स्वातंत्र्योत्तर, बेलौस, बेबाक व बिंदास किस्म के राजेंद्र यादव का जन्म २८ अगस्त १९२९ को उत्तर प्रदेश, आगरा जिले के राजामंडी मोहल्ले में हुआ था। पिता श्री मिस्त्री लाल यादव जी डाक्टर तथा माता श्रीमती ताराबाई जी जो की दस संतानों में राजेंद्र सबसे बड़े थे। इनके जीवन का अधिकांश समय आगरा के राजामंडी वाले घर में ही व्यतीत हुआ। बहुत ही मस्तमौला व बेलौस स्वभाव के राजेंद्र सूसीर में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद मवाना भेज चले गए। मेरठ में अपने चाचा के यहाँ रहते हुए अपनी शिक्षा पूर्ण की। वहाँ उनकी शिक्षा अच्छे से चल रही थी कि अचानक ९-१० वर्ष की आयु में हॉकी खेलते हुए उनकी एक टाँग टूट गई और वे विकलांग हो गए। इस विकलांगता ने उन्हें जीवन के प्रति एक नए दृष्टिकोण से परिचित कराया। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस विकलांगता के कारण उनकी शारीरिक गतिविधियाँ अवश्य प्रभावित हुईं, परंतु इस कमी को उन्होंने अपनी बौद्धिक व मानसिक गतिविधियाँ बढा़कर पूरा किया।
बाल्यावस्था के साथ किशोरावस्था भी किसी व्यक्ति के व्यक्तित्त्व निर्माण में अपना असाधारण सहयोग रखती है। राजेंद्र यादव के जीवन में भी इसका बहुत महत्त्व रहा। उन्होंने लिखा है, "कलाकार अपने किशोर काल में अपने यथार्थ से असंपृक्त नहीं हो पाता, वह या तो उसमें रस लेता है या उसे जस्टिफाई करता है, और ज़िंदगी भर कला के नाम पर आत्मकथा के टुकड़े देता रहता है।"
राजेंद्र यादव अपने व्यक्तित्त्व के बारे में चुप्पी साध लेते हैं। उनका कहना है कि एक साहित्यकार की झलक तो उसके कृतित्त्व से ही मिल जाती है। प्रेमचंद की परंपरा को निरंतर गतिमान रहना होगा, इसलिए इस प्रक्रिया को निरंतर जारी रखने के लिए नई युवा-पीढ़ी के साहित्यकारों को स्पेस देकर आगे बढा़ना होगा। कभी-कभी कुछ पीढ़ियाँ अगलों के लिए खाद बनतीं हैं। वे अपनी पुस्तक 'कहानी: स्वरूप और संवेदना' में लिखते हैं, "बीसवीं सदी के 'उत्पादन' हम सब 'खूबसूरत पैकिंग' में शायद वही खाद हैं। यह हताशा नहीं अपने 'सही उपयोग' का विश्वास है, भविष्य की फसल के लिए बुद्ध के अनुसार ये वे नावें हैं, जिनके सहारे मैंने ज़िंदगी की कुछ नदियाँ पार की हैं और सिर पर लादे फिरने के बजाय उन्हें वहीं छोड़ दिया है।"
पिता की रुचि उर्दू में होने के कारण राजेंद्र की प्रारंभिक शिक्षा उर्दू में ही हुई। प्रेमचंद के समान ही राजेंद्र यादव पहले उर्दू में पढ़े बाद में हिंदी भाषा अपनाई। उनकी मैट्रिक तक की शिक्षा झाँसी में अपने पिता के साथ हुई। अपनी कक्षा में वे एक बुद्धिमान छात्र माने जाते थे। छोटी उम्र से ही खूब पढ़ना उनका शौक था। कम उम्र में ही उन्होंने देवकीनंदन खत्री के तिलिस्मी उपन्यासों 'चंद्रकांता' और 'चंद्रकांता संतति' आदि को पढ़ डाला। इसके अतिरिक्त दुनिया के सबसे बड़े उपन्यास 'दास्तान-ए-अमीर हम्जा' का भी अध्ययन किया।
संयुक्त परिवार में जन्मे राजेंद्र यादव ऐसे परिवार की खूबियों व कमियों तथा वहाँ घटित त्रासदियों के बारे में बखूबी जानते थे। संयुक्त परिवार की त्रासदी को अपने प्रथम उपन्यास 'प्रेत बोलते हैं' में, जो बाद में 'सारा आकाश' के नाम से प्रसिद्ध हुआ, उन्होंने बखूबी रेखांकित किया है। राजेंद्र यादव के बचपन का काल (ब्रिटिश) गुलामी के विरुद्ध आज़ादी की लड़ाई का था। प्रसिद्ध कवि दिनकर जी की इन पंक्तियों ने उनके किशोर-मन पर गहरी छाप छोड़ी,
सेनानी! करो प्रयाण अभय,
भावी इतिहास तुम्हारा है;
ये नखत अमा के बुझते हैं,
सारा आकाश तुम्हारा है।
राजेंद्र यादव की मैट्रिक के बाद की पढ़ाई आगरा में हुई। यहीं रहकर उन्होंने हिंदी विषय से बी० ए० तथा वर्ष १९५१ में हिंदी विषय लेकर ही आगरा विश्वविद्यालय से एम० ए० की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। एम०ए० की उपाधि के द्वारा राजेंद्र यादव किसी भी नौकरी को हासिल कर सकते थे, परंतु नौकरी न करने का संकल्प उन पर हावी रहा। अपनी संवेदनाओं को सीमित न रखने की चाह तथा आत्मसम्मान को बनाए रखने की तीव्र इच्छा-शक्ति ने उन्हें नौकरी से दूर बनाए रखा था और इस प्रकार एक मूर्धन्य साहित्यकार का हिंदी साहित्य जगत में पदार्पण हुआ।
आगरा की बहुत सीमित दुनिया और कुछ करने व बनने की ललक की वजह से राजेंद्र यादव आगरा से कलकत्ता पहुँच गए। घर से पैसे न लेना और नौकरी न करने की ज़िद्द के कारण राजेंद्र यादव कलकत्ता आकर आर्थिक कठिनाइयों में फँस गए। इन कठिनाइयों को हल करने के लिए उन्होंने ट्यूशन देने का कार्य आरंभ किया, जिसे बाद में तिलांजलि दे दी। कलकत्ता की नेशनल लाईब्रेरी में राजेंद्र यादव प्रतिदिन जाकर पढ़ते रहे। रोजी-रोटी की भीषण समस्या से जूझते हुए उन्होंने कलकत्ता से प्रकाशित 'ज्ञानोदय' पत्रिका में सहायक संपादक का कार्यभार संभाला; परंतु कुछ ही दिनों बाद त्यागपत्र दे दिया। इसके पश्चात कुछ एक माह के लिए जियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया, कलकत्ता में अध्यापन का भी कार्य किया।
इसी समय राजेंद्र यादव का परिचय प्रसिद्ध लेखिका मन्नू भंडारी से तब हुआ, जब वे कलकत्ता के बालीगंज शिक्षा सदन में पुस्तकालय के लिए पुस्तकों की सूची तैयार कर रही थीं। लेखक होने के नाते दोनों एक-दूसरे से परिचित थे ही, परंतु अब प्रत्यक्ष परिचय भी हो गया। मन्नू भंडारी कलकत्ता के एक स्कूल में अध्यापक थीं तथा लेखन में भी रुचि रखतीं थीं। २२ नवंबर १९५९ को मन्नू भंडारी के घरवालों की इच्छा के विरुद्ध दोनों ने अंतर्जातीय विवाह किया। मन्नू भंडारी के साथ विवाह राजेंद्र यादव के लिए बहुत ही लाभदायक सिद्ध हुआ। विवाह के पश्चात उन्हें मन्नू के रूप में मानसिक, आर्थिक व साहित्यिक साथी मिल गया। १७ जून १९६१ को उनकी बेटी रचना का जन्म हुआ। राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी की अभिरुचियाँ अलग-अलग थीं। राजेंद्र यादव अपने वैवाहिक जीवन के बारे में कहते हैं, "हमारी रुचियाँ, आदतें, स्वभाव, रहन-सहन, मनोरंजन सभी कुछ प्रायः एक-दूसरे के विरोधी हैं, लेकिन उन्हें लेकर आज तक शायद ही कभी हम लोगों में मतभेद हुआ हो।" शादी के बाद मन्नू भंडारी ने महसूस किया कि राजेंद्र यादव गृहस्थी में उतनी रुचि न रखकर साहित्य-लेखन में अधिक रुचि रखते हैं। इसी कारण उन्होंने राजेंद्र यादव पर आरोप लगाते हुए कहा कि वे ज़िंदगी से भागते हैं। इस पर राजेंद्र यादव का कथन है, "मैं ज़िंदगी से नहीं, ज़िंदगी में भागता हूँ।"
राजेंद्र यादव के साहित्यिक जीवन का आरंभ किशोरावस्था में ही हुआ। किशोरावस्था में भिक्खी चाटवाले से उन्होंने अनेक कहानियाँ सुनी थीं और पिताजी से 'चंद्रकांता संतति' उपन्यास के किस्से सुने थे। कथा-कहानियों के संस्कारों का प्रभाव उन पर बचपन में ही पड़ा। इसी प्रभाव के फलस्वरूप बचपन में ही उन्होंने तीन सामाजिक उपन्यास लिखे- किशोर भावुकता के उपन्यास। राजेंद्र यादव के उपन्यास लेखन का यह अभ्यास था। इसी प्रकार आरंभ में उन्होंने ब्रजभाषा में कविताएँ भी लिखीं; किंतु उन्हें वे अपनी प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं लगी। अपने अनुभवों को अभिव्यक्ति देने में कविता का क्षेत्र उन्हें सीमित लगा। बचपन से ही उपन्यास विधा उनकी प्रिय विधा हो गई। कहानियों की ओर उन्होंने बहुत बाद में रुख किया। 'प्रतिहिंसा' उनकी पहली कहानी है। यह कहानी प्रयाग से प्रकाशित होने वाली 'कर्मयोगी' पत्रिका में मई १९४७ में प्रकाशित हुई थी। एक ओर एम०ए० की पढ़ाई जारी थी, तो दूसरी ओर 'प्रेत बोलते हैं' उपन्यास का लेखन भी जारी था। यही उपन्यास आगे 'सारा आकाश' नाम से प्रकाशित हुआ जिस पर बासु चटर्जी ने सन १९७२ में फिल्म बनाई। बाद में हंस, गुलदस्ता, अप्सरा आदि पत्र-पत्रिकाओं में छपने का सिलसिला शुरू हुआ। सन १९५० से पहले एक कहानी संग्रह 'रेखाएँ, लहरें और परछाइयाँ' भी छप गया था। 'देवताओं की मूर्तियाँ' बीकानेर से छपा था जो उनका दूसरा कहानी संग्रह था। उस समय जोश भरे वातावरण में उन्होंने खूब लिखा। उन्हीं के शब्दों में, "उस समय का खौलता हुआ वातावरण आज भी याद करने की चीज है जब हर दिन कुछ न कुछ लिखने की स्फूर्ति लगातार मन में बनी रहती थी। 'विभाजन' और 'यह आजादी झूठी है' का उर्दू वाला दौर भी हिंदी को प्रभावित कर रहा था। इलाहाबाद, बनारस, आगरा, लखनऊ, बंबई, दिल्ली सभी उद्वलेनों के केंद्र थे।... सारी रात लालटेन के पास चिपका मैं कहानी लिखता रहता था।"
एम०ए० की छमाही परीक्षा के दिन थे। चार-छह दिनों के बाद भाषा विज्ञान जैसे कठिन विषय का पेपर था और राजेंद्र यादव लालटेन की रोशनी में रात भर 'खेल खिलौने' कहानी खिलने में जुटे हुए थे। राजेंद्र यादव का साहित्य-क्षेत्र में पर्दापण इनके कहानी संग्रह 'खेल खिलौने' से ही हुआ। 'खेल-खिलौने' कहानी संग्रह के प्रकाशन के साथ ही राजेंद्र यादव का लेखक मुखरित हो उठा। जहाँ तक राजेंद्र यादव के साहित्यिक अवदान पर हम रौशनी डालते हैं, वहीं उनके तीन रूप सामने आते हैं- पहला, उपन्यासकार के रूप में, दूसरा, एक कथाकार के रूप में और तीसरा, एक प्रकाशक व कुशल संपादक-बेबाक विचारक के रूप में।
जब राजेंद्र यादव जीवन में ढलान की ओर बढ़ रहे थे, देश में हर जनतांत्रिक निकाय का क्षरण होता जा रहा था और तत्त्ववादी ताकतें धार्मिक मिथकों को राजनीति में प्रयुक्त कर हमारे बहुलतावादी सांस्कृतिक ढांचे को कमजोर कर लोकतंत्र व संविधान को कमजोर कर रही थीं, उस भीषण समय में हमने इस बौद्धिक योद्धा को अनवरत चौतरफ़ा संघर्ष करते हुए देखा। लेखक के रूप में राजेंद्र यादव की पहली छवि नई कहानी आंदोलन के सूत्रधार की है। नई कहानी आंदोलन का वैचारिक आलोड़न इतना विस्तृत था कि उसमें कहानी की संरचना, भाषा, शैली, चरित्र, परंपरा यानी कोई पक्ष विमर्श के दायरे में आने से छूटा नहीं था। कहा जाता है कि कमलेश्वर, मोहन राकेश और राजेंद्र यादव की इस त्रयी में राजेंद्र यादव वैचारिक रूप से अग्रणी थे। एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि उस समय दो वैचारिक धाराएँ कथा के क्षेत्र में सक्रिय थीं। एक, कलावादी- परिमल वादियों की धारा थी जो लेखन में व्यक्ति को केंद्र में रखकर चलती थी। दूसरी प्रगतिशील धारा थी, जिसके लिए लेखन में समाज ज्यादा महत्त्वपूर्ण था। नई कहानी ने व्यक्ति और समाज दोनों को साथ लेकर चलने के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। हालांकि इसका रुझान मार्क्सवाद की ओर था।
भारत में मध्यम वर्ग का उभार आजादी के बाद तीव्र हो गया था। यह वर्ग आर्थिक गतिशीलता के साथ ही बहुस्तरीय सामाजिक संक्रमण से गुजर रहा था। इसके चलते मध्यवर्ग में एक द्वैत की मानसिकता विकसित हो रही थी, जिसमें एक ओर वह पारंपरिक जड़-मूल्यों से चिपका हुआ था, तो दूसरी ओर बाह्य तौर पर अपने को आधुनिक दिखाने की कोशिश करता था। राजेंद्र यादव का कथा-साहित्य मध्यम वर्गीय व्यक्ति और समाज के क्रमशः चरित्र और अंतर्विरोधों का निर्मम उद्घाटन करता है। उनके स्त्रियों के संदर्भ सांस्कृतिक रूढ़ियों और पिछड़ी मानसिकता को सबसे साफ प्रतिबिंबित करते हैं। उनके लेखन में स्त्रियों को इन प्रवृत्तियों से पीड़ित दिखाया गया है। साथ ही, रचनाकार की पक्षधरता सदैव स्त्रियों के साथ रही है, जिसे हम उनकी कहानियों और उपन्यासों जैसे- 'सारा आकाश', 'एक कमजोर लड़की', 'जहाँ लक्ष्मी कैद है' आदि में स्पष्ट देख सकते हैं। उनकी 'संबंध' कहानी का यह अंश दृष्टव्य है, "देखो, यह लाश गलती से आ गई है। नंबर गड़बड़ हो गया था। तुम्हारे बेटे की लाश दूसरी है। यह तो भट्टी में जलने का केस था--- डाक्टर ने निहायत ही मशीनी ढंग से कहा और दरवाजा छोड़कर भीतर हटा ही था कि नीले गंदे-से नेकर-कमीज़ पहने दो आदमी आगे-पीछे एक नई स्ट्रेचर उठा लाए---।" राजेंद्र यादव की यह कारुणिक कहानी समाज के निहायत असंवेदनशील और यांत्रिक बनने की कथा है। अपनी एक और कहानी 'कला, अहम और विसर्जन' में वह कहते हैं, "ठीक है, तुम पहले कला का अर्थ समझो। कला का अर्थ है सुंदर ढंग। अपनी भावनाओं को तुम सुंदर ढंग से किसी भी प्रकार से रखो, सब कला है- इस दृष्टि से फोटोग्राफी कला है ही नहीं; क्योंकि कला शब्द की व्याख्या करते हुए किसी ने कहा है- प्रकृति या यथार्थ में जो कुछ भी मनुष्य अपनी ओर से जोड़ता है, कला है।" राजेंद्र यादव ने सैकड़ों कहानियाँ लिखी हैं। उनका कथा-फलक इतना विस्तृत है कि इस आलेख में समेटना संभव नहीं है। फिर भी उनकी कुछ कहानियाँ हिंदी साहित्य में उच्च स्थान रखती हैं। राजेंद्र यादव ने अपने उपन्यासों द्वारा विभिन्न वर्गों, उनकी समस्याओं, मनोगत एवं सामाजिक दशाओं का बहुत ही यथार्थ चित्रण किया है। इनमें स्त्री के स्वाभिमान, उसकी आत्मनिर्भरता, स्वतंत्र सोच, उसके खुद निर्णय लेने की क्षमता का बेबाक चित्रण किया है।
राजेंद्र यादव का सबसे बड़ा अवदान मुंशी प्रेमचंद द्वारा संचालित व स्थापित 'हंस' पत्रिका का पुनर्प्रकाशन तथा अक्षर प्रकाशन की स्थापना है। इस पत्रिका का प्रकाशन राजेंद्र यादव ने प्रेमचंद जयंती के दिन ३१ जुलाई १९८६ को प्रारंभ किया। इसके प्रकाशन और संपादक का दायित्त्व उन्होंने अपने अंतिम समय तक निभाया और इस पत्रिका ने समकालीन हिंदी साहित्य में एक नया इतिहास निर्मित किया। आज भी 'हंस' उसी सज-धज और तेवर के साथ प्रकाशित हो रही है। उनकी बेटी रचना यादव इसकी प्रबंध संपादक तथा कथाकार संजय सहाय इसके संपादक हैं। हंस ने जहाँ एक ओर नए रचनाकारों की एक लंबी कतार को जन्म दिया, वहीं दूसरी ओर समाज के विभिन्न तबकों, सामयिक, धार्मिक, राजनीतिक व आर्थिक मुद्दों पर सार्थक बहस आयोजित कर समाज को एक नई प्रगतिशील व जनवादी वैचारिकी से अवगत कराया। अनेक विवादास्पद मुद्दों पर तमाम विरोधों के बावजूद बेबाक राय रखी और एक ठोस और बुनियादी बहस को जारी रखा कि किस तरह इस समाज को अवैज्ञानिकता, अंधविश्वास, सांप्रदायिकता, अपसंस्कृति, धार्मिक कट्टरता, आर्थिक व सामाजिक शोषण से बचाया जा सके। हंस के संग्रहणीय विशेषांक जो समाज के अलग-अलग वर्गों, जातियों, अल्पसंख्यकों आदि पर प्रकाशित किए गए; साहित्यकारों, जागरुक पाठकों के लिए अमूल्य निधि हैं।
साहित्य के इस महान स्तंभ ने २८ अक्टूबर २०१३ को ८४ वर्ष की आयु में दिल्ली में अंतिम साँस ली। इदन्नमम, चाक, अल्मा कबूतरी, कहे ईश्वरी फाग, माया मृग आदि उपन्यासों की लेखिका, प्रसिद्ध कथाकार मैत्रेयी पुष्पा का यह कथन राजेंद्र यादव के महिला कहानीकारों के संबंध में उठे विवादों का सही उत्तर है, "मैंने बहुत ही दुखी मन से राजेंद्र जी से पूछा कि आपको बताना पड़ेगा, मेरा आपसे क्या रिश्ता है? राजेंद्र यादव ने कहा- मैत्रेयी! मेरा तुमसे वही रिश्ता है जो महाभारत के कृष्ण का द्रौपदी के साथ रहा है।" ऐसा ही रिश्ता हंस व राजेंद्र यादव से जुड़ी हर महिला रचनाकार से रहा। जो इस तरह के हर विवादों का अंत कर देता है। आज के समय में राजेंद्र यादव जैसे बेबाक साहित्यकार का होना बहुत ही जरूरी हो जाता है।
संदर्भ
औरों के बहाने
मुड़-मुड़ के देखता हूँ
राजेंद्र यादव की संकलित कहानियाँ
विकिपीडिया
लेखक परिचय
एम० ए० अर्थशास्त्र, उत्तर- प्रदेश सहकारी फेडरेशन से सेवानिवृत्त
स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
जनवादी लेखक संघ, उत्तर-प्रदेश की राज्यपरिषद के सदस्य
ई-मेल- Sunilkatiyar57@gmail.com
सुनील जी, साहित्यकार राजेंद्र यादव के व्यक्तित्व और उनकी समस्त सृजनात्मकता पर आपने उम्दा आलेख प्रस्तुत किया है। इससे उनके बारे में कई नई जानकारियाँ मालूम चलीं। इसके लिए आपको बधाई और धन्यवाद। सौभाग्यवश मॉस्को में एक आयोजन में एक बार उनसे मिली थी। उस मुलाक़ात से मुझे इतना याद है कि वे हम लोगों से एक आम आदमी की तरह मिले थे। इसे उनकी ख़ूबी ही कहेंगे।
ReplyDeleteसुनील जी नमस्ते। आपने राजेंद्र यादव जी पर अच्छा लेख लिखा है। राजेंद्र यादव जी का सृजन अपने आप में विस्तार लिए हुए है। उन्होंने लगभग हर विधा में सफलता पूर्वक अपनी छाप छोड़ी। हंस का पुनः प्रकाशन उनके महत्वपूर्ण कार्यों में से एक है। आपके लेख में उनके जीवन एवं सृजन से जुड़ी बहुत सारी जानकारी मिली। आपको इस समृद्ध लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसुनील जी, राजेंद्र यादव जी के एक सशक्त साहित्यकार और उत्तम संपादक बनने की कहानी आपने बहुत व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत की है। इस आलेख से यह पता चलता है कि राजेंद्र यादव ने बचपन में ही साहित्य के प्रति पैदा हुए लगाव को यथार्थ का चश्मा पहने कैसे उसे पूरे जीवन बनाए रखा और लगातार साहित्य को समृद्ध किया। आपको इस उत्तमआलेख के लिए साभार बधाई।
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