Tuesday, October 11, 2022

पं० बाबूराव विष्णु पराड़कर - हिंदी पत्रकारिता के भीष्म पितामह

"हिंदी राष्ट्र की भाषा है क्योंकि वह राष्ट्र के लिए राष्ट्र के मुँह से बोले जाने वाली भाषा है।"

हिंदी भाषा के लिए ऐसे उत्तम विचार रखने वाले हिंदी पत्रकारिता के भीष्म पितामह पं० बाबूराव विष्णु पराड़कर का जन्म १६ नवंबर १८८३ को वाराणसी के एक अहिंदी भाषी परिवार में हुआ था। उस ज़माने के प्रसिद्ध विद्वान उनके पिता पंडित विष्णु शास्त्री पराड़कर और उनकी माता अन्नपूर्णाबाई महाराष्ट्र से निकलकर वाराणसी-काशी में आकर बस गए थे। प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत में ग्रहण करने के बाद सन १९०० ई० में भागलपुर से उन्होंने मैट्रिक पास की। पढ़ाई के तुरंत बाद सन १९०३ में उनका विवाह कर दिया गया। जब वे १५ वर्ष के थे तब उनके बाबा (पिता) का निधन हो गया और २० वर्ष के होते-होते उनकी शादी हो गई। उसी वर्ष उनकी माता जी का भी देहांत हो गया। माता-पिता को खोने के बाद उनका स्वभाव बहुत ही अंतर्मुखी हो गया था। भागलपुर से शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात कुछ वर्ष तक वे भागलपुर में ही रहे और वहीं पर अध्यापन करते हुए अपनी बाकी की पढ़ाई पूरी की। इसी बीच उन्हें डाक विभाग में नौकरी मिल गई। लेकिन ब्रिटिश सरकार की सरकारी नौकरी में उनका मन नहीं लग रहा था।

जब पंडित बाबूराव २० साल के थे, तभी से अपने मामा सखाराम गणेश देउसकर के संपर्क में ज़्यादा रहने लगे। देउसकर एक क्रांतिकारी होने के साथ-साथ बांग्ला भाषा के लेखक और पत्रकार भी थे। वे बालगंगाधर तिलक के निकटतम अनुयायी थे। देउसकर ने ही पराड़कर जी का राजनीतिक संस्कार किया। मामाजी द्वारा बाल्यकाल में ही बोए गए संस्कारों के बीज अनुकूल वातावरण से पोषण पाकर एक लहलहाती समृद्ध फसल बन गए। आगे चलकर उन्हें लोकमान्य तिलक और योगी अरविंद घोष जैसे महान नेताओं के संपर्क एवं उनके दर्शन के स्वाध्याय का अवसर मिला। जिसकी वज़ह से अरविंद घोष जैसे राष्ट्रवादी क्रांतिकारियों के साथ उनका उठना-बैठना होने लगा। उनके क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने भी देश सेवा करने की ठान ली और डाक विभाग की नौकरी को अलविदा कह दिया। उसके पश्चात उन्होंने अपने जीवनयापन के लिए पत्रकारिता को चुन लिया।

पत्रकारिता की तलवार लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति के उद्देश्य को पूर्ण करने चले पराड़कर जी की घोषणा थी,

शब्दों में सामर्थ्य का भरें नया अंदाज़।

बहरे कानों को छुए अब अपनी आवाज़।


कुछ वर्ष पत्रकारिता करने के पश्चात सन १९०६ में वे 'हिंदी बंगवसी' पत्रिका के सहायक संपादक के रूप में चुने गए, जिसके लिए उन्हें कोलकाता जाना पड़ा। वहाँ काम करने के कुछ छः महीने बाद उन्हें हिदी साप्ताहिक 'हितवार्ता' के संपादन का कार्य सौंपा गया, जिसके लिए वे चार वर्ष तक कोलकाता में ही रहे। संपादकीय कार्य करते हुए उन्हें बंगाल नैशनल कॉलेज में हिंदी और मराठी विषय पढ़ाने के लिए अध्यापक के पद पर चुन लिया गया। भारतीय स्वतंत्रता का श्रेय महात्मा गाँधी को जाता है परंतु पं० पराड़कर जैसे परतंत्र भारत के पत्रकार उन नींव के पत्थरों में से हैं, जिन्होंने अपने व्यक्तिगत अस्तित्व को मिटाकर स्वतंत्रता का विशाल भवन खड़ा किया था।

बाबूराव जी की पत्रकारिता का उद्देश्य सिर्फ़ पत्रिकाओं का संपादन करना नहीं था, बल्कि क्रांतिकारी दल में सम्मिलित होकर देश की सेवा करना था। 'हिंदी बंगवासी' के संपादन का कार्यभार संभालते हुए वे स्वयं को पुलिस की नज़रों से बचाना चाहते थे। नैशनल कॉलेज में हिंदी और मराठी का अध्यापन करने की बात बंगवासी पत्रिका के प्रबंधक को अच्छी नहीं लगी इसलिए उन्होंने बाबूराव को वह काम छोड़ने की सलाह दी। परंतु बाबूराव को ही बंगवासी के माध्यम से उस समय कांग्रेस की खिल्ली उड़ाने वाले के साथ नौकरी करना उचित नहीं लगा और उन्होंने नौकरी छोड़ दी। उन्होंने सन १९०७ में 'हितवार्ता' पत्रिका के संपादक का पद संभाला। यह पत्रिका उनके अनुकूल थी क्योंकि इसमें उन्हें राजनीतिक विषयों के अलावा गंभीर समीक्षात्मक आलेख प्रस्तुत करने का भी मौका मिलता था। हितवार्ता के बाद उन्होंने 'भारतमित्र' पत्रिका का भी संपादन शुरु कर दिया था। इतनी बड़ी पत्रकारिता की ज़िम्मेदारी संभालते हुए भी वे क्रांतिकारी गतिविधियों की तरफ़ ध्यान देते रहे। पत्रकारिता उनके लिए एक ज़रिया बन गया था जिससे वे कोलकाता के चंदन नगर स्थित क्रांतिकारी दल की गुप्त समिति में भाग लेकर देश की आज़ादी के लिए अपना काम करते रहे। 'हितवार्ता' से जुड़ने और अध्यापन का काम करते हुए बाबूराव जी भारतीय छात्रों को फ्रांस और रूसी क्रांति का इतिहास बताते थे। साथ ही इस बात पर ज़ोर देते थे कि देश के युवकों पर भारत माता को स्वतंत्र कराने का भारी उत्तरदायित्व है। भारत देश गुलामी में है और उसे स्वतंत्रता दिलानी होगी। उन्होंने कॉलेज में हिंदी अध्यापन के दौरान पंडित अंबिका प्रसाद वाजपेयी को मदद के लिए अपने पास बुला लिया था।

सन १९१० में सरकार द्वारा 'हितवार्ता' का प्रकाशन बंद किए जाने के पश्चात बाबूराव और अंबिका प्रसाद ने साथ मिलकर काम करने की सोची। इन दोनों तपस्वियों ने मिलकर 'भारत मित्र' नामक पत्रिका के स्तर को और भी उन्नत किया। प्रतिदिन ४००० प्रतियाँ छपने के पश्चात भी पाठकों की अधिकतम संख्या पत्रिका पढ़ने के लिए वंचित रह जाती थी। दुर्भाग्यवश उन्हीं दिनों कलकत्ता के तत्कालीन डिप्टी पुलिस सुपरिंटेडेंट की हत्या हो गई और १ जुलाई १९१६ को क्रांतिकारी दल में कार्य करने के अपराध में पराड़कर को गिरफ्तार कर लिया गया और चार वर्ष के कारावास की सजा सुनाई गई। परंतु सबूतों के अभाव ने उन्हें सन १६२० में जेल से मुक्त कर दिया। जेल से रिहा होने के बाद भातरमित्र के तत्कालीन संपादक पं० लक्ष्मण नारायण गर्दे ने उनसे पुनः संपादन हेतु अनुरोध किया परंतु उन्होंने स्वीकार नहीं किया और अपने घर वाराणसी-काशी वापस लौट आए।

राष्ट्रीयता की अलख जगाने हेतु उसी वर्ष शिवराम प्रसाद गुप्त ने एक हिंदी समाचार पत्र 'आज' का प्रकाशन शुरू किया था। गुप्त जी ने पराड़कर जी को उसका संपादकीय कार्यभार संभालने के लिए नियुक्त किया। कुछ महीने बाद उनकी गुप्त जी से नहीं बनी और बाबूराव जी ने वह समाचार पत्र छोड़ दिया। उसके पश्चात वे 'संसार' नामक अख़बार से जुड़ गए। शिवराम प्रसाद गुप्त जी को आत्मग्लानि हुई और बाबूराव को समझा-बुझा कर फिर से उन्हें 'आज' समाचार पत्र के संपादक की जिम्मेदारी सौंपी गई, जो उन्होंने तब से लेकर अपने अंतिम समय तक पूरी ईमानदारी  से निभाई। इसी बीच कई बार 'आज' समाचार पत्र के साथ संबंध टूटने के बावजूद इनके पत्रकार जीवन के अधिकांश समय 'आज' में ही बीता।

पराड़कर जी की मान्यता रही है कि संपादन के लिए साहित्य, भाषा, विज्ञान, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र तथा अंतरर्राष्ट्रीय विधानों का सामान्य ज्ञान होना अनिवार्य है। वे कहते थे कि किसी भी समाचार पत्र के मुख्यतः दो धर्म होते हैं- एक तो समाज का चित्र खींचना और दूसरा सदुपदेश देना। पराड़कर के अनुसार देश की सेवा करने के लिए शिक्षा में ऊँचे चरित्रों और ऊँचे आदर्शों के अध्यापन हेतु धर्म को स्थान देना चाहिए। देश की सच्ची सेवा ऐसी ही शिक्षा के द्वारा की जा सकती है। भविष्यदृष्टा की भाँति पत्रकारिता के क्षेत्र में पराड़कर जी ने संपादकों को संबोधित करते हुए कहा कि परमेश्वर ने आपको जो बड़ा पद दिया है उसका सदुपयोग कीजिए और समाज को सदा उन्नत करते रहना अपना धर्म समझिए। 'आज' समाचार-पत्र का कलेवर इतना प्रभावशाली था कि पत्र के मुखपृष्ठ पर रामचरितमानस की चौपाई की यह अर्द्धाली छपती थी "पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।"

पराड़कर जी मानते थे कि पत्रकारिता को प्रगतिशीलता का वाहक होना चाहिए और पत्रकार को प्रगतिशील। वे कहते थे कि समाचार लिखते समय पत्रकार को अपने विचार व्यक्त करने के लिए पत्र में अलग-अलग पृष्ठ रखने चाहिए। इसकी शुरुआत उन्होंने अपने 'आज' समाचार पत्र से की और यह प्रथा वर्तमान में भी चल रही है।

भारत की आजादी के आंदोलन में पराड़कर जी की पत्रकारिता एक तलवार का काम किया करती थी। उनकी पत्रकारिता ही उनकी क्रांतिकारिता थी। वे एक जेब में पिस्तौल तो दूसरी में 'गुप्त रण-भेदी' रखा करते थे। मुफलिसी में सारा जीवनयापन करने वाले जुझारू तेवर की लेखनी के धनी पराड़कर जी ने आजादी के बाद भी देश की आर्थिक गुलामी के खिलाफ धारदार लेखनी चलाई। सन १९४३ से १९४७ तक वे 'आज' समाचार पत्र से हट कर काशी के ही दैनिक 'संसार' अख़बार पत्र के संपादक पद पर रहे। सन १९३१ में हिंदी साहित्य सम्मेलन के शिमला अधिवेशन के सभापति चुने गए। सम्मेलन में उन्हें 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधि से विभूषित किया गया। सन १९०४ में सखाराम गणेश देउसकर द्वारा लिखित बांग्ला भाषा की 'देशेर कथा' का हिंदी अनुवाद 'देश की बात' शीर्षक से सन १९०८ में बाबूराव पराड़कर ने किया। यह मुंबई से प्रकाशित हुआ और फिर इसका विस्तारित संस्करण १९१० में पुनः कलकत्ता से प्रकाशित किया गया। यह ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी में जकड़ी भारतीय जनता की चित्कार का एक अनूठा दस्तावेज़ है। अँग्रेज़ सरकार ने १९१० में इस पुस्तक पर प्रतिबंद लगा दिया था। भारतीय अर्थव्यवस्था को तबाह करने के लिए कृषि व्यवस्था, कारीगरी और उद्योग-धंधों को तहस-नहस करने और भारतीय नागरिकों के लिए अवमानना भरी टिपण्णियों का प्रयोग करने की घटनाओं का प्रामाणिक चित्र इस पुस्तक में ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया गया है। इस अनुवाद के दौरान पराड़कर जी ने हिंदी भाषा को सैकड़ों नए शब्द भी दिए। पराड़कर जी ने ही संसद, संविधान, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा जैसे शब्दों को हिंदी के शब्द कोश में जोड़ा। 

पत्रकारिता को राष्ट्रीय जागरण, स्वाधीनता संग्राम तथा स्वातंत्र्योत्तर भारत के नवनिर्माण में महत्त्वपूर्ण स्तंभ का रूप देनेवाले पं० बाबूराव विष्णु पराड़कर ने दैनिक 'आज' के प्रवेशांक में सबसे पहले यह प्रकाशित किया था, "हमारा उद्देश्य अपने देश के लिए सर्व प्रकार से स्वातंत्र्य-उपार्जन है। हम हर बात में स्वतंत्र होना चाहते हैं। हमारा लक्ष्य है कि हम अपने देश के गौरव को बढ़ाने के साथ-साथ अपने देशवासियों में स्वाभिमान का संचार करें और उनको ऐसा बनाए कि भारतीय होने का उन्हें अभिमान हो किसी प्रकार का संकोच न हो और यह अभिमान सिर्फ़ स्वतंत्रता देवी की उपासना करने से मिलता है।"

बाबूराव जी के पौत्र आलोक पराड़कर भी एक जाने माने सुप्रसिद्ध पत्रकार हैं। उन्होंने वाराणसी में 'आज' और 'हिंदुस्तान' तथा लखनऊ में 'दैनिक जागरण', 'हिंदुस्तान' और 'अमर उजाला' समाचार पत्रों में कार्य किया है। वे त्रैमासिक पत्रिका 'नादरंग' के संपादक भी रहे। 


पराड़कर जी सन १९२५ में वृंदावन साहित्य सम्मेलन के अवसर पर आयोजित प्रथम संपादक सम्मेलन के सभापति बनाए गए थे। इस अवसर पर उन्होंने हिंदी पत्रकारिता के भविष्य की रूपरेखा प्रस्तुत की थी। वे सन १९३८ में हिंदी साहित्य सम्मेलन के सत्ताईसवें अधिवेशन के सभापति चुने गए थे। सन १९५३ में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा ने इन्हें हिंदी सेवा के लिए 'महात्मा गाँधी पुरस्कार' से सम्मानित किया था। १४ सितंबर १९८४ में  पं० बाबूराव पराड़कर के सम्मान में भारतीय डाक विभाग ने एक डाक टिकट भी निकाला है।

एक सफल राष्ट्रीय पत्रकार के दायित्व का सफल निर्वहन करने वाले बाबूराव पराड़कर के 'चरखे का संदेशा', 'समस्या और समाधान', 'महात्मा गाँधी की पुकार' और 'क्रांतिकारियों की फाँसी' आदि कुछ अग्रलेख लोकप्रिय लेखों में से हैं। 'चरखे का संदेशा' में पराड़कर जी ने चरखा, एकता और अछूतोद्धार का संदेश घर-घर पहुँचाने प्रख्यापन किया है। उनका विश्वास था कि यदि हम अन्न और वस्त्र के मामले में स्वतंत्र हो जाएँ तो स्वराज्य हासिल करने में कोई संदेह नहीं रहेगा। 'महात्मा गाँधी की पुकार' में महात्मा गाँधी के मार्मिक भाषणों का उदाहरण देते हुए पंडित जी ने भारत की ज़िंदादिली और गाँधी जैसे नेता के नेतृत्व को ईश्वर की कृपा का परिचायक बतलाया है। 'क्रांतिकारियों की फाँसी' में पराड़कर जी ने निरंकुश अँग्रेज़ी साम्राज्य को निर्भीकता से चुनौती देने की क्षमता सहज ढंग से प्रस्तुत की है। सन १९३० से १९३१ तक अपने समाचार पत्रों में संपादकीय स्थल को खाली रख कर उस पर सिर्फ़ उनका यही वाक्य होता था, "देश की दरिद्रता, विदेश जानेवाली लक्ष्मी, सिर पर बरसानेवाली लाठियाँ, देशभक्तों से भरनेवाले कारागार– इन सबको देखकर प्रत्येक देशभक्त के हृदय में जो अहिंसामूलक विचार उत्पन्न हों, वही संपादकीय विचार है।"

हिंदी के मूर्धन्य पत्रकार बाबूराव विष्णु पराड़कर का देहांत १२ जनवरी १९५५ में वाराणसी में हुआ। मराठी भाषी होते हुए भी हिंदी भाषा और साहित्य के इस सेवक की जीवन यात्रा साहित्यिक जगत में अविस्मरणीय है।

संपादकाचार्य बाबूराव विष्णुराव पराड़कर ने भविष्य में पत्रकारिता में बाजारवाद, नैतिकता के अभाव और पत्रकारों की स्वतंत्रता के बारे में कहा था, "पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े-बड़े धनियों अथवा सुसंगठित कंपनियों के लिए ही संभव होगा। पत्र सर्वांग सुंदर होंगे। आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पना होगी, गंभीर गवेषणा की झलक होगी, ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब कुछ होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त अथवा मानवता के उपासक महाप्राण संपादकों की नीति न होगी- इन गुणों से संपन्न लेखक विकृत मस्तिष्क समझे जाऐंगे, संपादक की कुर्सी तक उनकी पहुँच भी न होगी। वेतनभोगी संपादक मालिक का काम करेंगे और बड़ी खूबी के साथ करेंगे। वे हम लोगों से अच्छे होंगे। पर आज भी हमें जो स्वतंत्रता प्राप्त है वह उन्हें न होगी। वस्तुतः पत्रों के जीवन में यही समय बहुमूल्य है।"

पं० बाबूराव विष्णु पराड़कर : जीवन परिचय

जन्म

१६ नंवबर १८८३, वाराणसी, उत्तर प्रदेश

निधन 

१२ जनवरी १९५५

माता

श्रीमती अन्नपूर्णा पराड़कर

पिता 

श्री विष्णु शास्त्री पराड़कर 

व्यवसाय

लेखक, पत्रकार, अध्यापक

साहित्यिक रचनाएँ

विशिष्ट अग्रलेख  

  • चरखे का संदेशा 

  • समस्या और समाधान

  • महात्मा गाँधी की पुकार

  • क्रांतिकारियों की फाँसी


अनुवाद

  • गीता की हिंदी टीका 

  • प्रख्यात बांग्ला पुस्तक 'देशेर कथा' का हिंदी अनुवाद 'देश की बात'

संपादन

  • हिंदी बंगवासी पत्रिका 
  • हितवार्ता पत्रिका

  • भारतमित्र पत्रिका

  • आज समाचार पत्र

  • संसार समाचार पत्र

पुरस्कार व सम्मान


  • १९२५ - वृंदावन साहित्य सम्मेलन - सभापति 

  • १९३१ - साहित्य वाचस्पति सम्मान 

  • १९३१ - हिंदी साहित्य सम्मेलन शिमला अधिवेशन - सभापति

  • १९३८ - हिंदी साहित्य सम्मेलन सत्ताईसवें अधिवेशन - सभापति

  • १९५३ - राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा - महात्मा गाँधी पुरस्कार

  • १९८४ में भारतीय डाक टिकट

 

संदर्भ

 

लेखक परिचय

सूर्यकांत सुतार 'सूर्या'

दार-ए-सलाम, तंजानिया

साहित्य से बरसों से जुड़े होने के साथ-साथ कई समाचार पत्रों, पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में इनके लेख, कविता, ग़ज़ल, कहानियाँ आदि प्रकाशित हुए हैं। 

चलभाष : +२५५ ७१२ ४९१ ७७७

ईमेल : surya.4675@gmail.com

3 comments:

  1. सूर्या जी नमस्ते। आपने बाबूराव विष्णु पराड़कर जी पर अच्छा लेख लिखा। आपके लेख के माध्यम से उनके जीवन एवं सृजन के बारे में विस्तृत जानकारी मिली। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  2. सूर्या जी, बाबूराव विष्णु पराड़कर जी को नमन। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को आपकी कलम से जानकर बहुत अच्छा लगा। स्वतंत्रता की हमारी राह लम्बी रही, विभिन्न विलक्षण विभूतियों ने अपने कार्यों द्वारा उसमें आहुति दी, पराड़कर जी के अद्भुत योगदान के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा। आपको इस लेख की साभार बधाई

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  3. सूर्या जी, बाबूराव विष्णु पराड़कर के जीवन और पत्रकारिता पर सिलसिलेवार जानकारी देते संतुलित आलेख के लिए आपको हार्दिक बधाई और धन्यवाद। हिंदी के प्रति आपका समर्पण बहुत प्रशंसनीय है।

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