"प्रेम हिसाब-किताब नहीं है। हिसाब-किताब करने वाले भाड़े पर मिल सकते हैं, पर प्रेम करने वाले नहीं।"
प्रेम को इतनी सरल और सहज व्यंग्यात्मक शैली में समझाने वाले आचार्य शुक्ल का व्यक्तित्त्व व कृतित्त्व इतना विराट और विशाल है कि परिमाणात्मक रूप से मापा नहीं जा सकता। आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी साहित्य का वे अनमोल रत्न है, जिनकी आभा से संपूर्ण हिंदी जगत आच्छादित है।
आलोचना सम्राट शुक्ल जी का जन्म ४ अक्टूबर १८८४ को पूर्वी उत्तर प्रदेश में बस्ती जिले के अगोना गाँव में हुआ था। इनके पिता श्री चंद्रबली शुक्ल मिर्जापुर में कानूनगो के पद पर थे, जिसके कारण इनका परिवार मिर्जापुर में रहता था। इनकी माता धार्मिक विचारों की साधारण महिला थीं। मात्र ९ वर्ष की अवस्था में इनकी माँ का स्वर्गवास हो गया, जिससे इनके मन-मस्तिष्क पर गहरा आघात हुआ। बचपन की परिस्थितियों ने उन्हें परिपक्व बना दिया। लंदन मिशन स्कूल से हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के बाद वकालत करने हेतु प्रयाग आ गए; किंतु उनका मन रमा नहीं, परिणामतः वे परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गए। पिता जी उन्हें नायब तहसीलदार बनाना चाहते थे, किंतु उनकी रुचि उसमें नहीं थी। घर का वतावरण साहित्यिक था। साहित्य-प्रेमी पिता जी रात को घर के सदस्यों को तुलसीदास की 'रामचरित मानस' व केशवदास की 'रामचंद्रिका' गाकर सुनाया करते थे। उन्हें भारतेंदु के नाटक बहुत प्रिय थे, फलतः शुक्ल जी का बचपन साहित्यिक परिवेश में ही बीता। शुक्ल जी के मन में भारतेंदु जी के प्रति अगाध श्रद्धा थी।
बचपन से ही साहित्यानुरागी आचार्य शुक्ल के जीवन में नया मोड़ तब आया जब उनका संपर्क भारतेंदु मंडल के प्रसिद्ध कवि उपाध्याय बदरी नारायण चौधरी 'प्रेमघन' से हुआ। 'प्रेमघन' से मुलाकात का वर्णन उन्होंने बड़े ही रोचक ढंग से अपने संस्मरणात्मक निबंध 'प्रेमघन की छाया स्मृति' में कुछ इस प्रकार किया है, "बरामदा सघन लताओं के जाल से आवृत्त था। …लता प्रतान के बीच एक मूर्ति खड़ी दिखाई पड़ी। दोनों कंधों पर बाल बिखरे हुए थे। एक हाथ खंभे पर था। देखते ही देखते यह मूर्ति दृष्टि से ओझल हो गई। बस, यही पहली झाँकी थी।"
'प्रेमघन' के सानिध्य में शनैः शनैः उनकी प्रतिभा निखरती गई। १६ वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते उनकी साहित्यिक मित्र-मंडली बन गई, जिनमें काशी प्रसाद जायसवाल जी, बा० भगवान दास हालना जी, पं० बदरीनाथ गौड़ जी और पं० उमाशंकर द्विवेदी जी प्रमुख थे। पं० केदारनाथ पाठक के पुस्तकालय से उन्हें प्रचुर सहयोग मिला।
मिर्जापुर के ओलियर घाट स्थित राजेंद्र बाला घोष बंग के आवास पर उनकी व आचार्य शुक्ल की साहित्यिक परिचर्चाओं ने उन्हें एक नया आयाम दिया। 'प्रेमघन' ने उनकी रचनाओं को भी प्रकाशित किया। उनकी 'भारत और शीर्षक' कविता १८९६-९७ में 'आनंद कादंबिनी' में प्रकाशित हुई। कविता से प्रारंभ रामचंद्र शुक्ल के इस सफ़र की परिणति शीर्ष आलोचक व समीक्षक, श्रेष्ठ निबंधकार, सफल कहानीकार, अनुवादक, कोशकार और महान साहित्यिक इतिहासकार के रूप में हुई।
रामचंद्र शुक्ल की प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्होंने उन्हें 'आनंद कादंबिनी' का सहायक संपादक बना दिया, जिसने बालक रामचंद्र की साहित्यिक यात्रा को गति प्रदान की। काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने उन्हें १९०८ में 'हिंदी शब्द सागर' का सहायक संपादक नियुक्त किया, जिसे उन्होंने पूरी तन्मयता से निभाया। इस महती कार्य की महत्ता बाबू श्यामसुंदर दास के इन शब्दों से समझी जा सकती है, "शब्दसागर की उपयोगिता और सर्वांगपूर्णता का अधिकांश श्रेय पं० रामचंद्र शुक्ल को है।"
'कविता' में शुक्ल जी की आलोचना दृष्टि बाद के साहित्यकारों के लिए सदैव आदर्श का प्रतिमान रही है। उन्होंने कविता को 'हृदय की मुक्तावस्था' कहा है। 'कविता' के मर्म जो उन्होंने उद्घाटित किए हैं, उनका रूप-विधान उनके काव्य में स्पष्ट परिलक्षित होता है।
यह विडंबना है कि उनके विपुल काव्य को उतना महत्त्व नहीं मिल सका, जिसके वे हकदार हैं। उनकी कविताएँ १९०१ से १९२९ के मध्य आनंद कादंबिनी, सरस्वती, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, माधुरी, इंदु, लक्ष्मी, सुधा और बाल हितैषी जैसी तत्कालीन प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपीं, जिसका प्रकाशन १९७१ में 'मधुस्त्रोत' नाम के संग्रह से नागरी प्रचारिणी सभा ने किया है।
प्राकृतिक सुंदरता, गाँव की रमणीयता उन्हें बहुत ही लुभाती है,
"कहीं हृदय अपना समेटकर
कोश-कीट बन जाये न तू नर
इसी हेतु अविरल मधु धारा
द्वार-द्वार पर टकराती है
तुम भी ग्राम! खुले सपने हो
रूप रंग में वही बने हो।"
पर्वत, कंदराएँ, वन, उपवन सब वही हैं, किंतु हमारी दृष्टि कालिदास और भवभूति पर जाकर टिक जाती है। इस भाव का कितना मनोरम दृश्य उन्होंने प्रस्तुत किया है,
"दिक्-दिक् की आँखें मतवाली
धरती है किंशुक की लाली
जहाँ-जहाँ ये रूप खड़े हैं
जहाँ-जहाँ ये दृश्य अड़े हैं
कालिदास, भवभूति आदि के
हृदय वहाँ पर मिल जाते हैं।"
'आशा और उद्योग' देश-प्रेम की उदात्त भावना की परिचायक है,
"देश दु:ख अपमान जाति का, बदला मैं अवश्य लूँगा
अन्यायी के घोर पाप का, दण्ड उसे अवश्य दूँगा
यद्यपि मैं हूँ एक अकेला, बैरी की सेना भारी
पर उद्योग नहीं छोड़ूँगा, जगदीश्वर हैं सहकारी।"
शुक्ल जी के कवित्त्व के बारे में डॉ० मुनिलाल उपाध्याय लिखते हैं, "आचार्य शुक्ल ने कवियों के बारे में जो सटीक व वैज्ञानिक सम्मत टिप्पणी व विवेचना की है, वह एक गद्यकार कभी नहीं कर सकता है। उनमें कवि हृदय भी था, वे कविता भी करते थे और उसकी सारी बारीकियों से विज्ञ भी थे।"
लोक मंगल की भावना से भरा उनका काव्य शब्द, बिंब और नाद की दृष्टि से अद्भुत है। ब्रज भाषा और खड़ी बोली में रचित काव्य प्रकृति, ग्रामीण झलक, देश-प्रेम और सहजता लिए हुए है। अपने इसी समृद्ध काव्य के बदौलत वे उच्च कोटि के कवि हैं।
यदि गद्य लेखकों की कसौटी है, तो निबंध गद्य की कसौटी है। भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबंधों में ही संभव है। आचार्य शुक्ल हिंदी के सर्वश्रेष्ठ निबंधकार हैं। हिंदी के बेकन आचार्य शुक्ल ने अपने असाधारण निबंधों के द्वारा हिंदी-साहित्य को सशक्त और समृद्ध किया। उनके निबंधों में बुद्धि एवं हृदय का अद्भुत समन्वय है। इसी कारण हिंदी साहित्य के इस कालखंड को 'शुक्ल युग' के नाम से संबोधित किया जाता है। उनके निबंधों में बौद्धिकता व विषयनिष्ठता कूट-कूट कर भरी है। गहरे भाव लिए उनके निबंध हिंदी-साहित्य में मील के पत्थर हैं, जो परवर्ती लेखकों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। बाबू गुलाबराय का यह कथन कितना सटीक है, "उपन्यास-साहित्य में जो स्थान मुंशी प्रेमचंद का है, वही स्थान निबंध-साहित्य में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का है।"
उनके निबंधों की भाषा तत्सम शब्दावली युक्त क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ है, जो विषय के अनुरूप परिवर्तित हुई है। उर्दू, फारसी, बोलचाल की सहज भाषा का प्रयोग भी उन्होंने किया है। भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार है। यदि उन्हें भाषा का स्वामी कहा जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जहाँ तक शैली की बात है तो उन्होंने लगभग सभी शैलियों को अपनाया है। विस्तृत विवेचना से लेकर, गंभीर विचारों का समावेश, व्यंग्य व विनोद के पुट, सूत्रात्मक वाक्य, तर्कशीलता, सूक्ष्म दृष्टि उनके निबंधों की विशेषता है।
शुक्ल जी के निबंधों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जाता है,
सैद्धांतिक आलोचनात्मक निबंध
व्यावहारिक आलोचनात्मक निबंध
मनोवैज्ञानिक निबंध
आलोचना के साथ-साथ अन्वेषण व गवेषणा की प्रवृत्ति के निबंध सैद्धांतिक श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। शुक्ल जी को इसमें महारत प्राप्त थी। 'कविता क्या है?', 'लोकमंगल की साधनावस्था' जैसे उनके निबंध इसी कोटि के हैं। 'कविता क्या है?' निबंध में वे कविता के उच्च आदर्श की स्थापना करते हैं, "कविता मनुष्य के हृदय को उन्नति करती है, और ऐसे-ऐसे उत्कृष्ट और अलौकिक पदार्थों का परिचय कराती है, जिनके द्वारा यह लोक, देवलोक और मनुष्य देवता हो सकता है।" लोकमंगल की अवधारणा साहित्य की आधारशिला है, जिसका विवेचन वे बहुत ही सुंदर ढंग से करते है।
गोस्वामी तुलसीदास उन्हें बहुत प्रिय हैं, क्योंकि उनके काव्य का मूल ही लोकमंगल है। मानस की धर्मभूमि, भारतेंदु हरिश्चंद्र, तुलसी का भक्ति मार्ग जैसे निबंध व्यावहारिक आलोचना के अंतर्गत आते हैं। करुणा, भक्ति, क्रोध, लज्जा और मित्रता जैसे निबंध मनोविकारों का प्रतिनिधित्त्व करते हैं। 'मित्रता' में लेखक कितना प्रभावशाली चित्रण करता है, "कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है।"
'करुणा' में शुक्लजी ने छद्म आवरण को उतार कर रख दिया है, "…थोड़े क्लेश या शोक पर जो वेगरहित दुःख होता है, उसे सहानभूति कहते हैं। शिष्टाचार में इस शब्द का प्रयोग इतना अधिक होने लगा है कि यह निकम्मा-सा हो गया है। …यह छद्म शिष्टता मनुष्य के व्यवहार क्षेत्र से सच्चाई के अंश को क्रमशः चरती जा रही है।"
हिंदी में वैज्ञानिक आलोचना के जनक शुक्ल जी ने तार्किक, मौलिक व मानक आलोचना के द्वारा हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। वे आधुनिक आलोचना के युगपुरुष हैं। आलोचना के लिए सहृदयता आवश्यक है। उन्होंने सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना की नई इमारत खड़ी की। साहित्य के रसास्वादन से प्राप्त निष्कर्ष ही उनके समीक्षा सिद्धांत हैं। सूर, तुलसी, जायसी जैसी श्रेष्ठ विभूतियों को पुनः प्रतिष्ठित करने का श्रेय शुक्ल जी को ही जाता है। उनकी आलोचना का केंद्रीय भाव लोकमंगल है। उन्होंने नवीन युग-बोध के साथ समीक्षाएँ की। इलियट, हेनरी मुनरो, जे० एस० फ्लिंट जैसे साहित्यकारों का उल्लेख करने वाले संभवतः वे देश के पहले लेखक हैं। जब हिंदी साहित्य में एक सशक्त आलोचक का शून्य था, तब आचार्य का उदय द्वितीया के मयंक की भांति हुआ, जिन्होंने अपनी आभा से समस्त हिंदी साहित्य को आलोकित किया। नलिन विलोचन शर्मा का यह कथन बहुत कुछ कह देता है, "शुक्ल जी से बड़ा समीक्षक संभवतः उस युग में किसी भी भारतीय भाषा में नहीं था।"
शुक्ल जी के महत्त्वपूर्ण कार्यों में अनुवाद भी है। उन्होंने अनेक रचनाओं का अनुवाद भी किया, जिसमें उन्हें पूर्ण सफलता मिली है। बुद्ध चरित, विश्व प्रपंच और कल्पना का आनंद जैसे अनेक अनूदित ग्रंथ लिखे। अनुवाद के साथ-साथ उनका बृहद कार्य कोशकार के रूप में रहा। हिंदी शब्द-सागर में उनकी महती भूमिका रही।
निर्विवाद रूप से आचार्य जी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य 'हिंदी साहित्य का इतिहास' रहा, जिसकी सीमाएँ इतनी विराट हैं कि आज तक कोई लेखक उसे लांघ नहीं पाया। वास्तविक रूप से यह सबसे पहला परंपरागत इतिहास है, जो आज तक हिंदी साहित्य के पाठ्यक्रम निर्धारण का मानक स्त्रोत है। 'हिंदी साहित्य का इतिहास' आचार्य जी की अक्षय कीर्ति का आधार स्तंभ है।
आचार्य जी हिंदी की वह अमूल्य निधि हैं, जिसका हिंदी जगत चिर ऋणी रहेगा। उनका विशाल व्यक्तित्त्व आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में अक्षरशः झलकता है, "हिंदी संसार में शुक्ल जी एक और अद्वितीय व्यक्तित्त्व लेकर अवतीर्ण हुए थे।"
आचार्य शुक्ल को निम्न विशेषणों से भी जाना जाता है,
१. हिंदी के एक मात्र आचार्य - नामवर सिंह
२. हिंदी समीक्षा के आधार स्तंभ - डॉ० भगवत स्वरूप मिश्र
३. भवभूति का सम्मानधर्मा आचार्य - राम विलास शर्मा
४. हिंदी साहित्य समीक्षा का बालारुण - आचार्य नंददुलारे वाजपेयी
५. हिंदी का गौरव - हजारी प्रसाद द्विवेदी
६. हिंदी का बेकन
७. आलोचना सम्राट
८. भाषा का स्वामी
९. युग प्रवर्तक
१०. आलोचना का महानायक
संदर्भ
सम्मेलन-पत्रिका (आचार्य रामचंद्र शुक्ल जन्मशती विशेषांक) भाग - ७० संख्या २-४, चैत्र-मार्गशीर्ष १९०६, संपादक - डॉ० प्रेमनारायण शुक्ल, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग
हिंदी साहित्य का इतिहास - आचार्य रामचंद्र शुक्ल
चिंतामणि भाग १ व २
हिंदी शब्द सागर - सं० बाबू श्यामसुंदर दास
मधुस्त्रोत - प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा
साहित्य का इतिहास दर्शन
बस्ती के छंदकार भाग १ (पृष्ठ संख्या १७९)
लेखक परिचय
मनीष कुमार श्रीवास्तव
शिक्षा - स्नातकोत्तर (भौतिकी)
संप्रति - अध्यापक और साहित्यकार
प्रकाशन - 'प्रकाश: एक द्युति' (हाइकु क्षितिज) एकल हाइकु संग्रह
निवास - भिटारी, रायबरेली (उत्तर प्रदेश)
ईमेल - manish24bhitari@gmail.com
चलितभाष - +९१ ८७८७०७५९५१
अभिनंदन
ReplyDeleteमनीष जी, आचार्य शुक्ल जी पर आपने एक संतुलित और समग्र-सा आलेख प्रस्तुत किया है। आलेख से शुक्ल जी द्वारा किए गए गद्य क्षेत्र के सभी महत्त्वपूर्ण कार्यों के साथ-साथ उनके कवि रूप का भी परिचय मिलता है। इस सुंदर और महत्त्वपूर्ण आलेख के लिए आपको बधाई और आभार।
ReplyDeleteमनीष जी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल के जीवन और उनकी साहित्यिक यात्रा पर सरल और सहज शैली में सिलसिलेवार जानकारियाँ उपलब्ध कराता आपका आलेख बहुत पसंद आया। एक और दमदार आलेख पटल पर लाने के लिए आपको हार्दिक बधाई और धन्यवाद। भविष्य में लेखन के लिए शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteमनीष जी नमस्ते। आपने आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी पर अच्छा लेख लिखा है। उनके बारे में जितना लिखा-पढ़ा जाय वो कम ही है। आपने उनके साहित्य सृजन का विस्तृत परिचय अपने लेख में दिया। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteनमस्कार🙏🏻आचार्य राम चंद्र शुक्ल को हिंदी साहित्य का इतिहास पढ़ते समय उनसे परिचित हुए लेकिन इस आलेख के जरिये उनके संपूर्ण जीवन वृतांत जानने को मिला। साहित्यकार तिथिवार पटल ने साहित्य के अनमोल निधियों से परिचित करवाया।आलेख का खजाना हमारे लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ और बार बार पढ़ने से आगे भी होगा। इसके लिए पटल को बहुत बहुत आभार। 🙏🏻
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