिए बधाई और आभार।

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  16. हरप्रीत जी,सूर्या जी,प्रगति जी आप सबको भी लेख पसन्द आया, आभारी हूँ। व्योम सर की टिप्पणी केशव के साहित्य की दिशाओं को खोलती है,गहन शोध के लिए प्रेरित करती है।
    क्या कहूँ, आप सबको ठीक लगा, लिखना सार्थक हुआ।
    आभार

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  17. बहुत सुंदर और सधी लेखनी के साथ आचार्य केशवदास के जीवन एवं उनके कृतित्व पर प्रकाश डाला है।
    प्रो. हर्षबाला शर्मा को साधुवाद।

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  18. बहुत बेहतरीन लेख मै'म ❤️🌸

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