मुख पर मद्धिम मुस्कान, चेहरे पर तेज, वाणी में मधुरता और व्यक्तित्व में
चुंबकीय आकर्षण इन्हें सबका चहेता और पसंदीदा बनाता है। इनकी खिलखिलाती तस्वीरें
भी मन में हँसी के फ़व्वारे पैदा करती हैं। पारंपरिक भारतीय पोशाक इनकी शख्सियत का
एक अटूट हिस्सा है। कलम की धार ऐसी कि पाठक की आँखों के सामने चलचित्र-सा चलने लगे
– सत्तर के दशक से आज तक जिनकी लेखनी ने कभी मन को गुदगुदाया तो कभी रुलाया, कभी
प्रेम-सागर में गोते लगवाए तो कभी यथार्थ के धरातल पर मंथन को मजबूर किया। भावनाओं का ऐसा उहापोह पैदा करने वाली सुप्रसिद्ध लेखिका 'सूर्यबाला' को चंद शब्दों में समेटना आसान कार्य नहीं है। उनके विशाल रचना-संसार को अपनी समझ के धागों में पिरोकर आपके समक्ष लेकर आई हूँ। उम्मीद है यह साहित्यिक यात्रा आपको एक सुखद अनुभव देने में कामयाब होगी।
'सूर्य' का उदय
काशी की पावन धरा पर २५ अक्टूबर १९४३ का सूरज अपने संग बिटिया रानी के रूप में एक उपहार लेकर आया - सूर्यबाला। पिता वीर प्रताप सिंह श्रीवास्तव डिस्ट्रिक्ट
इंस्पेक्टर थे और माता केशर कुमारी हिंदी और उर्दू की अध्येता। माता-पिता की प्रगतिशील सोच ने उनकी संतान रत्नों - चार पुत्रियाँ और एक पुत्र को बड़े स्नेह से पाला
और सभी को उच्च-शिक्षा व अच्छे संस्कार दिए। तभी तो सभी ने एमए व पीएचडी तक की उच्च शिक्षा प्राप्त की। सूर्यबाला का लालन-पालन व शिक्षा से लेकर विवाह तक सभी संस्कार बनारस में ही संपन्न
हए। यहाँ के साहित्यिक माहौल में उनके भीतर का लेखक बचपन में ही बाहें फैलाने लगा
था। छठी कक्षा में पहली बार तुकबंदी की और मन साहित्य की ओर उन्मुख हुआ। पिता की
शेर-ओ शायरी और माँ के पुस्तक प्रेम ने किस्से-कहानियों की ओर ऐसे खींचा कि वे
स्वयं कहानियाँ गढ़ने लगीं। सूर्यबाला के साहित्य-अनुराग की यात्रा में उनकी बहन वीरबाला का
भी महत्वपूर्ण योगदान है। वीरबाला स्वयं एक प्रसिद्ध साहित्यकार रही हैं।
शिक्षा पूरी करने के बाद सूर्यबाला ने बनारस विश्वविद्यालय के एक डिग्री कॉलेज में अध्यापन कार्य आरंभ किया। एक कुलीन कायस्थ परिवार में आर० के० लाल नामक एक इंजीनियर संग उनका विवाह हुआ और उनकी दुनिया ने एक नई करवट ली। प्रेम, कर्तव्य और उत्तरदायित्वों के बीच उनके लेखक हृदय को पति का साथ मिला और उनकी कलम ने रफ़्तार पकड़ी। विवाहोपरांत कुछ वर्ष बनारस में रहने के बाद पति के साथ मुंबई आना हुआ जहाँ उनकी ख़ुशियों का आशियाना तैयार हुआ। पति के प्रोत्साहन ने घर-परिवार और बच्चों की ज़िम्मेदारियों के बीच लेखिका सूर्यबाला को भी अपने पंख फैलाने का हौसला दिया। अब वे अधिक व्यवस्थित रूप से लेखन कार्य में जुट गईं। अपनी तीनों संतानों, दो पुत्र और एक पुत्री, को उच्च शिक्षा और ऊँचे संस्कार देते हुए सूर्यबाला ने अपना लेखक धर्म भी बखूबी निभाया है। आज उनके सभी बच्चे अपने-अपने कार्य-क्षेत्र में सफल हैं और एक सुखद, संपन्न एवं संतुष्ट जीवन जी रहे हैं।
घर से किताबों का सफ़र
बचपन के शौक ने यौवन आते-आते सुगठित रचनाओं का रूप ले लिया था। सूर्यबाला की पहली कहानी 'जीजी' १९७२ में सारिका में प्रकाशित हुई और अगले वर्ष मार्च में उनका पहला व्यंग्य 'अभिजात्य' धर्मयुग में प्रकाशित हुआ। एक स्त्री की कलम से निकला व्यंग्य उस समय आकर्षण का केंद्र बन गया था। धर्मयुग से मिले प्रोत्साहन ने उनके रचनाकार व्यक्तित्व को बल दिया और वे अन्य विधाओं की ओर अग्रसर हुईं। पत्रिकाओं के लिए लेखन जारी रखते हुए १९७७ में 'मेरे संधि-पत्र' के साथ ही उनका उपन्यासों की दुनिया में पदार्पण हुआ। इसकी कथा १२ खंडों के धारावाहिक रूप में तत्कालीन लोकप्रिय पत्रिका धर्मयुग के ज़रिए घर-घर में प्रवेश कर गई और उत्तर-प्रदेश की एक नवोदित लेखिका को अखिल भारतीय पहचान मिली। अपने प्रथम प्रकाशन के चार दशक बाद २०१९ में 'मेरे संधि-पत्र' का पुनर्प्रकाशन इस बात का साक्षी है कि कथा की पृष्ठभूमि आज भी प्रासंगिक है। १९८० में अपने दूसरे उपन्यास 'सुबह के इंतज़ार तक' के बाद १९८२ में उनका व्यंग्यात्मक बाल-उपन्यास 'झगड़ा निपटारक दफ़्तर' प्रकाशित हुआ। 'मेरे संधिपत्र' के समान ही 'यामिनी-कथा', 'अग्निपंखी', 'सुबह के इंतजार तक', 'दीक्षांत' - सभी उपन्यासों को अलग-अलग पत्रिकाओं में धारावाहिक रूप से प्रकाशित किया गया। वे जितनी अच्छी कथाकार हैं, उतना ही सधा व्यंग्य भी लिखती हैं। साल-दर-साल लिखते-लिखते सूर्यबाला कथा-कहानी और उपन्यासों के साथ-साथ व्यंग्य-संसार में भी एक लोकप्रिय नाम बनकर उभरीं। उनका पाँचवाँ प्रतिनिधि व्यंग्य संग्रह 'इस हमाम में' की चर्चा करते हुए युवा लेखक राहुल देव लिखते हैं, "साहित्य सूचना नहीं है, बल्कि अनुभवों से आता है। यह बात सूर्यबाला जी पर एकदम सही बैठती है। इस संग्रह (इस हमाम में) में संग्रहित उनके व्यंग्य अनुभव की खान से निकले हुए मोती की तरह से हैं जिसे उन्होंने एक लंबी और सतत साधना से पाया है। उनकी प्रवाहपूर्ण सरल भाषा, व्यंग्यों के विषय का कथात्मक ट्रीटमेंट, तथा व्यंग्य लिखने की समझ एक आदर्श व्यंग्य लेखन का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।"
उनके व्यंग्य के कुछ नायाब उदाहरण आपकी नज़र पेश हैं,
"हिंदी साहित्य के लेखकों को दो प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है – एक, पुरस्कृत लेखक और दूसरे, अपुरस्कृत लेखक। मोटे तौर पर पुरस्कृत लेखक वे होते हैं जो गालियाँ लिखते हैं और अपुरस्कृत लेखक वे होते हैं जो गालियाँ देते हैं।... अपुरस्कृत लेखकों की भी दो श्रेणियाँ होती हैं।.... जहाँ अपुरस्कृत लेखक सिर्फ़ यह सोचकर दुखी हो लेता है कि मुझे पुरस्कार क्यों नहीं मिला, वहीं पुरस्कृत लेखक यह सोच-सोच कर अनवरत दुखी होता रहता है कि अमुक पुरस्कार मुझे इतनी देर से क्यों मिला? चार-छह या आठ साल पहले क्यों नहीं मिला? मुझे मिला तो मिला, औरों को भी क्यों मिला? उन लोगों वाले पुरस्कार भी मुझे मिल जाते तो क्या हर्ज था? उसका पुरस्कार मेरे पुरस्कार से ऊँचा कैसे?.. निष्कर्षतः अपुरस्कृत लेखकों के दुख एक, पुरस्कृतों के अनेक।" - व्यंग्य रचना 'हिंदी साहित्य की पुरस्कार परंपरा' से।
"शोधानुसार साठ का हुआ रचनाकार अचानक बहुत विनम्र हो जाता है। बोलना-चालना भी काफ़ी कम कर देता है। वह पचास के हुए लेखकों की तरह बिना बुलाए सभा-सम्मेलनों में नहीं जाता, न बात-बात पर उलझता-पलझता ही है; बल्कि पहले स्वयं को निमंत्रित करवाने की जुगाड़ बिठाता है।" - व्यंग्य रचना 'साठ के हुए लेखक' से।
"यह स्त्री विमर्श का स्वर्ण युग है और स्त्री इस विमर्श का स्वर्ण मृग।" - व्यंग्य रचना 'स्त्री विमर्श का स्वर्ण युग' से।
सहज सरल शब्दों में गंभीर बातों को व्यंग्य की चादर में लपेट कर पाठक को यथार्थ से रूबरू कराने का अद्भुत हुनर है, सूर्यबाला की लेखनी में। उनकी कहानियाँ आज के स्वच्छंद समाज के यथार्थ को बड़े ही चुटीले अंदाज़ में प्रस्तुत करती है। ये कहानियाँ उन मानवीय संस्कारों के आधार पर बुनी गई हैं जो छोटे-छोटे निजी स्वार्थ के कारण कभी अपना बहुमूल्य व्यक्तित्व खोकर बौने बन जाते हैं तो कभी मानवता की बुलंदियों को छूकर आकाश की ऊँचाई प्राप्त करते हैं। उनकी कहानियाँ संबंधों में खोखलेपन के साथ-साथ स्वार्थ की संकीर्ण दरारों को भी उजागर करता है और परंपराओं व आदर्शों के द्वंद्व के बीच वर्तमान युग की समस्यायों से जूझती नारी की मनोदशा को भी बयाँ करता है। इन कहानियों में मध्यम-वर्गीय लोगों की मनःस्थिति का एक सटीक चित्रण मिलता है जहाँ वह न तो पूरी तरह से संस्कारों से बंधा है न उन्हें त्याग ही पाता है। अब तक १५० से अधिक कहानियाँ, उपन्यास एवं व्यंग्य की सौगात देने वाली सूर्यबाला आज भी लेखन-कार्य में मशगूल हैं और अपने पाठकों के लिए निरंतर कुछ नया लिखने हेतु प्रयासरत हैं। २०१८ में प्रकाशित उनका नया उपन्यास 'कौन देश को वासी – वेणु की डायरी' इसका जीता-जागता प्रमाण है। इस पुस्तक में अपनी उधेड़बुन प्रकट करते हुए वे लिखती हैं, "क्या है मनुष्य की प्रगति और सभ्यताओं के चरम विकास की नियति? लालसाओं के चक्रवात में फँसे जब हम अपनी धरती छोड़ते हैं तो कब तक और कितनी छूट पाती है वह हमसे? अपने देश में रहते हुए हम क्यों नहीं करते हैं उसे महिमा-मंडित? ---- कहाँ, किस बिंदु पर मिलती है सुख और सुविधाओं, सच और झूठ, सफलता और असफलता की विभाजक रेखाएँ? --- कहाँ पूरी होती है जीवन की असली तलाश?"
सूर्यबाला की कलम से निकले ये सारे प्रश्न उनकी विस्तृत सोच की गहराई और परिपक्व मानसिकता का प्रमाण हैं। अपने अनुभवों के सागर को किस्से-कहानियों और पात्रों के संवादों के ज़रिए बूंद-बूंद बरसाने की अनुमप कला की स्वामिनी सूर्यबाला अपने पाठक की सभी इंद्रियों को सक्रिय कर देती हैं। शायद इसीलिए उनकी कहानियाँ आकाशवाणी तथा दूरदर्शन द्वारा अपनाकर धारावाहिकों और टेलीफिल्मों के रूप में प्रसारित होती रहीं हैं। इनमें 'पलाश के फूल', 'न किन्नी, न', 'सौदागर दुआओं के', 'एक इंद्रधनुष...', 'सबको पता है', 'रेस' तथा 'निर्वासित' प्रमुख नाम हैं।
उनकी कहानियों की विशेषता बताते हुए धीरेंद्र अस्थाना लिखते हैं, "सूर्यबाला हिंदी कहानी का सिद्धहस्त और गहन संवेदनशीलता से लबरेज़ एक चमकता हुआ नाम हैं। कहानी चाहे ग़रीब की हो, किसान की हो, मजदूर की, स्त्री पर होने वाले दमन की या घर-परिवार की, यह परकाया प्रवेश में माहिर हैं। वे हर वर्ग की कहानी को उतनी ही सहजता, संवेदना और विश्वसनीयता के साथ लिख देती हैं मानो उसी वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रही हों।--- कुल मिलाकर सूर्यबाला की कहानियों से गुज़रना अपने समय में साँस लेना है।"
सूर्यबाला पर केंद्रित किताब 'सूर्यबाला - साक्षात्कार के आईने में' में संपादक तरसेम गुजराल लिखते हैं, "घर की चारदीवारी में ही रहती हैं तो अनुभव की व्यापकता और गहराई कहाँ से आएगी? पहले अपने सामाजिक बंधन तोड़ पाएगी तभी रचना अपनाएगी; जब स्त्री है तो दोयम दर्जे की नागरिक ही है - सूर्यबाला से ये और रचना यात्रा के विभिन्न पहलुओं पर अन्य कई प्रश्नों के उत्तर माँगे गए। उन्होंने संयम, परंतु खुलेपन से अपवादों की धूल झाड़कर निर्भीक ढंग से सभी प्रश्नों के उत्तर व्यापक अध्ययन के आधार पर, गहरे अनुभव से पस्त बहुत सहजता से दिए। फतवों को दरकिनार कर अपने विवेक से निर्णय लेना मुनासिब समझा। गंभीर सरोकारों पर ध्यान दिया। यही कारण है कि उनके लेखन में द्वंद्व के बावजूद संतुलन बना रहा और समरसता का स्वर प्रमुख रहा है। उनके अनुसार स्त्री की स्वतंत्र चेता शक्ति पुरुष के व्यक्तित्व को भी समृद्ध करती है। कहानी, व्यंग्य, उपन्यास तीन-तीन पाठकीय दिलचस्पी की विधाओं को साधे रखना, बचकर निकलने का कोई बहाना न खोजना, ललकारती चुनौतियों का सामना करना, निराशा के दौर में भी एक-एक आशा की किरण संजोना सूर्यबाला का ही काम है।"
सूर्यबाला का हिंदी प्रेम किसी पुरस्कार या प्रलोभन से परे आत्मिक स्तर का है। विदेशों में रह रहे अपने बच्चों के पास वे जब कभी प्रवास पर रहती हैं, उनके बच्चे अर्थात अपने नाती-पोतों को वे हिंदी के प्रति सजग रूप से प्रेरित करती हैं। विदेश में जन्मी और वहीं पल-बढ़ रही उनकी पोती का हिंदी ज्ञान विस्मित कर देने वाला है। हिंदी लेखन के साथ-साथ हिंदी के प्रति लोगों को सजग करने और हिंदी की प्रतिष्ठा बढ़ाने में उन्हें सुख की अनुभूति होती है। हिंदी की इस अनन्य साधिका को नए-नए कीर्तिमान गढ़ने के लिए अनंत शुभकामनाएँ। उनके किस्से-कहानियों से मानवीय संवेदनाओं में स्पंदन बरकरार रहे; उनकी कलम व्यंग्य का ऐसे प्रतिमान गढ़े जो आने वाली पीढ़ियों के लिए मानक बन कर उभरे; और उनका व्यक्तित्व मानवता का सर्वोच्च स्थान पाकर शाश्वत रहे – आदरणीया सूर्यबाला को आने वाले वर्षों के लिए अनेकानेक शुभकामनाएँ।
सूर्यबाला
: संक्षिप्त परिचय |
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पूरा नाम |
डॉ० सूर्यबाला लाल |
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जन्म |
२५ अक्टूबर १९४३; मिर्ज़ापुर (वाराणसी) उत्तर
प्रदेश |
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पिता |
श्री वीर प्रसाद सिंह श्रीवास्तव |
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माता |
श्रीमती केशर कुमारी |
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सहोदर |
तीन बहनें (वीरबाला, केसर्बाला,
चंद्रबाला), एक भाई (विष्णु प्रताप श्रीवास्तव) |
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पति |
श्री आर० के० लाल |
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संतान |
दो पुत्र (अभिलाष लाल, अनुराग लाल), एक
पुत्री (दिव्या) |
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निवास |
१९७५ से अब तक मुंबई में निवास |
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शिक्षा
एवं व्यवसाय |
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प्रारंभिक शिक्षा |
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स्नातक |
आर्य महिला विद्यालय, बनारस |
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उच्च शिक्षा पीएचडी |
'रीति साहित्य' में शोध प्रपत्र, काशी हिंदू
विश्वविद्यालय, गाइड: विद्वान तथा समीक्षक डॉ० बच्चन सिंह |
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शिक्षण |
डिग्री कॉलेज, बनारस विश्वविद्यालय (एक वर्ष); पुनः एक लम्बे अंतराल के बाद कुछ काल
के लिए अध्यापन किया। |
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साहित्य-संसार |
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कहानी |
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उपन्यास |
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व्यंग्य |
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कहानी-संग्रह |
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टीवी धारावाहिक |
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पुरस्कार व सम्मान |
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संदर्भ
- मेरे संधिपत्र, सूर्यबाला
- कौन देस को वासी - वेणु की डायरी -१, सूर्यबाला
- एक स्त्री के कारनामे, सूर्यबाला
- अजगर करे न चाकरी, सूर्यबाला
- सूर्यबाला - साक्षात्कार के आईने में (लेखक : तरसेम गुजराल, २०१७)
- शिवना साहित्यिकी, अक्टूबर-दिसंबर २०१८ [वर्ष : ३, अंक : ११]
- http://www.drsuryabala.com/p/about.html
- https://www.bhartiyasahityas.com/product/suryabala-sakshatkar-ke-aaine-me/
- https://hindi.matrubharti.com/suryabala1218/stories
- http://gadyakosh.org/gk/सूर्यबाला
- https://www.prabhatbooks.com/author/suryabala.htm (चित्र)
लेखक परिचय
दीपा लाभ
विभिन्न मीडिया संस्थानों के अनुभवों के साथ पिछले १२ वर्षों से
अध्यापन कार्य से जुड़ी हैं। आप हिंदी व अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में समान रूप से सहज हैं तथा दोनों भाषाओं में
लेख व संवाद प्रकाशित करती रहती हैं। इन दिनों ‘हिंदी से प्यार है’ की सक्रिय
सदस्या हैं और ‘साहित्यकार तिथिवार’ का परिचालन कर रही हैं।
ईमेल - journalistdeepa@gmail.com;
व्हाट्सऐप - +91 8095809095
दीपा, डॉ सूर्यबाला जी पर शोधपरक आलेख उदाहरणों समेत, सहज और दिलचस्प तरीके से लिखने के लिए तुम्हें बधाई और धन्यवाद। सूर्यबाला की लम्बी उम्र और रचनात्मक सक्रियता की कामना करती हूँ। आलेख पढ़कर दिल बाग़-बाग़ हो गया।
ReplyDeleteदीपा जी नमस्ते। आपने सूर्यबाला जी पर अच्छा लेख लिखा। लेख से उनके विस्तृत सृजन को जानने का अवसर मिला। उन्होंने लगभग हर विधा में सफलता पूर्वक अपनी लेखनी का प्रभाव छोड़ा। उनका लिखा पलाश के फूल एक चर्चित धारवाहिक रहा। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteदीपा, सूर्यबाला जी के विस्तृत रचना फ़लक के अनुपम सितारों की झलक से तुमने पटल को रौशन कर दिया। सूर्यबाला जी की मधुर वाणी में कितने ही आशीर्वचनों से हमारा पटल सुशोभित रहा है और प्रेरणा प्राप्त करता रहा है।
ReplyDeleteसूर्यबाला जी को अशेष शुभकामनाओं सहित जन्मदिन की हार्दिक बधाई। तुम्हें इस आलेख के लिए भी साभार ख़ूब बधाई।