हिंदी साहित्य की समृद्धि में कविता का विशेष महत्त्व है। साहित्येतिहास पर दृष्टि डालें तो हम पाते हैं कि सभी कालखंडों में काव्य विधा की प्रधानता रही है। 'आधुनिक हिंदी कविता' विविध सोपानों जैसे भारतेंदुयुगीन कविता, द्विवेदीयुगीन कविता, छायावादी कविता, प्रगतिवादी कविता, प्रयोगवादी कविता, नई कविता, समकालीन तथा आज की कविता नामक आंदोलनों से गुजरकर वह आज अपने विकास की चरम सीमा पर पहुँच चुकी है। हिंदी कविता के इस विकासक्रम में अनेक रचनाकारों का योगदान रहा है। इन्हीं में नई कविता दौर के प्रसिद्ध साहित्यकार विजयदेव नारायण साही की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है। साही जी ने कविता, नाटक, निबंध, आलोचना, अनुवाद, संपादन सभी क्षेत्रों में अपने अभिव्यक्ति कौशल से विशिष्ट पहचान बनाई है। वे बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे और उनका अध्ययन-क्षेत्र व्यापक था। अँग्रेजी के प्राध्यापक होने के साथ-साथ उनका हिंदी, उर्दू, फारसी, फ्रेंच भाषाओं पर भी सामान अधिकार था। विजयदेव नारायण साही की मूल पहचान एक कवि, आलोचक और समाजवादी आंदोलन के प्रखर बौद्धिक नेता की है।
सर्वप्रथम १९५९ में प्रकाशित तीसरा सप्तक में अज्ञेय ने एक कवि के रूप में विजयदेव नारायण साही की २० कविताएँ शामिल की, जो खूब चर्चित हुई। तीसरा सप्तक में प्रकाशित उनके वक्तव्य से संकेत मिलता है कि 'पारिवारिक परिस्थितियों को ठंडे बौद्धिक स्तर पर सिद्धांत, मूल्यों एवं प्रतिमानों का जामा पहनाने' की प्रवृत्ति से उनके विचारों और अनुभूतियों को काफ़ी सामग्री मिलती रही। १९४२ से ही राजनीति में सक्रिय साही जी पहले कांग्रेस समाजवादी दल में रहे फिर समाजवादी आंदोलनों में अपना योगदान देते रहे। भारतीय कम्युनिस्ट प्रगतिवाद को उन्होंने निकट से देखा, ट्रेड यूनियनों में काम करते समय उसके संबंध में उनकी धारणा बनी कि कम्युनिस्ट प्रगतिवाद ने साहित्य में किसान मजदूर का हल्ला मचाया। उससे प्रभावित होकर मजदूरों के बीच गया। तबसे ट्रेड यूनियनों में काम करते दस वर्ष हो गए। पाया कि कम्युनिस्ट प्रगतिवाद ने केवल ऐसे लोग पैदा किए जो मजदूर नेताओं से साहित्यकारों जैसी बातें करते हैं, साहित्यकारों से मजदूर जैसी, जहाँ ये दोनों न हों वहाँ दोनों जैसी और जहाँ दोनों हों वहां बगलें झाँकते हैं। तबसे ऐसे लोगों को मूर्ख और बेईमान समझने की आदत पड़ गई है जो रह-रहकर व्यक्त होती रहती है। बेईमानी के प्रति इसी आक्रोश ने साही जी की अभिव्यक्ति को तीखापन दिया है। आज़ादी के बाद का मोहभंग और किसान-मज़दूरों के बीच सक्रिय कम्युनिस्ट प्रगतिवादियों की धूर्तताएँ भी उनके उत्प्रेरण का स्रोत रहीं जो उनके साहित्य में अभिव्यक्ति पाती रहीं। मज़दूरों की हड़ताल की अगुवाई करने, गोलवलकर को काला झंडा दिखाने और जवाहरलाल नेहरू की मोटर के सामने किसानों का प्रदर्शन करने के लिए साही जी को तीन बार जेल भी जाना पड़ा। साही जी ने अपना पूरा जीवन शोषित मजदूरों एवं महिलाओं के उत्थान के लिए लगाया। कालीन-बुनकरों को संगठित कर उनकी यूनियन बनाई, उनकी लड़ाई लड़ते रहे। महिला कताईकारों के लिए भी संघर्ष किया और उन्हें उचित वेतन दिलवाया। साही कानून की पुस्तकें पढ़ कर मजदूरों के मुकदमे को हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लड़ते थे और जीतते भी थे। इस कार्य में उन्होंने कार्यकर्ताओं को भी प्रशिक्षित किया। साही जी सामाजिक कार्यों में लगातार व्यस्त रहे हैं।
जिन व्यवस्थाओं के साही जी प्रत्यक्षदर्शी रहे उनका चित्रण वे अपनी कविताओं में यथारूप करने का साहस करते हैं। समाज-व्यवस्था के नियंत्रकों के काले कारनामे, नापाक इरादे से आम जनता को रूबरू होना पड़ता है। इन परिस्थितियों में कवि का तीखा स्वर 'वे' कविता में अभिव्यक्त होता है, कविता का एक अंश देखिए,
उकाब की तरह झपट्टा मारकर वे
सभ्यता के इस नवजात शिशु को ले जाना चाहते हैं
और किसी खतरनाक ऊँची चट्टान पर बैठकर
इत्मीनान से उसकी आँखे अंतड़ियाँ
खून से तर उसका भेजा, निकालकर खाना चाहते हैं।
विजयदेव नारायण साही की कविताएँ मानव को सदा केंद्र में रखकर रची गई हैं। मानव की पीड़ाएँ, स्वप्न भंग और कटु अनुभव उनकी कविता के विषयवस्तु बन गए हैं। तभी तो कवि लिखता है,
शाम यहाँ लहरों से भर जाती सड़कें
हर बूँद अकेली किंतु, अकेला सबका रंग-महल
वैभव वाले ये राज-भवन, जगमग सुख के साधन
ये इंद्रधनुष-सा रंग भरे जग के अनमोल रतन
पड़ कहें न जाए धूल तृषित अरमानों की मेरे
मेरे ही सपने आज बचाते हैं मुझसे दामन।
साही जी कविताओं में इतिहास के पात्रों के माध्यम से वर्तमान युग की राजनैतिक विडंबनाओं को अभिव्यक्ति देते हैं। इस संदर्भ में उनकी कविता 'बादशाह अकबर के नाम' की निम्न पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं,
बीरबल झूठा है मसखरा है, बादशाह तुम तो जानते ही हो
इन दरबारियों का कोई भरोसा नहीं, चाहे वे नौरतन हों चाहे बेरतन हों
वे सब तुम्हारे प्रताप से ही चमकते हैं।
जब तुम मुक़र्रर करते हो वे नौरतन हो जाते हैं
जब तुम बरखास्त करते हो तो वे बेरतन हो जाते हैं
इन दरबारियों की जबान का क्या महत्त्व?
------बादशाह सत्य तुम्हीं हो, बीरबल झूठा है मसखरी करता है।
बौद्धिक सघनता को अपनी कविता का आधार मानने वाले साही कविता को नया अर्थ-विस्तार देनेवाले कवि हैं। साथ ही बौद्धिक-उड़ान एवं कबीरी अंदाज के कारण अलग से पहचान लिए जाने वाले कवि के रूप में वे दिखाई पड़ते हैं। साही जी के कविता संग्रह 'मछलीघर' पर विचार करते हुए कुँवर नारायण स्वीकार करते हैं कि अँग्रेजी और उर्दू की क्लासिक परंपरा साही के पास है। कुँवर नारायण जी ने लिखा है, "उनकी कविताओं में कहीं भी गुस्से का छिछला प्रदर्शन नहीं है। ताकत- लगभग हिरोइक आयामों वाली ताकत की भव्यता है- एक चढ़ी हुई प्रत्यंचा की तरह।" उनमें वह दृढ़ता और संयम है, जिनसे महाकाव्य बनते हैं। तुरंत खुश या नाखुश करने वाली कविताओं की चंचलता नहीं। साही की यह मुद्रा इधर लिखी गई उन तमाम कविताओं से बिलकुल अलग है, जिनमें हम नाराजगी और उत्तेजना को लगभग एक रूढ़ि बन जाते देखते हैं। इस संदर्भ में मैं समझता हूँ साही लगभग क्लासिक अनुशासन में लिखी गई कविताओं के एकमात्र ऐसे उदहारण हैं जिसने एक ओर अँग्रेजी साहित्य के क्लासिक अनुशासन की मर्यादा स्वीकार किया तो दूसरी ओर उर्दू-फारसी के श्रेष्ठतम आदर्शों को नज़र के सामने रखा। हिंदी कविता पर उर्दू साहित्य का असर कोई नई बात नहीं है। तमाम उर्दू शब्द, उसकी साहित्यिक परंपरा, अमीर खुसरो से लेकर अब तक हिंदी में घुली-मिली रही। नज़ीर अकबराबादी, मीर, ग़ालिब, इक़बाल आदि की देन ने सिर्फ उर्दू ही नहीं हिंदी को भी जो कुछ दिया, आज की हिंदी कविता में उसके श्रेष्ठ उदाहरणों में साही का नाम विशेष रूप से लिया जाना चाहिए। उर्दू शैली साही की भाषा में व्याप्त थी। वह उनकी कविताओं के रचाव का एक ख़ास अंग है- ऊपर से चढ़ाया हुआ रंग नहीं, कविताओं के अंदर से खिलता हुआ रंग है- इतना अलग कि उनकी कविता की एक भी पंखुरी से पहचाना जा सकता है। इस संदर्भ में 'इस नगरी में रात हुई' कविता की निम्न पंक्तियों को देखा जा जा सकता है,
मन में पैठा चोर अँधेरा तारों की बारात हुई
बिना घुटन के बोल न निकले यह भी कोई बात हुई।
धीरे-धीरे तल्ख़ अँधेरा फ़ैल गया, खामोशी है
आओ खुसरो लौट चलें घर, इस नगरी में रात हुई।
साही जी की कविताओं में इतिहासबोध और संवेदनाएँ बहुत ही गहरी हैं। उनकी कविताओं में इतिहास की स्मृतियाँ बार-बार देखी जाती हैं। उन स्मृतियों को रेखांकित करते हुए साही जी वर्तमान के सामने खड़ा कर देते हैं। वे इतिहास के सहारे समकालीन राजनीति और जीवन के यथार्थ से साक्षात्कार करते हैं। उनके लिए इतिहास सिर्फ सांस्कृतिक अर्थ नहीं रखता, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक अर्थ भी देता है। 'साख' में उनकी एक कविता है- 'सत की परीक्षा', जिसमें हमारे सांकृतिक इतिहास की अनुगूँज है।
मानवीय उत्थान-पतन तथा उसमें निहित संघर्षशीलता का चित्रण भी साही ने शिद्दत से किया है, परंतु उनका मानव न तो कोई योद्धा है और न ही अपनी दुःस्थितियों को सरलतापूर्वक पहचान कर संघर्ष उत्पन्न करने वाले के खिलाफ लामबंद होते हुए समूह का कोई सदस्य। वह तो अपनी पीड़ा में छटपटाता और मुक्ति की राह तलाशता सहज मानवीय राग से संपन्न 'लघु मानव' है, जो व्यापक विडंबनाओं एवं व्यवस्था की विषमताओं से त्रस्त तथा अपनी आंतरिक कमजोरियों को लिए-दिए जूझने वाले प्राणी के रुप में सामने आता है। मानवीय प्रणय और सामाजिक इतिहास की शक्तियों तथा उनकी अंतर्क्रिया को सूफी संतों जैसी सांकेतिक रहस्य शैली में व्यक्त करना भी साही की विशेषता है।
विजयदेव नारायण साही ने हिंदी आलोचना के श्रेष्ठ आलोचकों में शामिल किया जाता है। उन्होंने हिंदी आलोचना को जितना लिखकर समृद्ध किया, उतना ही अपने व्याख्यानों के जरिए बहसधर्मी माहौल बनाकर। साही जी को अनेक भाषाओं का ज्ञान था इसलिए अनेक भाषाओं में प्रकाशित साहित्य का विस्तृत आकाश उनके सामने रहा और उनके अध्ययन से उनका आत्मबोध विस्तृत होता गया जिससे उनका चिंतन और लेखन विविध पक्षों से समृद्ध है। अपने वैचारिक चिंतन से साहीजी ने हिंदी आलाचेना को एक नई भाव-भूमि दी, जिससे हिंदी आलोचना नई कविता के दौर में एक नए भाव-बोध से संपृक्त होकर विकासमान होती है। साही जी का मानना था, "आलोचना साहित्य का दर्शनशास्त्र है और उसका एक काम यह भी है वह संश्लिष्ट उत्तर का विश्लेषण करके उसकी सीमारेखा को सुस्पष्ट और तीक्ष्ण बनाए, नहीं तो जीवन के प्रति साहित्य का स्पर्श- गूँगे के गुड़ की तरह होकर रह जाएगा।"
विजयदेव नारायण साही ने पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी के वैचारिक माहौल को निरंतर आंदोलित किया, उनकी कोई भी पुस्तक उसके जीवनकाल में प्रकाशित न हो सकी। परंतु उनके निधन के उपरांत उनकी जीवनसंगिनी कंचनलता साही ने रचनाओं को संकलित कर प्रकाशित कराया, जिससे हिंदी पाठकों को 'जायसी','साहित्य और साहित्यकार का दायित्व', 'छठवाँ दशक', 'साहित्य क्यों', 'वर्धमान और पतनशील' जैसी समृद्ध आलोचनात्मक रचनाएँ प्राप्त हुईं।
साही जी द्वारा हिंदुस्तानी एकेडमी में १७-१८-१९ मार्च १९८२ को जायसी पर दी गए भाषण को 'जायसी' नामक ग्रंथ के रूप में प्रकाशित किया गया है, जो मालिक मुहम्मद जायसी पर अद्भुत ग्रंथ माना जाता है। इसमें साही जी ने जायसी की अंतर्वृत्ति का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। इससे न केवल जायसी की रचनाशीलता के अनेक गवाक्ष खुलते हैं बल्कि साही जी की आलोचना काव्य दृष्टि के अनेक सूत्र अपनी आतंरिक अन्विति में तर्कयुक्त एवं मजबूत हुए हैं। वे जायसी पर हुए सभी अध्ययनों को अध्ययन और विश्लेषण करते हैं और नई अवधारणा को स्थापित करते हैं। साही जी सूफीवाद के चौखटे में बंद जायसी को आजाद कराते हैं और इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जायसी सूफी सिद्ध फकीर नहीं हैं और न ही पदमावत सूफी ग्रंथ है। बल्कि जायसी हिंदी के पहले विधिवत कवि हैं; आत्मसजग कवि।
'छठवां दशक' नामक निबंध संग्रह में साही जी के १७ लेख संग्रह संकलित हैं। इन निबंधों में साही जी ने छठें दशक में हिंदी आलोचना में उठने वाले तमाम प्रश्नों से टकराने की कोशिश की है। इस संग्रह में उनके सर्वाधिक प्रसिद्ध आलोचनात्मक निबंध 'लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस (छायावाद से अज्ञेय तक)', 'शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट' खूब चर्चित रहे। 'शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट' में साही ने शमशेर की कविता के संदर्भ से हिंदी कविता में आए बदलाव को लक्षित करने का प्रयास किया है। परमानंद श्रीवास्तव के अनुसार, "शमशेर पर शायद पहला विस्तृत, व्यवस्थित और उत्तेजक निबंध जो शमशेर की दुरूह कविताओं की व्याख्या की दृष्टि से चर्चा में रहा है और शमशेर की काव्य प्रक्रिया पर सार्थक सटीक टिप्पणियों के कारण भी।" साही ने शमशेर को न सिर्फ भारतीय हिंदी कविता की जातीय धारा का कवि माना है बल्कि उनकी कविता में एक तरह की विडंबना का तत्व भी ढूँढा है।
'लोकतंत्र की कसौटियाँ' साही जी के राजनैतिक लेखों का संग्रह है। साहित्य और राजनीति जैसे दो विपरीत ध्रुवों पर उन्होंने गंभीर विश्लेषण किया है और माना है कि इन दोनों में आपसी टकराहट होती है तो उसका प्रभाव विचार के स्तर पर होता है जिससे साहित्य की विचारभूमि और अधिक उर्वर ही होती है। उसके बदले राजनीति का क्षेत्र ऊसर हो जाए तो हो जाए कोई फर्क नहीं पड़ता। इस पुस्तक की भूमिका में मधु लिमये ने लिखा है, "साही जी की दृष्टि केवल राजनीतिक नहीं थी। राजनीति को वे मौलिक परिवर्तन का एक अंग मात्र मानते थे। लेकिन साही जी की ऐसी मान्यता थी कि समाज परिवर्तन के सांस्कृतिक तथा साहित्यिक आयाम भी महत्त्वपूर्ण हैं।"
विजयदेव नारायण साही के समग्र साहित्यिक अवदान को प्रो० गोपेश्वर सिंह के शब्दों में इस प्रकार अभिव्यक्त किया जा सकता है, "विजयदेव नारायण साही जितने महत्त्वपूर्ण कवि थे, उतने ही महत्त्वपूर्ण आलोचक भी। अपने आलोचनात्मक लेखन और बहसों के जरिए १९५० के बाद के हिंदी माहौल को वैचारिक रूप से आंदोलित करने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई। आलोचना में उनकी मौलिक समझ और स्थापनाओं ने नई हलचल पैदा की। जब हिंदी में प्रगतिशील आलोचना का जोर था, तब साही ने वैकल्पिक प्रगतिशीलता की देशी जमीन निर्मित की। उनके तर्कों और स्थापनाओं की अनदेखी किसी के लिए भी संभव नहीं थी।"
समस्त हिंदी परिवार हिंदी के प्रखर साहित्यकार विजयदेव नारायण साही को श्रद्धासुमन अर्पित करता है।
संदर्भ
विजयदेव नारायण साही रचना-संचयन : गोपेश्वर सिंह
साहित्य का दायित्व और साही : गोपेश्वर सिंह (https://samtamarg।in/2022/03/20/literary-liability-and-sahi/)
स्वातंत्रोत्तर हिंदी कविता की विभिन्न प्रवृत्तियाँ : डॉ० सुषमा दुबे
तीसरा सप्तक : अज्ञेय
लेखक परिचय
डॉ० दीपक पाण्डेय
वर्तमान में शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार के केंद्रीय हिंदी निदेशालय में सहायक निदेशक पद पर कार्यरत हैं। २०१५ से २०१९ तक त्रिनिडाड एवं टोबैगो में भारतीय उच्चायोग में द्वितीय सचिव (हिंदी एवं कल्चर) पद पर राजनयिक के रूप पर पदस्थ रहे। प्रवासी साहित्य में आपकी विशेष रुचि है। प्रवासी साहित्य पर लगभग १२ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और कुछ प्रकाशन प्रक्रिया में हैं। भाषा और साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए अनेक संस्थाओं ने सम्मानित किया है।
मोबाइल : 8929408999 , ईमेल – dkp410@gmail।com
दीपक जी, आपके अन्य आलेखों की तरह विजयदेव नारायण साही पर लिखा यह आलेख भी हर तरह से मंझा हुआ है। कविताओं के अंश बहुत पसंद आए। आपको इसके लिए बधाई और धन्यवाद।
ReplyDeleteडॉ. दीपक पांडेय जी नमस्ते। आपने विजयदेव नरायण साही जी पर अच्छा लेख लिखा। आपके लेख के माध्यम से उनके जीवन एवं सृजन को जानने का अवसर मिला। लेख में सम्मिलित कविताओं के अंश भी रोचक हैं। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसारगर्भित और संग्रहणीय लेख।अभिनंदन।
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