Saturday, October 1, 2022

विद्यासागर नौटियाल : पहाड़ों की साहित्यिक सैर


पहाड़ की सुंदरता पर्यटकों के लिए जितनी रोमांचक होती है, उतना ही दुष्कर होता है वहाँ का जन-जीवन। इस जन-जीवन को करीब से देखने-समझने की जिज्ञासा रखने वालों के लिए रचा गया है, विद्यासागर नौटियाल का साहित्य। पहाड़ की गोद में मोद भरे बालक की तरह बैठे रहने वाले नौटियाल जी कहते हैं, "पहाड़ दरअसल वैसा नहीं है, जैसा वह दो घड़ियों के अपने जीवन को पहाड़ पर बिताने वाले सैलानियों को दिखाई देता है। पूर्णमासी का, शरद का चाँद घने जंगल में अपनी रौशनी डालता है तो उसकी झलक मात्र से जीवन धन्य लगता है। सूरज, नदियाँ, घाटियाँ और इन पहाड़ों में बसने वाले लोग, ये सब शक्ति देते हैं। उच्च शिखरों पर बुग्यालों के रंगीन कालीन के ऊपर बैठकर एक क्षण के लिए सूर्य की किरणों के दर्शन जीवन को सार्थक करने लगते हैं। लेकिन इन पहाड़ों के भीतर जीवन विकट है। याद रखना चाहिए कि इस हिमालय में पांडव भी गलने आए थे। मैं इस विकट पहाड़ में रम-बस गया। इसे छोड़कर कहीं बाहर भाग जाने की बात नहीं सोची। अपनी रचनाओं में मैं इस पहाड़ की सीमाओं के अंदर घिरा रहा। टिहरी के बाहर नहीं निकला। निकलूँगा भी नहीं।"

भागीरथी के तट पर बसे मालीदेवल गाँव में जन्मे विद्यासागर नौटियाल साहित्य जगत को अपना कहानी संग्रह सौंपते हुए कहते हैं, "पाठकों और पात्रों के जनतंत्र में निर्वाचित होकर आई ये कहानियाँ आपकी सेवा में पेश हैं।"

टिहरी गढ़वाल के पुत्र नौटियाल जी के साहित्य में कितना गढ़वाल है, कितना वहाँ का समाज और कितनी राजनीति, इसका सही-सही प्रतिशत बता पाना बहुत मुश्किल है। स्वतंत्रता के बाद भी टिहरी रियासत सामंती शासन के अंतर्गत आती थी। उसके खिलाफ हुए जन संघर्ष में नौटियाल जी की सक्रिय भूमिका रही और इस तरह छात्र जीवन से ही उनकी राजनीतिक यात्रा भी शुरू हो गई। इसके बाद तो सामंती शासन के विरुद्ध चलाए जाने वाले आंदोलनों और फिर आम जनता के दैनंदिन सवालों पर कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से किए जाने वाले संघर्षों में भाग लेने के कारण जेल यात्राएँ भी हिस्से में आई। 

जैसा कि अमूमन प्रत्येक रचनाकार के साथ होता है, नौटियाल जी के लेखन की शुरुआत तुकबंदी से हुई। लेकिन कविता लेखन के तकनीकी पहलुओं से वे खुद को अनजान बताते रहे।

१९५२ में काशी हिंदू विश्वविद्यालय आने पर इनकी मित्रता केदारनाथ सिंह से हुई जो हिंदी साहित्य के एक सुपरिचित कवि थे। केदारनाथ की कविताओं को सुनने के बाद उन्हें लगा कि कविता लेखन की प्रतिभा उनसे कहीं दूर निवास करती है और वे अपना ध्यान केवल कहानियों पर ही केंद्रित करने लगे। 

प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ पढ़ते-पढ़ते नौटियाल जी अपने आसपास होती घटनाओं से विचलित होने लगे। और जब वे घटनाएँ हृदय को झकझोरने लगतीं तो नौटियाल जी की लेखनी से शब्दों का आकार लेकर साहित्यिक पृष्ठों पर आ उतरती।

१९५० के आसपास नौटियाल जी ने अपनी पहली कहानी 'मूक बलिदान' लिखी। इस बारे में पूछने पर वे कहते हैं, "कहानी के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। कहानी के तकनीकी पहलुओं के बारे में आज भी शून्य हूँ। इसलिए कहानी लिख देता हूँ पर कहानी के बारे में कहीं लिखने से डरता हूँ। अपने अज्ञान को ढ़क कर रखना ठीक होता है।"

अपनी रचनाओं की भूमिका लिखने में नौटियाल जी असहजता महसूस करते हैं। वे कहते हैं, "मेरा मानना है कि लेखक को अपनी पूरी बात रचना में दे देने की कोशिश करनी चाहिए। उसके नुक्स निकालने या भाष्य करने का भार विद्वान समीक्षकों-आलोचकों पर छोड़ देना चाहिए। पाठकों के सामने सही बातों का खुलासा कर देने में मुझे कोई हर्ज़ नहीं मालूम होता।" साहित्य में ऐसी सहजता नौटियाल जी को जनप्रिय बनाती है। 

काशी हिंदू विश्वविद्यालय में नौटियाल जी को डॉ० नामवर सिंह, डॉ० बच्चन सिंह, शिवप्रसाद सिंह और रामदरश मिश्र जैसे गुरुओं का सानिध्य मिला तो वहीं त्रिलोचन शास्त्री, विष्णुचंद्र शर्मा, केदारनाथ सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे साहित्यकारों की मित्रता इनके लेखन को गति देने लगी। यहाँ वे प्रगतिशील लेखक संघ की बैठकों में सम्मिलित होने लगे। १९५४ में जब नौटियाल जी की कहानी 'भैंस का कट्या' हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिका 'कल्पना' में छपी तो एक कथाकार के रूप में उनका परिचय काशी से बाहर भी हो गया।

१९५९ में टिहरी लौटने पर नौटियाल जी साहित्य से पूरी तरह से दूरी बनाते हुए पूर्णकालिक राजनीतिक जीवन की शुरुआत करते हैं। इस दौरान उनकी लेखनी भले ही शांत रही हो, लेकिन वास्तव में वे अनुभवों की स्याही जमा कर रहे थे। टिहरी से राजशाही का अंत और भारत-चीन युद्ध की घटनाओं के बीच वे निरंतर पदयात्राएँ कर रहे थे। इस तरह आम जन की समस्याओं को करीब से देखते हुए समझा। उन्होंने कई चुनाव लड़े और १९८० में देवप्रयाग से उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य चुने गए। राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय रहते हुए भी उन्होंने आम जनता का प्रतिनिधित्व किया। वन आंदोलन, चिपको आंदोलन और टिहरी बांध विरोधी आंदोलन में वे जनता के पक्ष में खड़े दिखाई दिए। उत्तराखंड के दस साल पूरे होने पर स्थितियों का आकलन करते हुए उन्होंने कहा, "राज्य बनने से इतना ही फर्क पड़ा कि बड़े माफ़िया की जगह छोटे माफिया ने ले ली।"

एक ओर जहाँ वे राजनीतिज्ञों के साहित्यिक अज्ञान को स्पष्ट रेखांकित करते हैं तो वहीं लोकतंत्र की परिभाषा को साहित्य से जोड़ते हुए भी दिखाई देते हैं। जैसे राजनीति में कोई प्रत्याशी निज को कितना ही योग्य क्यों न समझे, निर्वाचित तभी हो पाएगा जब मतदाता भी उसे योग्य समझे इसलिए अपनी पसंद को गौण मानकर लोकतंत्र के अनुशासन का पालन करते हुए वे अपनी रचनाओं में पात्रों के दबाव और पाठकों की पसंद का ध्यान रखते हैं।

टिहरी बांध परियोजना में अपनी ज़मीन से बिछड़े नौटियाल जी साहित्य के जरिए फिर टिहरी लौटे और अपनी लेखनी में वही अनुभवों की स्याही भरी जो उन्होंने अपनी राजनीतिक सक्रियता के समय सहेजी थी। इस स्याही का रंग यथार्थ की कड़ी धूप में खूब पका हुआ था। 

स्मृति की ऊर्जा और आत्मीयता में आकार लेता नेत्र सिंह रावत का यात्रा वृतांत 'पत्थर और पानी' नौटियाल जी की प्रेरणा बना और स्मृतियों के अद्भुत दस्तावेज़ 'भीम अकेला' की रचना हुई जो नैनीताल से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'पहाड़' के तीसरे अंक में छपा। यह दो दिनों की यात्रा का वर्णन है जो उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा का सदस्य रहते हुए टिहरी स्वतंत्रता संग्राम में शहीद हुए मोलाराम भरदार और तेज सिंह भरदार के क्षेत्र में की थी। इस संस्मरण के बाद शासन ने शहीद मोलाराम की विधवा के साथ दुर्व्यवहार करते हुए उनकी पेंशन रोक ली, जिन्होंने सरकार से मिला दो हजार रुपए का अनुदान भी जुनियर हाई स्कूल की स्थापना हेतु दान कर दिया। करीब चार वर्ष बाद यह संस्मरण पुस्तक रूप में निकला जिसकी भूमिका में नौटियाल जी ने सूरमा देवी को जीवित शहीद मानते हुए लिखा, "यह अंधी वीरांगना समाज के कुल जहर को घोल-घोल कर पी गई है। महाशिवरात्रि के दिन मैं उसकी गाथा लिखने बैठा हूँ। गरल पीकर शिव नीलकंठ हो गए, सतूरी अंधी। सतूरी देवी की यह कथा भीम अकेला का उपसंहार है।" 'सूरज सबका है' ऐतिहासिक कलेवर में रची गई लोक मानस की रचना है, तो 'झुंड के बीच' मिथकों, किवदंतियों, रूढ़ियों और अंधविश्वासों की बेड़ियों में लिपटे पर्वतीय जन-जीवन की त्रासदी है। 'उत्तर बयाँ है' की शैली में पर्वतीय क्षेत्र की प्रकृति समाई है तो 'यमुना के बागी बेटे' १९३० के आसपास घटी कुछ ऐसी ऐतिहासिक घटनाओं को संजोए है जिन्हें कभी इतिहास ने दर्ज ही नहीं किया। अपने जन्म के तीन साल पहले घटित तिलाड़ी कांड की दारुण कथाएँ उन्हें विचलित करती थी। इस छोटे से उपन्यास की सामग्री वे १९६४ से ही एकत्रित करने लगे थे। इसके लिए उन्होंने कुछ भुक्तभोगी रंवाल्टों सैनिक कार्यवाहियों में शामिल एक सिपाही और कुछ अन्य प्रत्यक्ष दर्शियों से भेंट कर उनके साक्षात्कार भी दर्ज किए। नौटियाल जी अपनी कहानियों के माध्यम से जब आम जन मानस की संवेदनाओं के चित्र उकेरते हैं, तो लगता है जैसे वे पात्रों के मन-मस्तिष्क का पूर्ण निरीक्षण कर आए हों। उनकी कहानियों के विचार पात्रों के कद से बड़े होकर अपना निजी अस्तित्व तय करते हैं। नौटियाल जी कहते हैं, "अपने लोगों की यह कथा जिसे अनेक वर्षों तक मैंने अपने भीतर जिया है, अपने को अपने समाज का ऋणी मानते हुए उससे उऋण होने की छटपटाहट में लिखता हूँ, साहित्य मेरे लिए मौज-मस्ती का साधन नहीं, जिंदगी की ज़रुरत है। लेखन के काम को मैं एक फ़र्ज़ की तरह अंजाम देता हूँ। किसी प्रकार की हड़बड़ी के बगैर लिखता हूँ और किसी की फ़रमाइश पर नहीं लिखता। जो मन में आए वह लिखता हूँ। सिर्फ़ वही लिखता हूँ।"

नौटियाल जी का साहित्य कोरी कल्पनाओं का साहित्य कतई नहीं है। इसकी जड़ें पहाड़ की ज़मीन से पोषण पाती हैं। पहाड़ी जीवन की वास्तविकता को परिभाषित करते इनके साहित्य में पीड़ा और संवेदना के वास्तविक दर्शन होते हैं। उनकी राजनीति में भी झुठी नारेबाजी नहीं बल्कि आम जन मानस के सुख-दुख में उनकी भागीदारी दिखाई देती है। उनकी सरलता उनकी समृद्धता की परिभाषा है।

साहित्यिक जगत को उत्कृष्ट सृजन की सौगात देने वाले विद्यासागर नौटियाल हिंदी भाषा की प्रगति को लेकर चिंतित रहे। उनका कहना था कि "हिंदी बोलने वाले लोग करोड़ों की संख्या में हैं, तो हैं। साहित्य से उनका कोई लगाव नहीं रहता। पुस्तकों के पाठक लाखों में भी नहीं। इस संबंध में प्रकाशकों की आलोचना हम सभी लोग करते रहते हैं। ज्यादातर सही आलोचना। लेकिन पूरे हिंदी समाज में पढ़े-लिखे, संपन्न लोगों के ऐसे कितने घर होंगे जहाँ हिंदी के दो-चार लेखकों की रचनाएँ भी मौजूद हों। चंद साहित्यकारों के अलावा ऐसे कितने सामान्य घर होंगे जिनमें अतिथियों, रिश्तेदारों के सामान्य मिलन के अवसरों पर साहित्य की और लेखकों की चर्चा होती हो। हिंदी में ऐसी कोई संस्कृति अभी जन्म नहीं ले पाई।"

पर्वतीय सरोकारों के सफल साहित्यकार विद्यासागर नौटियाल ने भले ही एक से बढ़ कर एक कहनियों से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया हो लेकिन उनका कहना था कि ज़िंदगी की कहानी से बढ़ कर कोई कहानी नहीं हो सकती। बेंगलुरु में १८ फरवरी २०१२ को उनकी यह कहानी भी अनंत आकाश में प्रकाशित हो गई।

मशहूर साहित्यकार लीलाधर जगूड़ी शोकाकुल हो कहते है, "वे काफी ऊर्जावान साहित्यकार थे। उनका जाना इसलिए भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि काफी कुछ अधूरा रह गया। वे अभी भी लिख ही रहे थे और उनके पास लिखने के लिए काफी कुछ था। उनसे काफी उम्मीदें थी। पहाड़ के जीवन और समाज का जैसा चित्रण उन्होंने किया वह दुर्लभ है।"

सुपरिचित कवि मंगलेश डबराल ने उनके निधन पर गहरा शोक प्रकट करते हुए कहा, "उनके दो बड़े योगदान हैं वामपंथी आंदोलन की स्थापना और सामंतवाद विरोधी आंदोलन। उनकी रचनाओं में प्रेमचंद की यथार्थवादी परंपरा का सार्थक विस्तार मिलता है। वे पहाड़ के प्रेमचंद थे।"

विद्यासागर नौटियाल : जीवन परिचय

जन्म

२९ सितंबर १९३३, मालीदेवल गाँव, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड

निधन

१८ फरवरी २०१२, बैंगलोर, कर्नाटक

पिता

नारायण दत्त, वन अधिकारी

माता

रत्ना नौटियाल

शिक्षा

  • दसवीं - प्रताप इंटर कॉलेज, टिहरी

  • बारहवीं - डीएवी कॉलेज, देहरादून

  • एमए (अंग्रेज़ी साहित्य) - काशी हिंदू विश्वविद्यालय

कार्यक्षेत्र

  • लेखन कार्य १९४९-१९६०
  • राजनीति १९६०-१९९०
  • पुनः लेखन

साहित्यिक रचनाएँ

उपन्यास

  • उलझे रिश्ते

  • भीम अकेला

  • सूरज सबका है

  • उत्तर बायां है

  • यमुना के बागी बेटे

  • झुंड से बिछुड़ा

  • सुच्ची डोर

  • मेरा जामक वापस दो

  • सरग दद्दा! पाणि पाणि

कहानी संग्रह

  • टिहरी की कहानियाँ

  • मेरी कथा यात्रा

ललित लेख

  • मोहन गाता जाएगा

  • कुदरत की गोद में

  • बागी टिहरी! गाए जा

संपादन

  • वर्सिटि बॉयज (पत्रिका)

  • वीरेंद्र सकलानी (जीवनी)

सम्मान व पुरस्कार

  • पहल साहित्यिक सम्मान, २०००

  • इफ्को साहित्य सम्मान

  • पहाड़ सम्मान

  • वीर सिंह देव सम्मान, मध्यप्रदेश सरकार

संदर्भ

  • विद्यासागर नौटियाल की कहानियाँ
  • कविता कोश

लेखक परिचय

सृष्टि भार्गव

हिंदी विद्यार्थी
कुछ उलझनें सुलझाता
एक प्रयास छोटा-सा

प्रयासों के बीच
अवकाश छोटा-सा

....और इस अवकाश में भी बस साहित्य का दुलार है!
ईमेल - kavyasrishtibhargava@gmail.com 

4 comments:

  1. शालीन,बेहतरीन,अनुकरणीय,संग्रहणीय एवम अभिनंदनीय।

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  2. नौटियाल जी के व्यक्तित्व को भीतर बाहर खोलता सुंदर आलेख ! ऐसे आलेख जिज्ञासा और कौतूहल के साथ अपेक्षाएं भी बढ़ा देते हैं !

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  3. सृष्टि, विद्यासागर नौटियाल की लेखन के प्रति निष्ठा और अपने कर्तव्यों के प्रति लगन को जानकर अभिभूत हूँ। कितनी सच्चाई से मान लेना कि कविता मेरे लिए नहीं है और पूरी सृजन प्रतिभा को अपनी कहानियों में उँडेल देना- अद्भुत व्यक्तित्व की परिचायक हैं यह बात। पहाड़ के प्रेमचंद पर इस सुंदर आलेख के लिए तुम्हें बधाई और आभार।

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  4. सृष्टि जी नमस्ते। आपने एक और अच्छा लेख हम पाठकों तक पहुँचाया। आपने काफी शोध के बाद विद्यासागर नौटियाल जी पर यह लेख लिखा। लेख में उनके जीवन एवं सृजन का परिचय का अच्छा परिचय दिया। उनके कहानी संग्रह 'टिहरी की कहानियाँ' और जीवनी 'वीरेन्द्र सकलानी' में पहाड़ों की विशेष झलक मिलती है। आपको इस बढ़िया लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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