१९वीं सदी के तीसरे दशक का छठा साल, दसवाँ महीना और नवाँ दिन, उत्तर प्रदेश के आगरा ज़िले में एक मेधावी बालक लक्ष्मण ने जन्म लिया। १३ वर्ष की आयु में यज्ञोपवीत संस्कार के बाद उसने विद्यालय की शिक्षा आरंभ की और स्वाध्याय से विभिन्न भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। २० वर्ष तक आते-आते उसने महाविद्यालय की सीनियर परीक्षा उत्तीर्ण कर ली और २४ की आयु तक उसे हिंदी, अरबी, फ़ारसी, बाँग्ला और अँग्रेज़ी का अच्छा ज्ञान हो गया।
विद्यार्जन के बाद वह पश्चिमोत्तर प्रदेश के लाट साहब के यहाँ १०० रुपए मासिक के वेतन पर अनुवादक के पद पर नियुक्त हुआ। जब १८५५ में उसे इटावा की तहसीलदारी मिली तब ए० ओ० ह्यूम वहाँ के कलेक्टर थे। उनकी सहायता से युवा लक्ष्मण ने एक विद्यालय स्थापित किया। इस मेहनती और महत्वाकांक्षी युवा की कार्यशैली से प्रभावित होकर १८५६-५७ में उसे बाँदा का डिप्टी कलेक्टर बना दिया गया। सन ५७ के विद्रोह के दौरान अप्रत्याशित रूप से लक्ष्मण ने अँग्रेजों की सरकारी फौज की सहायता की। जिससे प्रभावित होकर सरकार ने इसे रुरका का इलाका माफी देना चाहा परंतु उसने अस्वीकार करते हुए कहा, "हमने जो किया जातीय धर्म के अनुसार किया। इसमें पुरस्कार की क्या आवश्यकता?" तब उसे ८०० रु० के वेतन पर बुलंदशहर में पहले दर्जे की डिप्टी कलेक्टरी दे दी गई। यहाँ उसने २० वर्ष काम किया।
१८७७ के दिल्ली दरबार में इस निष्ठावान युवक को राजा की उपाधि दी गई। १८८९ में राजा साहब सेवानिवृत्त होकर अपने गृहनगर आगरा चले आए। इनका लिखा बुलंदशहर का इतिहास जो हिंदी, उर्दू और अँग्रेजी तीनों भाषाओं में प्रकाशित हुआ, वस्तुतः इनके द्वारा बुलंदशहर में बिताए इतने लंबे समय का ही परिणाम है।
सरकारी सेवा में रहते हुए भी राजा साहब का भाषा प्रेम चरम पर था। वर्ष १८६१ में उन्होंने आगरा से 'प्रजा हितैषी' पत्र निकालना शुरु किया। 'दंड संग्रह' नाम से 'ताजीरात हिंद' का हिंदी में अनुवाद किया। लेकिन संस्कृत कवि कालिदास की रचनाओं पर किया गया अनुवाद कार्य इनकी ख्याति का आधार रहा। पहले-पहल १८६१ में इन्होंने शकुंतला नाटक का हिंदी अनुवाद किया। इसकी न केवल प्रशंसा हुई बल्कि इंग्लैंड से फ्रेडरिक पिन्कॉट के संपादकत्व में इसका एक संस्करण अँग्रेज़ी भाषा में टीका टिप्पणी सहित छपा।
वर्ष १८८९ में आए इसके दूसरे संस्करण की ख़ासियत यह थी कि इसमें गद्य के स्थान पर गद्य और पद्य के स्थान पर पद्य अनुवाद हुआ। इस नाटक के अनुवाद में राजा साहब की भाषा के माधुर्य की महक है, जो अन्यत्र दुर्लभ है।
शंकुतला की भूमिका में राजा साहब लिखते हैं, "सन १८६१ ई० में जब मेरी स्थिति इटावे जिले में थी, मैंने शकुंतला नाटक की विलक्षण कविता और अति मनोहर कथा देखकर विचार किया कि यदि महाकवि कालिदास का यह उत्तम ग्रंथ साधारण हिंदी बोली में अनूदित हो जाए तो इसे लोग बहुत आनंद से पढ़ेंगे और इससे हिंदी भाषा की वृद्धि में सहायता पहुँचेगी। ऐसा समझकर मैंने अपने थोड़े समय को जो सरकारी कामों से बचता था, इस विषय में लगाया और डेढ़ बरस के भीतर अनुवाद पूरा करके सन १८६२ में छपवा दिया।"
बाद के वर्षों में अनूदित नाटकों की बढ़ती लोकप्रियता पर वे लिखते हैं, "जिस समय शकुंतला का प्रथम अनुवाद हिंदी में हुआ था 'प्रबोध चंद्रोदय' को छोड़ कोई नाटक इस भाषा में न था परंतु अब मैं बड़े आनंद से देखता हूँ कि इन २५ वर्षों के भीतर शकुंतला ही की रीति पर कई नाटक संस्कृत से हिंदी में हो गए हैं और होते जाते हैं।"
१८७८ में राजा साहब ने रघुवंश का अनुवाद हिंदी गद्य में किया। राजा साहब ने फिर मेघदूत का पद्यात्मक अनुवाद किया। १८८२ में इसके पूर्वार्ध और १८८४ में संपूर्ण ग्रंथ का अनुवाद प्रकाशित हुआ।
वे मेघदूत की भूमिका में अनुवाद कार्य की दुरूहता और आवश्यकता की ओर इंगित करते हुए कहते हैं, "हमने हिंदी छंद में यह उल्टा अभी पू्र्वमेघ का किया है, परंतु विचार है कि यदि अवकाश मिला तो उत्तर का भी करेंगे। एक भाषा के छंद को दूसरी भाषा के छंद में उल्टा करना कुछ तो आप ही कठिन होता है तिस पर हमारा नियम है कि मूल से उल्टा न्यूनाधिक न हो और भाव में भी कुछ विरोध न आवे। इसी से कठिनाई अधिक दिखती है।"
१८९३ में छपे इसके तीसरे संस्करण की भूमिका में लिखे गए राजा साहब के शब्द इसकी प्रसिद्धि को प्रमाणित करते हैं, "जितनी आशा थी उससे अधिक माँग इस ग्रंथ की हुई इससे जान गया कि हिंदी के रसिकों में इसने पूरा आदर पाया।"
अपनी उत्कृष्ट अनुवाद रचनाओं से तो राजा साहब सबको अचंभित कर ही रहे थे लेकिन हिंदी भाषा के स्वरूप को गठित करने में उन्होंने जो कौशल दिखाया वह अपनी उपादेयता स्वतः ही प्रमाणित करता है।
राजा साहब की कृतियाँ हिंदी गद्य के उस शैशव काल में इसे अपनी सरस और सुपाठ्य भाषा से पोषित करने का कार्य कर रही थीं। इस समय जब गद्य का स्वरूप तय हो रहा था, 'हिंदी-उर्दू' के भाषा विवाद की लपटें भी ऊँचाइयाँ ताक रही थीं और अँग्रेज़ सरकार बड़े ही शातिराना अंदाज़ में भारतीय जनमानस में मतभेद पैदा करते हुए इन लपटों में घी डालने का कार्य कर रही थी।
राजा साहब शुद्ध हिंदी के प्रबल समर्थक थे। उनके अनुसार शकुंतला, मेघदूत और रघुवंश के अनुवादों की रचना का एक उद्देश्य हिंदी भाषा के सौष्ठव और भाव द्योतन का सामर्थ्य दिखलाना भी था।
राजा साहब से मात्र तीन वर्ष बड़े शिवप्रसाद सितारे हिंद का तर्क था, "शुद्ध हिंदी चाहने वालों को हम यकीन दिला सकते हैं कि जब तक कचहरी में फ़ारसी का हरफ़ जारी है, तब तक इस देश में संस्कृत शब्दों को जारी करने की कोशिश बेफ़ायदा होगी।"
लेकिन राजा साहब ने शिवप्रसाद की इस नीति के विरुद्ध हिंदी की विशुद्धता का नारा दिया और यह सिद्ध किया कि बिना उर्दू का उपयोग किए भी हिंदी का बहुत सुंदर गद्य लिखा जा सकता है। उन्होंने इस धारणा को निष्प्राण किया कि उर्दू तो हिंदी की ही एक शैली है। यह एक तरह से उनकी ज़िद्द ही कही जा सकती है कि उनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ-साथ देशज शब्द तो प्रचुर मात्रा में हैं लेकिन उर्दू या फ़ारसी का एक भी शब्द नहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि उनकी भाषा को सुसज्जित और व्यवस्थित भाषा के रूप में स्वीकार किया गया। उर्दू मिश्रित हिंदी का जो स्वाभाविक विकास होना था वह रुक गया और संस्कृतनिष्ठ हिंदी की परंपरा भारतेंदु जैसे चिंतकों ने सहज ही अपना ली। राजा साहब के सरल-सजीव गद्य की प्रशंसा करते हुए भारतेंदु कहते हैं, "वास्तविक नाटक राजा लक्ष्मण सिंह का शकुंतला नाटक है। भाषा के माधुर्य आदि गुणों से यह नाटक उत्तम ग्रंथों की गिनती में है।"
आचार्य रामचंद्र शुक्ल भी स्वीकार करते हैं कि राजा साहब के समय में ही हिंदी गद्य की भाषा ने अपने भावी रूप का आभास दे दिया था।
संदर्भ
- हिंदी के निर्माता - कुमुद शर्मा
- हिंदी के निर्माता - बाबू श्यामसुंदर दास
लेखक परिचय
सृष्टि भार्गवहिंदी विद्यार्थी
ईमेल - kavyasrishtibhargava@gmail.com
सृष्टि जी ने बहुत श्रमपूर्वक यह आलेख लिखा है. बधाई!
ReplyDeleteसृष्टि, हिंदी के एक और महारथी के बारे में जानकारी पूर्ण लेख, जो उनके विचारों और कार्यों से अच्छा अवगत कराता है, पटल पर रखने के लिए साभार बधाई शुभकामनाओं सहित।
ReplyDeleteसृष्टि, गद्य लेखक और अनुवादक राजा लक्ष्मण सिंह के जीवन और विभिन्न पहलुओं से बहुत रुचिकर तरीके और शैली में मिलाया है तुमने। इस सारगर्भित, रोचक और जानकारीपूर्ण आलेख के लिये तुम्हें बधाई और धन्यवाद। तुम्हारी कलम यूँ ही चलते रहे और इससे एक से एक उम्दा रचनाएँ निकलती रहें।
ReplyDeleteसारगर्भित लेख।अभिनंदन।
ReplyDeleteसृष्टि जी नमस्ते। आपने राजा लक्ष्मण सिंह जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा। उनका कालीदास रचित ग्रन्थों का अनुवाद विशेष महत्वपूर्ण है। आपको इस एक और जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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