गुलशेर ख़ाँ 'शानी' आधुनिक हिंदी खड़ी बोली के पहले बड़े मुसलमान साहित्यकार हैं। गुलशेर ख़ाँ का तखल्लुस 'शानी' उनके अस्तित्व के संघर्ष को अत्यंत प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करता है। 'शानी' का अर्थ होता है - दुश्मन, शत्रु। 'शानी' अपने शत्रु स्वयं बने। 'शानी' कभी भी व्यवस्था में फिट रहने के लिए जोड़-तोड़ की राजनीति नहीं अपना पाए, इसलिए उनकी स्थिति हमेशा 'ख़ुदा मिला न विसाले सनम/ यहाँ के रहे न वहाँ के हम' वाली रही। मुस्लिम रूढ़ियों, कट्टरताओं पर आघात करने वाले 'शानी' को कभी मुस्लिम समाज ने नहीं अपनाया और हिंदू, 'शानी' को मुसलमान होने के कारण नहीं अपना पाए। 'शानी' अपने आत्मकथ्य में बताते हैं कि उनके तखल्लुस 'शानी' को अक्सर साहनी समझ लिया जाता था। एक घटना का ज़िक्र करते हुए वे बताते हैं कि वे घर ढूँढ़ रहे थे और चाहते थे कि घर मस्जिद के पास न हो। मस्जिद के पास घर न लेने का केवल यही कारण था कि वे धार्मिक कट्टरता से बचना चाहते थे। जब यह बात उन्होंने अपने एक हिंदू दोस्त से कही तो उसकी प्रतिक्रिया चौंकाने वाली थी। उसने कहा, "सुनिए, डरने की कोई बात नहीं। आप बिल्कुल मत डरिए। यहाँ साले मियाँ लोगों को इतना मारा है, इतना मारा है कि अब तो उनकी आँख उठाने की हिम्मत नहीं रही।" आखिर में घर 'शानी' को मुस्लिम मोहल्ले में, वह भी मस्जिद के पास ही मिला। वहाँ मुस्लिमों ने उन्हें साहनी यानी पंजाबी समझ कर उनके घर के आगे गाय का गोश्त और हड्डियाँ डाल दीं। 'शानी' के जीवन में ऐसी घटनाएँ अनेक बार घटित हुईं।
'शानी' का समस्त रचना संसार कबीर का अनभै साँचा है। 'शानी' ने जो भोगा वह लिखा फिर चाहे वह आदिवासी समाज के बारे में हो या भोपाल, ग्वालियर जैसे महानगरों की संस्कृति में खोते नैतिक मूल्यों के विषय में हो या फिर अपने जैसे अनेक लोगों की 'एम' होने की त्रासदी के विषय में। मुस्लिम समाज का मानस, उनकी संस्कृति, अल्पसंख्यक होने का डर 'शानी' के कथा-साहित्य की पृष्ठभूमि बना। काला जल उपन्यास एवं चौथी सत्ता, बिरादरी, युद्ध, एक कमरे का घर आदि कहानियाँ इसी श्रेणी में आती हैं। शाल वनों का द्वीप संस्मरण में आदिवासी समाज को चित्रित किया गया है साथ ही उनकी अनेक कहानियाँ आदिवासी जीवन के अभावों की गाथा कहती हैं। इसमें फाँस, मछलियाँ, वर्षा की प्रतीक्षा, बोलने वाले जानवर आदि कहानियाँ आती हैं। 'शानी' ने महानगरों की जटिलता को भी परत दर परत खोला है। स्त्री-पुरुष के अनैतिक संबंधों पर उन्होंने अनेक कहानियाँ लिखी हैं। इमारत गिराने वाले, पीला बंगला, आने वाली दुनिया, पत्थरों का तालाब, एक से मकानों का घर आदि अनेक कहानियाँ इसी प्रकार की हैं।
'शानी' के साहित्य का एक और पक्ष उभर कर सामने आता है। उनके साहित्य में स्त्री अनैतिक संबंधों को सहजता से जीती दिखाई देती है। ये अनैतिक संबंध स्त्री की सशक्तता को नहीं उभारते बल्कि उसकी कमजोरी दिखा देते है। अपने इन संबंधों के कारण स्त्री का नकारात्मक रूप सामने आता है। 'शानी' के साहित्य को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि पुरुष के साथ होड़ में स्त्री अपने अनैतिक संबंधों को अपनी स्वच्छंदता और स्वतंत्रता का पर्याय मान बैठी है। 'धूप में चमकते बुलबुले' कहानी की मिसेज़ शेजवलकर एक इंजीनियर की पत्नी है। विवाह को बीस वर्ष हो गए। एक भरा-पूरा परिवार है, परंतु वह यह सब छोड़ कर उन्नीस वर्षीय अपने बेटे के दोस्त के साथ भाग जाती है। इसी तरह 'आने वाली दुनिया' कहानी में स्त्री भरा-पूरा जीवन जीते हुए अनेक पुरुषों से संबंध बनाती है। इस सबके पीछे 'शानी' के निजी जीवन की उथल-पुथल रही है। 'आदमी और अदीब' में 'शानी' अपने बेटे फ़िरोज़ को बताते हैं कि "मेरे पिता को औरतें बहुत पसंद थीं परंतु ही कॉन्ट हैंडल दैम। मुझे भी औरतें पसंद हैं और मैं उन्हें हैंडल करना भी जानता हूँ।" शायद 'शानी' अपने निजी जीवन की कुंठा, निराशा को अभिव्यक्त कर रहे थे। उनके साहित्य में ऐसी स्त्रियाँ बहुत कम हैं जो जीवन में अत्याचार, शोषण का विरोध करती हुई अपने फ़ैसले बेबाकी से लेती हैं। काला जल की सल्लो आपा अवश्य याद आती हैं परंतु उनकी स्वच्छंदता भी पुरुष की होड़ में लगी पंक्ति में खड़ी दिखाई देती है। गुलमोहर का पेड़, साँप और सीढ़ी की स्त्रियों में सशक्तता दिखाई देती है, परंतु वह 'स्पार्क' नहीं आ पाता।
'शानी' के कथा साहित्य में आदर्श प्रेम का भी अभाव दिखाई देता है। प्रेम केवल शारीरिक संबंधों तक सिमटा रह जाता है। परंतु 'शानी' की कुछ कविताएँ ऐसी भी है जहाँ आदर्श, सात्विक प्रेम की तड़प दिखाई देती है। 'शानी' ग्रंथावली भाग-६ में ज़ैबुन्निसा पर आधारित प्रेम कविताएँ उस क्षण को ढूँढ़ रही हैं जिसमें दो प्रेमी कभी न बिछड़ने के लिए मिले थे। ज़ैबुन्निसा औरंगज़ेब की बेटी और एक शायरा थी जिसे एक शायर से प्रेम हो गया था। औरंगज़ेब को यह प्रेम रास नहीं आया और उसने ज़ैबुन्निसा के प्रेमी को मरवा दिया तथा ज़ैबुन्निसा को बंदी बना लिया। उसी प्रेम में ज़ैबुन्निसा ने ५००० से ज़्यादा कविताएँ लिखीं और प्रेम में डूबकर कृष्ण में लीन हो गई। उसी ज़ैबुन्निसा को याद करते हुए 'शानी' लिखते हैं,
किसकी बद्दुआएँ लग गईं, ज़ैबुन्निसा
हमें
किस अज़ाब में पड़ गए हम
सइशाम
कौन से फूलदार पेड़ कुनमुनाए थे, ज़ैबुन्निसा
कि कई बार कलपती थी तुम
सुनो ऐसा मत करो, हाथ मत लगाओ इन्हें
दोनों वक़्तों के मिलते-मिलते
सो जाते हैं सारे पेड़
बद्दुआएँ देते हैं छुओ तो।
ये प्रेम कविताएँ 'शानी' के जीवन के आदर्श प्रेम के अभाव को समेटती दिखाई देती हैं। उनके कथा साहित्य में प्रेम मात्र एक शब्द और औपचारिक घटना बन कर उभरता है।
'शानी' महानगरीय जीवन की राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक स्थिति का भी वर्णन करते हैं। उन्होंने उपयोगवाद के दौर में सभी संबंधों को उपयोगिता के तराजू में तुलते हुए पाया है। शर्त का क्या हुआ, गुलाब में रफ़ू, गंदले जल का रिश्ता आदि अनेक कहानियों में पिता-पुत्र का भारतीय आदर्श संस्कृति वाला संबंध त्रस्त दिखाई देता है। सभी कहानियों में पिता विलासी स्वभाव का दिखाई देता है और पुत्र इस विलासी स्वभाव का विरोध करता दिखाई देता है। 'गंदले जल का रिश्ता' कहानी का पिता केदारनाथ विलासी स्वभाव का है। केदारनाथ को नौकरी से इसलिए निकाल दिया जाता है क्योंकि उसने शराब पीकर किसी मुजरिम से रिश्वत के तौर पर दो रुपए वसूल किए थे। इतना ही नहीं अपने इकलौते बेटे राजेश्वर को लाड़-प्यार करना तो दूर, वह उस का सही से लालन-पालन भी नहीं करता। बेटा नौकरी करके पैसे जोड़ता है और विवाह करता है। पिता की असंवेदनशीलता इतनी बढ़ जाती है कि बेटे से पैसे न मिलने पर उसे सरेआम गालियाँ देता है, उसके ऑफिस में जाकर उसकी ही बुराइयाँ करता है। राजेश्वर विवश हो कर कहता है, "बाप में चाहे जितनी बुराइयाँ हों, लोग नहीं देखते, सारी ग़लती बेटे के सिर थोप दी जाती है और उसके छोटे से छोटे दोष गिनाए जाते हैं।" 'रिश्ते' कहानी का पिता भी अपने विलासी जीवन के चलते अपने पुत्र का सही से लालन-पालन नहीं करता, उसे प्रताड़ित भी करता है। बेटे इकराम को जब न तो पढ़ाई-लिखाई करने देता है और उसके चरित्र पर प्रश्नचिह्न भी लगाता है तो वह अपने पिता पर हाथ उठाने से भी गुरेज़ नहीं करता। पिता-पुत्र के संबंधों में आई कड़वाहट 'शानी' और उनके पिता के संबंधों की ओर इशारा करती है। 'शानी' ने अनेक जगहों पर अपने पिता से नाराज़गी ज़ाहिर की है फिर चाहे वह उनके विलासी स्वभाव को लेकर हो या फिर अपनी पत्नी और औलाद से बेख़बर रहने पर। यही नाराज़गी 'काला जल' उपन्यास में भी दिखाई देती है। 'काला जल' के पिता रज्जु मियाँ पर उनका बेटा हाथ उठा देता है। इसके पीछे भी पिता का विलासी स्वभाव दिखाई देता है।
महानगरीय वातावरण में मानवीकरण का विमानवीकरण हो गया है। जो जितना भ्रष्ट और अनैतिक है वह उतना ही महानगरीय व्यवस्था में फ़िट है। 'शानी' इसी भ्रष्ट व्यवस्था के कलपुर्ज़े भाई-भतीजावाद को अपनी कहानी 'चौथी सत्ता' में अभिव्यक्त करते हैं। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया है, परंतु वही सबसे लाचार हालात में दिखाई देता है। अख़बार में नफ़ीस को नौकरी भी प्रतिभा के बल पर नहीं जैक-बैक के बल पर मिलती दिखाई देती है। भ्रष्ट व्यवस्था में ऊपर से नीचे तक सभी भ्रष्ट दिखाई देते हैं। पुलिस, नेता, अफ़सर, यूनियन लीडर सभी एक हमाम में नंगे खड़े मिलते हैं। 'पहला दिन' कहानी का नेता अपने मोहल्ले की लड़की को सार्वजनिक संपत्ति समझकर उठवा लेता है। त्रासदी तो यह है कि वह लड़की अपनी सुरक्षा की गुहार पुलिस से भी नहीं लगा पाती। उसे मालूम है कि पुलिस कहने भर को जनता की सुरक्षा करती है, परंतु उसकी सारी सेवाएँ नेताओं के लिए ही होती हैं। 'पत्थरों का तालाब' कहानी के मंत्री राजनीति के मैन होल का ढक्कन खोलते हुए कहते हैं, "राजनीति तो बहुत गंदी होती है। दिस इज़ आल इन द गेम।" जनता राजनीति की बिसात पर एक प्यादा भर होती है। जिसे केवल चुनाव में याद किया जाता है।
भारत को दो फाँक में मिली आज़ादी का दंश हिंदू और मुस्लिम दोनों ने झेला। पाकिस्तान में यह दंश हिंदू झेल रहे थे तो हिंदूस्तान में मुसलमान। 'शानी' अपने साहित्य में अल्पसंख्यक होने के इस डर को बड़ी बेबाकी से उठाते हैं। वे निर्भीकता से कहते हैं, "जिस ज़िंदगी को मैंने निकट से देखा है, जिनके दुखों को जाना है, उसे अपने साहित्य में क्योंकर स्थान न दूँ .....मुसलमान होने के नाते सामाजिक जीवन में मुझे जिस अपमान और विद्वेष का शिकार होना पड़ा उसे अपनी रचनाओं में क्यों न उठाऊँ।" 'शानी' अपनी पूरी मुसलमानियत के साथ राष्ट्र-भक्त होना चाहते थे। उन्हें राष्ट्र-भक्ति झुनझुना उठाना कभी पसंद नहीं रहा। उनका मानना था कि मैं राष्ट्र-भक्त हूँ, मुझे भारत से लगाव है, इसे प्रमाणित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह नितांत व्यक्ति की निजी इच्छा पर निर्भर करता है कि वह पाकिस्तान के क्रिकेट मैच के हार जाने पर मिठाइयाँ बाँटे या न बाँटे, या फिर मुस्लिम लीग का हिस्सा बने या न बने। उसके निजी फ़ैसलों के आधार पर उसकी राष्ट्रीयता पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता। 'शानी' दो तरह के मुस्लिम पात्र रचते हैं। एक रिज़वी दूसरा कुरैशी। कुरैशी उस मुस्लिम वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है जो राष्ट्रीयता का झंड़ा उठाए समय-समय पर स्वयं को राष्ट्र-भक्त साबित करने में लगा रहता है। पाकिस्तान के क्रिकेट मैच हार जाने पर मिठाइयाँ बाँटता है। सामूहिक बातचीत के दौरान देश और राष्ट्रीयता उसके प्रिय विषय रहते हैं। 'तुम आदमी हो या मुसलमान' अपने इस तकिया कलाम से वह अपने हिंदू दोस्तों को गुदगुदाता रहता है। इस तकिया कलाम को सुनते हुए ऐसा लगता है कि मुसलमान होना आदमियत का खो जाना है। जनाज़ा, युद्ध, बिरादरी, एक कमरे का घर, चौथी सत्ता के साथ-साथ काला जल उपन्यास में भी 'एम' होना एक बड़ी त्रासदी के रूप में उभर कर सामने आता है। भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, जहाँ सभी को समान अधिकार प्राप्त है, परंतु संविधान के समानता के मौलिक अधिकार पर 'शानी' प्रश्नचिह्न लगाते हैं। वे कहते हैं कि संविधान में जो न्याय व्यवस्था और अधिकार व्यवस्था है, वह संविधान से अलहदा काम करती है। 'एक कमरे का घर' कहानी के रिज़वी को इसलिए नौकरी नहीं मिल पाती क्योंकि वह एक मुसलमान है। वह अपना आक्रोश प्रकट करते हुए कहता है, "संविधान में लिख कर ही तो आप किसी मुल्क को सैक्युलर नहीं बना सकते। इस मनोवृत्ति को आप क्या कहेंगे जहाँ आपका 'एम' होना सबसे बड़ी अयोग्यता मान ली जाए।" व्यवस्था के प्रति आक्रोश से भरा मुसलमान पाकिस्तान को आशा भरी दृष्टि से देखता है। उसे लगता है कि यदि वह पाकिस्तान में होता तो उसका जीवन इतना अभावों भरा नहीं होता। 'काला जल' उपन्यास में "अशफ़ाक मास्टर का जीवन पाकिस्तान जाने के बाद रातों-रात बदल जाता है। उसका बड़ा लड़का विलायत चला जाता है और दूसरा एअर सर्विस में और तीसरा....।" पाकिस्तान एक स्वप्न द्वीप की तरह उभरता है, जहाँ ज़िंदगी की सभी समस्याओं का हल दिखाई देता है। 'शानी' पाठक को यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या वास्तव में पाकिस्तान सभी समस्याओं का हल है? मोहिसिन 'शानी' की यही आवाज़ बनता हुआ कहता है, "यदि तुम्हारे ये स्वप्न पाकिस्तान में भी पूरे न हुए तो कहाँ जाओगे अरब या ईरान।" इसके माध्यम से 'शानी' पाकिस्तान को जादुई संसार मानने वालों को यथार्थ भूमि पर उतारते हुए तर्क सम्मत सोचने की अपील करते हैं। वे कहते हैं जिन समस्याओं से भागकर मुस्लिम पाकिस्तान की पनाह में जाना चाहता है, ये समस्याएँ विश्व के हर मुल्क में मिलेंगी इसलिए 'एम' होने की आड़ में पलायन करना उचित नहीं बल्कि व्यवस्था को सुधारने की कोशिश ही इसका उचित हल है। 'शानी' अपने कथा साहित्य के माध्यम से समस्याएँ उठाते हैं और फिर उसका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं।
संदर्भ
बेटे फ़िरोज़ 'शानी' से बातचीत
'शानी' का समग्र साहित्य
'शानी' के रचना संसार का समाज - भारती अग्रवाल
भारती, आपने कथाकार शानी का जो चित्र शब्दों में बांधा वह उनके व्यक्तित्व को साकार कर देता है ..व्यक्ति शानी और कथाकार शानी ! बहुत सी जानकारियों से भरा यह आलेख पढ़ कर अब मैं लेखक को बेहतर जानती हूं। धन्यवाद आभार आपका शानी की कितनी ही अंजनी कहानियों और उनके विचारों से परिचित कराने के लिए !
ReplyDeleteभारती जी, आपने अत्यंत संतुलित शब्दों और भावों में शानी साहब के व्यक्तित्व, कृतित्व और उन परेशानियों औरआक्रोश को रख दिया है जिनसे वे ताज़िन्दगी जूझते रहे और दूसरों को अपने अनुभव से अर्जित ज्ञान देते गए। इस बढ़िया आलेख के लिए आपको साभार बधाई।
ReplyDeleteभारती जी, गुलशेर खाँ ‘शानी’ के जीवन और उनकी साहित्यिक यात्रा पर सरल और सहज शैली में सिलसिलेवार जानकारियाँ उपलब्ध कराता आपका आलेख बहुत पसंद आया। इस रोचक और ज्ञानवर्धक आलेख के लिए आपको बधाई और धन्यवाद। हिंदी कथा साहित्य में व्यक्ति के मनोभावों को पूरी संवेदनशीलता और ईमानदारी से पेश करने के लिए शानी हमेशा याद किये जाएँगे।
ReplyDeleteभारती जी नमस्ते। अपने गुलशेर ख़ाँ जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा। आपके लेख के माध्यम से उनके जीवन एवं सृजन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिली। आपको इस रोचक लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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