Monday, October 10, 2022

डॉ० रामविलास शर्मा : ऋषिकल्प साहित्यकार

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डॉरामविलास शर्मा समर्थ प्रगतिशील आलोचक, कवि, निबंधकार, विचारक और भाषाशास्त्री थे। वे मूलतः अँग्रेजी के प्रोफ़ेसर थे, किंतु दिल से हिंदी के प्रकांड पंडित, इतिहासवेत्ता, वैदिक विद्वान मार्क्स के अध्येता थे। उनकी आलोचना कट्टर रूप से मार्क्सवादी सिद्धांतों को मानकर चलती थी। उन्होंने मार्क्सवादी आलोचना-सिद्धांतों को हिंदी साहित्य में यांत्रिक रूप से उसकी अपनी परंपरा से अलग हटकर निरूपित किया। इसलिए उसमें यत्र-तत्र संकीर्णता का तत्त्व दिखाई देता है और आदेशात्मक या निर्णयात्मक स्वर अधिक मुखरित है। इसे उनकी आलोचना की खूबी एवं खामी भी कही जा सकती है। शर्मा जी किसी रचना की आलोचना मान्य मानदंडों के आधार पर (सैद्धांतिक स्तर पर) कम करते थे अपितु रचना को रचनाकार के व्यक्तित्व तथा उसके व्यक्तिगत जीवन की पृष्ठभूमि के प्रकाश में उस पर अपना निर्णय दे देते थे। उसमें निर्णयात्मक स्वर कम, सैद्धांतिक, व्यक्तिगत अपेक्षाकृत अधिक होता था, एक तीखे प्रहार जैसा। जिसे हम प्रकारांतर से प्रहारात्मक कह सकते हैं।


ऋषिकल्प आलोचक डॉरामविलास शर्मा का जन्म १० अक्टूबर १९१२ को जिले उन्नाव के ऊंचगाँव-सानी में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा की शुरुआत गाँव में हुई। बाद में उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से एमए तथा पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। १९४३  से १९७१ तक वे आगरा के बलवंत सिंह कॉलेज में अँग्रेजी के प्राध्यापक थे। तत्पश्चात कुछ वर्षों तक वे कन्हैयालाल माणिक मुंशी विद्यापीठ,आगरा में निदेशक पद पर आसीन रहे। वहाँ से १९७४  में  सेवानिवृत्त होने के बाद वे दिल्ली के विकासपुरी क्षेत्र  में रहते हुए स्वतंत्र रूप से साहित्य-साधना में रत रहे। वे हंसमुख किंतु गंभीर स्वभाव के थे। १९९२  में पंत अस्पताल में उनके पेट का ऑपरेशन हुआ था। वे  'इंटेंसिव केयर वार्ड' में थे। मैं जब उन्हें देखने गया तो मुस्कुराहट भरी मुद्रा में बोले, 'मैं ठीक हूँ। जल्दी छुट्टी मिल जाएगी। मैं चला आया। फिर उनके आवास पर कई बार भेंट हुई। कुछ साहित्यिक, कुछ अनौपचारिक चर्चाएँ होती रहीं। उनसे बातचीत करना बहुत सुखद अनुभव होता था। अनेक रोचक संस्मरण हैं, जिनमें तत्कालीन साहित्यिकों के रोचक-प्रसंग हैं। उन्होंने कहा था, "निराला, केदार और मुक्तिबोध के बाद नई कविता जिसे समकालीन भी कहा गया है, कुछ खास नहीं लिखा गया। हाँ, इधर की कविता में जुमलेबाजी उभरी है। नामवर आलोचक नयापन कहकर उछाल रहे हैं।"


साहित्यिक अवदान

डॉरामविलास शर्मा जी के साहित्यिक जीवन की शुरुआत १९३४ से हुई, जब वे महाकवि निराला के संपर्क में आए। उसी वर्ष उन्होंने अपना प्रथम आलोचनात्मक लेख 'निराला की कविता' लिखा जो चर्चित पत्रिका 'चांद' में  प्रकाशित हुआ। तत्पश्चात वे सतत रूप से साहित्य-सृजन करते रहे। इस प्रकार उनका रचनाकाल छह दशकों तक फैला है। साहित्य की विविध विधाओं में महत्त्वपूर्ण सृजन करके डॉशर्मा जी ने अपनी एक पुख्ता पहचान कायम की है। वे कवि और समालोचक होने के साथ ही एक समाजशास्त्री, निबंधकार और भाषाविद भी थे। यही कारण है कि उन्होंने इतिहास, संस्कृति और भाषा-विज्ञान के संबंध में गंभीर लेखन किया। तारसप्तक के 'पुनश्च' में वे लिखते हैं"मेरा बचपन अवध के गाँवों में बीता। उन संस्कारों के बल पर मैंने वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य और सामाजिक जीवन पर कुछ कविताएँ लिखी।"


'रूप-तरंग' उनका प्रथम कविता-संग्रह है। संग्रह की कविताओं में जन-जीवन-जगत के दुख-दर्द के साथ राष्ट्र-प्रेम का गहरा भाव व्यक्त हुआ है। 'तारसप्तक' में संकलित कविताएँ भी मानवीय संवेदना से सिक्त बड़ी सशक्त कविताएँ हैं। ये व्यष्टिनिष्ठ होकर समष्टिगत बोध को व्यंजित करती हैं। उनके साहित्य-चिंतन में समाज के केंद्र में भारतीय समाज का जनजीवन, उसकी समस्याएँ और आकांक्षाएँ रही हैं। 'हम गोरे हैं'  जिसका रचनाकाल १९२९ है, में वे लिखते हैं,

इनके काले कामों को लख,स्याही मल दो इनके मुखमें।

फिर भी यदि इनसे पूछोगे, उत्तर देंगे हम गोरे हैं।। 

 

एक गीत जिसका रचनाकाल १९३५ है, में रोमानी भाव-बिंब उभरे हैं, 

 

मानिनि, मेरे मधुवन में, आना जब नवल प्रणय की

जागे आशा प्रति प्रेम में।

अधरों पर हास सजाए, सुमनों का कल खग-रव भर

वाणी में, पहन अनिल का, अंचल, लघु-भारचरण धर,

वन देवी सी निर्जन में।

 

शिल्प की शास्त्रीय शर्तों से परे, असल कविता असल अनुभव और अहसास की ऐसी अनुगूंज होती है जो अंतःकरण से सीधी उठती है। एक कवितांश,

यह कवि अपराजेय निराला, जिसको मिला गरल का प्याला

ढहा और तन टूट चुका है,

पर जिसका माथा झुका है

शिथिल त्वचा, ढल-ढल है छाती

लेकिन अभी संभाले थाती 

और उठाया विजय पताका

यह कवि है अपनी जनता का।

 

शर्मा जी की कविताएँ पृथक पैटर्न की हैं। वे किसी सधे-सधाए पथ की अनुकरणी नहीं,  ही संस्कार पोषित महसूस होती हैं। वे प्रकृति के चितेरे कवि थे। उनकी कविता में भी प्रगतिशीलता है। उनके निबंध कथ्य-कथन-क्राफ्ट की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। तुलसी को एक भक्तकवि के रूप में अधिक प्रतिष्ठित किया है क्योंकि उनको परंपरागत  सामाजिक मूल्य माना जाता है। उन्होंने अपने इस निबंध में माना है कि सामाजिक मूल्यों की प्रतिष्ठा शाश्वत प्रासंगिक है। उनके निबंधों में कृति, कृतिकार और साहित्यकार संबंधी निबंध हैं, जिन्हें गंभीर विचारात्मक एवं विचारात्मक, दो वर्गों में रख सकते हैं। उनकी शैली व्यावहारिक वक्रता वाली कला है। कहीं-कहीं व्यंग्य और हास्य के रूप भी दृष्टिगत होते हैं। कहीं कर्कशता नहीं है। उनके निबंधों में महाकाव्यात्मकता की छवि दिखाई देती है।


हिंदी की प्रगतिशील आलोचना की नींव एक प्रकार से शर्मा जी ने ही रखी हैं। भाषा में प्रवाह लाने के लिए मुहावरों और व्यावहारिक शब्दों के प्रचुर प्रयोग किए हैं। उन्होंने सैद्धांतिक आलोचनात्मक अनेक ग्रंथों को रचा। इस ढर्रे पर पूर्व में जो आलोचनाएँ लिखी गईं, उसे इन्होंने सुव्यवस्थित किया। उनकी दृष्टि सबसे अधिक पैनी, स्वच्छ तथा तलस्पर्शी है। 'प्रगति और परंपरा', 'प्रगतिशील साहित्य की समस्याएँ', 'आस्था और सौंदर्य', 'मार्क्सवाद और प्राचीन साहित्य का मूल्यांकनआदि उनके विशेष उल्लेखनीय निबंध संग्रह हैं। उन्होंने वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति के काव्य का नया मूल्यांकन और तुलसीदास के महत्त्व को विवेचित किया है। 'हिंदी जाति की अवधारणा' पुस्तक वैश्विक-साहित्य से अंतर्क्रिया के द्वारा साहित्य के जातीय तत्त्वों की प्रगतिशील पहचान है। उनके निबंध विचारात्मक हैं। वे बहुत स्पष्ट वक्ता थे। उन्होंने मार्क्सवाद की भारतीय संदर्भ में सबसे सटीक व्याख्या की है। वे मार्क्सवाद के प्रथम विचारक-आलोचक हैं, इसीलिए उन्हें मौलिक मार्क्सवादी विचारक में परिगणित किया जाता है।


किसी को नीचा दिखाना उनका अभीष्ट नहीं था। वे पार्टीशन साहित्यकार बनकर साहित्य का निर्माण करना चाहते थे। जो उनके लिए जातीय चिंतन का केंद्रीय बिंदू है। 'नई कविता  और अस्तित्ववाद' में कविता को नएपन से देखने और परखने की दृष्टि दी गई है। भारत के इतिहास को भी उन्होंने नए ढंग से प्रस्तुत किया है। उनकी आलोचना की कसौटी प्रगतिशील यानी मार्क्सवादी है, जिसमें कम्युनिटी 'मिक्सचर' साफ दिखाई देता है। यानी उनकी आलोचना की कसौटी यह होती है कि उस रचनाकार ने अपने समय के साथ कितना न्याय किया है। भाषा सरल है। शैली में किंचित प्रचारात्मकता है। छोटी सी बात को बढ़ाकर एवं दुरूह बनाकर प्रस्तुत करने की शक्ति उनकी भाषा में है। वस्तुतः आचार्य शुक्ल के पश्चात डॉरामविलास शर्मा एकमात्र ऐसे आलोचक रहे, जिन्होंने साहित्य समाज और भाषा को एक साथ रखकर उनका मूल्यांकन किया। इस प्रकार उनकी आलोचना प्रक्रिया केवल साहित्य तक सीमित नहीं है, बल्कि उसमें समाज, राजनीति, अर्थ और इतिहास का भी समावेश है। किंतु विचार के स्तर पर वे कहीं भी समझौतावादी नहीं बनते, बल्कि अपनी बात को बहुत ही निर्भीक ढंग से कहते हैं। वर्ग-भेद पर आधारित समाज की पहचान को उन्होंने साहित्यकारों के लिए आवश्यक माना है। वे मार्क्सवादी समालोचना के शिखर पुरुष हैं। डॉरविभूषण ने अपने लेख 'वैकल्पिक भारत का नक्शा' में ठीक ही कहा है, "डॉरामविलास शर्मा भारतीय लेखकों, विचारकों तथा बुद्धिजीवियों और मार्क्सवादी चिंतकों में संभवतः अकेले व्यक्ति हैं, जिन्होंने अपने समय में अपने लेखन के जरिए निरंतर सार्थक हस्तक्षेप किया है, अपने समय तथा समाज की समस्त समस्याओं पर विचार किया है और उनके निदान के उपाय बताए हैं।"


डॉ० शर्मा को अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया लेकिन उन्होंने कभी इन्हें स्वीकार नहीं किया और उन राशियों को हिंदी के विकास हेतु समर्पित कर दिया जो उनके विराट व्यक्तित्व की उदात्तता राष्ट्रभाषा के प्रति सच्ची समर्पण भावना को प्रकट करता है। उनकी विराटता का बोध इस बात से भी होता है कि सभी समाचार पत्रों ने भारतेंदु के बाद डॉरामविलास शर्मा जी के निधन की खबर मुखपृष्ठ पर प्रमुखता से प्रकाशित की थी।

 

डॉ० रामविलास शर्मा : जीवन परिचय

जन्म

१० अक्टूबर १९१२, (बृहस्पतिवार)

निधन

३० मई २०००, नई दिल्ली

माता 

दौड़ी बेबी

शिक्षा

एमए, पीएचडी (लखनऊ विश्वविद्यालय, त्तर प्रदेश)

साहित्यिक रचनाएँ

  • प्रेमचंद

  • भारतेंदु युग (परिवर्धित संस्करण भारतेंदु युग और हिंदी भाषा की विकास परंपरा)

  • निराला की साहित्य-साधना (भाग-,भाग-२, भाग-३) 

  • प्रगतिशील साहित्य की परंपराएँ

  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना

  • विराम चिह्न  

  • आस्था और सौंदर्य 

  • महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण 

  • नई कविता और अस्तित्ववाद 

  • परंपरा का मूल्यांकन 

  • भाषा, युगबोध और कविता

  • कथा विवेचना और गद्यशिल्प

  • मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य 

  • भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्याएँ 

  • भारतीय साहित्य की भूमिका

  • प्रगतिशील कविता की वैचारिक पृष्ठभूमि 

कविता, नाटक, उपन्यास

  • चार दिन (उपन्यास) 

  • तारसप्तक में संकलित कविताएँ

  • महाराजा कठपुतली सिंह 

  • पाप के पुजारी

  • बुद्ध वैराग्य और प्रारंभिक कविताएँ

  • सदियों के साये जाग उठते

  • रूप-तरंग

भाषा समाज  और विज्ञान

  • भाषा और समाज 

  • भारत की भाषा समस्या

  • भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी ( भाग)

  • ऐतिहासिक भाषाविज्ञान और हिंदी भाषा

इतिहास, समाज, संस्कृति एवं दर्शन

  • मानव सभ्यता का विकास 

  • सन सत्तावन की राज्यक्रांति

  • भारत में अँग्रेजीराज और मार्क्सवाद (भाग

  • मार्क्स और पिछड़े हुए समाज

  • स्वाधीनता संग्राम : बदलते परिप्रेक्ष्य

  • भारतीय इतिहास और ऐतिहासिक भौतिकवाद

  • पश्चिमी एशिया और ऋग्वेद

  • भारती नवजागरण और यूरोप

  • इतिहास दर्शन

  • भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश ( भाग)

  • गाँधी, अंबेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ,

  • भारतीय सौंदर्य बोध और तुलसीदास

  • पाश्चात्य दर्शन और सामाजिक अंतर्विरोध - थलेस से मार्क्स तक

साक्षात्कार-पत्र संवाद-संपाकीय

  • मेरे साक्षात्कार

  • अपनी धरती अपने लोग ( खंड)

  • आज के सवाल और मार्क्सवाद

  • मित्र-संवाद

  • अत्र कुशल तत्रास्तु

  • भाषासाहित्य और जातीयता

संपादित कृतियाँ

  • गीतिमाला 

  • जहाज और तूफान 

  • घर की बात

  • लोकजागरण और हिंदी साहित्य

  • प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल

  • तीन महारथियों के पत्र

  • कविता के पत्र (३९ पृष्ठों की भूमिका सहित)

अनुवाद

  • भक्ति और वेदांत 

  • राजयोग 

  • कर्मयोग 

  • सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास 

  • कार्ल मार्क्स और उनके सिद्धांत, माओत्से तुंग ग्रंथावली (प्रथम भाग-१९५७)

  • निकोला वप्सारोव की कविताएँ

  • आज का भारत

  • पूंजी (खंड-)

आंग्ल कृतियाँ

  • An introduction to the English romantic poetry

  • Nineteenth century poetry

  • Essays of Shakespeare's Tragedy

  •  Keats and the pre-Raphaelites

पुरस्कार व सम्मान

  • १९७० निराला की साहित्य साधना के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार  

  • १९८८ में हिंदी अकादमी, दिल्ली का 'शलाका पुरस्कार

  • १९९० में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ द्वारा 'भारत भारती' पुरस्कार  

  • १९९१ भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी के लिए व्यास सम्मान

  • १९९९ साहित्य अकादमी की महत्ता सदस्यता सम्मान

  • २००० में शताब्दी सम्मान (११ लाख रुपए

 

संदर्भ 

  • हिंदी साहित्य का इतिहास, संपादक : डॉनगेंद्र, नेशनल ब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली-

  • नई कविता और अस्तित्ववाद - रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली-२

  • तारसप्तक : संपादक - अज्ञेय, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली 

  • परंपरा का मूल्यांकन, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली-

  • हिंदी गद्यकार और उनकी शैलियाँ, डॉरामगोपाल सिंह चौहान, साहित्य रत्न भंडार

  • प्रसंग : रामविलास शर्मासंपादन - प्रणव कुमार वंद्योपाध्याय, शिलालेख, दिल्ली-३२  

 

लेखक परिचय

डॉ० राहुल


वाराणसी (उत्तर प्रदेश) 

उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ एवं हिंदी अकादमी दिल्ली द्वारा पुरस्कृत-सम्मानित।

अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त यशस्वी कवि-आलोचक डॉ० राहुल की अब तक ७० से अधिक कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, आलोचना आदि विधाओं में इन्होंने महत्त्वपूर्ण सृजन किया है, जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा हिंदी के महान साहित्यकारों ने की है। 

3 comments:

  1. राहुल जी नमस्ते, डॉ० रामविलास शर्मा पर सरल और सहज शैली में सिलसिलेवार जानकारियाँ उपलब्ध कराता आपका सशक्त आलेख बहुत पसंद आया। इस हृदयग्राही आलेख के लिए धन्यवाद।

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  2. राहुल जी, आपने अपने संक्षिप्त लेख में विराट व्यक्तित्व के धनी रामविलास शर्मा के रचना-संसार और सोच का अनुपम परिचय दिया है। इस सारगर्भित एवं प्रवाहमय आलेख के लिए आपको सधन्यवाद बधाई।

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  3. डॉ. राहुल जी नमस्ते। आपने डॉ. रामविलास शर्मा जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। आपके लेख के माध्यम से उनके विशाल रचना संसार को जानने का एक और अवसर मिला। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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