मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा.
इस कविता को पढ़ते हुए इस बात को आसानी से जाना और माना जा सकता है
कि एक विद्रोही कवि ही अपनी कविता में आसमान में धान बोने की बात कर सकता है, और
अपनी कविता को लाठी बना कर ईश्वर के खिलाफ़ भाँज सकता है। एक विद्रोही कवि ही बिना
किसी लाग-लपेट के, बिना किसी सकुचाहट और हकलाहट के अपनी बात कह सकता है, क्योंकि
उसके लिये कविता साफ़गोई से अपनी बात कहने और सीधे तौर पर समय की नब्ज़ पर हाथ रखने
का माध्यम है, कोई कारोबार नहीं है।
“तो
क्या
आप मेरी कविता को सोंटा समझते है?
मेरी कविता वस्तुतः
लाठी ही है,
इसे लो और भांजो!
मगर ठहरो!
ये वो लाठी नहीं है जो
हर तरफ भंज जाती है,
ये सिर्फ उस तरफ भंजती है
जिधर मैं इसे प्रेरित करता हूँ।
मसलन तुम इसे बड़ों के खिलाफ भांजोगे
भंज
जाएगी।
छोटो
के खिलाफ़ भांजोगे
न, नहीं
भंजेगी।
तुम
इसे भगवान के खिलाफ भांजोगे,
भंज जाएगी।
लेकिन तुम इसे इंसान के खिलाफ भांजोगे,
न, नहीं
भंजेगी
कविता
और लाठी में यही अंतर है।”
रमाशंकर यादव ऐसे ही कवि हैं, जो क्रूर व्यवस्था की आँखों में
आँखें डाल कर सवाल करते हैं और खुद को जनता का कवि मानते हैं, इसिलिये वे यह घोषणा
भी करते हैं, “मैँ तुम्हारा कवि हूँ।” ऐसे
लोकप्रिय जनकवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ का जन्म ३ दिसंबर, १९५७ को उत्तर प्रदेश के
सुल्तानपुर जिले के आहिरी फिरोजपुर गांव में हुआ। उनकी आरंभिक शिक्षा गाँव में ही
हुई। शांति
देवी नाम की एक बच्ची से उनका बाल विवाह हुआ था। शांति जी स्कूल जाती थीं। गांव के
लोगों के यह कहने पर कि पढ़ी-लिखी पत्नि, अनपढ़ रमाशंकर को छोड़ देगी। रमाशंकर डर गए
और इस डर के चलते पढ़ना शुरू कर दिया। सुल्तानपुर में उन्होंने
स्नातक किया। एलएलबी करना चाहते थे लेकिन पैसे के अभाव में पूरी नहीं हो सकी। उन्होंने
एक नौकरी की, जो उन्हें पसंद नहीं आयी तो हिन्दी साहित्य पढ़ने के
लिए १९८० में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर में प्रवेश ले लिया। रमाशंकर यादव
से रमाशंकर ‘विद्रोही’ बनने की कथा भी दिलचस्प है। क्योंकि अन्य कवियों की तरह इन्होंने
अपना उपनाम खुद नहीं रखा था। वे वाकई विद्रोह करके विद्रोही बने थे। दरअसल १९८३ में
जेएनयू में एक बड़ा छात्र-आंदोलन हुआ जिसमें विद्रोही जी शामिल हुए। इस कारण उनपर
मुकदमा चला और आंदोलन करने के जुर्म में उन्हें कैंपस से निकाल दिया गया। इसके बाद
जेएनयू के छात्र तो वे नहीं रहे लेकिन उन्होंने जेएनयू कैंपस कभी नहीं छोड़ा, और विद्रोह
की कविताएं लिखने लगे। वाचिक परंपरा के कवि रहे
विद्रोही कविताएँ सुनाने के विशेष अंदाज़ के कारण छात्रों के बीच लोकप्रिय हो गये।
उनकी कविताओं में प्रकट प्रगतिशील चेतना उन्हें जनसंवाद और प्रतिरोध का कवि बनाती
थी। उनकी
कविताओं से प्रभावित होकर, उनके चाहने वालों ने उन्हें ‘विद्रोही’ कहा। विद्रोही
जी को अपने साथियों का दिया यह नाम बहुत पसंद आया। इस बीच उन्होंने जेएनयू कैंपस नहीं
छोड़ने का ऐलान कर दिया।
"नाक में नासूर
है और नाक की फुफकार है,
नाक विद्रोही की
भी शमशीर है, तलवार है।
जज़्बात कुछ ऐसा, कि बस सातों समंदर पार है,
ये सर नहीं गुंबद है कोई, पीसा की मीनार है।"
जेएनयू ही उनका घर था और वे ज़िंदगी भर छात्रों के
हित के लिए लड़ते रहे। वे जेएनयू को अपनी कर्मस्थली मानते रहे। और वे ऐसा इसलिये कर
पाये कि उनकी पत्नि ने उन्हें घर की जिम्मेदारियों से मुक्त रखा। उनकी आवाज़
छात्रों के लिए प्रेरणा थी और उनकी कविताएँ संघर्ष के दौरान छात्रों में ऊर्जा भर
देती थीं। जेएनयू में बिताया हुआ विद्रोही का जीवन काफी साधारण था, इनका मानना था कि ‘जिनको कुछ न चाहिए, वो ही शहँशाह’। जेएनयू की
पथरीली जमीन पर उगी झाड़ियों के बीच, बिना किसी आय के स्रोत के,
छात्रों के सहयोग के सहारे दिन-रैन बसर करने वाले विद्रोही ने अपना व्यक्तित्व स्वयं गढ़ा है,
अपने को इस फक्कड़ छवि का रूप दिया है, जिसे वे अपनी
कविताओं तक ले आते हैं।
“न तो मैँ सबल हूँ
न तो मैँ निर्मल हूँ
मैँ कवि हूँ
मैँ ही अकबर हूँ
मैँ ही बीरबल हूँ”
वे कुछ इस तरह
भी अपने आप को कविता में खींच लाते हैं,
मुझे मसीहाई में यकीन है ही नहीं,
मैँ मानता ही नहीं कि कोई मुझसे बड़ा होगा,
और वे कविता के सम्बंध
अपने काव्यात्मक विचार इस तरह पिरोते हैं,
कविता क्या है
खेती है
कवि के बेटा-बेटी है,
बाप का सूद है, माँ की रोटी है-
कालेज के दिनों से ही विद्रोही
के दोस्त और रेलवे मंत्रालय में सलाहकार रहे असरार खान बताते है, “विद्रोही के
ये तेवर सिर्फ उनकी कविता में ही नहीं बल्कि उनके जीवन में भी शामिल है।
सुल्तानपुर के छात्र-जीवन के दौरान भी वे आंदोलनों में सशक्त मौजूदगी दर्ज कराते
थे।“ विद्रोही, सत्ता द्वारा शोषित, निम्न मध्यमवर्गीय, किसान-मजदूर वर्ग का
प्रतिनिधत्व करते हैं। विद्रोही जी मानते रहें हैं कि देश किसी की जागीर नहीं है
जो पूँजीपतियों और कॉरपोरेट तंत्र के हाथों सौंप दी जाये। वे कपोलकल्पना से दूर
रहकर समाज और जन-संघर्ष के कवि हैं। उनकी कविताओं का स्वर हारने और झुकने वाला
नहीं है।
“हम एक बित्ता कफ़न के लिए
तुम्हारे थानों के थान फूँक देंगे
और जिस दिन बाहों से बाहों को जोड़कर
हूमेगी ये जनता
तो तुम नाक से खून ढकेल दोगे मेरे दोस्त”
विद्रोही
की कविता को सौन्दर्य बोध और भाषा की दृष्टि से देखा जाये तो हमें ग्रामीण जीवन की
अनुभूति होती है। इसके बावजूद इनका तेवर मारक है। वाचक कवि होने के नाते इनकी
कविताओं में भावावेग अधिक देखने को मिलता है। विद्रोही की कवितायें, फासिस्ट सरकार
का सामना कर रही संघर्षरत जनता की सशक्त आवाज हैं, और यहीं उनके कविकर्म की
सार्थकता भी है। इस संदर्भ में नयी खेती, नानी, देश मेरे, दो बाघों की कथा, पुरखे, नयी दुनिया, सवाल, आदमी तथा लम्बी कविता-
दंगो के व्यापारी, चूहे के पक्ष में बयान, इत्यादि विद्रोही जी की कविताएं
जनमानस की प्रेरणा हैं। यदि कवि को सम्पूर्ण पक्ष में जानना है तो इन कविताओं को पढ़ा
जाना जरूरी है। विद्रोही तो यह बात अच्छी तरह से समझते थे कि लोग एक दूसरे को
बचाकर ही दुनिया बचा सकते हैं। मगर विद्रोही को समझने के लिए पाठक को उस प्रतिरोधी, जनवादी, मध्यवर्गीय अनुशासन से रहित
चेतना के साथ खड़ा होना पड़ेगा जहां विद्रोही खड़े थे-
“तुम वे सारे लोग मिलकर मुझे
बचाओ
जिसके खून के गारे से पिरामिड बनें,
मीनारें बनीं, दीवारें बनीं,
क्योंकि मुझे बचाना उस औरत को बचाना है,
जिसकी लाश
मोहनजोदड़ो के तालाब की आख़िरी सीढ़ी पर पड़ी है।
मुझको बचाना उन इंसानों को बचाना है,
जिनकी हड्डियाँ तालाब में बिखरी पड़ी हैं।
मुझको बचाना अपने पुरखों को बचाना है,
मुझको बचाना अपने बच्चों को बचाना है,
तुम मुझे बचाओ! मैं तुम्हारा
कवि हूँ!”
विद्रोही
जी का इतिहास बोध इनकी कविताओं में साफ़ तौर पर देखा जा सकता है। विद्रोही की
कवितायेँ वर्तमान में पसरे स्त्रियों और गुलामों के दमन की ही शिनाख्त नहीं करती
हैं बल्कि अतीत में हुए अन्याय और अन्याय की पीठ पर खड़ी हुई सभ्यताओं की जाँच भी करती
हैं।
“मैं साइमन
न्याय
के कटघरे में खड़ा हूँ
प्रकृति
और मनुष्य मेरी गवाही दें!
मैं
वहां से बोल रहा हूँ
जहाँ
मोहनजोदड़ो के तालाब की आखिरी सीढ़ी है
जिस पर
एक औरत की जली हुई लाश पड़ी है
और
तालाब में इंसानों की हड्डियाँ बिखरी पड़ी है.
इसी
तरह एक औरत की जली हुई लाश
आप को
बेबिलोनिया में भी मिल जाएगी
और इसी
तरह इंसानों की बिखरी हुई हड्डियाँ
मेसोपोटामिया
में भी.
मैं
सोचता हूँ और बारहा सोचता हूँ
कि
आखिर क्या बात है कि
प्राचीन
सभ्यताओं के मुहाने पर
एक औरत
की जली हुई लाश मिलती है
और
इंसानों की बिखरी हुई हड्डियाँ मिलती हैं
जिनका
सिलसिला
सिथिया
की चट्टानों से लेकर बंगाल के मैंदानों तक
और
सवाना के जंगलों से लेकर कान्हा के वनों तक चला जाता है”
कवि
विद्रोही की कविताओं में स्त्रीवाद भावुक बेशक है पर उलझाव और जटिलता से भरा नहीं
है।
इनका
स्त्रीवाद शहरों, गांवों-कस्बों से होता हुआ भारतीय समाज की अंतिम स्त्री तक जाता
है।
“मैं इस औरत की जली हुई लाश पर
सर पटक
कर जान दे देता अगर
मेरे
एक बेटी न होती तो…
और
बेटी है
कि
कहती है
कि
पापा तुम बेवजह ही हम
लड़कियों
के बारे में इतने भावुक होते हो!
हम लड़कियां
तो लकड़ियाँ होती है
जो बड़ी
होने पर चूल्हे में लगा दी जाती हैं”
विद्रोही
अपनी कविताओं में समाज में स्त्रियों की स्थिति पर सिर्फ खोखली सहानुभूति नहीं
प्रकट करते हैं बल्कि वे उसके साथ खड़े होकर, उसके संघर्ष को स्वर देते हैं। इनकी कविता
पितृसत्ता और उत्पीड़क समाज के विरुद्ध प्रतिरोध दर्ज करती है।
“मैं उन औरतों को
जो कुएँ में कूदकर या चिता में जल कर मरी हैं
फिर से जिंदा करूँगा
और उनके बयानात को
दुबारा कलमबंद करूँगा
कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया
कि कहीं कुछ बाक़ी तो नहीं रह गया
कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई
क्योंकि मैं उस औरत के बारे में जानता हूँ
जो अपने एक बित्ते के आँगन में
अपनी सात बित्ते की देह को ता-ज़िंदगी समोए रही और
कभी भूलकर बाहर की तरफ झाँका भी नहीं”
“विद्रोही होगा हमारा कवि” पुस्तक के संपादक संतोष
अर्श जी पुस्तक में लिखते हैं, “वास्तव में विद्रोही को किसी खाँचे में फिट
करने से उसके जीवन-संघर्ष और रचना-विवेक का अवमूल्यन होगा। वह लोकोन्मुख जन-कविता
का ऐसा नायाब हीरा है जो कविता की समझ, जीवन की सतत प्रतिरोधी शक्ति, संघर्ष की क्षमताओं और भाषिक
व्यंजना की अनुगूँज से परिचित लोगों को ही दस्तयाब होगा। विद्रोही ने इस
समझौतावादी लावारिस समाज का मूषक-स्पर्धी हिस्सा बनने से इन्कार कर भाषा और कविता
का संघर्षशील मार्ग चुना। अपना मार्ग चुनकर उसने अपनी चुनौतियाँ भी चुनीं। हिन्दी
के लगभग कृत्रिम हो चुके कविता संसार में उसकी उपस्थिति दर्ज करने वाला कोई नहीं
है, इस सत्य से भी कवि वाकिफ था, किन्तु उसने न्यूनतम भाषा और
कागद-लेखी का प्रयोग कर भी अपनी कविता को लोकप्रियता के उस शिखर पर पहुँचाया, जहाँ उसका यह चुनाव सफल
सिद्ध हुआ।“
अक्टूबर, २०१५ में यूजीसी
के सामने धरने पर बैठे जेएनयू के छात्रों का, अक्यूपाई यूजीसी नाम से चल रहा एक आंदोलन
फेलोशिप खत्म करने, शिक्षा का निजीकरण करने और मौजूदा सरकार की नीतियों के खिलाफ था। यह
प्रदर्शन बहुत लंबा चला था। इसी आंदोलन में कवि विद्रोही अपनी कविताओं के साथ
छात्रों के साथ खड़े थे। यह आंदोलन उनके जीवन का आखिरी आंदोलन साबित हुआ।
‘मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता
भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूँ
कि पहले जन-गण-मन
अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता
मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग
पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और
आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने
लगता है
या फिर तब जब वनबेला
फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता
दहक कर महके
और मित्र सब करें
दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या
तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों
को मारकर तब मरा’
सामाजिक प्रतिष्ठा, सम्मान-पुरस्कार आदि भले ही नहीं मिले
पर अपनी रचनात्मक प्रतिबद्धता के साथ विद्रोही जी हिन्दी समकाल के विरल कवि हैं।
रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ :
संक्षिप्त परिचय |
|
पूरा
नाम |
रमाशंकर
यादव |
उपनाम
|
‘विद्रोही’ |
जन्म |
०३
दिसंबर १९५७, आहिरी फिरोजपुर गाँव, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश, भारत |
मृत्यु |
०८
दिसंबर २०१५, नयी दिल्ली, भारत |
पिता
|
रामनरायण
यादव |
माता
|
करना
देवी |
पत्नी |
शांति
देवी |
पुत्री
|
अमिता
कुमारी |
शिक्षा |
स्नातक
|
व्यवसाय |
|
मन
व् कर्म से |
कवि
(आजीवन) |
रचना-संसार |
|
कविता
संग्रह |
“नयी
खेती” २०११, “विद्रोही होगा हमारा कवि” |
डॉक्यूमेंट्री
|
“मैँ
तुम्हारा कवि हूँ” नितिन
पमनानी और इमरान द्वारा निर्देशित इस फिल्म को अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा श्रेणी में
सर्वश्रेष्ठ वृतचित्र का पुरस्कार मिला। |
किसने
क्या कहा/महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ |
“विद्रोही
कुशाग्र बुद्धि के थे, अन्याय से उपजी अराजकता उनमें थी। बोलचाल की भाषा में
लिखी उनकी कवितायें पाठकों पर प्रभाव छोड़ती हैं।“ --जेएनयू
के शिक्षक, वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय “वे
आंदोलन के बीच रहकर कविता रचते हैं, उनका स्वभाव कबीर और नागार्जुन जैसा फक्कड़
है, सो कवितायें सीधा वार करती हैं।“ --जसम
के महासचिव प्रणय कृष्ण “विद्रोही
का जीवन उनकी कविताओं की सम्पूर्ण संरचना में अंतस्थ है। उन्होंने कवि होने का
कोई उपक्रम नहीं किया, वे कवि थे, उन्होंने सिद्ध किया।“ --उदय
प्रकाश विद्रोही
में मनुष्यता कूट-कूट कर भरी है। एक जनकवि की प्रतिबद्धता जीने वाले विद्रोही
जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। वस्तुतः वे संवेदनात्मक ज्ञान और
ज्ञानात्मक संवेदना के लोकधर्मी कवि हैं। --प्रो.
चौथीराम यादव |
संदर्भ :
https://www.hindwi.org/poets/ramashankar-yadav
समकालीन जनमत
समालोचन
विद्रोही होगा हमारा कवि/ संतोष अर्श
यूट्यूब
लेखक परिचय
आभा खरे
एक सशक्त व्यक्तित्व ने एक प्रखर व्यक्तित्व पर लिखा वो साधारण कैसे हो सकता. आभा दीदी आपकी कलम के शायराना मिज़ाज़ के हम कायल पर आलेख की लेखनी भी प्रभावित और प्रवाहित करती हुई. बहुत आभार और बधाई
ReplyDeleteआभा, तुमने जन संघर्ष के कवि रमा शंकर यादव के अद्भुत व्यक्तित्व और कृत्तित्व का क्या समृद्ध खाका खींचा है! शीर्षक से लेकर कविताओं का चुनाव, उनके 'विद्रोही' होने का किस्सा सब रोचक लगा। इस शानदार और जानदार आलेख के लिए तुम्हें बधाई और धन्यवाद
ReplyDeleteआभा, रामशंकर यादव •विद्रोही’ का जीवंत परिचय कराता लेख और उसमें दिए बेबाक उदाहरण उनकी अत्युत्तम तस्वीर खींच रहे हैं। क्या तेवर थे इस कवि के और क्या था बात को कहने का तरीक़ा! इस उत्तम लेख के लिए सधन्यवाद बधाई।
ReplyDeleteआभा जी नमस्ते। आपने रामशंकर जी पर अच्छा लेख लिखा। लेख के माध्यम से उनके बारे में विस्तार से जानने का अवसर मिला। लेख में शामिल कविताओं के अंश भी बढ़िया है। यह लेख भी आपका रोचक एवं जानकारी भरा है। लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteअभिनंदन
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