हिंदी साहित्य में निबंध एक ऐसी विधा है जिसमें विचारों का प्रवाह अबाध रूप से होता है। वैसे तो हर विधा में लेखक अपनी बात कुछ रचनात्मक तो कुछ अभिधात्मक रूप से पाठक तक पहुँचा ही देता है परंतु निबंध में इस दृष्टि से कुछ अधिक ही छूट रहती है और अगर निबंध ललित शैली में हो तो उसमें रचनाधर्मिता के साथ-साथ एक आकर्षण भी होता है। इसी ललित शैली के एक महत्त्वपूर्ण निबंधकार हैं, कुबेरनाथ राय। ललित निबंधकार कहते ही साहित्य के जिन रचनाकारों का नाम दिमाग़ में आता है उनमें राय जी एक हस्ताक्षर हैं। उनकी शैली में भारतीय संस्कृति छनकर सामने आती है। प्राचीन परंपराओं और प्रतीकों को मानो आधुनिक रूप में इससे बेहतर नहीं ढाला जा सकता था, जैसे उनके निबंधों में मिलता है। हजारी प्रसाद द्विवेदी लालित्य शब्द पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं, "लालित्य अर्थात प्राकृतिक सौंदर्य से भिन्न किंतु उसके समानांतर चलने वाला मानव रचित सौंदर्य।" कुबेरनाथ राय के ललित निबंधों को पढ़ते हुए आप इस बात का साक्षात अनुभव भी कर पाते हैं कि कैसे वे लालित्य की इस परिभाषा को चरितार्थ कर देते हैं। उनके द्वारा जिस सौंदर्य की रचना होती है वह प्राकृतिक होते हुए भी उनकी विशिष्टता में खिल जाता है। कुबेरनाथ राय की ऐसी सधी और लालित्यपूर्ण हिंदी पढ़कर आश्चर्य इसलिए भी होता है क्योंकि वे अँग्रेज़ी भाषा के अध्यापक रहे और एक लंबे समय तक अँग्रेज़ी का अध्यापन किया। उनके अनेक निबंधों में पाश्चात्य साहित्य के उदाहरण भी सामने आए हैं।
कुबेरनाथ राय का जन्म ३० मार्च १९३३ को उत्तर प्रदेश के गाजीपुर ज़िले के मतसा नामक गाँव में हुआ था। इनकी माता का नाम श्रीमती लक्ष्मी राय तथा पिता का नाम श्री वैकुंठ नारायण राय था। विलक्षण प्रतिभा के धनी राय जी की प्रारंभिक शिक्षा मतसा गाँव में ही हुई तथा माध्यमिक शिक्षा इन्होंने क्वींस कॉलेज वाराणसी से पूरी की। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए ये कलकत्ता चले गए। इन्होंने लंबे समय तक असम में रहकर उच्च शिक्षा में अँग्रेज़ी विषय में अध्यापन कार्य किया और वहीं से अपनी साहित्य सेवा देते रहे। अपनी जन्मभूमि से इनका लगाव ही इन्हें वापस अपनी धरती पर खींच लाया, जहाँ ०५ जून १९९६ को इनका निधन हो गया।
कुबेरनाथ राय जी ने एक ही विधा में इतनी ख़्याति प्राप्त की कि आज भी हिंदी साहित्य इनका ऋणी है। इनके निबंधों की रोचकता केवल लालित्य के कारण नहीं है, बल्कि उन निबंधों में इन्होंने प्राचीन संस्कृति को जिस नवीनता के साथ उद्धृत किया है वह वास्तव में दुर्लभ है। 'रस आखेटक' की सरसता हो या 'विषाद योग' का विषाद, इन्होंने पाठकों को हर जगह बाँध दिया है। भारतीय संस्कार और यहाँ के मिथक राय जी ने निबंधों में सजीव कर दिए हैं, जिनको पढ़कर लगता है कि भारतीय संस्कृति कितनी विशाल परंपरा को अपने भीतर समेटे हुए है। एक निबंध लेखक के तौर पर इस संस्कृति को जैसे इन्होंने अपने लेखन में स्थान दिया है, उस समय बहुत अधिक देखने को नहीं मिलता था क्योंकि उस दौर में अधिकांश नवयुवक पाश्चात्य साहित्य को अधिक महत्त्व दे रहे थे तथा उनके लेखन में भी उसका प्रभाव बढ़-चढ़कर बोल रहा था। केवल निबंध लेखन राय जी का उद्देश्य नहीं है बल्कि उसमें एक संदेश भी है जो वे मुख्य स्वर के रूप में देना चाहते हैं। उनका एक निबंध है 'गूलर का फूल (एक अरण्य कथा)', जिसमें उस भारतीय भ्रांति को बताया गया है कि गूलर का फूल केवल रात में अल्पकाल के लिए खिलता है जो किसी को नहीं दिखाई देता। इस छोटे से निबंध के अंत में गूलर के फूल का यह उत्तर एकाएक पूरे निबंध का सूत्र बनकर सामने आ जाता है, "चराचर को रिझाने से क्या लाभ? जिन्हें वास्तव में रिझाना है वे तो अंतर्मन के सौंदर्य को देखते हैं। औरों से क्या लाभ? कहकर गूलर मौन हो गया। बक, काक और उलूक तीनों अलभ्य कुसुम की आशा में आए थे। उससे भी बढ़कर अलभ्य और मनोरम कुसुम उनको मिल गया।" एक कथा के रूप में निबंध की शुरुआत की और एक संदेश के साथ उसका अंत। ऐसी ही शैली उनके निबंधों को आकर्षक बनाती है।
इनके निबंध संग्रहों की एक लंबी शृंखला है और हर संग्रह के निबंध उच्च कोटि के हैं। ललित निबंध शब्द कहते ही मानो कुबेरनाथ राय का नाम दिमाग़ में आ जाता है जैसे वे उसके ही पर्याय बनकर आ रहे हों। इन निबंधों के संदर्भ में डॉ० मनोज कुमार राय लिखते हैं, "भारतीय मुहावरे और भारतीय संस्कारों से निर्मित विशिष्ट वर्णमाला के बल पर श्री राय ने ललित निबंध को जो विस्तार दिया है वह अद्भुत है। उनसे असल परिचय प्राप्त करने के लिए उनके 'निबंध-कांतार' में अनुप्रवेश ही एक आवश्यक शर्त है- वह भी तर्जनी-ओष्ठ एकाग्रता और सावधानी के साथ।" वास्तव में ऐसे निबंधों को पढ़ने के लिए एकाग्रचित्त होना आवश्यक है। ये गंभीरता की माँग करते हैं यद्यपि ये सरल और सहज हैं पर एक गूढ़ अर्थ इनके भीतर है, जिसे लेखक ने बहुत मन से इन निबंधों में गूँथ दिया है।
कुबेरनाथ का भाषा संबंधी ज्ञान विस्तृत है जो उनकी विद्वत्ता का भी परिचय कराता है। उनके कई प्रमुख निबंधों में ना केवल हिंदी बल्कि संस्कृत और बांग्ला की पंक्तियाँ भी दिखाई देती हैं, जिनका प्रयोग पूरी तरह से संदर्भों के अनुरूप ही उन्होंने किया है। उदाहरण स्वरूप उनका प्रसिद्ध निबंध है 'निर्वासन और नीलकण्ठी प्रिया' जिसमें उन्होंने रवींद्रनाथ ठाकुर का उल्लेख करते हुए बांग्ला की सरस पंक्तियों का प्रयोग कुछ इस तरह किया है, "रवींद्रनाथ ने सोना पैदा करने वाली एक यक्षपुरी की कल्पना की है। उस यक्षपुरी का एकाकी राजा है। ...... बाहर बाहर श्रेणी-संग्राम चल रहा है। सिंहद्वार पर भूत और भविष्य का, व्यक्ति और समाज का घनघोर युद्ध चल रहा है पर यह बेचारा यक्षपुरी का राजा?
रोदन रोदन केवलइ रोदन,
केवलि विषाद श्वास
लुकाये, शुकाये, शरीर गुटाये
केवलि कोटर वास
नाहीं कोनों काज
माझे माझे वास,
नाहीं कोनो काज...."
भारतीय समाज में पहले औद्योगीकरण और उसके बाद भूमंडलीकरण ने लोगों को लोक से दूर कर दिया। ऐसे में कुबेरनाथ राय जैसे लेखकों ने प्रकृति और लोक को इन निबंधों में उभार दिया। ‘प्रिया नीलकण्ठी’ निबंध संग्रह कुछ इसी प्रकार का संग्रह है जिसमें भारतीय जनजीवन में जो परिवर्तन हो रहा है उस प्रक्रिया की अनुभूति इसके निबंधों में दिखाई देती है। उनके प्रिया नीलकण्ठी निबंध संग्रह को लिखने के पीछे जो संकेत किया गया है वह इस प्रकार है, "भारतीय जनजीवन के परंपरागत पैटर्न में जो रूपांतरण आज हो रहा है उसकी समग्र अनुभूति प्राप्त करने की चेष्टा ही प्रिया नीलकण्ठी के निबंधों की सृजन प्रेरणा है।"
कुबेरनाथ राय की एक विशेषता यह भी है कि उन्होंने मध्यकालीन काव्य पंक्तियों के माध्यम से भी आज के भावबोध को व्याख्यायित करने का प्रयास किया है। 'हमरे हरि हारिल की लकड़ी' जैसी प्रसिद्ध पंक्ति के माध्यम से उन्होंने बताया कि आज की पीढ़ी केवल बाहरी आस्वादन तक सीमित है वह भीतर के भाव को नहीं समझती; ऋतु वर्णन तो अक्सर उनमें देखने को मिलता ही है लेकिन उसका स्वरूप हर बार नया है। उनका एक प्रसिद्ध निबंध है 'रस आखेटक'। इस निबंध में उन्होंने वैष्णव धर्म के आनंदवाद, वैराग्य को केंद्र में रखकर ऋतुओं के संदर्भ में भारतीय और पाश्चात्य साहित्य की तुलना कुछ इस प्रकार की है, एक फ्रेंच कवि पीयरे इमैनुएल (१९१९) ने लिखा है, "हे रात्रि तुम मेरी जीभ पर पाव रोटी के स्वाद की तरह गरम और मधुर हो। मुझे यदि ग्रीष्म के सवेरे को स्वाद की भाषा में व्यक्त करना होगा तो मैं कहूँगा कि यह रोहिणी में पके जामुन की तरह लगता है, मीठा काषाय और खट्टा, श्यामल और स्वादिष्ट।" भारतीय ऋतुओं के प्रतीकों और नक्षत्रों का ऐसा प्रतीक शायद ही कहीं और देखा जा सकता है। कुबेरनाथ राय के निबंधों में इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं।
ललित निबंधों में एक नया और अनूठा प्रयोग 'पत्र मणि पुतुल के नाम' संग्रह में देखने को मिलता है। सन १९८० में प्रकाशित इस संग्रह में उनके १४ ललित निबंध हैं। इसमें संग्रहित निबंधों को उन्होंने अपनी अनुजवधू मणिपुतुल को संबोधित किया है। इसका पहला निबंध यथार्थ पर आधारित है पर अन्य निबंध काल्पनिक ही हैं। इस संग्रह के प्रकाशकीय वक्तव्य के अनुसार, "ये पत्र शुद्ध साहित्यिक कृतियाँ हैं और प्रथम पत्र के बाद की व्यक्ति मणिपुतुल नहीं एक काल्पनिक प्रतीक है, नई पीढ़ी का।" विद्वानों का मानना है कि इस संग्रह में राय जी पर गाँधीवादी दृष्टिकोण का प्रभाव देखा जा सकता है। इस संग्रह के अंत में एक निबंध 'वे एक सही हिंदू थे' में राय जी ने जवाहरलाल नेहरू को आधुनिक हिंदू तथा गाँधी जी को सही हिंदू बताया है। अतः कहा जा सकता है कि कुबेरनाथ राय के निबंध साहित्य का फलक विस्तृत था जिसमें केवल प्रकृति, मिथक और प्रतीक ही नहीं गंभीर दर्शनों का भी प्रभाव देखा जा सकता है। परंपरा का निर्वाह करते हुए भी केवल अतीत में ही विचरण करना उनकी प्रवृत्ति नहीं है बल्कि वर्तमान का भी संतुलन उनमें प्रचुर मात्रा में है, जो उनके निबंधों को प्रासंगिक बनाता है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि उनके निबंधों ने हिंदी साहित्य को निबंध के विविध आयामों से परिचित कराया। उनके निबंध इस बात का भी प्रमाण हैं कि भारतीय साहित्य का विश्व साहित्य में विशेष स्थान है, इसके प्रतीक और मिथक अपने आप में एक विशेष महत्त्व रखते हैं। अँग्रेज़ी का अध्यापन करते हुए भी उनकी रुचि प्राचीन भारतीय संस्कृति पर ही रही जो उनके भारतीय साहित्य के प्रति लगाव को भी प्रदर्शित करता है। उनके निबंध साहित्य पर आज देश के कोने-कोने में विभिन्न दृष्टियों के आधार पर शोधकार्य किए जा रहे हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि उनके ललित निबंध केवल शैली के आधार पर ही नहीं मानवीय मूल्यों के आधार पर भी महत्त्व रखते हैं।
संदर्भ
विकिपीडिया
प्रिया नीलकण्ठी, कुबेरनाथ राय
पत्र मणिपुतुल के नाम, कुबेरनाथ राय
लालित्य तत्व, हजारी प्रसाद द्विवेदी
कुबेरनाथ राय : भारतीय चिंतन धारा के प्रमुख हस्ताक्षर, डॉ० मनोज कुमार राय
लेखक परिचय :
विनीत काण्डपाल
स्नातक (प्रतिष्ठा) हिंदी, हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
स्नातकोत्तर हिंदी, किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
अनुवाद डिप्लोमा, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
जेआरएफ हिंदी, शोधार्थी - सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय अल्मोड़ा (उत्तराखंड)
मोबाइल - 8954940795
ईमेल -vineetkandpal1998@gmail.com
विनीत जी, कुबेरनाथ राय के साहित्यिक योगदान की गाथा उनके चुनिंदा निबंधों के उद्धरण देकर बहुत अच्छी तरह से पेश की आपने। आपको इस आलेख के लिए साभार बधाई।
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ReplyDeleteविनीत जी, कुबेरनाथ राय के जीवन और कार्यों से सरल-सहज और रोचक शैली में सिलसिलेवार जानकारियाँ उपलब्ध कराते आपके आलेख के लिए बधाई और धन्यवाद।
मान्य कुबेर नाथ राय जी के विषय में थोड़ी सी जगह में थोक जानकारी। उत्तम आलेख। लालित्य की परिभाषा बहुत सटीक और रोचक। बधाई आपको विनीत जी।
ReplyDeleteशिवानन्द सिंह 'सहयोगी'
मेरठ
विनीत जी नमस्ते। आपने कुबेरनाथ राय जी पर अच्छा लेख लिखा है। लेख के माध्यम से उनके विस्तृत सृजन को जानने का अवसर मिला। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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