Monday, October 17, 2022

सदल मिश्र : प्रारंभिक हिंदी के गद्य कुमार



पटना से महज़ ५५ किलोमीटर दूर बसे आरा जिले में एक मिश्र टोला है। यहीं पर एक शाकद्वीपीय ब्राह्मण पंडित नंदमणि मिश्र के घर सदल मिश्र का जन्म हुआ। सिर पर साफा, बगलबंदी और घुटने के उपर धोती वाली सीधी सी पोशाक में रहने वाले सदल मिश्र एक धर्मपरायण व्यक्ति थे। केवल कुँवारी कन्याओं द्वारा काते गए सूत से स्वयं जनेऊ बना कर पहनते थे। उनके गले में हर समय पूजा की माला रहती थी जिसे सोने के समय निकाल कर जपते थे। पंडित जी जीवन भर स्वयं पाकी रहे। दूसरों के घर जाते तो नौकरों के माँजे हुए बर्तनों का व्यवहार भी पुनः धोए बिना नहीं करते थे। कम से कम आधा सेर मिट्टी लेकर तो हाथ साफ करते थे। खिचड़ी और पुए उनके प्रिय पकवान थे। पानी से भरा एक छोटा लोटा सदैव अपने साथ रखते। जब कहीं बैठते तो पहले पानी छिड़कते, तब बैठते। अपना बिस्तर स्वयं लगाते और उस पर किसी को बैठने नहीं देते। प्रातः काल ईशावास्योपनिषद और आध्यात्म रामायण का पाठ करते। पूजा के बाद मैदान में चींटियों को सूजी और शक्कर डालना उनकी दिनचर्या में था। गाय और कुत्ते उन्हें बहुत प्रिय थे। नित्य गौ सेवा के व्रत का पालन करते थे। गौ सेवा उन्हें इतना प्रिय था कि कलकत्ता प्रवास के दौरान भी उन्होंने वहाँ एक गाय पाल रखी थी। विनम्र स्वभाव के सदल अधिकतर मौन रहना पसंद करते थे। वे बराबर कुछ न कुछ लिखते रहते। अपने साथ मिट्टी की एक छोटी सी दवात और कील की एक कलम रखते थे।

सदल मिश्र एक भगवत प्रेमी संकीर्तनकार थे। कथा-वाचन किया करते थे। आरा में उनके घर की एक दीवार पर सुंदर व बड़े-बड़े अक्षरों में लिखे गए राम नाम अक्षर यह बताते हैं कि भगवद्भक्ति आज भी वहाँ जीवित है। मिश्र जी के परिवार की वर्तमान पीढ़ी के कुछ लोग आज भी सदल साहित्य प्रकाशन के माध्यम से अपने कीर्तन संकलन और अन्य संबंधित रचनाओं का प्रकाशन करते रहते हैं।

प्रारंभिक शिक्षा आरा से प्राप्त करने के बाद ब्राह्मण परिवार की तत्कालीन परंपरा के अनुसार संस्कृत के उच्च शिक्षार्जन हेतु वे काशी भेजे गए। काशी से लौटने पर अपनी योग्यता और वाक्पटुता से इतने विख्यात हुए कि उन्हें डुमरांव नरेश के यहाँ पंडितों के शास्त्रार्थ हेतु आमंत्रित किया जाने लगा। कहा तो यह भी जाता है कि बाल्यकाल में ही उनका विवाह हो गया था और काशी से लौटने के पूर्व ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया। तत्पश्चात इन्होंने दूसरा विवाह किया जिससे इन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। 

पंडित जी की आर्थिक दशा पुराणों के सुविख्यात ब्राह्मण सुदामा से कुछ ही बेहतर बताई जा सकती है। परंतु इनकी पत्नी को अभिमान था कि उसके पंडित पति धनार्जन में भी किसी से कम नहीं है। एक बार उन्होंने पंडित जी से चूड़ियाँ खरीदने की इच्छा प्रकट की। लेकिन जब पंडित जी ने असमर्थता जताई तो वे अधीर हो गईं और आवेश में भोजपुरी की कुछ ऐसी व्यंग्योक्तियों का प्रयोग कर डाला कि पंडित जी का स्वाभिमानी मन इस बात के लिए दृढ़ संकल्प ले बैठा कि वे तत्काल ही धनार्जन के उद्देश्य से बाहर जाएँगे। इस समय पंडित जी युवा थे, उम्र २५ को छू रही थी। साधन के नाम पर न रेल थी, न मोटर - सो पैदल ही पटना के लिए चल पड़े। आरा से लगभग पंद्रह मील की दूरी पर कोइलवर के पास नाव आदि से सोन नदी पार करने के बाद पुनः पच्चीसों मील पैदल चल कर पटना पहुँचे। 

पटना में वे एक समृद्ध ज़मींदार के यहाँ रहने लगे। पंडित जी उन्हें पुराण पाठ सुनाया करते। धीरे-धीरे वाचन के समय अन्य लोग भी उपस्थित होने लगे। श्रोताओं में एक अँग्रेज़ भी थे जो उनके पांडित्य और साधु प्रकृति से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें कलकत्ता चलने के लिए निमंत्रित किया। इसी अँग्रेज़ के माध्यम से पंडित जी जॉन गिलक्रिस्ट के संपर्क में आए जो फोर्ट विलियम कॉलेज के हिंदुस्तानी विभाग के प्रधानाध्यापक थे। इस तरह पंडित जी को इसी कॉलेज में भाषा मुंशी के रूप में नियुक्ति मिल गई।

कोई भी शासक पहले यह सुनिश्चित करता है कि वह उस देश के आधार को समझे जिस पर उसे शासन करना है। भारत की भाषा व संस्कृति इस देश का मूलभूत आधार रही है। जॉन गिलक्रिस्ट का कार्य यही था कि भारत में आए अँग्रेज़ी शासकों-प्रशासकों के लिए भारतीय भाषाओं में पुस्तकें तैयार करवाना ताकि वे यहाँ के समाज व संस्कृति को भली प्रकार समझते हुए अपना उद्देश्य स्थापित कर सके। कहने को तो गिलक्रिस्ट की भाषा मिले-जुले शब्दों की हिंदुस्तानी भाषा थी जिसे अमूमन खड़ी बोली कहा जाता है, परंतु उनके भाषा-व्यवहार में प्रायः उर्दू की बहुतायत दिखाई देती है। उनकी भाषा संबंधी भ्रांति के बारे में रामकुमार वर्मा लिखते हैं, "रोमन लिपि और फारसी लिपि में विश्वास रखने वाले, अरबी और फारसी से आक्रांत खड़ी बोली को ही (जिसे वे हिंदुस्तानी कहते हैं) देश की विशिष्ट भाषा समझने वाले एवं संस्कृत के तत्सम एवं तद्भव शब्दों से मिश्रित खड़ी बोली को (जिसे वे हिंदवी कहते हैं) गंवारू समझने वाले जॉन गिलक्रिस्ट ने वास्तव में हिंदुस्तानी नाम से उर्दू का प्रचार किया।" 

गिलक्रिस्ट की आज्ञा पर ही पंडित जी ने अपने दो प्रसिद्ध अनुवाद ग्रंथ प्रस्तुत किए जो संस्कृत से हिंदी में किए गए हैं। वे स्वयं लिखते हैं, "अब संवत १८६० में नासिकेतोपाख्यान को जिसमें चंद्रावली की कथा कही गई है, देववाणी में कोई समझ नहीं सकता। इसलिए खड़ी बोली से किया।"

अपनी दूसरी पुस्तक आध्यात्म रामायण की भूमिका में लिखते हैं, "गिलक्रिस्ट साहब ने ठहराया और एक दिन आज्ञा की कि आध्यात्म रामायण को ऐसी बोली में कहो जिसमें फारसी-अरबी न आवे तब मैं इसको खड़ी बोली में करने लगा।"

सदल मिश्र हिंदी के उन चार प्रारंभिक लेखकों में से हैं जिन्होंने साहित्य में गद्य का स्वरूप तय किया। उनके साथ लल्लू लाल, मुंशी सदासुख लाल और इंशाअल्लाह ख़ाँ को भी यह यश प्राप्त है। लल्लू लाल ने जहाँ पंडित जी के साथ ही फोर्ट विलियम कॉलेज में अध्यापन के साथ-साथ अनुवाद कार्य किया, वहीं मुंशी सदासुख लाल और इंशाअल्लाह ख़ाँ इन दोनों से कुछ समय पहले हुए और दोनों ने अपनी स्वतंत्र मौलिक रचनाएँ भी की।

सुप्रसिद्ध विद्वान और विचारक श्री आर० आर० दिवाकर ने 'बिहार थ्रू द एजेज़' में लिखा है, "सदल मिश्र द्वारा परिवर्तित परिमार्जित गद्य की उपेक्षा विदेशी शासकों के उस रुख का परिचय देती है जिसे कचहरियों तथा सरकारी काम-काज में व्यवहृत होनेवाली भाषा के संबंध में भविष्य में अपनाने जा रहे थे।" समसामयिक लल्लू लाल की तुलना में पंडित जी ने अधिक परिमार्जित एवं सुगठित गद्य लिखा। परंतु फोर्ट विलियम कॉलेज के तत्कालीन अधिकारियों ने इसे पूरी तरह से नकार दिया। लेकिन बाद की पीढ़ियों ने यह सिद्ध कर दिया कि यह उनकी गलती थी।

डॉ० लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय के अनुसार ९ मई १८०४ को जेम्स मांउट ने कॉलेज कौंसिल के मंत्री चार्ल्स रॉथमैन के नाम लिखे गए एक पत्र में हिंदुस्तानी विभाग के लिए भाषा मुंशी लल्लू लाल और सदल मिश्र की उपस्थिति अनावश्यक समझी। उनका यह पत्र ११ जून १८०४ को कौंसल की बैठक में पेश हुआ और १ जुलाई १८०४ में उन्हें कॉलेज से अलग कर दिया गया। लेकिन १७ अक्तूबर १८०४ की बैठक में उन्हें फिर कॉलेज में ले लिया गया। इस निर्णय के पीछे केवल एक कारण था। वह यह कि इन दोनों के भाषा ज्ञान की कॉलेज में बराबर आवश्यकता थी। पंडित जी की पुस्तक 'नासिकेतोपाख्यान' की प्राप्ति के संबंध में इसके प्रथम संपादक श्री श्याम सुंदर दास लिखते हैं, "सन १९०१ में कलकत्ते की एशियाटिक सोसाइटी के पुस्तकालय में रक्षित हस्तलिखित पुस्तकों की जाँच करते हुए मुझे पं० सदल मिश्र द्वारा अनूदित चंद्रावती अथवा नासिकेतोपाख्यान की एक प्रति प्राप्त हुई थी। उस प्रति के आधार पर उसे संपादित कर मैंने नागरी प्रचारिणी ग्रंथमाला से प्रकाशित करवाया था।"

सदल मिश्र द्वारा अनूदित दूसरी पुस्तक 'आध्यात्म रामायण' के बारे में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के संचालक लिखते हैं, "उनकी दूसरी पुस्तक 'रामचरित' की प्रति संपूर्ण भारत में खोज कराने पर भी प्राप्त करना संभव न हो सका। उन्हीं दिनों विश्वस्त सूत्र से पता चला कि लंदन की इंपीरियल लाइब्रेरी में लेखक की दोनों पुस्तकों की एक-एक प्रति सुरक्षित है। परिषद ने दोनों की प्रतिलिपि कराने का संकल्प किया और यह भार श्री बीरेंद्र नारायण को सौंपा, जो उन दिनों लंदन में नाट्य कला का अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने दोनों की प्रतिलिपि कराने का कार्य बड़ी श्रद्धा और लगन से सफलतापूर्वक संपन्न किया।" फलतः बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के तत्वावधान में 'चन्द्रावती' एवं 'अध्यात्म रामायण' का प्रकाशन संयुक्त रूप से किया गया।

'चन्द्रावती' की रचना के लिए सदल मिश्र को मात्र ७० रुपये का पुरस्कार मिला था। रामायण के अनुवाद के लिए कौंसिल ने १८ नवंबर १८०५ की बैठक में सदल मिश्र को छब्बीस रुपये आठ आने दिए और १७ मई १८०६ की बैठक में कौंसिल ने संस्कृत की 'आध्यात्म रामायण' का खड़ी बोली में अनुवाद करने पर उन्हें तीन सौ रुपए देने का प्रस्ताव स्वीकार किया। २७ मई १८०९ की बैठक में कौंसिल द्वारा ही हिंदी और फ़ारसी शब्द सूची तैयार करने पर सदल मिश्र को पचास रुपए दिए गए। अपने रचना कार्य के लिए फोर्ट विलियम कॉलेज द्वारा उन्हें वेतन के अतिरिक्त पुरस्कार भी मिले थे।

फोर्ट विलियम में रचित अनूदित ग्रंथों के प्रकाशन में क्या कठिनाई हुई, इस प्रश्न पर श्रीमती शारदा देवी वेदालंकार ने अपने शोध प्रबंध में सदल मिश्र की रचनाओं के संबंध में प्रश्न उठाती हैं, "In spite of his prose being superior in every respect to that of Lallu Lal, his works were never published during his lifetime, for which no reason has been found" अर्थात "यद्यपि लल्लू लाल के गद्य की तुलना में सदल मिश्र का गद्य हर दृष्टि से श्रेष्ठ है, फिर भी सदल मिश्र की रचनाओं के उनके जीवनकाल में प्रकाशित न होने का कोई कारण नहीं मिलता।"

हालाँकि, प्रेमसागर तथा उससे संबंधित पुस्तकों के प्रकाशन का क्रम जारी रहा। अँग्रेज़ों द्वारा लल्लू लाल की रचना को अधिक महत्व दिए जाने का सबसे बड़ा कारण उनकी वह भाषा रही जिसे अँग्रेज़ों ने हिंदुस्तानी माना था। लल्लू लाल खड़ी बोली को फोर्ट विलियम कॉलेज का आविष्कार समझ रहे थे। उनकी दृष्टि सदल की भाषा पर गई ही नहीं जो वास्तव में हिंदी का परिमार्जित रूप थी और समाज द्वारा बोली जा रही थी। लल्लू लाल जहाँ दिल्ली-आगरे की ब्रज मिश्रित हिंदी को खड़ी बोली समझ रहे थे वहीं सदल मिश्र की खड़ी बोली जन सामान्य की भाषा थी। लल्लू लाल ने पद्य की अनेक पुस्तकों का प्रकाशन करवाया लेकिन अपनी कृतियों के अतिरिक्त किसी दूसरे लेखक के गद्य को प्रकाशित करवाने में पिछड़ गए। माना जाता है कि उन्हें भय था, सदल की रचनाएँ सामान्य और जनोपयोगी भाषा में रची होने के कारण उनके प्रेमसागर का महत्त्व कम हो सकता है। इस तरह सदल मिश्र की पुस्तकों के अप्रकाशित रह जाने का कुछ उत्तरदायित्व लल्लू लाल पर भी आता है।

इस काल के गद्य की विशदता एवं विविधता को ध्यान में रखकर श्री अयोध्या सिंह उपाध्याय ने भारतेंदु पूर्व के चार लेखकों - सदासुख लाल, इंशा अल्ला खाँ, लल्लू लाल तथा सदल मिश्र के युग को भाषा एवं साहित्य का विस्तार काल मानते हुए कहा है, "विस्तार काल के लेखकों ने हिंदी गद्य का क्षेत्र विस्तृत तो किया किंतु वे भाषा के संबंध में से कोई निश्चित आदर्श उपस्थित न कर सके।" इसका कारण यह हो सकता है कि सदल मिश्र द्वारा प्रयुक्त गद्य में पूर्वीपन (भोजपुरी) का प्रभाव है। यों तो उनके द्वारा प्रयुक्त शब्दों पर भोजपुरी के अतिरिक्त अवधी, ब्रज भाषा एवं बांग्ला के प्रभाव भी दृष्टिगत होते हैं, परंतु भोजपुरी का प्रभाव सर्वाधिक है। चूंकि उनकी रचनाएँ संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद हैं इसलिए उन्होंने हिंदी में प्रचलित तत्सम एवं तद्भव शब्दों को ही वरीयता दी है। सबकी समझ में आने वाली भाषा का प्रयोग करना सदल मिश्र का प्रथम लक्ष्य रहा है और इसके लिए उन्होंने तत्कालीन जनभाषा-अर्थात क्षेत्रीय बोलियों में प्रयुक्त शब्दों को भी उनकी उच्चारणगत वर्तनी में ही रखा है।

जॉन गिलक्रिस्ट की हिंदी में प्रायः सभी लेखक 'गिलक्राइस्ट' ही लिखते है। सदल मिश्र द्वारा इनका नाम 'गिलक्रिस्ट' लिखे जाने से यह निश्चित है कि उनके नाम को इसी रूप में उच्चरित होते हुए सुना गया और इस दृष्टि से उनके नाम का यही उच्चारण मान्य होना चाहिए। इस संबंध में 'फोर्ट विलियम कॉलेज' विषय के प्रसिद्ध अध्येता डॉ० लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय बताते हैं कि यद्यपि उन्होंने सभी ग्रंथों में इनका नाम गिलक्राइस्ट लिखा है, फिर भी इनका सही उच्चारण 'गिलक्रिस्ट' है। इस बात की पुष्टि विदेशी विद्वान भी करते हैं। 

सदल मिश्र की भाषा के वैविध्य के बारे में श्रीमती शारदा देवी वेदालंकार कहती हैं, "Sadal Mishra has enriched hindi literary style with the alankaras as 'upma', 'rupak', anupras" अर्थात "सदल मिश्र ने उपमा, रूपक, अनुप्रास जैसे अलंकारों के प्रयोग से हिंदी की साहित्यिक शैली को समृद्ध किया है।"

हिंदी गद्य में दोहरे शब्दों में प्रयोग की परिपाटी, जैसे- भीतर-बाहर, फूलो-फलो, बोहार-सोहार इन्होंने ही चलाई। इस प्रकार तत्कालीन गद्य लेखकों की कृतियों में शब्दों एवं वर्णों की आवृत्ति का प्रयोग सदल मिश्र का अपना वैशिष्ट्य है।

सदल मिश्र खेती-बाड़ी में अभिरुचि रखते थे और अपना अधिक समय आरा के छात्रों को संस्कृत पढ़ाने में लगाते थे। उदार हृदय के चलते निर्धन छात्रों को उनके भोजन तथा आवास की व्यवस्था करके, यथासंभव सहायता पहुँचाते थे। आरा स्थित इनके आवास पर एक छोटे विद्यालय के रूप में विद्याध्ययन की परंपरा इनके बाद भी कई वर्षों तक चलती रही।

कहा जाता है कि कलकत्ते से पहली बार जब वे बहुत दिनों बाद परिवार में लौटे, तो घर के लोग उन्हें पहचान भी न सके। उस समय डाक आदि की सम्यक व्यवस्था के अभाव में वर्षों तक पत्र-व्यवहार भी रुक जाने तथा पच्चीस वर्षों तक उनके घर न आने से परिवार के सदस्यों को यह विश्वास हो गया था कि उनका देहांत हो गया। कहते हैं कि परिवार के सदस्यों ने बारह वर्षों बाद उनका श्राद्ध भी संपन्न कर दिया था और उसी क्रम में उनकी पत्नी की चूड़ियाँ तोड़ उनकी माँग का सिंदूर भी धो डाला गया था। ऐसी परिस्थिति में पंडित जी के अकस्मात एक प्रभूत संपत्ति के साथ घर आने पर लोगों के आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता की सीमा न रही होगी। उनके वंशजों का कहना है कि उनका विधिवत पुनर्जन्म संस्कार समारोह संपन्न किया गया और उनकी धर्मपत्नी ने फिर से चूड़ियों के साथ सिंदूर धारण किया।

बाबू शिवनंदन सहाय लिखते हैं, "संवत १९०४ का इनके नाम का बयान नामा हमारे देखने में आया है, जो इस समय उनके पौत्र पं० रघुनंदन मिश्र के पास है। इसके पहले के कागजों में भी इनका नाम है। १९०५ सं० के एक काग़ज में इनका नाम न होकर केवल इनके वंशधरों का नाम देखा जाता है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि संवत १९०४ और १९०५ (१८४७-४८) के बीच में पं० सदल मिश्र की मृत्यु हुई। इनके वंशधरों का कहना है कि पंडित सदल मिश्र ने ८० वर्ष की आयु पाई थी।"

डॉ० उदय नारायण तिवारी कहते है, "खड़ी बोली हिंदी की सच्ची सेवा का जो कार्य हिंदी नवयुग के अरुणोदय सदल मिश्र द्वारा कलकत्ते में प्रारंभ किया गया उसे वहाँ से क्रमशः काशी के महान हिंदी सेवी भारतेंदु ने अपनाया। गंगासागर से संगम स्थल तक हिंदी गंगा के इस विकास कथा को आगे ले जाने वाले अनेक सदल मिश्र, भारतेंदु एवं निराला जैसे निस्वार्थ उदार, रसविद्ध कवियों एवं लेखकों की अभी प्रतीक्षा है।"

सदल मिश्र : जीवन परिचय

जन्म

१७६७-६८, आरा, बिहार

निधन

१८४७-४८

पिता

नंदमणि मिश्र

शिक्षा

  • प्रारंभिक शिक्षा आरा, बिहार से

  • संस्कृत की उच्च शिक्षा काशी से

कार्यक्षेत्र

  • कथावाचक

  • फोर्ट विलियम कॉलेज में भाषा मुंशी

साहित्यिक रचनाएँ

अनुवाद

  • नासिकेतोपाख्यान

  • आध्यात्म रामायण

संदर्भ

  • हिंदी के आदि शैलीकार - डॉ० नागेंद्र नाथ पांडेय

लेखक परिचय

सृष्टि भार्गव

कभी राहें रुकती हैं
कभी हवाएँ सहमती हैं
हम तो चले जा रहे
मस्तमौजी की तरह

हिंदी विद्यार्थी
ईमेल - kavyasrishtibhargava@gmail.com

9 comments:

  1. बेहतरीन जानकारी के लिए आभार आपका

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  2. बहुत सुंदर आलेख

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  3. वाह सृष्टि! एक और दमदार आलेख! सबसे पहले तो एक और unsung hero से मिलवाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद| बहुत सुन्दर और रोमांचक है आलेख... पढ़ती चली गयी... कहीं रुकने नहीं दिया तुम्हारे प्रवाह ने... बहुत सारा प्रेम और बधाई स्वीकार करो| well done!

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  4. वाह ..सृष्टि जी आपकी परिपक्व लेखनी ने इतना सार्थक, सारगर्भित और शोध परक आलेख इतना सुदृढ़ और धारा प्रवाह लिखा कि रोमांचित कर दिया मिश्र जी के व्यक्तित्व के बारे में पढ़ कर। उनकी कृतियों के विषय में हिंदी साहित्य के अध्ययन के दौरान जरूर पढ़ा था। पर इतना रोचक वर्णन ने अभिभूत कर दिया। सच में अच्छा लगा, हार्दिक शुभकामनाएं आपको। 🙏🏻🙏🏻🥰

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  5. सारगर्भित आलेख के द्वारा सदल मिश्र जी से परिचय कराने के लिए आपका आभार सृष्टि।
    शुभकामनाएँ,
    भावना सक्सैना

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  6. संग्रहणीय लेख।भविष्य में नई ऊंचाइयां छूने की शुभाशंसा।

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  7. सृष्टि, वाह! अत्युत्तम लेख, हर मायने में। सदल मिश्र का इतना सुंदर परिचय पाकर मैं धन्य हो गई । हिन्दी की सेवा निस्वार्थ और पूर्ण समर्पण से करने वाले सदल मिश्र सदृश सभी विभूतियों को नमन और तुम्हें इस शोधपूर्ण लिखे लेख के लिए साभार बधाई।

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  8. सृष्टि जी नमस्ते। आपने एक और अच्छा और जानकारी भरा लेख लिखा है। लेख पढ़ना सुखद रहा एवं प. सदल मिश्र जी को जानने का अवसर मिला। आपको इस लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  9. सुन्दर, सारगर्भित एवं रोचक आलेख के माध्यम से सदल मिश्र के जीवन और कार्यों से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद। हिंदी की सेविका सृष्टि, तुम्हारी ख़ूबसूरत लेखनी को सलाम।

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