Sunday, October 2, 2022

सेनापति : ऋतु वर्णन का अजेय पथिक


संवत सत्रह सौ छ में सेइ सियापति पाय

सेनापति कविता सजी सज्‍जन सजौ सहाय।


ब्रजभाषा जिन कवियों पर गर्व कर सकती है, उनमें से एक सेनापति जी भी है। उन्‍होंने शृंगार, भक्ति, ऋतु वर्णन और श्‍लेष की चतुरंगणी सेना के सहारे कवित्त महल पर विजय प्राप्‍त की है। अंतर्साक्ष्‍यों के आधार पर उनके वंश तो का पता चलता है परंतु नाम व जन्‍म के बारे में स्‍पष्‍ट जानकारी नहीं हो पाती। सेनापति उनका उपनाम था। जन्‍म स्‍थान भी अनूप शहर (वर्तमान बुलंदशहर) अनुमानित है। परंतु स्‍पष्‍ट रूप से कोई प्रमाण नहीं मिलता है।


दीछित परसराम, दादौ है विदित नाम,

जिन कीने यज्ञ जाकी जग में बड़ाई है।

गंगाधर पिता गंगाधर की समान जाकौं,

गंगा तीर बसति अनूप जिन पाई है।।

महा जानि मानि विद्यादान हू कौं चिंतामनि,

हीरामनि दीछित तैं पाई पंडिताई है।

सेनापति सोई सीतापति के प्रसाद जाकी,

सब कवि कान दै सुनत कविताई है।।

सेनापति बहुत स्‍वाभिमानी प्रकृति के थे। यह स्‍वाभिमान उन्‍होंने अपने आराध्‍य के प्रति भी दिखाया है,

अपने करम की करि हौं ही निबहौंगो

तब हौं ही करतार, करतार तुम काहे के?


कष्‍ट के क्षणों में भी तुच्‍छ व्‍यक्तियों के सम्‍मुख याचना करना उन्‍हें स्‍वीकार नहीं था। आत्‍मसम्‍मान ही उनकी पूंजी थी। इसे दर्शाता एक पद देखिए, 

आदर के भूखे, रूखे रूख सौं अधिक रूखे,

दूखे दुरजन सौं न डारत बचन हैं।


रामरसायन के एक छंद से यह पुष्टि होती है कि मुसलमान दरबार में भी उनका अच्‍छा मान-सम्‍मान रहा। लेकिन सेनापति जी को वहाँ से भी विरक्ति हो गई। इसे बतलाता एक पद देखिए,

चारि बरदानि तजि पाई कमलेच्‍छन के

पाइक मलेच्‍छन को काहे को कहाइये।।


तत्कालीन समय में भी समाज में कुछ बुराइयाँ व्‍याप्‍त थी। तभी तो सेनापति के लिए अपने कवित्‍त की सुरक्षा एक विशेष चिंता थी। फलस्वरूप उन्‍होंने अपनी कविताएँ किसी राजा को यह कहते हुए सौंप दी,

सुनु महाजन चोरी होति चारि चरन की 

तातैं सेनापति कहै तजि करि ब्‍याज कौं।

लीजियों बचाइ ज्‍यौं चुरावै नाहि कोई सौंपी

वित्‍त की सी थाती मैं कवित्‍तन की राज कौ।।


सेनापति ने उस समय के अमीर और गरीब लोगों के रहन-सहन का वर्णन भी अपने काव्य में किया है। ग्रीष्‍म के प्रचंड प्रहार से बचने हेतु अमीर लोग अपने घरों में तहखाने बनवाते थे। इसका वर्णन निम्‍नानुसार है, 

जेठ नजिकाने सुधरत खसखाने तल

ताख तहखाने के सुधारि झारियत है।


अगहन मास की भीषण ठंड से बचने के उपायों का वर्णन, 

प्रात उठि आइबे कौं तेलहिं लगाइबे के

मलि मलि न्‍हीइबे को गरम हमाम है।

ओढ़िबे को साल, जे हिसाब हैं अनेक रंग

बैठिबे को सभा, जहाँ सूरज को धाम है। 


इसी तरह से गरीबों की दशा का वर्णन भी दृष्‍टव्‍य है,

धूम नैंने बहैं लोग आगि पर गिरे रहैं

हिय सो लगाइ रहैं नेंक सुलगाइ कै।


सेनापति राम के परम भक्‍त थे। परंतु उनकी रचनाओं में शिव, कृष्‍ण और गंगा की भक्ति संबंधी पद भी हैं। यहाँ तक कि राज दरबार से विरक्ति के बाद संपूर्ण संन्‍यासी जीवन उन्होंने वृदांवन में व्‍यतीत किया।

सेनापति चाहत है सकल जनम भरि

वृन्‍दावन की सीमा ते न बाहर निकसिबो।

राधा मन रंजन की शोभा नैन कंजन की,

माल भरे गुंजन की, कुजन कौं बसिबै।


कवित्‍त रत्‍नाकर में पाँच तरंगे हैं। पुनरावृत्ति वाले छंदों को छोड़कर कुल ३८४ छंद है। सेनापति ने शृंगार, वीर, रौद्र, भयानक और शांत रस में रचनाएँ की हैं। उन्‍होंने खुद लिखा है,

सरस अनूप रस रूप यामैं द्युति है।


सौंदर्य वर्णन में कवि ने बड़ी मौलिकता से काम लिया है। अतः बहुत सजीव वर्णन देखने को मिलता है। नायिका के बालों की सुंदरता का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं,

कालिंदी की धार निरधार है अधर, गन

अलि के धरत जा निकाई के न लेस हैं।

जीते अहिराज खंडि डासरे हैं शिखंडि घन,

इंद्रनील कीरति कराई नाहि ए सहैं।।


नायिका के बाल यमुना की धार के समान सुंदर हैं। शेषनाग और मोर का घमंड भी उसके बालों को देखकर टूट जाता है। इंद्रनील मणि की सुंदरता नायिका के बालों के सामने कुछ नहीं हैं। कामदेव भी नायिका पर आकृष्‍ट है। 

सेनापति ने वय स‍ंधि, खंडिता और मुग्‍धा नायिका का वर्णन बड़े मनोयोग से किया है। खंडिता नायिका का वर्णन करते समय शृंगार में बाघिनी तक का प्रसंग ला देते हैं,

करि डारी छाती घोर घाइन से राती-राती

मोहि धौं बतावौ कौंन भॉति छूटि आए हौ।।

कीने कौन हाल! वह बाघिनि है बाल! ताहि

कोसति हौं लाल जिन फारि-फारि खाए हौ।।


अन्‍य रीतिकालीन कवियों की भाँति सेनापति ने भी परकीया का विशेष चित्रण किया है, पर स्‍वकीया का महत्‍व कायम रखा है। 'प्रौढ़ा स्‍वाधीनपतिका' के वर्णन में स्‍वकीया की सुकुमार भावना देखने योग्‍य है, 

फूलन सौं बाल की बनाइ गुही बेनी लाल

भाल दीनी बैंदी मृगमद की असित है।

चूमि हाथ-नाथ के लगाइ रही आँखिन सौं

कही प्रानपति यह अति अनुचित है।


इनका ध्‍यान वियोग शृंगार की ओर अधिक रहा है। विरह वर्णन प्रवास हेतुक और विरह हेतुक है। कहीं-कहीं ईर्ष्‍या हेतुक वर्णन भी मिलता है। कवि ने जिन भावों का समावेश किया है, उन्‍हें सरलता और स्‍वाभाविक रूप से निभाया है। 

इतनी कहत आंसू बहत, फरकि उठी

लहर-लहर दृग बाईं ब्रज बाल की।


बांई आँख फड़कना शुभ माना जाता है, जिसका वर्णन उपरोक्‍त उदाहरण में कवि ने किया है और इसी के साथ हर्ष की व्‍यंजना भी की है। सेनापति ने विरहकाल की साधारण परिस्थितियों का ही वर्णन किया है। इस कारण यह स्‍वाभाविक होते हुए भी अपूर्ण रह गया। अलंकार प्रियता के कारण विरह वर्णन को क्षति पहुँची है। श्‍लेष उनका प्रिय अलंकार है। श्‍लेष का यह उदाहरण हिंदी साहित्‍य में ढू़ँढने से भी न मिलेगा,

नाही नाही करैं थोरी मांगे सब देन कहैं

मंगन को देखि पट देत बार-बार हैं।


उनके श्‍लेष और द्विअर्थी कवित्‍त देखते ही बनते हैं,

देखत नई है गिरि छतियाँ रहे हैं कुच

निरखी निहारि आछे मुख में रहन है।

बरसनि सोरहे नवासी एक आगरी है

मंद ही चलति भरी जीवन मदन है


उपरोक्‍त पंक्तियों का अर्थ दो पक्षों में देखा जा सकता है, 

युवा पक्ष में - देखने में नवीन है। कुच पर्वताकार हैं। मुख में दाँत हैं। निपुण है। यौवन के मद से पूर्ण है। सोलह वर्ष की है।

वृद्धा पक्ष में - देखने में झुकी हुई है। कुच गिर गए है। मुख में दाँत नहीं हैं। नब्‍बे वर्ष की है। धीरे-धीरे चलती है। यौवन का मद नहीं है।


सेनापति के बिंब अनूठे हैं। राम-रावण युद्ध के समय राम का बाण निकालना, साधना और चलाना शीघ्रता से होता है, 

काढ़त निषंग तैं न साधत सरासन मैं,

खैंचत, चलावत, न बान पेखियत है।


क्‍वांर महीने की वर्षा का बिंब देखते ही बनता है। छोटे-छोटे सफेद रंग के बादल फटिक शिला जैसे दिखाई देते है और पूरे दिगमंडल में विस्‍तृत हैं।

खंड-खंड सब दिगमंडल जलद सेत,

सेनापति मानौ सृंग फटिक पहार के।


भाव व्‍यंजना हेतु यह आवश्‍यक है कि जिस भाव का वर्णन किया जा रहा हो उससे कवि अच्‍छी तरह परिचित हो।


सेनापति मानव जीवन की सुकुमार भावनाओं की अपेक्षा उत्‍साह पूर्ण वीरोल्‍लास से अधिक अनुरक्‍त थे। उनकी इस प्रवृत्ति के दर्शन राम-कथा के वर्णन में प्राप्‍त होते है। राम-कथा की विशदता की ओर उनका ध्‍यान गया था, पर उन्होंने कुछ अंशों का ही वर्णन किया है। कवि का ध्‍यान राम, रावण और हनुमान के शौर्य तथा पराक्रम की ओर ही था, इसलिए भरत मिलाप जैसे संवेदनशील प्रसंग और शोक के सभी प्रसंगों को उन्‍होंने छोड़ दिया है। सेनापति ने युद्ध की तैयारियों का वर्णन बड़े मनोयोग से किया है। उन्‍होंने राम और रावण का समान उत्‍कर्ष दिखाकर इस वर्णन को बिलकुल सजीव कर दिया है,

इत बेद बंदी बीर बानी सौं बिरद बोलैं।

उत सिद्ध विद्याधर गाइ रिझावत हैं।

इत सुर राज उत ठाढ़े हैं असुर राज

शीश दिगपाल भुवपाल नवावत हैं।।


सेनापति राम की दानवीरता पर भी लिखते हैं, उन्‍होंने रावण की लंका विभीषण को दे दी है और विभीषण की संका रावण को दे दी है। वे राम नाम का मंत्र लेने हेतु गंगा स्‍नान कर शिव जी की शरण में जाते हैं।

बनारसी जाइ मनिकर्निका अन्‍हाइ मेरौ

संकर तैं राम-नाम पढि़बे को मन है।


सेनापति की भक्ति भावना में हृदय की तल्‍लीनता और अनुभूतियों की सच्‍चाई है। अपनी भक्ति भावना के कारण उन्‍होंने उस स्‍तर को प्राप्‍त कर लिया था, जहाँ संसारिक यातनाएँ मनुष्‍य के लिए कोई महत्‍व नहीं रखती हैं। वे कलिकाल से कहते हैं, "तू मेरा कोई अपकार नहीं कर सकता है। भगवान के दरबार में मेरी पैठ हो गई है। मुझे माता जानकी और लक्ष्‍मण जी अच्‍छी तरह पहचानते हैं। विभीषण और हनुमान मेरे सामने अभिमान त्‍याग देते हैं।" 


मोहि महाराज आप नीके पहिचानैं रानी

जानकीयो जानैं हेतु लछन कुमार को

विभीषण हनुमान तजि अभिमान मेरो

करै सनमान जानि बड़ी सरकार को।


संस्‍कृत साहित्‍य से आती हुई परंपरा "ऋतु वर्णन" का निर्वाह सेनापति ने भी किया है। उन्‍होंने प्रकृति का उद्दीपन रूप में चित्रण किया है। सेनापति का कवित्त वर्णन सिर्फ परंपरा न होकर मौलिक भी है। इनके ऋतु वर्णन में वास्‍वविकता है, जो सामाजिक परिस्थितियों से बहुत प्रभावित है। ग्रीष्‍म ऋतु का इनका स्‍वतंत्र अवलोकन दृष्‍टव्‍य है। जहाँ पवन भी ठंडे स्‍थान को देखकर कुछ समय के लिए विश्राम करने बैठ जाती है, 

वृष को तरनि तजे सहसौं किरन करि

ज्‍वालन के जाल विकराल बरसत है।

तचति धरनि जग जरत झरनि सीरी

छाँह को पकरि पंछी पंथी बिरमत हैं।

सेनापति नैक दुपहरी के ढरत होत

धमका विषम जो न पात खरकत हैं।

मेरे जान पौनैं सीरी ठौर को पकरि कौनौं

घरी एक बैठि कहूँ घामे वितवत है।


सेनापति का अन्‍य ग्रंथ 'काव्‍य कल्‍पद्रुम' अप्राप्‍त है। हो सकता है उसमें विशिष्‍ट पद रचना रीति का निर्वाह किया गया हो। 'कवित्त रत्‍नाकर' की फुटकर रचनाएँ भक्‍त और शृंगारी कवियों की रचनाओं के साथ रखी जा सकती हैं। किंतु काव्‍य की बहिरंग दृष्टि से उन्हें रीति ग्रंथकारों की कोटि में रखा जा सकता है। उनकी भाषा उनके हृदय से निकले हुए उद्गारों से ओत-प्रोत है। उनकी भाषा का सौंदर्य भावों की तन्‍मयता के फलस्‍वरूप न होकर अलंकारों की तड़क-भड़क के कारण भी है। सेनापति बहुत भावुक कवि थे। ब्रजभाषा में दक्ष होने के कारण उन्होंने साधारण से साधारण शब्‍दों में भी बहुत सुंदर रचना की है और श्लिष्‍ट काव्‍य लिखने में अपूर्व सफलता प्राप्‍त की है। कम मात्रा में संस्‍कृत के तत्‍सम शब्‍दों का कुछ फारसी शब्‍दों (पाइपोश, ज्‍यारी, रुख) और कुछ अरबी शब्‍दों (अरस, लिबास, इतबार) का प्रयोग किया है। प्रादेशिकता और उच्‍चरण की दृष्टि से इनकी भाषा खड़ी बोली के नजदीक है। प्रसाद गुण में भी कुछ छंद मिल जाते है। ओज गुण में तो निपुण ही हैं। इसके अतिरिक्त उनकी सुव्‍यवस्थित और परिमार्जित भाषा में अभिधा शब्‍द शक्ति प्रधान है। 


आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल जी के अनुसार, "भाषा पर ऐसा अधिकार कम कवियों का देखा जाता है। अनुप्रास और यमक की प्रचुरता होते हुए भी कहीं भी भद्दी कृत्रिमता नहीं आने पाई है।"  


शुक्‍लजी के अनुसार, "इनकी कविता बहुत मर्मस्‍पर्शी और रचना बहुत ही प्रौढ़ एवं प्रांजल है। जैसे एक ओर इनमें पूरी भावुकता थी वैसे दूसरी ओर चमत्‍कार लाने की बड़ी निपुणता थी।"


सेनापति : जीवन परिचय

जन्‍म 

१५८४-८८  ई०,  अनुमानित

निधन

१६४९ ई०,  अनुमानित

दादा

परशुराम दीक्षित

पिता

गंगाधर दीक्षित

गुरु

हीरामणि दीक्षित

साहित्यिक रचनाएँ

  • कवित्‍त रत्‍नाकर (संवत १७०६)

  • काव्‍य कल्‍पद्रुम (अप्राप्‍त)


संदर्भ

  • कवित्त रत्‍नाकर

लेखक परिचय

रत्‍नेश कुमार द्विवेदी

मध्‍यप्रदेश भारत के उच्‍चतर माध्‍यमिक विद्यालयों में १६ वर्षों से हिंदी भाषा अध्‍यापक के रूप में कार्यरत।

ईमेल - ratnesh2016satna@gmail.com
व्हाट्सएप - +91 8878197950

3 comments:

  1. रत्नेश जी , आपका सेनापति के काव्य पर आलेख पढ़ा। आपने उनके काव्य के सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। उनके काव्य में लय बहुत रोचक है और अधिक पढ़ने को प्रेरित करती है। आपको इस आलेख के प्रस्तुत करने के लिये धन्यवाद । बधाई। 💐💐

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  3. रत्नेश जी नमस्ते। आपने सेनापति जी पर अच्छा लेख लिखा है। लेख में सम्मिलित छंदों के उदाहरण भी रोचक हैं। कवित्त रत्नाकर में प्रयुक्त 384 छन्दों की बात इसे शीघ्र पढ़ने की उत्सुकता पैदा करती है। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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