Monday, October 24, 2022

स्वामी करपात्री महाराज : धर्म सम्राट स्वामी हरिनारायण



उत्तरप्रदेश में प्रतापगढ़ ज़िले के भटनी नामक गाँव में पंडित रामनिधि ओझा और श्रीमती शिवरानी ओझा अपने तीन पुत्रों के साथ रहते थे। इनके पूर्वज गोरखपुर ज़िले के ओझोली गाँव के निवासी थे। पंडित ओझा जी बड़े ही सात्विक तथा धार्मिक प्रकृति के ब्राह्मण थे। उनके विशद ज्ञान को देखते हुए कालकोकर के राजा ने उनसे प्रतापगढ़ के भटनी गाँव में आकर बसने का आग्रह किया। ओझा जी पुरातन सभ्यता तथा संस्कृति के प्रेमी थे और बच्चों से प्रारंभिक शिक्षा समाप्त करने के पश्चात संस्कृत पढ़ने की अपेक्षा रखते थे। उनके तीन पुत्रों में से कनिष्ठ पुत्र का नाम हरिनारायण था, जिसका जन्म वर्ष १६०७ में श्रावण मास की शुक्ल द्वितीया को हुआ।

हरिनारायण ने भी अपनी प्रांरभिक शिक्षा समाप्त करने के पश्चात संस्कृत ग्रंथों को पढ़ना आरंभ किया। तीक्ष्ण बुद्धि होने के कारण उन्होंने शीघ्र ही संस्कृत का ज्ञान प्राप्त कर लिया। उनका स्वभाव जन्म से ही वैरागी था। सांसारिक कार्यों में उन्हें कोई रस नहीं आता था। केवल नौ वर्ष की आयु में ही उन्हें जीवन से उदासीनता होने लगी थी और इस मोह-माया से दूर होने के ख़ातिर वे बार-बार घर छोड़कर किसी अज्ञात वस्तु की खोज में भाग निकलते थे। एक दो बार उनके पिता तथा भाइयों ने उन्हें खोज निकाला और घर ले आए। परंतु कुछ दिनों पश्चात वही क्रम पुनः चलने लगता था। उनका मन घर में लगता ही नहीं था। पिता को लगा कि अगर हरिनारायण का विवाह कर दिया जाए तो उसका मन घर-संसार में लगना शुरु हो जाएगा। इसलिए उनका विवाह पास के खंडवा नामक गाँव की एक कन्या के साथ कर दिया गया। किंतु विवाह के पश्चात भी स्थिति वही थी। सन १६२८ में सत्रह वर्ष की आयु में उन्हें एक कन्या रत्न की प्राप्ति हुई। उसके बाद तो जैसे वे पूरी तरह विचलित हो गए और आखिरकार उन्होंने पिता की अनुमति लेकर अपना घर छोड़ दिया। घर से तो निकल गए थे पर जाना कहाँ है? करना क्या है? कुछ पता नहीं था। गाँव-गाँव पैदल चलकर नदी-नालों को पार करते हुए बीहड़ वनमार्गों पर चलते-चलते उनके पैरो में छाले आ गए थे। अनेक दिनों की यात्रा के पश्चात वे प्रयाग नदी के समीप एक कुटिया में जा पँहुचे। वहाँ उन्होंने देखा कि एक महात्मा वट-वृक्ष की छाया में तपस्या कर रहे हैं। ये महात्मा अपना ध्यान लगाकर प्रभु का नामस्मरण कर रहे थे। ध्यान भंग होने के पर उन्होंने देखा कि सामने एक नवयुवक खड़ा है। उससे वहाँ आने का आशय जानकर महात्मा ने उसे नरवर जाकर अध्ययन करने की सलाह दी और आशीर्वाद दिया कि माँ सरस्वती की तुम पर सदा विशेष कृपा बनी रहे। उनकी आज्ञा लेकर हरिनारायण निकल पड़े। ये महात्मा स्वामी ब्रम्हानंद सरस्वती जी महाराज थे, जो आगे चलकर ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य हुए। उनका प्रधान आश्रम प्रयाग के आलोपी बाग़ में अभी भी विद्यमान है।

नरवर में प्राचीन काल से ही सांगवेद विद्यालय स्थापित है जहाँ उन दिनों ऐच्छिक ब्रह्मचारी श्री जीवनदत्त जी महाराज अध्ययन का कार्य करते थे। उन्हीं के चरणों में अपने आप को समर्पित कर हरिनारायण देववाणी संस्कृत का अध्ययन कर रहे थे। उन दिनों वहाँ स्वामी विश्वस्वराश्रम महाराज भी उपस्थित थे जो षड्दर्शनाचार्य होने के साथ-साथ एक प्रकांड विद्वान पंडित थे। हरिनारायण ने अनेक वर्षों तक उन्हीं के सान्निध्य में व्याकरण तथा दर्शनशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की। कुछ वर्षों के उपरांत स्वामी अच्युतमुनी के अनुरोध पर वे स्वामी विश्वस्वराश्रम के साथ नरवर त्याग कर भृगुक्षेत्र चले गए। जहाँ उनका स्वाध्याय चलता रहा और गुरु की कृपा से उन्होंने पांडित्य को प्राप्त कर लिया।

अध्ययन और शिक्षा के पश्चात हरिनारायण ने तपस्या करने का प्रयास किया। इस दौरान उन्होंने अपना नाम हरिहर चेतन(चैतन्य) कर लिया और उत्तरखंड में स्थित हिमालय की हिमाच्छादित तलाटियों में बैठकर तपस्या करने लगे। भूख और प्यास की यातना सहते हुए उन्होंने अपने शरीर की ममता का त्याग कर दिया और एक निरंतर साधना में रत हो गए। तीन वर्षों की घोर तपस्या के पश्चात उन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई और वे परब्रह्म के रूप में अपने आश्रम वापस लौटे। उनके मुखमंडल पर अलौकिक आभा के दर्शन होने लगे थे। आश्रम पहुँच कर सर्वप्रथम हरिहर ने अपने गुरु के चरणों की वंदना की और आशीर्वाद प्राप्त किया। अब हरिहर केवल एक कौपीन धारण करते थे। केवल पवित्र तथा सदाचारी ब्राह्मणों के घर पर ही भिक्षा माँगने जाते थे। भोजन भी अपने हाथ को ही पात्र बनाकर उसी में ग्रहण करते थे। इसलिए आगे चल कर उनका नाम 'स्वामी करपात्री जी' पड़ गया जो सर्वाधिक प्रसिद्ध हो गया।

कुछ वर्ष बाद करपात्री जी आश्रम से प्रयाग आए जहाँ उन्होंने अपने प्रथम गुरु स्वामी ब्रम्हानंद सरस्वती महाराज का दर्शन किया। वहीं पर स्वामी विश्वस्वराश्रम जी के अनुरोध पर करपात्रीजी ने सन १६३१ में गुरु ब्रह्मानंद जी से संन्यास की दीक्षा ली। संन्यासाश्रम में दीक्षित होने के पश्चात स्वामी जी ने धर्म और संस्कृति का प्रचार करना प्रारंभ कर दिया। करपात्रीजी ने भगवद्गीता की कथा सुनाकर लोगों में हिंदु धर्म के प्रति आस्था उत्पन्न करने का उपक्रम शुरू किया। इनके प्रवचन की पद्धति बड़ी ही समुचित होती थी। वे संस्कृत की कठिन तथा अप्रयुक्त शब्दावली का उपयोग करते थे कि साधारण श्रोताओं को इन्हें समझने में अत्यंत कठिनाई होती थी।

सन १६४० में स्वामी करपात्रीजी ने धर्म के प्रचार तथा भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए काशी में धर्म संघ की स्थापना की। इस धर्मसंघ के दो विभाग थे, शैक्षणिक और राजनैतिक। शैक्षणिक विभाग के अंतर्गत संघ के परिसर में ही एक संस्कृत पाठशाला का स्थापना की गई जहाँ छात्र बड़े मनोयोग से संस्कृत का अध्ययन करते हैं। इस पाठशाला में संस्कृत व्याकरण सहित साहित्य, ज्योतिष, वेद और अनेक शास्त्रों का अध्यापन होता है। सरकारी अनुदान को अस्वीकार करके करपात्रीजी ने धार्मिक जनता के दान और जमा पूँजी से ही इस पाठशाला को चलाया। पाठशाला धर्मसंघ शिक्षा मंडल के अंतर्गत ही संचलित होती है। अन्य कई विद्वान पंडितो के सहकार्य से इस शिक्षा मंडल का कार्य सुचारु रूप से हो रहा है। परिणामस्वरूप संस्कृत विद्या का प्रचार देश भर में हो रहा है। धर्मसंघ के दूसरे विभाग 'राजनैतिक' के अनुसार करपात्रीजी ने रामराज्य परिषद संस्था की स्थापना की। इस संस्था का एक मात्र लक्ष्य था देश में रामराज्य की स्थापना करना। रामराज्य परिषद की ओर से सन १६५२ में प्रथम लोकसभा चुनाव के अवसर पर स्वामी जी उम्मीदवार के रूप में खड़े हुए थे।

सन १९४७ में पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे उस दौरान स्वामी करपात्रीजी ने लोकसभा में हिंदू कोड बिल उपस्थित किया। स्वमीजी ने इस कोड बिल को अशास्त्रीय बताते हुए इसका प्रबल विरोध किया। स्थान-स्थान पर सभा का आयोजन कर इसके विरोध में जनमत तैयार किया। इस कार्य में संत श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने इनकी बड़ी सहायता की थी। धार्मिक जनता के प्रबल विरोध के कारण पं० नेहरू को हिंदू कोड बिल स्थगित करना पड़ा था। इसी प्रकार स्वामी जी ने गौहत्या-प्रतिरोध पर भी अपना समर्थन दिखाया था। भारत में गौवंश की क्‍या महत्ता है इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं है। गौ को माता कहा जाता है। अतः भारतवर्ष में गौहत्या न हो और इस पर कानून के द्वारा प्रतिबंध लगा दिया जाए, इसके लिए करपात्रीजी ने बहुत बड़ा आंदोलन खड़ा किया। इस कार्य में श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी तथा पुरी के शंकराचार्य स्वामी निरंजनदेव तीर्थ ने बड़ा सहयोग किया। इन दोनों महात्माओं ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर गौहत्या पर प्रतिबंध लगाने हेतु आमरण अनशन तक प्रारंभ कर दिया। स्वामी करपात्रीजी ने अपने भाषणों तथा लेखों द्वारा इस आंदोलन को और भी अधिक बलवान बनाया। इसके लिए दिल्‍ली में प्रदर्शन करने के कारण इन्हें जेल की यातनाएँ भी भुगतनी पड़ी।

स्वामी करपात्रीजी का यह विश्वास था कि देश के कल्याण और मंगल के लिए यज्ञों का विधान अत्यंत आवश्यक है। इसी सद्भावना से प्रेरित होकर उन्होंने स्थान-स्थान पर अनेक यज्ञों का विधान किया था। सन १६४२ में दिल्‍ली में शत-मुखकोटि-होम नामक यज्ञ का आयोजन इन्होंने बड़ी धूम-धाम से किया था, जिसे देखने के लिए जन सामान्य नित्यप्रति उपस्थित होता था। इसके एक वर्ष पश्चात‌ सन १६४३ में कानपुर में गंगा के पार एक महान यज्ञ का आयोजन किया गया। अनेक धर्म पाखंडियों के प्रबल विरोध करने पर भी यह यज्ञ सकुशल पूर्ण हो गया। कानपुर के पश्चात‌ काशी में गंगा तट पर पुनः एक महायज्ञ किया गया। इस यज्ञ के अवसर पर १०८ बार श्री भगवद्गीता का पाठ भी आयोजित किया गया था।

स्वामी करपात्रीजी का चरित्र अत्यंत उदात्त तथा पवित्र था। वे प्रतिदिन प्रायः २ बजे उठते थे तथा नित्यकर्म करके पूजा के आसन पर बैठ जाते थे। यह पूजन घंटों प्रातः काल तक चलता था। पूजन के त्रिकाल नियमों का पालन करते थे। दिन में घंटों वेद-भाष्य की रचना के लिए लेखन का कार्य करते थे। संध्या के समय प्रायः भागवत की कथा कहते थे अथवा आगत भक्तों को उपदेश देते थे। संध्या को पाँच बजे केवल एक बार भोजन ग्रहण करते थे। रात्रि में पुनः पूजा-पाठ का क्रम चलता था। इस दिनचर्या का पालन करने में वे बड़े कठोर थे। करपात्रीजी प्रायः पैदल ही चला करते थे। एक स्थान से सुदूर दूसरे स्थान तक जाने के लिए या तो नौका से यात्रा करते थे अथवा पैदल ही चलते थे। 

स्वामी करपात्रीजी ने अपने धार्मिक तथा राजनैतिक विचारों के प्रचार हेतु 'सन्मार्ग!' नामक दैनिक समाचारपत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया। इस पत्र के द्वारा स्वामीजी के विचारों का प्रचार देश-विदेश में होने लगा। यह पत्र आजकल काशी और कलकत्ता दोनों स्थानों से प्रकाशित होता है। स्वमीजी ने कुछ दिनों तक 'सिद्धान्त’ नामक साप्ताहिक पत्र का भी प्रकाशन किया था जो अनेक वर्षों तक चलता रहा। स्वामी करपात्रीजी के लिखने की शक्ति भाषणों की अपेक्षा कम नहीं थी। वे लेखनी के धनी थे। संस्कृत एवं हिंदी भाषाओं में ग्रंथों का प्रणयन कर उन्होंने पंडितो तथा जिज्ञासु जनता के धर्म और ज्ञान की वृद्धि हेतु एक महान कार्य किया है। संस्कृत ग्रंथ पंडितों को लक्ष्य कर लिखे गए हैं तथा हिंदी ग्रंथ सामान्य जनता के लिए लिखे गए हैं। संस्कृत रचनाओं में प्रमुख ग्रंथ है वेदविषयक ग्रंथ(वेदार्थपारिजात), तन्त्रविषयक ग्रंथ, श्रीविद्यारत्नाकर तथा भक्तिविषयक ग्रंथ। 
स्वामी करपात्री जी नवीन शैली से वेदों की व्याख्या करने में संलग्न रहते थे। वेदों के संबंध में स्वामी जी की वेदभाष्य-भूमिका के दो विस्तृत ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं जिसमें हिंदी पाठकों को ध्यान में रखकर संस्कृत के साथ ही उसका हिंदी अनुवाद भी दिया गया है। वेदार्थपारिजात नामक ग्रंथ दो हज़ार पृष्ठों का है जो इनके वेद भाष्य की भूमिका हैं। वेद के विशुद्ध स्वरूप का परिचय देने तथा परंपरागत वेद प्रमाण्य की मीमांसा के लिए वेदस्वरूप विमर्श ग्रंथ का निर्माण किया। यह ग्रंथ ४५० पृष्ठों में राधाकृष्ण प्रकाशन संस्थान, कलकत्ता से १६८० ई० में प्रकाशित है। हिंदी में इनकी रचनाएँ प्रमेय बहुल हैं। उनके प्रधान ग्रंथ इस प्रकार है विचारपीयूष, रामायण मीमांसा, भक्तिसुधा, श्रीभगवत्‌ तत्त्व, रामराज्य और मार्क्सवाद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जो हिंदू-धर्म की उपादेयता तथा प्रामाणिकता के उत्तम उदाहरण हैं। इसी तरह वेद-प्रमाण्य-मीमांसा, इस छोटी-सी पुस्तिका में विषय की महत्ता तथा विपुल प्रचार की दृष्टि को प्रस्थापित किया गया है। 

श्रीविद्या रत्नाकर ग्रंथ में प्राचीन महनीय ग्रंथों जैसे कुलार्णव, तन्त्रराज, कल्पसूत्र, श्रीविद्यार्णव, त्रिपुरारहस्य एवं नित्योत्मव आदि को मुख्य आधार बनाकर तंतुतद विषयों का विवरण प्रस्तुत किया है। ग्रंथ के अंत में आदि शंकराचार्य द्वारा प्रणीत प्रख्यात स्तोत्र सौंदर्यलहरी, त्रिपुरसुन्दरी, मानसपूजा स्तोत्र, बालात्रिपुरा-सुन्दरी मानसपूजा स्तोत्र भी दिए गए हैं।

स्वामी जी द्वारा रचित भक्तिरसार्णव का मुख्य उद्देश्य संस्कृत में 'भक्ति-रस' का विस्तृत तथा गंभीर विवेचन प्रस्तुत करना है। संस्कृत की शास्त्रीय पद्धति में निबंध होने पर भी उदाहरण की प्रचुरता के कारण यह ग्रंथ सरल और सुबोध है।
करपात्रीजी ने हिंदी, बांग्ला, उड़िया, असमिया, मराठी, गुजराती आदि भाषाओं में उपलब्ध रामकथा-संबधी ग्रंथों का विवरण प्रस्तुत करने के पश्चात‌ दक्षिणभारतीय भाषाओं तमिल, तेलुगु, कन्नड़ तथा मलयालम में उपलब्ध भगवान‌ राम के चरित संबंधी काव्यों का सांगोपांग विवेचन किया है। स्वामी जी के मार्क्सवाद और रामराज्य प्रकाशित विशालकाय ग्रंथ में पाश्चात्य राजनीति और भारतीय राजनीति का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत कर कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों की अनुपयोगिता सिद्ध की गई है।

स्वामी जी के भाषणों एवं ग्रंथों दोनों की एक मधुर दिशा है। सन १९८२ को केदारघाट वाराणसी में स्वेच्छा से उनके पंच प्राण महाप्राण में विलीन हो गए। उनके निर्देशानुसार उनके नश्वर पार्थिव शरीर का केदारघाट स्थित श्री गंगा महारानी की पावन गोद में जल समाधि दी गई।

स्वामी करपात्री जी महाराज : जीवन परिचय

जन्म

सन १९०७, प्रतापगढ, उत्तर प्रदेश

निधन

सन १९८२, केदारघाट, वाराणसी

माता

श्रीमती शिवरानी ओझा 

पिता

श्री रामनिधि ओझा 

कर्मक्षेत्र

राजस्थान

साहित्यिक रचनाएँ

प्रसिद्ध पुस्तकें 

  • गोपी गीत 

  • भक्ति सुधा

  • भागवत सुधा 

 

प्रमुख ग्रंथ

  • विचारपीयूष

  • रामायण मीमांसा

  • श्रीविद्यारत्नाकर

  • भक्तिरसार्णव

  • श्रीभगवत्‌ तत्त्व

  • रामराज्य और मार्क्सवाद

  • राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू-धर्म

अनुवाद

  • वेदभाष्य-भूमिका ग्रंथ का संस्कृत के साथ हिंदी अनुवाद

संपादन

  • 'सन्मार्ग! दैनिक समाचारपत्र

  • 'सिद्धान्त’ सात्ताहिक पत्र

उपाधी-सम्मान

  • हिन्दू धर्म सम्राट 

विशेष ख्याति 

  • भारतीय संत एवं संन्यासी राजनेता

  • अखिल भारतीय धर्म संघ की स्थापना की थी

  • भारत की एक परंपरावादी हिंदू पार्टी की स्थापना 

  • प्रथम लोकसभा चुनाव में ३ सीटें प्राप्त

 

संदर्भ

  • https://hi.krishnakosh.org
  • https://infohindi.com/swami-karpatri-maharaj-biography-info-hindi/
  • https://hihindi.com/swami-karpatri-ka-jivan-parichay-history/

लेखक परिचय

सूर्यकांत सुतार 'सूर्या'  

साहित्य से बरसों से जुड़े होने साथ-साथ कई समाचार पत्रों, पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में लेख, कविता, ग़ज़ल, कहानियाँ आदि प्रकाशित।
चलभाष : +२५५ ७१२ ४९१ ७७७
ईमेल : surya.4675@gmail.com

1 comment:

  1. हिंदी से प्यार है' के सम्पूर्ण परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ।

    सूर्या जी नमस्ते। आपने दीपावली के शुभ पर्व पर एक सुंदर लेख प्रस्तुत किया। स्वामी करपात्री जी का सामाजिक योगदान सर्वविदित है। लेख से स्वामी करपात्री जी के साहित्यिक योगदान को जानने का अवसर मिला। आपको इस बढ़िया लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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