"जब तक किसी देश में निज भाषा और अक्षर सरकारी और व्यवहार सम्बन्धी कामों में नहीं प्रवृत्त होते हैं तब तक उस देश का परम सौभाग्य हो नहीं सकता। इसलिए मैंने बार बार हिंदी भाषा को प्रचलित करने का उद्योग किया है…"
ये शब्द पढ़कर सहज ही आभास होता है कि कहने वाला हिंदी का प्रबल समर्थक व हितैषी है। यदि किसी से अनुमान लगाने को कहा जाए कि ये शब्द किसके हो सकते हैं तो वह सहज ही स्वतंत्रता आंदोलन के किसी हिंदी समर्थक का नाम लेगा, लेकिन अचंभे कि बात यह है कि ये शब्द हैं, १८३६ ई० में इंग्लैंड देश में जन्मे श्रीमान फ़्रेडरिक पिन्कॉट के, जो उन्होंने काशी के बाबू कार्तिकप्रसाद को अपने एक पत्र में लिखे। वे पहले यूरोपीय थे जिन्होंने देवनागरी लिखने की योग्यता प्राप्त की। इसी पत्र में उन्होंने आगे लिखा "…जो कोई किसी समय हिंदी भाषा लिखे तो उसको चाहिए कि आसान सरल हिंदी लिखे। जब पंडितजन हिंदी भाषा लिखते हैं तब उसमें बहुत कुछ संस्कृत मिला देते हैं। यह भारी भूल है..."
ये दोनों ही ऐसे मंत्र हैं, जो हिंदी के उत्थान के लिए स्मरण रखने अत्यावश्यक है। हिंदी को राजभाषा के रूप में अपनाए जाने से बहुत पहले ही फ़्रेडरिक पिन्कॉट ने हिंदी को संस्कृत और प्राकृत की प्रधान उत्ताराधिकारिणी माना था और तन, मन, धन से उसकी सेवा में तत्पर हो गए थे। हिंदी के मुख्य हितैषियों से पत्र-व्यवहार करने लगे और उसके उत्थान के मार्ग खोजने लगे। आपके पत्रों में उस सच्चे प्रेम का आभास पाया जाता है, जिसे भारतीय साहित्य ने आपके हृदय में स्थापित किया था। भारतेंदु हरिश्चंद्र से आपका विशेष स्नेह था।
साधारण परिवार
में जन्मे फ़्रेडरिक पिन्कॉट के पिता की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी जिसके कारण उन्हें
बीच में ही शिक्षा छोड़नी पड़ी। जीवनयापन के लिए पहले आपने एक छापेखाने में कॉम्पोज़िटर का कार्य किया और फिर प्रूफ़रीडर का,
किंतु हर स्थिति में शिक्षा व अध्यवसाय जारी रखा। फ़्रेडरिक ने अनेक बाधाओं को
पछाड़कर न सिर्फ अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण की अपितु संस्कृत का भी अध्ययन
किया। आपने कभी सुना कि शब्द-शास्त्र और मानव जाति के इतिहास के संबंध में कोई बात
निश्चित रूप से स्थिर करने के लिए संस्कृत का जानना अत्यावश्यक है। संभवतः इसी से
संस्कृत व अन्य पूर्वी साहित्य में आपकी रुचि हो गई। उस समय यूरोप में संस्कृत की
पुस्तकें बहुत महंगी हुआ करती थीं तो आपने बड़े परिश्रम से एक मित्र की सहायता से
पुस्तकें प्राप्त करके संस्कृत सीखी और रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के मेम्बर हुए और फिर डब्ल्यू० एच० एलेन एंड कम्पनी के विशाल छापेखाने के मैनेजर हुए।
संस्कृत के बाद आपने उर्दू, गुजराती, बांग्ला, तमिल, तैलंगी, मलयालम और कनारी भाषाएँ भी सीखीं। हिंदी में आपकी अभिरुचि अंत में उत्पन्न हुई किंतु एक बार जब हिंदी सीख ली तो जीवन भर हिंदी के प्रति असीम स्नेह रहा। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने विस्तृत आलेख में लिखा है, "वे निरंतर भारतीय साहित्य और भारतीय प्रजा के लिए परिश्रम करते रहे। वे शान्तिप्रिय और गंभीर स्वभाव के थे। अवस्थाओं के परिवर्तन की लालसा ने इन्हें विचलित नहीं किया। अतः इनका जीवन घटनापूर्ण नहीं है। इनका सारा जीवन इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि किस प्रकार एक दृढ़ प्रतिज्ञ पुरुष समाज की निम्न श्रेणी में रहकर भी अपनी ऊँची से ऊँची अभिलाषाओं को पूरा करता हुआ संसार में सुखी और यशस्वी हो सकता है।"
फ़्रेडरिक पिन्कॉट
हिंदी, संस्कृत व अन्य भारतीय भाषाओं के बीच का सेतु रहे। उनका सबसे महत्त्वपूर्ण
कार्य है उनके द्वारा अंग्रेजी माध्यम से हिंदी सीखने के लिए लिखी गई पुस्तक,
द हिंदी मैनुअल कम्प्राइजिंग अ ग्रामर ऑफ द हिंदी लैंग्वेज
बोथ लिटरेरी एंड प्रोविंसियल, अ कम्प्लीट सिन्टैक्स, एक्सरसाइजेज़ इन वेरियस स्टाइल्स ऑफ हिंदी... सेवरल सब्जेक्ट्स, एंड अ कम्प्लीट वोकैबलरी। औपनिवेशिक
काल में यह पुस्तक वर्षों तक हिंदी शिक्षण का सर्वाधिक उपयोगी माध्यम रही। भारतीय
सिविल सेवा में हिंदी के प्रतिष्ठापन का श्रेय इनको ही है। ब्रिटेन से भारत भेजे
जाने वाले सभी प्रशासनिक अधिकारियों के प्रशिक्षण का यह अनिवार्य हिस्सा थी और
हजारों यूरोपियों के हिंदी सीखने का माध्यम बनी। इसमें न सिर्फ व्याकरण अपितु
रोजमर्रा में प्रयोग होने वाले वाक्यों के साथ ५० पृष्ठों
में सामान्य शब्दावली भी दी गई है। उल्लेखनीय है कि इसमें उन्होंने काफी नमूने
ब्रजभाषा के भी दिए जो उस समय काफी प्रचलन में थी। हिंदी मैनुअल की भूमिका में वे लिखते हैं कि इस मैनुअल के तमाम उदाहरण किसी हिंदी लेखक की पुस्तक से लिए गए हैं
अथवा जिस तरह से हिंदीभाषी प्रयोग करते हैं, वैसे ही लिखे गए हैं। इसमें कोई भी
उदाहरण ऐसे नहीं जैसे अंग्रेज अथवा यूरोपियन हिंदी बोलते हों। वे लिखते हैं, "इसलिए,
उदाहरण नियमों का उदाहरण देने के लिए नहीं लिखे गए थे, बल्कि उन लोगों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति की तरह हैं, जिन्हें अपने शब्दों का इस्तेमाल किसी उद्देश्य के लिए किए जाने की कोई
उम्मीद नहीं थी।"
हिंदी सीखने
वालों के लिए उन्होंने 'हितोपदेश' का भी अनुवाद किया। इस अनुवाद की विशेष बात
यह है कि उन्होंने अनुवाद से पहले अलग-अलग देशों के विद्वानों द्वारा किए गए
अनुवाद को पढ़ा और मूल के निकट अनुवाद प्रस्तुत किया। इसकी भूमिका में वे लिखते
हैं कि भारत की विभिन्न बोलियों को जानने के कारण वे कथ्य को बेहतर पकड़ने में
सक्षम रहे और इसके लिए उन्होंने बांग्ला और ब्रजभाषा प्रतियों का अध्ययन किया।
हिंदी सीख रहे
लोगों को अतिरिक्त पाठ्यसामग्री उपलब्ध कराने के लिए आपने 'शकुंतला' काव्य
के कुंवर लछमन सिंह कृत पाठ का भी अनुवाद किया। इसकी भूमिका में आपने लिखा है, "प्रस्तुत
कार्य का उद्देश्य हिंदी सीखने के इच्छुक लोगों को उत्कृष्ट पाठ्य-पुस्तक उपलब्ध
कराना है। वर्तमान समय में केवल एक हिंदी पाठ्य-पुस्तक है, हिंदी रीडर। शकुंतला की प्रस्तुति हिंदी अध्येताओं को अधिक पाठ्यसामग्री
प्रदान करेगी। इस उद्देश्य के लिए शकुंतला को चुनने के कई संतोषजनक कारण हैं। सबसे
पहले, शकुंतला एक पूरी तरह से भारतीय कहानी है, और दूसरा यह कि इसकी शब्दावली उन्नत है।" हिंदी अनुवाद
के साथ इस पुस्तक में पाठ संबंधी व्याकरणिक टिप्पणियाँ और टीका के साथ शब्द-सूची
भी शामिल है। भूमिका में आपने विस्तार से समीक्षा करते हुए यह भी उल्लेख किया है
कि शकुंतला की कथा काल्पनिक नहीं है। शकुंतला का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में और मेनका का उल्लेख यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता में
मिलता है। इन ग्रंथों का उल्लेख दर्शाता है कि पिन्कॉट का अध्ययन कितना गहन था और
उन्होंने कितने मनोयोग व श्रम से अनुवाद किए।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के अनुसार फ़्रेडरिक पिन्कॉट का सारा जीवन
इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि किस प्रकार एक दृढ़ प्रतिज्ञ पुरुष समाज की
निम्न श्रेणी में रहकर भी अपनी ऊँची से ऊँची अभिलाषाओं को पूरा करता हुआ संसार में
सुखी और यशस्वी हो सकता है। भारत में पिन्कॉट ने कई प्रेमी मित्र ढूँढे और
भारतवासियों के हित साधन में आजीवन लगे रहे। वे हिंदी सेवियों के पास इंग्लैंड
से पत्र भेजते थे। हिंदी के संबंध में जहाँ कोई बात छेड़ी जाती थी, वे तुरन्त उस पर अपनी राय देते थे। जिन दिनों खड़ी बोली की कविता के विषय
में विवाद चल रहा था इन्होंने इसका पक्ष लिया था। आपने अयोध्याप्रसाद बाबू की
पुस्तक 'खड़ी बोली का पद्य' का अपनी
अंग्रेज़ी भूमिका सहित एक सुन्दर संस्करण, इंग्लैंड से प्रकाशित
करवाया।
उर्दू के विषय
में आपने एक स्थान पर लिखा, "फ़ारसी मिश्रित हिंदी (अर्थात्
उर्दू या हिन्दुस्तानी) के अदालती भाषा बन जाने के कारण उसकी बड़ी उन्नति हुई।
इससे साहित्य की एक नई ही भाषा उत्पन्न हो गई है। पश्चिमोत्तर प्रदेश के निवासी,
जिनकी कि यह भाषा मानी जाती है, उसे एक विदेशी
भाषा की तरह स्कूलों में सीखने के लिए विवश किए जाते हैं।”
आचार्य
रामचंद्र शुक्ल जी के अनुसार जब तक ये जीते रहे हिंदी का उपकार सोचते और करते
रहे। हिंदी की कोई भी अच्छी पुस्तक छपती तो आप लन्दन के पत्रों में उसकी प्रशंसा
की धूम मचा देते। पं० श्रीधर पाठक के 'एकान्तवासी योगी' और 'ऊजड़ग्राम' की आपने अपने
विलायती पत्रों में प्रशंसा की थी। भारतवर्ष के
प्रति स्नेह प्रदर्शित करते हुए आपने एक पत्र में लिखा, "आपका २४ जुलाई, १८८७ ई० का पत्र
मुझे मिला है और उससे अत्यन्त आनन्द मेरे हृदय में उपज आया है। सच तो यह है कि
यद्यपि मैं हिन्दुस्तान में कभी नहीं आया तो भी उस देश पर मेरा दिल लगता है।
परमेश्वर करे कि मर जाने के आगे मैं हिन्दुस्तान के लिए कोई फलदायक काम करूँ|"
वे सच्चे हृदय से भारत के हितैषी थे। राजा लक्ष्मण सिंह, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रतापनारायण मिश्र, कार्तिकप्रसाद खत्री इत्यादि हिंदी लेखकों से उनका हिंदी में पत्रव्यवहार निरंतर रहता था। कहा जाता है कि इनके समय के प्रत्येक हिंदी लेखक के घर में इनके दो-एक पत्र अवश्य पड़े होंगे। उल्लेखनीय है कि जैसा प्रेम इन्हें हिंदी साहित्य से था, भारत की प्रजा से भी वैसा ही था। ये सदैव भारतवासियों के दुखों को दूर करने की चेष्टा में रहते थे और उन्हें बिना देखे ही ऐसा 'नेह का नाता' निभाते रहे जो इस संसार में दुर्लभ है। पिन्कॉट साहब की सहृदयता का प्रमाण इस बात से मिलता है कि जब भारतीय पुलिस के अत्याचारों की कथा इनके कानों तक पहुँची, तो ये एकदम अधीर हो उठे और बाबू कार्तिकप्रसाद को लिखा, "कुछ दिन हुए कि मेरे एक हिन्दुस्तानी दोस्त ने हिन्दुस्तान में पुलिस के जुल्म की ऐसी तस्वीर बांची कि मैं हैरान हो गया। मैंने यह जानने के लिए कि मेरा दोस्त कहाँ तक सच कहता है, एक चिट्ठी लाहौर नगर के 'ट्रिब्यून' नामी समाचार पत्र को लिखी। उस चिट्ठी के छपते ही मेरे पास बहुत से लोगों ने चिट्ठियाँ भेजीं जिनसे प्रकाशित हुआ कि पुलिस का जुल्म उससे भी ज्यादा है कि जितना मैंने सुना था। अब मैंने यह पक्का इरादा कर लिया है जब तक हिन्दुस्तान की पुलिस वैसी ही न हो जावे जैसे कि हमारे इंगलिस्तान की है, मैं इस बात का पीछा न छोडूंगा।"
बनारस में एक 'बनारस एसोसिएशन' नाम की सभा थी जो पुलिस के
अत्याचारों को दूर करने का यत्न किया करती थी। पिन्कॉट साहब उसके अध्यक्ष बनाए गए
थे।
पिन्कॉट साहब भारत
की उन्नति में सहायक सभी बातों से सरोकार रखते थे। यहाँ की वास्तविक दशा जानते
रहने के लिए आप यहाँ के समाचारपत्रों को पढ़ा करते थे। बाबू कार्तिकप्रसाद को लिखे
पत्र में आपने उल्लेख किया कि आप नियमित रूप से हिंदी के भारतमित्र, भारतवर्ष, भारतदुर्दशा प्रवर्तक, दिनकर प्रकाश, भारतवत्ता(मराठी साप्ताहिक), ट्रिब्यून (अंग्रेजी), एडवोकेट(अंग्रेजी) साप्ताहिक
समाचार-पत्र पढ़ा करते थे। जब कभी किसी हिंदी पत्र में संपादक पर कोई आपत्ति आती थी तब
आप तुरन्त उसके पक्ष में खड़े हो जाते थे। एक बार एक प्रतिष्ठित हिंदी पत्र के
सम्पादक को निज प्रकाशित किसी राजनीतिक लेख के विषय में आशंका हुई। उन्होंने पिन्कॉट
साहब के पास उस लेख को भेजकर अपने चित्त का हाल लिख भेजा। पिन्कॉट साहब ने तुरन्त
उस लेख का अंग्रेजी अनुवाद करके और उस पर अपनी सम्मति लिखकर उनके पास भेज दिया,
और लिखा कि यदि आप पर कोई आपत्ति आवे तो आप मेरी उस राय को पेश
कर दीजिएगा। शुक्ल जी के अनुसार हिंदी के विषय में इनकी सम्मति सदा माननीय
समझी जाती थी।
१८९० में आपने डब्ल्यू०एच०एलेन०एंड कं० का साथ छोड़ा और मेसर्स गिलबर्ट ऐंड
रिविंगटनक्व के प्रसिद्ध कार्यालय में ओरिएंटल एडवाइजर नियुक्त हुए। अन्त तक आप
वहीं रहे। इस कम्पनी की तरफ से 'आईन ए सौदागरी' नामक व्यापार सम्बन्धी एक मासिक पत्र उर्दू भाषा में निकलता था जिसके
एडिटर पिन्कॉट साहब थे। उस पत्र में ब्रिटेन की बनी हुई वस्तुओं कलाओं और औजारों
आदि का समाचार रहता था, और उनकी उपयोगिता दिखलाई जाती थी।
भारत में उत्पन्न होनेवाले पदार्थों का भी वर्णन रहता था। इसके साथ ही वाणिज्य,
व्यवसाय की और भी कितनी ही बातें रहती थीं।
पिन्कॉट साहब
के संपादकत्व में, इस पत्र में इन सब बातों के सिवा भारत के
राजा महाराजाओं और विख्यात पुरुषों के सचित्रा चरित भी निकलते थे, यहाँ के प्रधान नगरों और राजधानियों का वर्णन रहता था, यहाँ के हिंदी संवादपत्रों के लेख उद्धृत होते थे। यह पत्र उर्दू का था पर
अन्त के दो-चार पृष्ठों में हिंदी भी रहती थी।
नवंबर सन १८९५ में वे रीआ घास (जिसके रेशों से अच्छे कपड़े बनते थे) की खेती का प्रचार
करने हिंदुस्तान आए लेकिन यहाँ बहुत कम समय रह पाए। फरवरी १८९६ में लखनऊ में उनका देहांत हो गया। अन्ततः भारत के
इस प्रेमी की देह भारत में ही पंचभूत में विलीन हुई।
नाम |
फ़्रेडरिक
पिन्कॉट |
मृत्यु |
७ फरवरी १८९६ |
जन्म |
१८३६, इंग्लैंड |
कर्मभूमि |
इंग्लैंड, कुछ समय - भारत |
सम्मान |
रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के सदस्य |
रचनाएँ |
- हिंदी मैनुअल - हितोपदेश - शकुंतला (राजा लक्ष्मणसिंह के अनुवाद पर व्याख्या व टीका - द प्रेम-सागर, - अलफ लैला - प्राइमरी एजुकेशन इन
इंडिया - खड़ी बोली का पद्य, बाबू
अयोध्याप्रसाद का - सिक्खिज़्म इन इट्स
रिलेशन टू मुहम्मदनिज़्म - बालदीपक - विक्टोरिया चरित्र |
संदर्भ
- फ़्रेडरिक पिन्कॉट – रामचंद्र शुक्ल
- http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%AB%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A1%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%95_%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%9F_/_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2
- हिंदी मैनुअल - https://archive.org/details/hindmanualcompr00pincgoog/page/n13/mode/1up?view=theater
- हितोपदेश - https://www.google.co.in/books/edition/Hitopadesa/6jgOAAAAIAAJ?hl=en&gbpv=1&dq=inauthor:%22Frederic+Pincott%22&printsec=frontcover
- शकुंतला
- https://archive.org/details/akuntalinhindite00kliduoft/page/xii/mode/2up?ref=ol&view=theater
लेखक परिचय
भावना सक्सैना
लेखिका, अनुवादक, पूर्व राजनयिक।
संप्रति भारत सरकार के राजभाषा
विभाग में कार्यरत हैं।
ईमेल - bhawnasaxena@hotmail.com
भावना, एक और अत्युत्तम लेख आपने प्रस्तुत किया। कई बार फ़्रेड्रिक पिनकॉट जैसे लोगों के बारे में जानकर, पढ़कर हैरानी होती है कि कैसे किसी सुदूर देश की भाषा और लोगों के कल्याण का जज़्बा इन के हृदयों में उठता है। हिंदी के इस कर्मठ के बारे में जानकारी पूर्ण लेख प्रस्तुत करने के लिए बधाई और आभार।
ReplyDeleteभावना जी नमस्ते। आपने फ्रेडरिक जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा। उनका गैर भरतीय होते हुए भी हिंदी प्रेम वन्दनीय था। आपके लेख के माध्यम से उनके योगदान को विस्तार से जानने का अवसर मिला। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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