छायावाद के प्रवर्तक मुकुटधर पाण्डेय का जन्म ३० सितंबर,१८९५ को छत्तीसगढ़ के एक छोटे से गाँव बालपुर में हुआ। बचपन से ही उन्हें साहित्य में रुचि थी। उन्होंने सात वर्ष की अवस्था में पिता की मृत्यु पर एक मुक्तक लिखा था, जिसे रोते-रोते महानदी की धार में बहा दिया। उनका गाँव महानदी के किनारे सारंगढ़-रायगढ़ मार्ग पर स्थित है। उल्लेखनीय है कि इसी महानदी की बीच धार में कुररी पक्षियों के रोदन को सुनकर मुकुटधर जी की वाणी से छायावाद की प्रथम कविता फूट पड़ी थी-
“बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात ।”
इतनी सुन्दर कविता की रचना अकारण नहीं हुई। बालपुर और महानदी के आस-पास का वातावरण ही इतना रमणीय है कि सहज ही कोई कवि बन जाय। यहाँ घनी अमराइयों के बीच सूरज झाँकता हुआ-सा प्रतीत होता है। और सूर्यास्त ऐसा मानों ‘अलता’ लगाये कोई नई-नवेली दुल्हन धीरे-धीरे कदम बढ़ा रही हो। इधर अमराई और पलाश वृक्षों की कतारें, मानों स्वागत में खड़ी हों। इस रमणीय वातावरण में पलाश की टहनियों के ऊपर रक्तिम लाल पुष्प-गुच्छों को देखकर उनका बालमन आनंद-विभोर हो उठता था। इस अनुपम सौंदर्य की अभिव्यक्ति इन शब्दों में हुई -------
“किंसुक- कुसुम! देख शाखा पर फूला तुझे
मेरा मन आज यह फूला न समाता है।
अपनी अपार छटा हमसे छिपा कर,
इतने दिवस भला तू कहाँ बिताता है?”
मुकुटधर जी को कवि-ह्रदय मिला था। उन्होंने न केवल काव्य के माध्यम से नवीन चेतना का परिचय दिया, बल्कि ‘छायावाद’ का नामकरण करते हुए उसे पहली बार व्याख्यायित भी किया। छायावाद, जिसे आधुनिक हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण पड़ाव माना जाता है। उसमें कला, कल्पना और दर्शन का अद्भुत संयोजन रहा है।
साहित्यिक दृष्टि से देखें तो छायावाद का भावोदय द्विवेदी-युग के उत्तरार्द्ध में ही हो गया था, किंतु इसका नामकरण सन १९२० में श्री मुकुटधर पाण्डेय द्वारा किया गया। उन्होंने द्विवेदी-युग के भीतर नवीन दृष्टि और जिज्ञासा की प्रवृत्ति को साहित्य में स्थान देकर एक नए युग का सूत्रपात किया। उन्होंने काव्य में न केवल आत्मगत भावनाओं को स्थान दिया बल्कि नवीन कोटि की अभिव्यंजना-प्रणाली के साथ-साथ भावात्मकता तथा परोक्ष-सत्ता को भी स्थान दिया। ‘हितकारिणी’ के सन १९२० के अंक में उन्होंने “छायावाद’ शब्द का पहली बार प्रयोग करते हुए उसके कुछ लक्षणों का भी उल्लेख किया है-
“भाषा क्या वह छायावाद
है न कहीं उसका अनुवाद ।”
इसके बाद उन्होंने जबलपुर से निकलने वाली पत्रिका “श्रीशारदा” के १९२० के चार अंकों में छायावाद संबंधी महत्वपूर्ण लेख लिखा- ‘हिंदी में छायावाद’। इस लेख का ऐतिहासिक महत्व है। इसके पूर्व न तो किसी ने छायावाद का नामकरण किया था और न ही छायावाद संबंधी लक्षणों की ओर किसी ने संकेत किया था। छायावाद के संबंध में चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा- “हिंदी में यह बिल्कुल नया शब्द है। यह अंग्रेजी शब्द ‘मिस्टिसिज़्म’ के लिए आया है।” इसी लेख में उन्होंने छायावाद को परिभाषित करते हुए कहा- ”छायावाद एक ऐसी मायामय सूक्ष्म वस्तु है कि शब्दों के द्वारा उसका ठीक-ठीक वर्णन करना असंभव है, कि उसमें शब्द और अर्थ का सामंजस्य बहुत कम रहता है”। इस प्रकार उन्होंने इसमें भावगत और भाषागत सूक्ष्मता को लक्षित किया। सूक्ष्म भावलोक अथवा अनुभूति की अंत:प्रेरणा ही छायावाद का प्रधान लक्षण है। फिर उन्होंने यह भी कहा कि “यथार्थ में छायावाद भाव-राज्य की वस्तु है। इसमें केवल संकेत से ही काम लिया जाता है। जिस प्रकार कोई समाधिस्थ योगी समाधि से जागने पर ब्रह्मानंद के सुख का वर्णन वचनों से नहीं कर सकता, उसी प्रकार कवि भी अपनी ह्रदयगत भावनाओं को स्पष्ट रूप से शब्दों में नहीं लिख सकता।”
हम जानते हैं कि आधुनिक हिंदी साहित्य में स्वच्छंदतावाद का सर्वप्रथम आभास श्रीधर पाठक की रचनाओं में मिलता है। उनकी इस स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति का अनुकरण मुकुटधर पाण्डेय, बद्रीनारायण भट्ट, रूपनारायण पाण्डेय आदि ने किया। इस समय उनकी रचनाओं में स्वच्छंदता और संकेतात्मकता के साथ-साथ जीवन की गतिशीलता, भाव-व्यंजकता जैसी प्रवृत्तियां दिखाई देने लगी थीं। वस्तुत: नवीन चेतना से संपन्न ये नवोदित कवि द्विवेदी-युग की परिपाटी पर न चलकर खड़ीबोली काव्य को अधिक कोमल, सरस और चित्रमयी तथा अंतर्भाव-व्यंजक बनाने में प्रवृत्त हुए। इसी का परिणाम है कि मुकुटधर जी की रचनाओं में सौंदर्य-प्रियता, आध्यात्मिकता, कोमल भावानुभूति और जिज्ञासा की प्रवृत्ति विद्यमान है। ‘कुररी के प्रति’ उनकी एक प्रसिद्ध रचना है, जिसे छायावाद की पहली रचना कहा जाता है, उसमें जिज्ञासा की प्रवृत्ति देखिए-
बता मुझे ऐ विहाग विदेशी अपने जी की बात,
पिछड़ा था तू कहाँ आ रहा जो कर इतनी रात।
शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप,
बता कौन सी व्यथा तुझे है, है किसका परिताप?
इसी प्रकार उनकी रचनाओं में मानवतावाद के स्वर भी स्पष्ट दिखाई देते हैं। वास्तव में यह दृष्टि नैतिकता और सांस्कृतिक बोध की ही तलाश थी, जो सीधे सामाजिक जीवन और परिस्थितियों से संबद्ध थी। “विश्वबोध’ कविता में वे कहते हैं-
खोज में हुआ वृथा हैरान
यहाँ ही था तू हे भगवान ।
दीन हीन के अश्रु नीर में
पतितों की परिताप पीर में,
तेरा मिला प्रमाण।
कहा जा सकता है कि मुकुटधर जी ने छायावाद को एक नवीन दृष्टि दी और चेतना का नया मार्ग प्रशस्त किया। उनके काव्य में जितनी गंभीरता है उतनी ही सहजता और मधुरता भी है । उन्हीं के शब्दों में-
शीतल स्वच्छ नीर ले सुंदर,
बता कहाँ से आती है।
इस जल्दी में महानदी
तू कहाँ घूमने जाती है?
मुकुटधर जी के रचनाकार व्यक्तित्व का एक दूसरा पक्ष भी है- वह है उनके अनुवादक और कहानीकार रूप का। उन्होंने ‘ह्रदयदान’, ‘प्रायश्चित’ जैसी अनेक श्रेष्ठ सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर आधारित कहानियाँ लिखीं, वहीं ‘लच्छमा’, ‘शैलबाला’ नाम से उड़िया उपन्यासों का अनुवाद भी किया। उन्होंने कालिदास के ‘मेघदूत’ का छत्तीसगढ़ी में भी अनुवाद किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने समकालीन रचनाकारों- रवींद्रनाथ ठाकुर, महावीरप्रसाद द्विवेदी, जगन्नाथप्रसाद ‘भानु’, फकीरमोहन सेनापति, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, प्यारेलाल गुप्त आदि के बहुत ही भावपूर्ण संस्मरण भी लिखे हैं।
मुकुटधर जी के व्यक्तित्व का एक तीसरा पक्ष भी है, वह है- अपने समय के रचनाकारों से बराबर संवाद बनाये रखना। एक साक्षात्कार में यह पूछे जाने पर कि आप किन-किन रचनाकारों से प्रभावित थे? , तो उनका कहना था- “मैं ‘हरिऔध’ जी, राय देवीप्रसाद पूर्ण, मैथिलीशरण गुप्त जी से विशेष रूप से प्रभावित था। मुझ पर उड़िया और बंगला का भी प्रभाव पड़ा, जिनमें राधानाथ राय, माइकल मधुसूदन दत्त, डी.एल. राय और रवीन्द्र बाबू प्रमुख हैं”। जब उनसे यह पूछा गया कि आप तो द्विवेदी-युग में द्विवेदी जी के प्रभाव में लेखन प्रारंभ कर चुके थे, फिर द्विवेदी युगीन कविता आपको अप्रासंगिक क्यों जान पड़ी? तो उन्होंने कहा- “मैंने हिंदी काव्य-साहित्य की अभिवृद्धि की दृष्टि से एक नई काव्य-शैली की सिफारिश की थी, जो व्यंजना-प्रधान थी। नई अभिव्यंजना की तलाश में पाश्चात्य साहित्य का संपर्क ही प्रेरक रहा है, ऐसा मेरा मानना है।” स्पष्ट है कि वे अंग्रेज़ी के रोमांटिक कवियों- वर्ड्सवर्थ, शैली, कीट्स आदि की रचना-धर्मिता से प्रभावित थे।
इस प्रकार मुकुटधर पाण्डेय का रचनाकार-व्यक्तित्व एक व्यापक धरातल पर प्रतिष्ठित है। उन्होंने एक नवीन चेतना के रूप में छायावाद का नामकरण करते हुए उसे व्याख्यायित तो किया ही, खड़ीबोली हिंदी की समृद्धि एवं विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । १९२८ में कलकत्ता हिंदी साहित्य सम्मलेन के अधिवेशन में उन्होंने गाँधी जी और सुभाष बाबू के साथ मंच साझा करते हुए हिंदी के पक्ष में बात रखते हुए कहा था-
स्वतंत्रता, शिक्षा कला-कल-कूजिता,
धन्य चैतन्य की यह बंग भू।
रत्न कंचन के सुभग संयोग-सा,
आज हिंदी की बनी है रंग भू।
इन महमाना का प्रभाव साहित्य के क्षेत्र में जितना शिखर पर था उनका रहन-सहन उतना ही सामान्य था। सामान्य जिंदगी जीते हुए ६ नव. १९८९को ९४ वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। मेरे लिए यह सौभाग्य की बात है कि मुझे उनका स्नेहिल-सान्निध्य मिला।
रामनारायण पटेल एक कवि, समीक्षक और कुशल वक्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं। आपके मार्गदर्शन में दर्जनों शोधार्थी एम.फिल./ पी एच. डी. की उपाधि प्राप्त कर चुके हैं| छायावाद, नवगीत, हाइकु संबंधी आपकी सात आलोचनात्मक पुस्तकें तथा छ: कविता संकलन का भी प्रकाशन हो चुका है। आपको ‘साहित्य सारश्वत’, ‘साहित्य शिरोमणि’ जैसे कई प्रतिष्ठित सम्मान मिल चुके है|
मोबाइल: 9968447824
ईमेल : dr.rnpatel66@gmail.com
रामनारायण पटेल जी ने बहुत बढ़िया लेख लिखा है! उद्धरण, साक्षात्कार की झलकियों और लेखन-विमर्श यात्रा से छायावाद की परिभाषा में मुकुटधर पाण्डेय जी का योगदान बखूबी उभर आया है।🙏🏻🌼
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ReplyDeleteहर सुबह इस शृंखला के अगले आलेख का इंतज़ार रहता है जिसे पढ़कर सुबह और उजली हो जाती है। मुकुटधर पाण्डेय जी के बारे में यह आलेख पढ़कर, उनके बारे में जानकर, उनको और पढ़ने की इच्छा प्रबल हुई है।
ReplyDeleteरामनारायण पटेल जी को बेहतरीन लेख लिखने के लिए धन्यवाद और बधाई।
महत्वपूर्ण आलेख है। मुकुटधर पांडेय जी को जानने के साथ-साथ छायावाद के उन्मेष को समझने का अवसर मिला। पटेल जी को बधाई!
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