हिंदी साहित्य की सर्वप्रथम कहानी होने की दावेदार कहानियों 'रानी केतकी की कहानी' (१८०३ के आसपास), 'राजा भोज का सपना' (उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्ध), 'एक टोकरी भर मिट्टी' (१९०१), 'ग्यारह वर्ष का समय'(१९०३), 'दुलाई वाली'(१९०७), 'उसने कहा था'(१९१५) तथा कुछ अन्य के बीच किशोरीलाल गोस्वामी की कहानी 'इंदुमती' (१९००) का भी नाम आता है।
इस प्रेम कहानी के प्रमुख पात्र इंदुमती, राजकुमार चंद्रशेखर और इंदुमती के पिता हैं। संक्षेप में इसका कथानक कुछ यूँ है। इंदुमती अपने पिता के साथ जंगल में एक कुटी में रहती है। वह इस बात से बिलकुल अनभिज्ञ है कि इस दुनिया में उसके बूढ़े पिता के अलावा और भी लोग हैं। एक दिन वह नदी में अपनी परछाई देखकर ऐसे शरमाई कि उसके बाद उसने पानी में कभी नहीं झाँका। जब वह सोलह वर्ष की थी, एक दिन पेड़ की छाया में बीस-बाईस वर्षीय एक नवयुवक को देखकर पहले तो वह बुरी तरह से घबराई, लेकिन शीघ्र ही उसकी उससे दोस्ती और फिर प्यार हो गया। इंदुमती के पिता उन दोनों के प्यार की बहुत कड़ी परीक्षा लेने के बाद उन दोनों का विवाह कर देते हैं। (इब्राहिम लोदी के देवगढ़ पर हमले के समय इंदुमती की माँ आत्महत्या कर लेती है। इब्राहिम लोदी से बदला लेने की भावना से चार वर्षीय इंदुमती के साथ पिता अपने कुछ सेवकों को साथ लेकर जंगल में अज्ञातवास के लिए चले जाते हैं। वे यह प्रतिज्ञा भी करते हैं कि इंदुमती की शादी उसी से करेंगे, जो इब्राहिम लोदी का वध करेगा। इंदुमती को जंगल में जो युवक मिला था, वह अजयगढ़ का राजकुमार चंद्र शेखर था, जो धोखे से इब्राहिम लोदी की हत्या करने के बाद जंगल में भटक गया था )
वैसे स्वयं किशोरीलाल ने इंदुमती को एक लघु-उपन्यास माना है। उनके पुत्र छबीलेलाल गोस्वामी के अनुसार किशोरीलाल ने 'मिलन' कहानी को अपनी सर्वश्रेष्ठ कहानी बताया है। हिंदी की पहली कहानी कौनसी है? इसे लेकर विशेषज्ञों के बीच मतभेद हैं, लेकिन इतना तय है कि हिंदी के प्रारंभिक गद्यकारों में किशोरीलाल गोस्वामी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनकी गिनती भारतेंदु काल के प्रमुख लेखकों में होती है। इनके समकालीन लेखकों में लाला श्री निवास दास, बालकृष्ण भट्ट, राधाकृष्ण दास, ठाकुर जगमोहन सिंह, लज्जाराम शर्मा, देवकीनंदन खत्री और गोपालराम गहमरी उल्लेखनीय हैं।
किशोरीलाल के दादा आचार्य गोस्वामी केदारनाथ और पिता वसुदेवलाल वृंदावन के प्रसिद्ध विद्वान थे। वृंदावन के काशी-घाट पर निंबार्क संप्रदाय का जो मंदिर है, उसकी स्थापना इनके दादा के हाथों हुई थी। इनके नाना गोस्वामी श्री कृष्ण चैतन्यदेव संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। वे राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद के पड़ोसी और भारतेंदु हरिश्चंद्र के गुरु थे। इन्हीं से भारतेंदु ने छंद-शास्त्र की शिक्षा प्राप्त की। किशोरीलाल का जन्म सन १८६५ के माघ महीने की अमावस्या के दिन इनके ननिहाल काशी में हुआ था और वहीं लालन-पालन भी। छोटी उम्र से ही ये नाना के साथ भारतेंदु हरिश्चंद्र के यहाँ जाया करते थे। इन्होंने साहित्य में ‘आचार्य’ परीक्षा पास की। इसके अलावा वे उर्दू, अँग्रेज़ी और फ़ारसी भाषा तथा साहित्य के भी अच्छे जानकार थे। किशोरीलाल के व्यक्तित्व निर्माण पर वंशानुगत गुणों और पारिवारिक संस्कारों तथा वृंदावन व काशी के साहित्यिक माहौल की गहरी छाप थी। भारतेंदु तथा उस समय के अन्य बुद्धिजीवियों के सान्निध्य में किशोरीलाल ने हिंदी भाषा और साहित्य की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने का संकल्प लिया और जीवनपर्यंत हिंदू धर्म और संस्कृति के रक्षक तथा प्रबल समर्थक रहे।
बिहार के आरा शहर को कुछ वर्ष किशोरीलाल का निवास-स्थान होने का गौरव प्राप्त है। ये सेठ नारायणदास के कृष्ण मंदिर में कई साल प्रधान-पुजारी भी रहे। इनके आरंभिक साहित्यिक जीवन का एक बड़ा हिस्सा बिहार में बीता। वहाँ इन्होंने 'आर्य पुस्तकालय' की स्थापना की, जो बिहार का पहला सार्वजनिक पुस्तकालय माना जाता है।
इन्होंने कुर्मी जाति की वर्ण-व्यवस्था पर एक पुस्तक संस्कृत भाषा में लिखी, जो 'विज्ञ-वृंदावन' नामक पत्र में धारावाहिक रूप में छपा करती थी। ये 'वर्ण-धर्मोपयोगी' सभा से भी जुड़े हुए थे। एक बार इसके प्रतिनिधि के रूप में 'भारत धर्म महामंडल' के सम्मेलन में भी हिस्सा लिया था।
सन १९३१ के दौरान झाँसी में आयोजित इक्कीसवें अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता किशोरीलाल गोस्वामी ने की। इन्होंने हिंदी भाषा के बारे में अपने विचार रखते हुए कहा, "हिंदी के लिए यह कहना कि यह अमुक भाषा अथवा भाषाओं से निकली है, नितांत भ्रमात्मक और हास्यास्पद है। एक व्यक्ति अपने शैशव, यौवन, प्रौढ़ और वार्धक्य अवस्थाओं में जिस प्रकार रूपांतरित होता रहता है, उसी प्रकार संस्कृत भाषा भी रूपांतरित होकर अपने राष्ट्रीय आसन पर हिंदी के रूप में समासीन है।"
राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि को लेकर उनका कहना था, "जिस देश के इतिहास, धर्मग्रंथ, गणित, भूगोल, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, दर्शन, स्मृति, पुराण, नाटक, प्रहसन, काव्य और महाकाव्य आदि ग्रंथ जिस भाषा और लिपि में लिखे जाते हैं, वही भाषा और लिपि उस देश की राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि मानी जाती है।… वही संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि सहस्रों धाराओं में प्रवाहित होती हुई हिंदी और नागरी लिपि के रूप में आज आपके सामने उपस्थित है।"
हिंदी भाषा और साहित्य के विकास के लिए किशोरीलालजी ने सेठ-साहूकारों, राजा-महाराजाओं और ज़मींदारों से आर्थिक सहायता की अपील की। इन्होंने अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के लिए राजाओं का सरंक्षण प्राप्त करने का भी सुझाव दिया।
संपादन के क्षेत्र में गोस्वामी जी का अभूतपूर्व योगदान रहा है। सन १९०० में बाबू चिंतामणि घोष द्वारा आरंभ की गई मासिक हिंदी पत्रिका 'सरस्वती' के संपादन-मंडल में किशोरीलाल भी थे। इसके अलावा त्रैमासिक शोध पत्रिका 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका', 'नागरी प्रचारिणी ग्रंथमाला' और बच्चों की पत्रिका 'बालसखा' के संपादक और उप-संपादक भी रहे। 'वैष्णव सर्वस्व' नामक मासिक पत्र भी लगातार १० वर्ष निकाला।
गद्य और पद्य दोनों विधाओं पर किशोरीलाल का पूर्ण अधिकार था लेकिन ये उपन्यास लेखन में विशेष रुचि रखते थे। इतनी अधिक कि वे जो उपन्यास छपने के लिए देते थे, उसके अंतिम पन्ने पर अगले उपन्यास का विज्ञापन भी दे दिया करते थे। और एक समय ऐसा आया कि इन्होंने 'उपन्यास' नामक मासिक पुस्तिका निकालना शुरू कर दिया, जिसमें ख़ुद के उपन्यास छापते और अन्य लेखकों को प्रोत्साहित करते। इन्हें प्रेमचंद के पूर्व युग का महत्त्वपूर्ण साहित्यकार माना गया है। आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के निरीक्षण में श्रीमती कृष्णा नाग द्वारा किशोरीलाल गोस्वामी पर लिखे शोध-प्रबंध में इनका हिंदी उपन्यास की उत्पत्ति तथा विकास के क्षेत्र में वही स्थान बताया है, जो नाटक के क्षेत्र में भारतेंदु का है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'हिंदी भाषा का इतिहास' में किशोरीलाल को देवकीनंदन खत्री के बाद उपन्यासों का ढेर लगा देने वाला दूसरा मौलिक उपन्यासकार बताया है। इन्होंने छोटे-बड़े ६५ उपन्यास लिखकर प्रकाशित किए हैं। अतः साहित्य की दृष्टि से हिंदी का पहला उपन्यासकार इन्हीं को कह सकते हैं।
किशोरीलाल गोस्वामी ने ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक तथा ऐयारी और तिलिस्मी, सभी तरह के उपन्यास लिखकर हिंदी गद्य में अपना अद्भुत योगदान दिया। हृदयहारिणी, लवंगलता, सुल्ताना रजिया बेग़म, लखनऊ की कब्र, सोना और सुगंध, लाल कुँवर - ये कुछ नाम हैं किशोरीलाल की कलम से निकले उपन्यासों के। इनके ऐतिहासिक उपन्यासों में इतिहास कम कल्पना अधिक है। आलोचक और साहित्य चिंतक डॉ० लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय के अनुसार हिंदी में स्कॉट ( Walter Scott ) की शैली पर उपन्यास लिखने वालों में किशोरीलाल गोस्वामी का पहला स्थान है। संस्कृत और पाली के विद्वान गोस्वामीजी का उर्दू और फ़ारसी पर भी अच्छा अधिकार था। उनकी भाषा जीवंत और सरस थी लेकिन कहीं-कहीं हास्य का पुट देने के लिए उर्दू-फ़ारसी के शब्दों की भरमार थी।
अपने उपन्यासों के माध्यम से प्रेम, आदर्श, नैतिक मूल्य या अन्य कोई संदेश समाज को देना तथा लोगों का मनोरंजन करना इनका उद्देश्य था। इनकी अधिकांश रचनाएँ सुखांत हैं। यदि कहीं दुखांत है तो वह हमारे दर्शन में कर्मफल का परिणाम है। उस समय तिलिस्म और ऐयारी उपन्यास लोकप्रिय थे, इसलिए इनकी रचनाओं में भी चाहे वह ऐतिहासिक उपन्यास ही क्यों न हो, उस परंपरा के दर्शन हो जाते हैं।
१९०१ में कलकत्ते में मित्रों के साथ कई नाटक देखने के बाद इनका भी मन नाटक लिखने का हुआ और कालांतर में ‘चौपट-चपेट’ तथा ‘मयंक मंजरी’ नाटक रचे।
लेखन के साथ-साथ किशोरीलालजी एक सफल प्रकाशक भी थे। वर्ष १९१३ में वृंदावन में ‘सुदर्शन प्रेस’ नामक छापाखाना खोला। इस काम में इनके पुत्र छबीलेलाल, जो स्वयं भी लिखते थे, इनका हाथ बँटाया करते थे। पिता-पुत्र दोनों मिलकर छपाई, प्रकाशन, विज्ञापन और बिक्री का कार्य भी करते।
छबीलेलाल काँग्रेस की विचारधारा से प्रभावित थे, स्वतंत्रता-संग्राम में कई बार जेल गए थे। ये ‘मथुरा मंडल’ के एक बड़े नेता थे, इनके सभापतित्व में पंडित मदनमोहन मालवीय, डॉक्टर अंसारी तथा मोतीलाल नेहरू जैसे लोगों ने भाषण दिए।
स्वभाव से मस्त गोस्वामीजी को गाने-बजाने तथा दूसरों का मनोरंजन करने का शौक था। इसलिए समय-समय पर इनके घर में कीर्तन-भजन, गायन, कजरी इत्यादि के आयोजन हुआ करते थे, जिनमें कलाकार, गायक, वादक, साहित्यकार भाग लिया करते थे। इसके लिए इन्होंने ‘रसीली कजरी या सावन सुहावन’ पुस्तक की रचना भी की।
गोस्वामीजी लिखने के साथ-साथ अपने अंदाज़ में पाठकों का ध्यान भी लेखन की तरफ आकर्षित कराते थे। इसका उदाहरण इनका एक विज्ञापन दृष्टव्य है, "उपन्यास नाम की मासिक पुस्तिका, जो प्रेस न होने के कारण कई वषों से बंद थी, अब वह नई सजधज के साथ निकाली जावेगी। अतएव हिंदी के प्रेमी और उपन्यास रसिकों को यथाशीघ्र ही अपना नाम ग्राहक-श्रेणी में जल्द लिखा लेना चाहिए।"
अधिकांश लोग किशोरीलाल को एक उपन्यासकार के रूप में ही जानते हैं। कम ही लोगों को मालूम है कि उन्होंने एक ‘किशोरी सतसई’ भी रची थी। उनके पुत्र छबीलेलाल गोस्वामी ने हस्तलिखित ७०९ दोहे प्रकाशन के लिए दिए थे। सन १९६६ में ‘नागरी प्रचारिणी’ पत्रिका ने इसका धारावाहिक प्रकाशन किया था।
वर्ष १९३२ में उनके देहावसान पर उन्हें समर्पित ‘माया’ (प्रयाग) के विशेष स्मृति-अंक में ‘चाँद’ के संपादक मुंशी नवजादिकलाल श्रीवास्तव ने लिखा था, "उन्होंने कविता या लेख माँगने पर कभी किसी पत्र संपादक को निराश नहीं किया। परंतु बिना माँगे वे किसी को कुछ नहीं देते थे। वे वृद्ध हो गए थे लेकिन उनकी स्मरण शक्ति पूर्ववत थी। आँखें काम न देती थीं, परंतु दिमाग़ ख़ूब काम करता था। आवश्यकता पड़ने पर कहानी, लेख, प्रहसन जो चाहिए लिखवा दिया करते थे। मानो पहले से तैयार बैठे हों। कहानी के प्लॉट तो मानो उनके सामने हाथ बाँधे खड़े रहते थे। सरस्वती उनकी जिव्हा पर विराजमान थी। फलतः गोस्वामी जी के गोलोकवास से हिंदी की क्षति हुई है, उसकी पूर्ति निकट भविष्य में संभव नहीं।"
ऐसा माना जाता है कि किशोरीलाल गोस्वामी पर जितना काम होना चाहिए उतना हुआ नहीं, वे उपेक्षित रहे। उनकी और उनके बेटे छबीलेलाल गोस्वामी की रचनाओं का पुनर्प्रकाशन बहुत कम हुआ है। इन पर शोधकर्ता श्रीमती कृष्णा नाग को गोस्वामी के पोते बाल कृष्ण गोस्वामी ने बताया कि बाढ़ के पानी से उनका काफ़ी साहित्य नष्ट हो गया था।
यह वह समय था जब हिंदी के प्रचार-प्रसार के माध्यम सीमित थे। लोग अपने बच्चों को उर्दू और फ़ारसी अधिक पढ़ाया करते थे। लोग इनके तिलस्मी उपन्यासों को छुप-छुपकर पढ़ा करते थे। देवकी नंदन खत्री और इनके उपन्यासों ने हिंदी का प्रचार किया, लोगों का ख़ूब मनोरंजन किया और सबसे बड़ी बात हिंदी के पाठक तैयार किए। हिंदी भाषा और साहित्य की समृद्धि में किशोरीलाल गोस्वामी का नाम अविस्मरणीय है।
संदर्भ
https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.401603/page/11/mode/2up?view=theater
https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.401272/page/n393/mode/2up?view=theater
लेखक परिचय
डॉ० सरोज शर्मा
भाषा विज्ञान (रूसी भाषा) में एमए, पीएचडी; रूसी भाषा पढ़ाने और रूसी से हिंदी में अनुवाद का अनुभव; वर्तमान में हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर कार्यरत पाँच सदस्यों की एक टीम का हिस्सा।
सरोज जी नमस्ते। आपने एक और अच्छा लेख हम पाठकों को उपलब्ध करवाया। लेख के माध्यम से किशोरीलाल गोस्वामी जी के विस्तृत साहित्य सृजन को जानने का अवसर मिला। स्कूल के दिनों में इनकी जीवनी पढ़ी थी। आपने लेख में उनके व्यक्तित्व से भी बखूबी परिचित कराया। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसरोज, किशोरलाल गोस्वामी जैसे लोगों के चलते ही हमारी भाषा जीवंत है और उसमें इतना काम हो रहा है, उनके प्रति जितना भी आभार प्रकट किया जाए कम है। तुम्हारे आलेख से ही उन्हें और उनके कामों को जाना। संक्षिप्त आलेख में उनके विस्तृत संसार को अच्छा समोया है तुमने। एक और उत्तम लेख पढ़वाने के लिए साभार बधाई।
ReplyDeleteसरोज जी, हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले चर्चित उपन्यासकार किशोरीलाल गोस्वामी जी पर आपका यह अत्युत्तम लेख है। इस लेख के माध्यम से उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित होने का अवसर मिला। इस ज्ञानवर्धक और समृद्ध लेख के लिए आपको सधन्यवाद बधाई। 🙏🏻💐💐
ReplyDeleteसंग्रहणीय,समादरणीय लेख।अभिनंदन।
ReplyDeleteसुंदर, सारगर्भित और शोध परक आलेख लेखन के लिए सरोज जी को हार्दिक आभार और बधाई.
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