काहे रे बन खोजन जाई॥
सरब निवासी सदा अलेपा तोही संगि समाई॥१॥रहाउ॥
पुहप मधि जिउ बासु बसतु है मुकर माहि जैसे छाई॥
तैसे ही हरि बसे निरंतरि घट ही खोजहु भाई॥१॥
बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआनु बताई॥
जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई॥२॥
(राग धनासरी, अंग ६८४)
(तू क्यों उसे वन में खोजने जा रहा है? वह तो सर्वत्र है, सदा अलेप रहते हुए भी तेरे संग समाया हुआ है। जैसे पुष्प में सुगंध बसती है और दर्पण में छाया, वैसे ही हरि निरंतर तेरे हृदय में बसे हुए हैं, वहीं खोज ले। बाहर-भीतर सब एक ही जानो, यह ज्ञान मुझे गुरु ने दिया है। नानक का कथन है कि स्वयं को पहचाने बिना भ्रम की काई नहीं मिटती।)
इतने सरल शब्दों में ब्रह्म का गहरा परिचय देने वाले यह महान तपस्वी गुरु तेग़ बहादुर हैं जिनके बारे में औरंगज़ेब के अत्याचार के विरुद्ध धर्म की रक्षा करने के कारण कहा गया,
"तेग़ बहादर, हिंद की चादर"
गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म २१ अप्रैल, १६२१ को अमृतसर में हुआ। आप सिखों के छठे गुरु हरगोबिंद साहब के सुपुत्र थे। आपका जन्म का नाम त्यागमल था। आपको गुरुमुखी, हिंदी, संस्कृत और भारतीय आध्यात्म एवं दर्शन की शिक्षा प्रसिद्ध सिख विद्वान भाई गुरदास ने दी। घुड़सवारी और तीरंदाज़ी की शिक्षा वरिष्ठतम सिख बाबा बुड्ढा जी ने दी। १६३५ में करतारपुर की लड़ाई हुई थी जिसमें मुग़लों ने पैंदा खान के नेतृत्व में करतारपुर पर हमला कर दिया था। हरगोबिंद साहब के नेतृत्व में लड़ी सिख सेना ने हमलावर मुग़ल सेना को मार भगाया। उस लड़ाई में अल्पायु में ही आपने युद्ध कला के अद्भुत जौहर दिखाए और हरगोबिंद साहब ने ख़ुश होकर आपको तेग़ बहादुर का नाम दिया। यह गुरु तेग़ बहादुर जी द्वारा लड़ा गया एकमात्र युद्ध था। इसके पश्चात आपका अधिकांश जीवन ध्यान और तपस्या में ही बीता।
इसी गहन तप और ध्यान ने गुरु तेग़ बहादुर जी को न केवल आत्म-प्रकाश देकर ब्रह्म से एकाकार कर दिया अपितु वैराग्य भाव का शिरोमणि कवि भी बना दिया। तप और ज्ञान व्यक्ति को मानवीय श्रेष्ठता के उच्च्तम शिखर पर विराजमान कर देते हैं लेकिन यहीं पहुँचकर उस महापुरुष की अंतिम परीक्षा होती है, दंभ और अहंकार से मुक्ति की। उस उच्च्तम शिखर पर बैठकर भी स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ न समझना बड़ा कठिन हो जाता है। लेकिन इस कठिन कार्य को सरल, निर्मल स्वरूप दे देती है भक्ति और स्वेच्छा से स्वयं को शून्य कर ब्रह्म के समक्ष किया गया पूर्ण समर्पण। इसके बाद जो अमृत धारा बहती है, वह है गुरु तेग़ बहादुर जी का काव्य।
यदि एक सामान्य ज्ञान रखने वाले व्यक्ति को गीता का गूढ़ ज्ञान सरलतम शब्दों में सहज भाव से ग्रहण करना हो तो उसे गुरु तेग़ बहादुर जी का काव्य पढ़ना चाहिए। एक उदाहरण देखिए,
जो नर दुख मै दुखु नहीं मानै॥
सुख सनेहु अरु भै नही जा कै कंचन माटी मानै॥१।रहाउ॥
नह निंदिआ नह उसतति जा कै लोभु मोहु अभिमाना॥
हरख सोग ते रहै निआरौ नाहि मान अपमाना॥१॥
आसा मनसा सगल तिआगै जग ते रहै निरासा॥
कामु क्रोधु जिह परसै नाहनि तिह घटि ब्रहमु निवासा॥२॥
गुर किरपा जिह नर कउ कीनी तिह इह जुगति पछानी॥
नानक लीन भइओ गोबिंद सिउ जिउ पानी संगि पानी॥३॥११॥
(राग सोरठ, अंग ६३३)
(जो व्यक्ति उसे दुख नहीं मानता जिसे संसार दुख कहता है; जिसे सुख, स्नेह और भय प्रभावित नहीं करते; जिस पर न निंदा का प्रभाव पड़ता है, न स्तुति का, न ही लोभ, मोह या अभिमान का; जो हर्ष, शोक से असंपृक्त रहता है, और मान-अपमान से भी। जो अपेक्षा और इच्छा का त्याग कर चुका है और जगत से अपेक्षाहीन रहता है; जिसे काम और क्रोध व्यापते नहीं; ऐसे व्यक्ति के हृदय में ब्रह्म का निवास है। जिस व्यक्ति पर गुरु की कृपा हो, उसे यह युक्ति समझ आ जाती है। नानक का कथन है कि ऐसा व्यक्ति प्रभु से यूँ मिल जाता है जैसे पानी के साथ पानी मिल जाता है)
ऊपर से देखने पर लगता है कि ऐसा व्यक्ति तो जीवन को ही त्याग चुका है। लेकिन गुरु तेग़ बहादुर जी ने ऐसा जीवन प्रत्यक्ष जीकर दिखाया। गृहस्थ जीवन भी जिया, समाज और देश के हित में भी काम किया और सत्य-धर्म की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। निर्लिप्त भाव से कर्त्तव्य का निर्वाह करने वाला व्यक्ति स्वयं तो आत्म-प्रकाश को प्राप्त करता ही है, आने वाली पीढ़ियों में करोड़ों लोगों के लिए प्रकाश-स्तंभ बन जाता है।
श्री गुरु ग्रंथ साहब में गुरु तेग बहादुर जी द्वारा रचित १५ रागों में ५९ सबद और ५७ श्लोक (दोहा शैली में) प्रकाशित हैं। इनमें एक श्लोक गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा रचित माना जाता है। वैराग्य शिरोमणि ने अपने सरल काव्यामृत में मन को संबोधित कर सही आचरण करने को बार-बार सचेत किया है।
बिरथा कहउ कौन सिउ मन की॥
लोभि ग्रसिओ दस हू दिस धावत आसा लागिओ धन की॥१॥रहाउ॥
सुख कै हेति बहुतु दुखु पावत सेव करत जन जन की॥
दुआरहि दुआरि सुआन जिउ डोलत नह सुध राम भजन की॥१॥
मानस जनम अकारथ खोवत लाज न लोक हसन की॥
नानक हरि जसु किउ नही गावत कुमति बिनासै तन की॥२॥१॥२३३॥
(राग आसा, अंग ४११)
(मन की स्थिति का क्या बयान करूँ? धन एकत्रित करने की आशा में, लोभ से ग्रस्त यह दसों दिशाओं में भागता है। सुख के हेतु बहुत दुख झेलता है और हर व्यक्ति की सेवा करता है। द्वार-द्वार कुत्ते की तरह भटकता है लेकिन प्रभु के नाम की सुध नहीं लेता। यह मानव जन्म यूँ ही निरर्थक निकल जाता है और इसे लोक-हास्य का विषय बनने पर भी लाज नहीं आती। नानक का कहना है कि प्रभु का यशगान क्यों नहीं करता जिससे इस तन से कुमति दूर हो जाए।)
यह मन नैक न कहिओ करै॥
सीख सिखाइ रहिओ अपनी सी दुरमति ते न टरै॥१॥ रहाउ॥
मदि माइआ कै भइओ बावरो हरि जस नहि उचरै॥
करि परपंच जगत कौ डरकै अपनो उदर भरै॥१॥
सुआन पूछ जिउ होइ न सूधौ कहिओ न कान धरै॥
कहु नानक भजु राम नाम नित जा ते काजु सरै॥२॥१॥
(राग देवगंधारी, अंग ५३६)
(यह मन मेरा कहा हुआ रत्ती भर भी नहीं करता। मैं इसे अपनी तरफ़ से बहुत शिक्षा दे रहा हूँ पर यह है कि दुर्बुद्धि से टलता ही नहीं। यह माया के नशे में बावरा हो गया है और हरि नाम का यशगान नहीं करता। तरह-तरह के प्रपंच कर जगत को ठगता है और उससे अपन पेट भरता है। कुत्ते की दुम की तरह यह कभी सीधा नहीं होता और मेरे सदुपदेश को सुनता ही नहीं। नानक का कहना है कि नित्य-प्रति प्रभु का नाम भजने से तेरे मानव जीवन को सफ़ल करने वाला सारा काम हो जाएगा।)
कहने का भाव यह कि पूरा ज़ोर मन को साधना में लगाने पर है। सारा ध्यान, जप-तप इसलिए कि यह मन मनुष्य के नियंत्रण में आ जाए, उसकी सद्बुद्धि के आदेश का पालन करे। उसका सेवक बने, स्वामी नहीं। यदि व्यक्ति इसके नियंत्रण में रहा तो यह तो बंदर की तरह रोज़ ऊपर-नीचे नाच-नाचकर उत्पात मचाएगा और उसके लिए दुख और अशांति का कारण बन जाएगा। इससे पहले कि यह दिशाहीन भटकाव में डाल दे, बेहतर है कि वह इसे स्वामीभक्त घोड़े की तरह साधकर लक्ष्य प्राप्ति की ओर ले चले।
इस प्रकार मन को साधकर अनुशासित करने की बात गुरु जी ने केवल कही ही नहीं अपितु उस राह पर कदम-कदम चलकर दिखा दिया। यह ऐसे निराले सिख गुरु हुए जिन्हें सिक्खों ने खोजा। हुआ यूँ कि १६४४ में अपने पिता के आदेश पर आप पैतृक गाँव बकाला में आकर बस गए। वहाँ घर के एक छोटे से कमरे में हर समय प्रभु के नाम में ध्यान-मग्न रहते। जप-तप में इतने मगन कि कई बार भोजन की सुध नहीं रहती। कमरे के बाहर जो भोजन की थाली रखी जाती, वह दिनों तक अनछुई ही पड़ी रह जाती। स्थानीय सिख संगत चाव से गुरु-पुत्र की सेवा करना चाहती मगर तपस्वी को न तो सेवा करवाने की चाह, न गुरु बनने की आकांक्षा। ऐसे ही २० वर्षों से ऊपर बीत गए। आज उस तप-स्थल पर भव्य बाबा बकाला गुरुद्वारा है।
जब आठवें गुरु हरिकृशन जी चेचक के रोगियों की सेवा करते-करते स्वयं चेचक से ग्रस्त हो गए और उनके देह त्यागने से पहले सिक्खों ने पूछा कि उनके बाद गुरु कौन बनेगा तो उन्होंने कहा- बाबा बकाले। यह सुनकर गुरु पद की लालसा में ढोंगी और पाखंडी लोग बाबा बकाला की ओर दौड़ पड़े। शीघ्र ही वहाँ २२ गुरु अपने-अपने आसन लगा कर बैठ गए और हर व्यक्ति यह दावा करने लगा कि वही सच्चा नवां गुरु है।
मक्खन शाह लबाना एक बड़े धनाढ्य और प्रतिष्ठित व्यापरी थे। इनके जहाज़ गुजरात के बंदरगाहों से माल लेकर मध्य-पूर्व में खाड़ी के देशों में जाते और वहाँ से माल लेकर भारत लौट आते। मक्खन शाह की गुरु नानक में और उनके चलाए पंथ में बड़ी श्रद्धा थी और वे सक्रिय होकर सिख समुदाय की गतिविधियों में भाग लेते थे। १६६४ में जब वे अपने जहाज़ पर माल लेकर मध्य पूर्व से लौट रहे थे तो खंबात की खाड़ी के पास उनका जहाज़ भयंकर तूफ़ान में फँस गया। नाविकों ने लंगर डाल जहाज़ को स्थिर करने का प्रयास किया लेकिन तूफ़ान का प्रकोप बढ़ता ही गया। जब पानी जहाज़ पर आने लगा और मक्खन शाह झटका खाकर घुटनों पर गिर पड़े तो उन्हें गुरु नानक की याद आई। उन्होंने हाथ जोड़कर अरदास की कि बाबा नानक उनकी और उनके नाविकों की, जहाज़ की, माल-असबाब की रक्षा करें। गुरु नानक के दर पर तो लंगर और समाज की सेवा के अनेक कार्य होते हैं। सकुशल लौटने पर गुरु नानक की गद्दी पर बैठे गुरु के चरणों में नेक कार्य के लिए ५०० स्वर्ण मुद्राएँ (दीनार) भेंट करेंगे। कुछ देर में तूफ़ान शांत हो गया और मक्खन शाह अपने काफ़िले के साथ सुरक्षित घर पहुँच गए। उन्हें अपना वादा याद था। सिक्खों से पता चला कि नवें गुरु बाबा बकाला में मिलेंगे। वे अपने घुड़सवार काफ़िले के साथ बाबा बकाला पहुँचे। वहाँ २२ नकली गुरुओं को देख कर वह असमंजस में पड़ गए। लेकिन मक्खन शाह बहुत चतुर और अनुभवी व्यापारी थे। वे हर नकली गुरु के सामने जाकर २ स्वर्ण मुद्राएँ भेंट करते गए। हर नकली गुरु ने उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा कि उनकी सब मनोकामनाएँ पूरी होंगी। वे बड़े निराश हो गए। गुरु नानक के सच्चे उत्तराधिकारी को कैसे खोजें? जब सच्चे गुरु को खोजने के बारे में लोगों से चर्चा की तो एक बुज़ुर्ग सिख ने उनसे कहा, वहाँ उस घर में एक तपस्वी भी बैठे हैं, गुरु पद का कोई दावा नहीं करते। इतना प्रयास किया है तो उनके भी दर्शन कर प्रयास कर लो। मक्खन शाह ने गुरु तेग़ बहादुर जी के सामने मत्था टेका, गुरु जी ने आहट सुन आँखें खोलीं, मक्खन शाह ने दो स्वर्ण मुद्राएँ भेंट कीं। गुरु जी ने मुस्कुराकर कहा, गुरु को सिख से कुछ नहीं चाहिए लेकिन सिख को अपने वादे का पक्का होना चाहिए। वादा ५०० मोहरों का और भेंट में २ मोहरें? मक्खन शाह की बाँछें खिल उठीं। वे दीवानों की तरह दौड़ कर छत पर चढ़ गए और सारे शहर को ऊँची आवाज़ में कहा, "गुरु लाधो रे! गुरु लाधो रे! (गुरु मिल गया। गुरु मिल गया।" मक्खन शाह की मातृभाषा लबंकी थी जो पंजाब और राजस्थान में लबाना कबीले द्वारा बोली जाती थी।
पश्चिमी इतिहासकार जो आध्यात्मिक शक्तियों को नहीं मानते, उनके द्वारा इस घटना का विवरण यह है कि मक्खन शाह ने अपने अनुभव और चतुराई से बातचीत कर यह समझ लिया कि २२ गुरु नकली हैं और उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है। गुरु तेग़ बहादुर जी से वैचारिक आदान-प्रदान होने पर सिख समझ गया कि वही सच्चे गुरु हैं। पाठक अपने-अपने विवेक और श्रद्धा के आधार पर इस घटना का आकलन कर सकते हैं। इस बात पर सभी इतिहासकार सहमत हैं कि मक्खन शाह एक बड़े काफ़िले के साथ बाबा बकाला आए थे और उन्होंने गुरु तेग़ बहादुर जी को पहचान कर उनके सच्चे गुरु होने की घोषणा की थी। पाठक ध्यान दें कि इस घटना का सिख इतिहास पर गहरा प्रभाव पड़ा। यही कारण था कि गुरु गोबिंद सिंह जी ने आदेश दिया कि उनके बाद श्री गुरु ग्रंथ साहब को ही एकमात्र गुरु माना जाए। उसके बाद खालसा पंथ किसी देहधारी को गुरु के रूप में स्वीकार नहीं करता। यदि कोई व्यक्ति सिख गुरु होने का दावा करता है तो सिख समुदाय उसे लोभी और पाखंडी मानता है और उसका पुरज़ोर विरोध करता है।
गुरु तेग़ बहादुर जी की जगत-प्रसिद्ध वैराग्यमयी रचना है, सलोक महला ९। इसमें ५७ श्लोक हैं जो मानव मन को सचेत करते हैं कि इस संसार की प्रकृति ही अस्थाई है, मनुष्य व्यर्थ ही सुख-दुख की माया में उलझा रहता है, केवल प्रभु का नाम सुनिश्चित है और उसे आधार बनाने वाला सभी बंधनों से मुक्त हो परम आनंद का अनुभव करता है। यह रचना गुरु ग्रंथ साहब के अंग १४२६ से १४२९ पर प्रकाशित है। कुछ श्लोक यहाँ प्रस्तुत हैं,
धनु दारा संपति सगल जिनि अपुनि करि मानि॥
इन मै कछु संगी नहीं नानक साची जानि॥५॥
भै काहू कउ देत नहि नहि भै मानत आन॥
कहु नानक सुनि रे मना गिआनी ताहि बखानि॥१६॥
जैसे जल ते बुदबुदा उपजै बिनसै नीत॥
जग रचना तैसे रची कहु नानक सुन मीत॥२५॥
जउ सुख कउ चाहै सदा शरनि राम की लेह॥
कहु नानक सुनि रे मना दुरलभ मानुख देह॥२७॥
जो प्रानी निसि दिनु भजै रूप राम तिह जानु॥
हरि जन हरि अंतरु नही नानक साची मानु॥२९॥
बाल जुआनी अरु बिरधि फुनि तीनि अवसथा जानि॥
कहु नानक हरि भजन बिनु बिरथा सभ ही मानु॥३५॥
सुआमी को गृहु जिउ सदा सुआन तजत नही नित॥
नानक इह बिधि हरि भजउ इक मन हुइ इकि चिति॥४५॥
तीरथ बरतु अरु दान करि मन मै धरै गुमानु॥
नानक निहफल जात तिह जिउ कुंचर इसनानु॥४६॥
जो उपजिओ सो बिनसि है परौ आजु कै कालि॥
नानक हरि गुन गाइ ले छाडि सगल जंजाल॥५२॥
१६७५ में पंडित कृपाराम के नेतृत्व में कश्मीरी पंडितों का जत्था गुरु तेग़ बहदुर जी की शरण में उपस्थित हुआ और उनसे प्रार्थना की कि औरंगज़ेब के आदेश पर इफ़्तिखार खान द्वारा ज़बरन धर्म परिवर्तन से उन्हें बचाएँ। इफ़्तिखार खान का सीधा आदेश था कि या तो इस्लाम स्वीकार करो या मृत्यु। गुरु गहन सोच में डूब गए, फिर बोले, इस कार्य के लिए किसी संत, आध्यात्मिक पुरुष को अपनी बलिदानी देनी होगी। ९ वर्षीय गोबिंद बोले, "आपसे बेहतर बलिदानी कौन हो सकता है?" पिता ने पुत्र को गले लगाया, गुरु घोषित किया और अपने चुनिंदा शिष्यों के साथ चल दिए दिल्ली औरंगज़ेब से मिलने।
२४ नवंबर १६७५ को इस महान संत ने सत्य और धर्म की रक्षा के लिए चांदनी चौक में शहादत दी। इस ऐतिहासिक घटना की स्मृति में उसी स्थान पर प्रसिद्ध शीशगंज साहब गुरुद्वारा है।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस शहादत पर कहा है,
ठीकरि फोरि दिलीस सिरि प्रभ पुर कीया पयान॥
तेग बहादर सी कृआ करी न किन हूं आन॥१५॥
तेग बहादर के चलत भयो जगत को शोक
है है है सब जग भयो जै जै जै सुर लोक॥१६॥
(बचित्तर नाटक, अंग ५४)
उपरोक्त पंक्तियों के भावार्थ में कुछ सिख विद्वानों ने बड़ी सुंदर बात कही है,
'है है है' का अर्थ यहाँ हाहाकार नहीं लेना चाहिए। कवि ने कहा है कि जगत में यह प्रश्न खड़ा हो गया था कि क्या कोई इस संसार में है जो औरंगज़ेब की नृशंस शक्ति, न रोके जा सकने वाले अत्याचार के सामने स्वाभिमान से खड़ा हो सके? कह सके, औरंगज़ेब मैं तेरी तलवार से नहीं डरता। मैं सत्य और धर्म की रक्षा में इस शरीर के नष्ट होने से भयभीत नहीं हूँ और तेरी सारी शक्ति सत्य के सामने पराजित है। जब गुरु तेग़ बहादुर ने निर्भीक होकर औरंगज़ेब का सामना किया तो सारा जगत बोल उठा,
है, है, है, ऐसा मानव है इस धरती पर!
तेग बहादर के चलत भयो जगत को शोक।।
है है है सब जग भयो जै जै जै सुर लोक।।
संदर्भ
श्री गुरु ग्रंथ साहब
श्री दशम ग्रंथ साहब
फ़ाउंडर ऑफ़ द खालसा, द लाइफ़ एंड टाइम्स ऑफ़ गुरु गोबिंद सिंह - अमनदीप एस० दहिया, हेज़ हाऊस पब्लिशर्स (२०१४)
विकिपीडिया
लेखक परिचय
हरप्रीत सिंह पुरी
जिस गुरु को अपना सब कुछ अर्पित करने पर भी उसके उपकारों से उऋण नहीं हुआ जा सकता, उसका सिख होने के अतिरिक्त लेखक का क्या परिचय हो सकता है भला!
हरप्रीत जी, आपने अपने इस आलेख के माध्यम से गुरु तेग़ बहादुर जी के साहित्यिक और तपस्वी पहलू को सामने लाकर मेरे लिए उन्हें एकदम नए प्रकाश में प्रस्तुत किया है। मैं उनकी शहादत और बहादुरी के क़िस्सों से ही विस्मित रहती थी, अब समझ में आया कि उनके उस महान कृत्य के पीछे कितना गहरा ज्ञान और लम्बी साधना छिपी थी। आपको इस पावन आलेख के लिए आभार और बधाई।
ReplyDeleteहरप्रीत जी नमस्ते। आपने गुरु तेग बहादुर जी पर बहुत ज्ञानवर्धक लेख लिखा। आपने अनेक गुरु जनों पर लेख लिख कर हम सभी को लाभान्वित किया है। आज के लेख पर आयी सुंदर टिप्पणियों ने भी लेख को सुंदर विस्तार दिया। आपको इस भक्तिमय लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसंग्रहणीय,समादरणीय एवम अनुकरणीय लेख।अभिनंदन।गुरु कृपा बरसती रहे।
ReplyDeleteहरप्रीत जी, आपने एक सुंदर और सार्थक कहानी के रूप में संत कवि गुरु तेग़ बहादुर पर आलेख प्रस्तुत किया है। इस श्रम साध्य कार्य के लिए आपको बधाई और धन्यवाद।
ReplyDeleteनमस्कार सर, जहाँ गुरु महिमा का बखान हो तब नि:शब्द हो जाते ।उनके लिए मेरे एक भजन की पंक्ति याद आ गयी
ReplyDelete" नेति नेति कहे वेद जिन्हें, ऐसो उदार नही जग माहीं "
आपकी लेखनी ने गुरु तेग बहादुर की महिमा का बखान किया वो अद्भुत था। प्रणाम उनको और आपकी लेखनी को भी।
Wonderful article on our ninth guru....such an in-depth analysis of a lesser known aspect of his personality......Him as a literary scholar.
ReplyDelete👏🏻👏🏻👏🏻👌🏻👌🏻
अतिव सुंदर प्रस्तुति। जैसा मन वैसी सोच वैसा ही कर्म। हरप्रीत एक बार पुनः गुरु की शरण में लिखी अपनी बात के लिए नमन। your childhood friend
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