Wednesday, October 26, 2022

गणेश शंकर विद्यार्थी : नवचेतना का संचारक, सद्भावना का साधक

 

पत्रकार, क्रांतिकारी, देशभक्त, मानवता का पुजारी आदि रूपों में जाने गए गणेश शंकर विद्यार्थी मात्र किसी व्यक्ति का नाम नहीं है, बल्कि जागृत करने वाली इंक़लाबी सोच का नाम है। उनका कर्मक्षेत्र उनके विचारों की भाँति विस्तीर्ण और व्यापक था। अपने कर्तव्य-साधन हेतु उन्होंने अपनी लेखन और वक्तृत्व क्षमता दोनों का बहुत प्रभावशाली ढंग से उपयोग किया। संयुक्त प्रांत की कौंसिल से निकलने वाले उनके शब्द जनता को सचेत और शासकों को सहमाते रहे। पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख और निबंध हर घटना, हर अन्याय की पूरी सच्चाई को सामने लेकर आते थे, भले ही उनके अख़बार पर हुक्काम की गाज गिरती रहे। उनके लेखन का प्रमुख उद्देश्य लोगों को हर अत्याचार तथा विदेशी औपनिवेशिक साम्राज्यवादी सत्ता के विरुद्ध जागरूक एवं उच्च आदर्शों से प्रेरित करते हुए देश का नवनिर्माण करना था। इसके लिए उन्होंने बहुत कुछ लिखा भी। लखनऊ जेल में लिखी उनकी डायरी, जेल-जीवन से जुड़े संस्मरण, परिजनों को लिखे पत्र, महात्मा गोखले, लोकमान्य तिलक, महर्षि दादाभाई नौरोजी, विक्टर ह्यूगो, मक्सीम गोरिकी, लेनिन और महाराणा प्रताप आदि पर लिखे रेखाचित्र या श्रद्धांजलि संदेश आदि उनके जागरूक लेखन के नमूने हैं। गणेश शंकर विद्यार्थी की असमय मौत से उनका अधिकतर लेखन अप्रकाशित और बिखरा-बिखरा-सा रह गया था, जिसे सुरेश सलिल ने श्रम-साध्य तरीक़े से संकलित कर संपादित किया और गणेश विद्यार्थी रचनावली के रूप में छपवाया। सुरेश सलिल इन किताबों की प्रस्तावना में गणेश शंकर के बारे में लिखते हैं, "वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद की समस्त बुराइयों के साथ-साथ पूँजीवाद और सामंतवाद के प्रच्छन्न प्रश्नों को भी पूरी ईमानदारी के साथ समझ रहे थे, पूँजी और श्रम के बीच के समीकरणों को, राष्ट्रीय आंदोलन और जातीय भाषा एवं संस्कृति के अपेक्षित रिश्तों को बख़ूबी समझ और अनुभव कर रहे थे। हिंसा और अहिंसा की प्रासंगिकता को, इतिहास बोध की अनिवार्यता को जान समझ रहे थे और राजनीति एवं साहित्य के रिश्तों की पड़ताल कर रहे थे। पत्रकारिता, 'प्रताप' और सांप्रदायिकता विरोध तो इसी खोज अभियान के उपादान-भर थे!"


कितने ही कामों को पूरा करने के सपनों और अपनी समझ को व्यावहारिक रूप देने की उनकी तमन्ना अधूरी अवश्य रह गई, लेकिन ४० साल के छोटे जीवन में जो बड़े काम उन्होंने किए, वे किसी को भी ठिठक कर देखने और विचार करने पर विवश कर सकते हैं। सांप्रदायिक-वैर तथा अन्य सामाजिक कुरीतियों से लोगों को मुक्त कराने के काम में विद्यार्थी जी १९ बरस की उम्र से ही लग गए थे और धार्मिक-उन्माद की ही आग को बुझाते-बुझाते क़ुर्बान भी हो गए। 


उनकी मृत्य सन १९३१ में हुई। उस समय महात्मा गाँधी के विचारों और सिद्धांतों से समस्त विश्व प्रभावित और आश्चर्यचकित था। ऐसे समय में गाँधी जी को भी विद्यार्थी जी के कामों, उनकी सोच और जीवन पर रश्क़ हुआ था और 'यंग इंडिया' में उन्होंने लिखा था, "गणेश शंकर विद्यार्थी ने अहिंसा की सेना का एक बहुत ऊँचा आदर्श हमारे सामने रख दिया। …उसकी आत्मा मेरे दिल पर काम करती रहती है। मुझे जब उसकी याद आती है तो उससे ईर्ष्या होती है।"


ब्रिटिश ग़ुलामी को ढो रहे भारत के दुर्दिनों में इलाहाबाद में २६ अक्तूबर, १८९० को गणेश शंकर का जन्म उनके ननिहाल में हुआ। उनके पिता उस समय ग्वालियर रियासत के शिक्षा विभाग में अध्यापक थे। नानी के देखे एक सपने से बालक को नाम गणेश मिला और आगे चलकर पंडित सुंदरलाल की प्रेरणा से गणेश शंकर ने अपना उपनाम 'विद्यार्थी' रखा। उन्होंने आजीवन सीखते रहने की ललक जगाए रख, उसे सार्थक कर दिया। नाना जेलर थे। सहारनपुर जेल में उनके साथ रहते हुए बालक गणेश जेल में मिलने वाली डबलरोटी बहुत चाव से खाता था। यह देखकर उन्होंने पुलकित होकर एक बार कहा था, "वाह, मेरा नाती जेल की डबलरोटी ऐसे खा रहा है मानो ज़िंदगी भर जेल की रोटी खाने के लिए आया हो।" उन्हें क्या, किसी को भी तब यह अंदेशा न रहा होगा कि अपने छोटे से जीवन का एक बड़ा भाग गणेश पाँच बार के जेल के लंबे प्रवासों में गुज़ारेगा। 


उनकी एंट्रेंस तक की शिक्षा पिताजी के पास रहते हुए मुंगावली शहर में हुई। अधिकांश बचपन साँची और विदिशा के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक परिवेश में बीता, जिसने उनके संस्कारों को सींचा। उनकी तालीम उर्दू में शुरू हुई और माध्यमिक विद्यालय में अँग्रेज़ी और हिंदी भाषाएँ जुड़ीं। स्कूल-शिक्षा के समाप्त होते ही नौकरी ढूँढ़ने के लिए वे अपने बड़े भाई शिवव्रत नारायण के पास संयुक्त प्रांत की उद्योग नगरी कानपुर आ गए। भाई  के दृष्टिकोण पिता की अपेक्षा आधुनिक और अधिक व्यापक थे। उन्होंने गणेश को पत्र-पत्रिकाओं से जोड़कर लिखने-पढ़ने के लिए प्रेरित किया और नौकरी की जगह एंट्रेंस की परीक्षा की तैयारी करने को कहा। उन्होंने पुस्तकें ख़रीद कर उन्हें वापिस पिता के पास भेज दिया। गणेश जी ने स्वाध्याय से वह परीक्षा उत्तीर्ण की और सन १९०७ में इलाहाबाद की कायस्थ पाठशाला में एफ० ए० में दाख़िला लिया। लेखन और पाठन के बीज उन्हें मिल चुके थे, उन्होंने अपनी पहली पुस्तक ‘आत्मोत्सर्गता’ स्कूली समय में ही लिख ली थी। इलाहाबाद में अख़बार ‘स्वराज्य’ के लिए उर्दू में लिखना शुरू किया। 


उनकी नियति में कानपुर लिखा था। आँखें ख़राब हो जाने की वजह से पढ़ाई छोड़कर वे वापिस कानपुर आ गए और १९०८ से १९१० के बीच जीवनयापन के लिए छोटी-बड़ी नौकरियाँ करते रहे। हर जगह उनकी राष्ट्रीय भावनाएँ आड़े आती रहीं। ख़ाली वक़्त में वे अख़बार ‘कर्मयोगी’ पढ़ते थे, जिसका पढ़ना राजद्रोह का संकेत माना जाता था और उसके चलते उन्हें कई नौकरियों से इस्तीफ़ा देना पड़ा। यह नहीं कि उनकी लड़ाई मात्र अँग्रेज़ सरकार से थी। वे मानवता के ख़िलाफ़ होने वाले किसी भी काम पर चुप्पी नहीं साधते थे, फिर भले ही वह अत्याचार फ़िरंगियों द्वारा हो या अपने ही देश के ज़मींदारों, मिल मालिकों, साहूकारों द्वारा। नौकरी न होने के कारण आर्थिक तंगी ज़रूर रही पर विचारों और आदर्शों की बुलंदी जस की तस बनी रही। कानपुर उस समय भी छोटे-बड़े उद्योगों का शहर था, उन्होंने पाया कि वहाँ का श्रमिक संसार बिखरा हुआ और असंगठित है। सन १९०९ में कपड़ा मिल मज़दूरों को संगठित और एकजुट किया।


कानपुर में ही वे इलाहबाद से निकलने वाले अख़बार ‘कर्मयोगी’ के संपादक सुंदरलाल के संपर्क में आए और हिंदी की ओर आकृष्ट हुए। इनके लेख जल्दी ही ‘सरस्वती’, ‘कर्मयोगी’, ‘स्वराज्य’ (इलाहाबाद) ‘हितवार्ता’ (कलकत्ता) में प्रकाशित होने लगे। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी उन दिनों ‘सरस्वती’ का संपादन कानपुर से किया करते थे, विद्यार्थी जी के लेखन और प्रतिभा से वे प्रभावित हुए और अपने पत्र के लिए उन्हें २५ रूपये माहवार पर बतौर सह-संपादक नियुक्त कर लिया। गणेश शंकर की शालीनता, सुजनता, परिश्रमशीलता और ज्ञानार्जन की सदिच्छा पर द्विवेदी जी मुग्ध हो गए थे और वय में विद्यार्थी जी से काफ़ी बड़े होने पर भी उनका बहुत आदर करते थे। ‘सरस्वती’ मुख्यतः एक साहित्यिक पत्रिका थी और विद्यार्थी जी का रुझान राजनीतिक क्षेत्र की ओर अधिक था। उन्हें जल्दी ही इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक राजनीतिक-पत्र ‘अभ्युदय’ में ४० रुपये माहवार पर संपादन का दायित्व मिला और वे वहाँ चले गए। अपने रुझान का काम मिलने पर वे काम में ऐसे जुटे कि स्वास्थ्य फिर आड़े आ गया और उन्हें फिर कानपुर लौटना पड़ा। यहाँ आकर पं० शिवनारायण मिश्र के सहयोग से ९ नवंबर १९१३ को विधिवत रूप से साप्ताहिक ‘प्रताप’ का प्रकाशन शुरू हुआ (कर्मवीर महाराणा प्रताप ‘प्रताप’ नाम के प्रेरणा स्रोत थे)। इस पत्र के लिए पहले आशीर्वचन द्विवेदी जी से प्राप्त हुए थे जो ‘प्रताप’ की मुखवाणी बने,

जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है, 

वह नर नहीं है, पशु निरा है, और मृतक समान है। 

प्रताप के पहले अंक में उनके द्वारा लिखा ‘महाराणा प्रताप’ काव्यात्मक निबंध द्विवेदी युग के उत्कृष्ट निबंधों में माना जाता है। वैश्विक ख़बरे हों जैसे रूस की अक्तूबर क्रांति या देश में चंपारण के ‘निलहे’ अँग्रेज़ ज़मींदारों द्वारा स्थानीय किसानों के शोषण और दमन की ख़बरें, ‘प्रताप’ ही उन्हें सबसे पहले सामने लाता था।  


लोकमान्य तिलक के राजनैतिक दर्शन से प्रेरित होकर काँग्रेस की मुख्य-धारा से उन्होंने राजनीतिक जीवन में प्रवेश किया और गाँधी जी के साथ भी वे कंधे से कंधा मिलाए खड़े रहे। साथ ही देश में चल रहे सशक्त क्रांतिकारी आंदोलन (जिससे गाँधी जी सदैव स्पष्ट दूरी बनाए रहे) को ‘प्रताप’ से प्राणवायु मिलती रही। बिस्मिल, अशफ़ाक़, भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों से लेकर शौकत उस्मानी, एम० एन० राय जैसे कम्युनिस्टों तक सभी को विद्यार्थी जी का मार्गदर्शन और ‘प्रताप’ का स्नेह मिला। अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ाँ के काकोरी केस मुक़दमे में हर मुमकिन मदद तो की ही, साथ ही शाहजहाँपुर में स्थित अशफ़ाक़ का स्मारक विद्यार्थी जी के प्रयत्नों का नतीजा है। भगतसिंह जब भूमिगत थे तो विद्यार्थी जी ने न केवल उन्हें आश्रय उपलब्ध कराया अपितु ‘प्रताप’ के माध्यम से पत्रकारिता की ओर आकर्षित भी किया। भगतसिंह ने तब बलवंत सिंह छद्म नाम से ‘प्रताप’ के लिए काम भी किया था। गणेश शंकर के सहयोग से माखनलाल चतुर्वेदी के पत्र ‘प्रभा’ का पुनर्प्रकाशन १९२० से १९२५ तक कानपुर से हुआ और वह भी राष्ट्रीय जागरण का ध्वज-वाहक बना। अपने किसी भी पत्र का प्रयोग गणेश शंकर ने अपने अनावश्यक प्रचार के लिए नहीं होने दिया। संपादक के अलावा उनका नाम किसी और पृष्ठ पर नहीं आता था। पत्र के लिए लिखी अपनी अन्य प्रविष्टियाँ वे हमेशा किसी कल्पित नाम से दिया करते थे। गणेश विद्यार्थी का ध्येय पत्रों के माध्यम से अपना निर्माण नहीं बल्कि हिंदी पत्रकारिता के इतिहास का निर्माण था। और अपने उस काम में वे सफल भी रहे तथा राष्ट्रीय पत्रकारिता के जनक कहलाए। 


सन १९१६ में सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया, उन्हें समूचे संयुक्त प्रांत की राजनीति का नियंता बनाया गया। सन १९२६ में चुनाव जीतकर वे कौंसिल के सदस्य बने। आज़ादी और इंसाफ़ के इस सैनिक को कई बार जेल की यात्राएँ करनी पड़ीं। कभी मुद्दा लेखन रहा तो कभी भाषण और कभी क्रांतिकारियों की सहायता। आज़ाद भारत की चाह और मानवता की रक्षा हर बार उन्हें पुकारती और वे हर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ खड़े हो जाते। रायबरेली में किसानों पर भीषण अत्याचार हो रहे थे। ताल्लुकेदार वीरपाल सिंह अँग्रेज़ों की दमन-नीति की पैरवी करते हुए किसानों के साथ पशुओं से बदतर व्यवहार कर रहा था। इतिहास में रायबरेली कांड के नाम से मशहूर भयंकर गोलीकांड में मुंशीगंज के इलाक़े में असंख्य किसानों को गोली का शिकार बनाया गया। इस कांड के ख़िलाफ़ ‘प्रताप’ में लिखने और इंसाफ़ की माँग करने के लिए विद्यार्थ जी पर मानहानि का मुक़दमा चलाया गया और उन्हें सज़ा हुई। इस मुक़दमे में उन्हें मोतीलाल नेहरू, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, जवाहरलाल नेहरू जैसे राजनेताओं का सहयोग प्राप्त था। मोतीलाल नेहरू ने उनके मुक़दमे की पैरवी की थी। लेकिन तब क़ानून, राज्य और राजनीति सभी अँग्रेज़ों के हाथों में थे, चुनाँचे फ़ैसला भी ताल्लुकेदार के पक्ष में हुआ और गणेश विद्यार्थी को जेल की पहली सज़ा हुई जो १६ अक्तूबर १९२१ से २२ मई १९२२ तक चली। फिर शहादत तक उनका एक पाँव बाहर रहा तो दूसरा जेल में। जेल से निकलने के कुछ समय बाद ही फ़तेहपुर में बतौर ज़िला काँग्रेस सभापति दिए उत्तेजक भाषण के लिए गिरफ़्तार होकर नैनी सेंट्रल जेल में २० मार्च १९२३ से २९ जनवरी १९२४ तक रहे। अपनी अंतिम एक-वर्षीय लंबी जेलयात्रा पर वे २४ मई १९३० को कानपुर में हुए प्रांतीय राजनीतिक सम्मलेन में दिए भाषण के कारण गए। इसके अलावा बीच में वे दो बार उन्होंने छोटा कारावास भी भुगता। 


राजनीतिक, सामाजिक, पत्रकारिता-संबंधी सभी कामों से संबद्ध होकर विद्यार्थी जी ने प्रचुर लेखन भी किया। उनके प्रेरणादायी और प्रासंगिक लेखन के चलते ‘प्रताप’ की सफलता-यात्रा तेज़-क़दम रही। ‘प्रताप’ कुछ ही वर्षों  में साप्ताहिक से दैनिक हो गया, इसके पृष्ठों की संख्या बढ़कर ४० तक हो गई और पाठकों की संख्या अविश्वसनीय तरीके से बढ़ गई। ‘प्रताप’ के लिए लेखों में उनकी भाषा जीवंत और सरल होती थी, सामग्री पूर्णतः विश्वसनीय। जेल प्रवासों के दौरान उन्होंने जेल डायरी लिखी, विक्टर ह्यूगो के दो उपन्यासों ‘ला मिज़रेबल’ और ‘नाइंटी थ्री’ का हिंदी अनुवाद किया तथा अपनी एकमात्र कहानी ‘हाथी की फ़ाँसी’ लिखी। इस कहानी को ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के समतुल्य माना जाता है।  


कानपुर के पास एक छोटा गाँव नरबल है, विद्यार्थी जी वहाँ कभी-कभी जाया करते थे और उसके रमणीय और शांत वातावरण में लेखन किया करते थे। साथ ही वे उस गाँव के उद्धार के लिए काम करते। वहाँ पाठशालाएँ खुलवाई, एक आश्रम बनवाया और लोगों के लिए चरखे-करघे आदि का प्रबंध किया। वह आश्रम ‘गणेश सेवाश्रम’ के नाम से जाना जाता है और आज भी सक्रिय है। उन्होंने लोगों को काम के लिए प्रेरित किया, उनको कुरीतियों से दूर किया और गाँव में नव-जीवन का संचार किया। सन १९२५ में काँग्रेस अधिवेशन के लिए उन्हें स्वागत गीत की रचना करवानी थी। नरबल गाँव के ही श्यामलाल गुप्त पार्षद ने वह कालजयी गीत ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’ तब विद्यार्थी जी की प्रेरणा से लिखा था। 

गणेश शंकर ने १९३० में आयोजित १९ वें हिंदी सम्मलेन के अध्यक्ष पद से ‘हिंदी भाषा और साहित्य’ नामक प्रसिद्ध व्याख्यान दिया था। 


गणेश शंकर राष्ट्र और लोक कल्याण के हर काम में सर्वदा सोत्साह लगे रहते थे। मार्च सन १९३१ हरदोई जेल से छूटकर वे कानपुर आए। २३ मार्च को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी दी गई। लोगों में सरकार के ख़िलाफ़ आक्रोश उन्माद की सीमा तक बढ़ गया था। धूर्त अँग्रेज़ी सरकार ने इससे पार पाने के लिए सांप्रदायिक विद्वेष का सहारा लिया और देश में जगह-जगह दंगे करवा दिए। गणेश शंकर विद्यार्थी शासकों की राजनीति को भली-भाँति समझते थे और लोगों को हमेशा सद्भावना और आपसी दोस्ती के लिए प्रेरित करते रहते थे। कानपुर में हिंदू-मुस्लिम दंगे ने रौद्र रूप ले लिया। गणेश अपने स्वभावानुसार दंगे को शांत कराने मैदान में कूद पड़े। उनके क़रीबी दोस्त दयानारायण निगम ने उन्हें २५ तारीख़ को उन्मादी भीड़ के बीच जाने से मना भी किया था। लेकिन धुन के पक्के विद्यार्थी जी को वह गवारा न हुआ और वे हिंसा की ज्वाला शांत करने के लिए मैदान में कूद पड़े और पीड़ित परिवारों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाने में जुट गए। जब वे एक मुस्लिम परिवार को सुरक्षित स्थान पर ले जा रहे थे दंगाइयों ने उन पर हमला कर दिया और हिंसा की आग ने आज़ादी के दीवाने को अपनी चपेट में ले लिया। दो दिन बाद उनकी कुछ चीज़ों के चलते लावारिस लाशों के बीच उनके शव की शिनाख़्त हो पाई। मोटा खादी का ख़ून से सना कुरता-धोती, चश्मा, कुछ रेज़गारी अपने बदन पर छोड़ गए उस साधक के कामों की गूँज ऐसी थी कि उसके सामने सब कुछ सन्नाटे में डूबा-सा लगता था। गणेश शंकर की मृत्यु का समाचार मिलने पर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “शान से वह जिए और शान से वह मरे और मरकर जो सबक़ उन्होंने सिखाया, वह हम वर्षों ज़िंदा रहकर क्या सिखाएँगे?” सांप्रदायिक सद्भावना की वेदी पर प्राणों की आहुति देने वाला यह अमर योद्धा किसी न किसी दिल का हौसला बन, जज़्बे की ताक़त बन आज भी हमारे बीच रहता है और हमेशा रहेगा।  


गणेश शंकर विद्यार्थी  : जीवन परिचय

जन्म 

२६ अक्तूबर १८९०, इलाहाबाद, भारत 

बलिदान 

२५ मार्च १९३१, कानपुर, भारत 

पिता 

बाबू जयनारायण श्रीवास्तव 

माता

श्रीमती गोमती देवी 

भाई 

शिवव्रत नारायण

पत्नी 

प्रकाशवती (मुंशी विशेश्वर दयाल की पौत्री)

संतान

पुत्री - कृष्णा, विमला,सरला, उर्मिला

पुत्र - हरिशंकर विद्यार्थी, ओंकार शंकर विद्यार्थी

शिक्षा 

प्रारंभिक (एंट्रेंस परीक्षा तक) मुंगावली, ऍफ़० ए० कायस्थ पाठशाला, इलाहाबाद (स्वास्थ्य कारणों से अधूरी)

कार्यक्षेत्र

लेखक, पत्रकार, राजनीतिज्ञ, समाज-सुधारक

साहित्यिक रचनाएँ

सुरेश सलिल द्वारा संपादित

गणेशशंकर विद्यार्थी रचनावली : खंड-१ और खंड- २

महानुभावों पर निबंध

  • कर्मवीर महाराणा प्रताप
  • देवी जोन
  • महर्षि दादाभाई नौरोजी
  • महात्मा प्रिंस क्रोपटकिन (क्रपोत्किन)
  • लेनिन
  • कर्मवीर भारती
  • लोकमान्य की विजय
  • वज्रपात (देशबंधु दास)
  • स्वर्गीय महात्मा गोखले
  • मौलाना हसरत मोहनी
  • मैक्सिम गोर्की : स्वाधीनता का रूसी उपासक और अन्य

कुछ निबंध

  • राष्ट्रीयता
  • लक्ष्य से दूर
  • धर्म की आड़
  • अरण्य-रोदन
  • हमारी विशृंखलता
  • अदालत के सामने लिखित बयान
  • अभ्युदय पर विपत्ति
  • प्रताप की नीति
  • माँ के अंचल में
  • राष्ट्र की आशा
  • राष्ट्र की नींव
  • हमारे वे मतवाले निर्वासित वीर एवं कई अन्य

कहानी

  • हाथी की फाँसी

संस्मरण

  • जेल जीवन की झलक

डायरी

  • जेल-डायरी

पत्र

  • अग्रज के नाम
  • पत्नी के नाम
  • बड़ी पुत्री के नाम
  • माँ के नाम

सम्मान व पुरस्कार

  • गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार - वर्ष १९८९ से प्रत्येक वर्ष राष्ट्रपति द्वारा पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करने के लिए दिया जाता है।

  • कानपुर मेडिकल कॉलेज - गणेश शंकर विद्यार्थी मेमोरियल मेडिकल कॉलेज, कानपुर।

  • गणेश शंकर चौक - गोरखपुर में एक चौराहा।

  • फूल बाग़ - महारानी पार्क के नाम से प्रख्यात पार्क अब गणेश शंकर विद्यार्थी उद्यान, कानपुर।

  • गणेश शंकर विद्यार्थी हवाईअड्डा - वर्ष २०१७ से कानपुर हवाई अड्डा गणेश शंकर विद्यार्थी हवाई अड्डा कहलाता है।

  • डाक टिकट -


संदर्भ


लेखक परिचय

प्रगति टिपणीस 

पिछले तीन दशकों से मॉस्को, रूस में रह रही हैं। शिक्षा इन्होंने अभियांत्रिकी में प्राप्त की है। ये रूसी भाषा से हिंदी और अँग्रेज़ी में अनुवाद करती हैं। आजकल एक पाँच सदस्यीय दल के साथ हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर काम कर रही हैं। मॉस्को की सबसे पुरानी भारतीय संस्था ‘हिंदुस्तानी समाज, रूस’ की सांस्कृतिक सचिव हैं। हिंदी से प्यार करती हैं और मॉस्को में यथा संभव हिंदी के प्रचार-प्रसार का काम करती हैं।


2 comments:

  1. प्रगति, हमारे देश के एक अति महत्त्वपूर्ण व्यक्ति गणेश शंकर विद्यार्थी के अद्भुत व्यक्तित्व और कृतित्व पर तुम्हारा सशक्त आलेख बहुत पसंद आया। हतप्रभ हूँ मैं इनके जोश और काम की व्यापकता से। इन्हें और इनके जोश को नमन। इस हृदयग्राही आलेख के लिए तुम्हें बधाई और धन्यवाद। सलाम तुम्हारी लेखनी को।

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  2. प्रगति जी नमस्ते। आपने क्रन्तिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा। सचमुच ये लोग वन्दनीय हैं जो इन्होंने मुश्किल परिस्थितियों में भी श्रेष्ठ साहित्य सृजन किया। हमेशा बस सृजनरत रहे। जैसा कि लेख में आपने भी उल्लेख किया कि विद्यार्थी जी का साहित्य भी अधिकांश अप्रकाशित रहा जो बाद में सलिल जी द्वारा सामने लाया गया। आपके लेख के माध्यम से विद्यार्थी जी के जीवन एवं सृजन को विस्तार से जानने का एक और अवसर मिला। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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